अनुनाद

अनुनाद

लोक और कविता – 1 /लोक की अवधारणा तथा लोकधर्म – जितेन्द्र कुमार




लोक की अवधारणा को बिलकुल नए अध्येता अब मिल रहे हैं। मेरे दो विद्यार्थी जितेन्द्र कुमार और शिव प्रकाश त्रिपाठी इसी सत्र में शोध के लिए पंजीकृत हुए हैं। इनके शोध के विषय लोक आधारित नहीं हैं, लेकिन ये दोनों इस अवधारणा के सम्पर्क में अपने निष्कर्ष प्रस्तुत करना चाहते हैं। स्पष्ट कर दूं कि कोई सरलीकृत निष्कर्ष दरअसल होता नहीं और ये छात्र वैसा करने की स्थिति में हैं भी नहीं पर इनका मूल परिवेश लोक का है – जितेन्द्र, अवध और शिव, बुन्देलखंड से तआल्लुक रखते हैं। इनके ये प्रयास पूर्वतथ्यों का कुछ नए विश्लेषण और उदाहरणों के साथ किया गया पुन:पाठ है। यही शुरूआती क़दम आगे बड़ी यात्राओं में बदलते हैं। मुझे अपने ही एक और छात्र अनिल कार्की को ऐसे सफ़र में आते और आगे निकलते देखने का सुख मिल रहा है – अनिल का कहानी संग्रह अनुनाद पुरस्कार से सम्मानित हो अब प्रकाशन की प्रक्रिया में है और कविता संग्रह भी तैयार हो रहा है। ये दोनों छात्र भी रचनात्मक ऊर्जा अनुभव करते हैं और आजकल अनिल के ही साथ रंगमंचीय गतिविधियों में व्यस्त भी हैं।

यहां जितेन्द्र का लेख कुछ आधारभूत पदों पर विचार करता है और शिव का लेख उसी को विस्तार देते हुए प्रसंग को समकालीन कविता तक लाता है। मैं इन लेखों को दो दिन के अन्तराल पर लगा रहा हूं ताकि बीच में एक अवकाश समीक्षा के लिए मिले। आज प्रस्तुत है जितेन्द्र का लेख – दो दिन बाद इसी क्रम में शिव का लेख आप पढ़ सकेंगे। 
*** 
लोक शब्द का कोषगत अर्थ है ‘‘संसार‘‘, जिसके विलोम शब्द के रूप में हम परलोक का प्रयोग करते हैं, इस प्रकार लोक एक व्यापक अर्थ ग्रहण कर लेता है| कोषगत अर्थ को अपनाने पर लोक में ही जंगल, पर्वत, सागर, नगर , ग्राम, शोषक, शोषित, हीन ,अभिजात्य, शुभ ,अशुभ ,दुष्ट ,सज्जन, चर, अचर सभी कुछ समहित हो जाता है| इस प्रकार यह समष्टिगत स्वरूप धारण कर लेता है, परन्तु व्यवहार में लोक शब्द प्रयोग अनेक प्रकार से किया जाता है, जिससे इस शब्द के अर्थ का संकुचन, प्रांकुचन और परिवर्तन होता रहता है। इसे प्रत्यय की भांति प्रयोग करने पर द्युलोक, परलोक, पाताललोक आदि कुछ ऐसे शब्द बनते हैं ,जो कि इसे एक व्यापक अर्थ प्रदान करते हैं। यदि हम इसे उपसर्ग की भांति प्रयोग करते हैं, तो लोक जीवन, लोक संस्कृति, लोक गीत, लोकोक्ति आदि में इसके व्यापक अर्थ का संकुचन हो जाता है।

हिन्दी साहित्य में लोक जीवन एक बहुधा प्रयुक्त शब्द है। लोक जीवन से आशय किसी स्थान  विशेष के अन्दर रहने वाले लोगों के आचार-विचार ,रहन- सहन के ढंग और उनकी मान्यताओं संस्कृति आदि से होता है, और क्षेत्र विशेष की अपनी अपनी अलग अलग मान्यताएं ,विश्वास, रूढि़या और रिवाज होते हैं , जो उसके समकालीन अन्य संस्कृतियों से उसे भिन्न करते हैं| उदाहरण के लिए अवध का लोक जीवन, ब्रज प्रदेश का लोक जीवन आदि जिसमे अवध या ब्रज प्रदेश के रहने वाले व्यक्तियों के आचार, विचार, विश्वास, मान्यताओं के साथ ही वहां के पेड़, पौधो, जंगल, नदी, पर्वत, ऋतुएं तक आ जाती हैं, और वहाँ परम्परित रूप से गाये जाने वाले गीतों को लोक गीत, प्रचलित दन्त कथाओं को लोक कथाएं, प्रचलित अन्धविश्वासों को लोकाचार तथा उस क्षेत्र विशेष में प्रयुक्त उक्तियों को लोकोक्ति की संज्ञा प्रदान की जाती है। इस प्रकार लोक क्षेत्रीयता का अर्थ ग्रहण कर लेता है।

हिन्दी साहित्य में लोक शब्द का प्रयोग साधारण जनता के लिए भी किया जाता है।शिव कुमार मिश्र के अनुसार ‘‘लोक शब्द हिन्दी में साधारण जन के लिए भी प्रयुक्त होता है | जिसका विलोम अभिजन या अभिजात वर्गों के लोग हैं। जब शुक्ल जी लोक जीवन की बात करते हैं तो उनका मतलब साधारण जनता के इसी विशाल भाग से होता है। …………………………………………………………………..यह संसार या समाज जिसमें हम रहते हैं- एक-सा नही है। इसमें अमीर भी हैं गरीब भी, उच्च वर्गों के लोग भी हैं, निम्न वर्गों के लोग भी, शिक्षित अशिक्षित सभी इसमें है। इन सबके अपने अपने हित हैं जो आपस में टकराते भी हैं। हमारा यह समाज वर्गों में बॅंटा हुआ समाज है, जिसमें अधिकांश जनता श्रम करने वाली जनता है और एक छोटा अंश वह है जो सम्पत्तिशाली है। बिना श्रम किये दूसरों के श्रम से लाभ कमाता है उत्पादन के साधनों का स्वामी है , समाज की गतिविधियों ,आचार व्यवहारों, कानून कायदों आदि का निर्माता और नियंता है।‘‘     
                                                                           (भक्तिकाव्य और भक्तिआन्दोलन पृष्ठ 275)

उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि लोक शब्द का प्रयोग साधारण जनता के लिए भी किया जाता है तथा यह अभिजात्य का विलोम माना जाता है। इसी प्रकार लोक शब्द का प्रयोग ग्रामीण जन-जीवन के लिए भी किया जाता है जिसका विलोम नगरीय जन जीवन है। उदाहरण के  लिए सूरदास के काव्य में लोक जीवन के तत्वों की समीक्षा करते हुए प्रेम शंकर कहते हैं  ‘‘सूर लोक उपादानों  से अपनी सौन्दर्य दृष्टि रचते हैं, इसलिए उनका काव्य नागरिक सौन्दर्य के अभिजात्य का निषेध करता है। अलंकरण के स्थान पर यहाँ सहजमयता है और जीवन की निर्बन्ध भूमि यहाँ देखी जा सकती है। गोपिकाएँ मथुरा की चतुर नगर नवेलियों पर व्यंग करती हुई वहाँ के लोगों को रस लम्पट कहती हैं । भ्रमर से उनकी तुलना करते हुए स्वयं को सरल सहज कहती हैं । वे अपने प्रेम मार्ग के विषय मे आश्वस्त हैं उसे सीधा मार्ग कहती हैं : काहे को रोकत मारग सूधों (4508) भ्रमर गीत भागवत की परम्परा के क्रम में है पर इसे ग्राम नगर के वैचारिक द्वन्द के रूप में भी देखा जाना चाहिए।‘‘                                   
                                     (सूर मूल्यांकन, पुर्नमूल्यांकन सम्पादक सं0 परमानन्द श्रीवास्तव पृष्ठ 44) 

इस प्रकार हम देखते हैं कि लोक शब्द गाँव का बोधक है बरक्स शहर के । शहर आधुनिकता का बोधक होता है जहाँ नये नये व्यवसाय हैं , नयी आशाएं हैं ,वैज्ञानिक तकनीक है, नित्य प्रति बदलते मानव मूल्य भी हैं, टूटती वर्जनाएं हैं, मानसिक विडम्बना भी है, अजनबियत और कुण्ठा के साथ साथ आधुनिक भाव बोध भी है, जहाँ समाज तेजी से बदल रहा है| सम्बन्ध बदल रहे हैं, नयी नयी तकनीकों के कारण परिवर्तन बहुत ही तीव्र गति से हो रहा है । इसके विपरीत गाँव लगभग यथास्थितिवादी हैं  जहाँ परिवर्तन नही है । सम्बन्धों में सहजता है, आत्मीयता है, सहवास से उपजी सहानुभूति की व्यापकता इतनी है कि वह मनुष्यों के आतिरिक्त पशुओं, पक्षियों के साथ ही साथ वनस्पतियों को भी अपने विशाल आंचल में समोये हुए है , परन्तु इस प्रकार से तो लोक आधुनिकता का विरोधी तथा यथास्थितिवादी अर्थ प्रदान करने लगता है , परन्तु इस अर्थ का परीक्षण हम आगे करेंगे।

लोक धर्म के बारे में आचार्य शुक्ल का मत है‘‘ संसार जैसा है उसे वैसा मानकर उसके बीच से एक-एक कोने को स्पर्श करता हुआ जो धर्म निकलेगा वही लोक धर्म होगा । जीवन के किसी एक अंग मात्र को स्पर्श करने वाला धर्म लोक धर्म नही, जो धर्म उपदेश द्वारा न सुधरने वाले दुष्टों और अत्याचारियों को दुष्टता के लिए छोड़ दे, उनके लिए कोई व्यवस्था न करे ,वह लोक धर्म नही व्यक्तिगत साधना है। यह साधना मनुष्य की वृत्ति को ऊँचे  से ऊँचा ले जा सकती है जहाँ वह लोक धर्म से परे हो जाती है । पर सारा समाज इसका अधिकारी नही। जनता की प्रवृत्तियों का औसत निकालने पर धर्म का जो मान निर्धारित होता है वही लोक धर्म होता है।’’                                                      
                                                 (गोस्वामी तुलसीदास: प्रकाशक नागरी प्रचारिणी सभा पृष्ठ-15)

शुक्ल जी द्वारा दी गयी परिभाषा कसौटी पर तुलसीदास और उनकी लोकधर्म की अवधारणा एकदम सटीक उतरती है। गोस्वामी जी का लोक का विस्तृत ज्ञान, आम जनजीवन के बीच उनकी गहरी संम्पृक्ति तथा उनके विशाल चिन्तक मानस ने अपने युग की विसंगतियों की खरी पहचान की तथा उनको दूर करने के लिए उन्होने राम चरित्र को चुना तथा उसमें सौन्दर्य शक्ति और शील का समन्वय कर दशरथ नन्दन श्रीराम को परमब्रह्म के रूप में स्थापित किया। अपने महत् प्रयासों से गोस्वामी जी ने सगुण- निर्गुण, शैव- वैष्णव, शाक्त आदि का समन्वय किया। आचार्य शुक्ल की दी गई परिभाषा के अनुसार तुलसी के राम धर्म रक्षार्थ तथा दुष्टों के दलन के लिए अवतरित भी होते हैं ।

                            जब जब होई धरम कै हानी, बाढ़ै असुर अधम अभिमानी।
                            तब तब प्रभु धर विविध सरीरा, हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा।।
                         
आचार्य शुक्ल जी के अनुसार
‘‘भक्ति और प्रेम के पुट पाक द्वारा धर्म को रागात्मिका वृत्ति के साथ सम्मिश्रित कर बाबा जी ने ऐसा रसायन तैयार किया जिसके सेवन से धर्म मार्ग में कष्ट और श्रान्ति न जान पडे़।…………… मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति और निवृत्ति की दिशा को लिए हुए धर्म की जो लीक निकलती है, लोगों के चलते चलते वह चौड़ी होकर सीधा राजमार्ग हो सकती है|’’                                                        
                                    (गोस्वामी तुलसीदास: प्रकाशक काशी नागरी प्रचारिणी सभा-पृष्ठ-22)  

इस प्रकार तुलसी का धर्म आचार्य शुक्ल जी की आशानुरूप लोक धर्म का आदर्श उदाहरण है। परन्तु हमे यह भी ध्यान देना होगा कि अपनी तमाम सारी उपलब्धियों के बावजूद गोस्वामी जी की अपनी कुछ सीमाएं भी हैं । फिर भी उनके समय को देखते हुए उनके समग्र व्यक्तित्व का परीक्षण करते हुए अपनी उपलब्धियों और कमियों के बावजूद वे हमारे लिए ग्राहृय हैं ।

भक्तिकाल के दूसरे प्रमुख कवि सूरदास जी हैं | सूरदास के काव्य में ब्रज प्रदेश का लोक जीवन अपनी सम्पूर्ण सुषमा के साथ जीवंत को उठा है। सूरदास बल्लभाचार्य द्वारा बल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित थे और बल्लभाचार्य की यह उक्ति जगत प्रसिद्ध है कि ‘‘देश म्लेच्छक्रांतेषु‘‘ देश म्लेच्छो से आक्रान्त है। जिससे त्राण केवल भगवत भक्ति के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है ऐसे में यह जिज्ञासा आवश्यक रूप से होती है कि क्या सूर में भी यह भावना पायी जाती है और जब हम इस दृष्टिकोण से सूर के काव्य की समीक्षा करते हैं तो हमें वहाँ  ऐसा कुछ प्राप्त नही होता । सूर भले ही वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित हों परन्तु उनके सामने तुलसी जैसा कोई लक्ष्य नही था। वह श्रीनाथ जी के मन्दिर में नियुक्त कीर्तनिया थे। परन्तु सूर ने कृष्ण के लोक रंजक रूप के साथ-साथ लोक रक्षक रूप का भी वर्णन किया है। जिसमें कगासुर ,बकासुर व पूतना वध तथा गोवर्धन धारण आदि प्रमुख है।

आचार्य श्री की लोक धर्म की कसौटी पर सूर काव्य को देखने के परिप्रेक्ष्य में प्रेमशंकर कहते हैं ‘‘लोक रंजक और लोक रक्षक का प्रश्न उठाना ही बहुत प्रासंगिक नही है उसमें श्रेय प्रेय  की सम्मिलित उपस्थिति होती है। प्रश्न अनुपात का हो सकता है। जिसके मूल में कवि की अपनी सामाजिक दृष्टि सक्रिय रहती है पर व्यक्तित्व में सौन्दर्य की आभा लोक धर्म की महानता के बिना कैसे प्रतिष्ठित होगी। उच्चतर मानव मूल्यों से परिचालित लोक कल्याण के लिए किये गये कर्म ही तो सौन्दर्य बनते हैं । सूर के कृष्ण की कई भूमियां हैं  और यह सराहनीय है कि कवि ने सौन्दर्य चित्रण, रूपांकन, प्रेमभाव लीला आदि के साथ समर्थ सामाजिकता का निष्पादन किया है जिसे लोक धर्म अथवा लोक मंगल कहा गया है।……………. क्या यह सम्भव है कि कृष्ण जैसे काव्य नायक को लोक संपृक्ति से गुजारे बिना उसके व्यक्तित्व को वृहत्तर दीप्ति दी जा सकती है | सूर लोक रक्षक तथा लोक रंजक का द्वैत पाटते चलते हैं।    
                                         (सूरदास मूल्यांकन पुर्नमूल्यांकन:सं0 परमानन्द श्रीवास्तव पृष्ठ-4243)

उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि सूर ने कृष्ण के लोक रंजक के साथ ही साथ लोक रक्षक व्यक्तित्व को भी अपने काव्य का उपजीव्य बनाया। परन्तु उनका मन कृष्ण के लोक रंजक रूप में ही अधिक रमा है। उन्होने जिस समाज का चित्रण किया है वहाँ वंशी की धुन सुनकर गोपियां लोक लाज की मर्यादा का त्याग करके यमुना किनारे दौड़ी चली जाती हैं ,रात-रात भर महारास होता है। अब यहाँ  पर कौन से लोक के प्रतिमान बनेगें ? परन्तु कहना न होगा कि सूर के यहाँ  प्रेम, स्वच्छन्द प्रेम, लौकिक प्रेम इतनी पवित्रता और गरिमा के साथ प्रकट हुआ कि यह अलौकिकता की दिव्य आभा से मण्डित हो उठा अतः प्रेम ही सूर के यहाँ लोक धर्म है।

अब यदि मीरा बाई की चर्चा करें तो उनके काव्य में राजस्थान और गुजरात के लोक जीवन के बहुधा चित्र प्राप्त होते हैं। जिसका वर्णन उन्होने इतनी गहन संपृक्ति से किया है कि सम्पूर्ण वातावरण आँखों के सामने चित्रपटल सा उपस्थित हो जाता है। परन्तु यदि हम लोक के आदर्शों, मान्यताओं और नियमों के अनुसार मीरा के काव्य की विवेचना करें  तो लोक धर्म की पारिभाषिक अर्थान्विति  से उनकी संगति बैठनी मुश्किल हो जायेगी।

‘‘लोक कहै मीरा भयी बांवरी, सास कहै कुल नासी‘‘ या फिर‘‘ संतन ढिग बैठ-बैठ लोक लाज खोई‘‘ ऐसे अनगिनत उदाहरण मीरा के काव्य में भरे पड़े हैं जहाँ  पर मीरा लोक लाज, कुल कानि की मर्यादा को ठोकर मारती नजर आती हैं । अपने सांवरिया के लिए राजमहलों को त्याग कर दर दर भटकती फिरीं । तो लोक की उपरोक्त परिभाषा तथा मीरा के काव्य के उदहरणों से मीरा को लोक विरोधी भी सिध्द किया जा सकता है। इस प्रकार यह मानना पडे़गा की लोक और लोकधर्म की कोई बंधी बधायी परिभाषा नही दी जा सकती है।

यदि शुक्ल जी द्वारा बतायी गयी परिभाषा के अनुकूल कबीर के काव्य पर विचार करें तो कबीर का धर्म आचार्य शुक्ल जी द्वारा बतायी गयी परिभाषा के अनुकूल नही पड़ता है। क्योंकि  कबीर का धर्म मानव धर्म है और वहाँ  जाति-पाति, ऊॅच-नीच आदि का आडम्बर और भेदभाव नही है। कबीर के यहाँ व्यक्तिगत साधना पर अधिक जोर दिया गया है जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने चित्त तथा आत्मा को निर्मल बना सकता है। कबीर तो लोक में प्रचालित लोकचारो, वाहृयाचारों, अंधविश्वासों तथा परम्पराओं का खंडन करते हैं । शुक्ल जी के अनुसार व्यक्तिगत साधना का मार्ग समाज के लिए उपयुक्त नही है। कबीर तो लोक को फटकारते भी हैं  ‘‘अरे इन दोउन राह न पाई, हिन्दुअन की हिन्दुआई देखी तुरकन की तुरकाई‘‘ इसके अतिरिक्त जीवन भर समाज में व्याप्त कुरीतियों व अंध विश्वासों का खण्डन करते रहे तथा अपने जीवन के अन्तिम महाप्रयास द्वारा काशी छोड़कर मगहर चले गये। इस लोक विश्वास को तोड़ने के लिए मगहर में मरने से नरक वास होता है। काशी छोड़ते समय उन्होने लोक की सम्बोधित करते हुए कहा था ‘‘लोका तुम हो मति के भोरा, जो काशी तन तजै कबीरा तो रामहि कौन निहोरा, जस काशी तस मगहर ऊसर हृदय राम जो प्यारा‘‘ परन्तु कबीर द्वारा किये गये कार्यों, उनकी बानियों की विस्तृत आलोचना समालोचना के बाद आज वर्तमान में हम उन्हे बुध्द, गाँधी और अम्बेडकर जैसे महापुरूषों की श्रेणी में रखते हैं । जिन्होंने न केवल अपने युग की विसंगतियों की पहचान की अपितु उन पर प्रचण्ड प्रहार करते हुए एक समकालीन स्वस्थ जीवन दृष्टि भी प्रदान की।  शिव कुमार मिश्र कहते हैं वे वस्तुतः एक नये धर्म की बुनियाद रखना चाहते थे, वह था मानव धर्म| वे हिन्दू मुसलमान, जाति पाँति से परे एक ऐसी मनुष्यता के विश्वासी थे जहाँ मनुष्य और मनुष्य में भेद न हो। कबीर के इस प्रयत्न को, उनकी इस सोच को परम्परागत समाज व्यवस्था तथा धर्म शास्त्र के विरोध को उनका लोक धर्म विरोधी आचरण कहा जाय या एक नये लोक धर्म की प्रतिष्ठा।

तत्वतः और वस्तुतः कबीर एक नये धर्म मानव धर्म की प्रतिष्ठा करना चाहते थे। जहाँ मानव मात्र की एकता हो, सभी सम हो, और ईश्वर प्राप्ति का अधिकार सबको हो। परन्तु इसके मार्ग में तत्कालीन बाहृयाडंबर, शास्त्र विहितमान्यताएँ सबसे बड़ी बाधा थे। अतः कबीर ने शास्त्रों और पुराणों की भी निन्दा की। और समाज में व्याप्त कुरीतियों तथा अंधविश्वासों पर कुठाराघात किया। फलस्वरूप कबीर को शास्त्र विरोधी माना गया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही लक्षित किया है कि भक्ति युग का मुख्य अंतर्विरोध लोक और शास्त्र का द्वन्द है। और इसी लोक और शास्त्र के द्वन्द को डा0 राम विलास शर्मा लोक जागरण कहते हैं।

शास्त्र समाज को नियम प्रदान करता है, एक व्यवस्था प्रदान करता है, जिससे सामाजिक, शान्ति एवं सुरक्षा का एहसास करते हुए एक व्यवस्थित जीवन सके । परन्तु समय परिवर्तन के साथ-साथ लोक की स्थितियां परिवर्तित हो जाती हैं , शास्त्र एवं उनकी मान्यताएं पुरानी पड़कर अग्राहृय तथा कभी कभी तो हेय और घृणित तक हो जाती हैं  फलस्वरूप लोक में उनके विरूध्द आवाज उठती है तथा लोक और शास्त्र का द्वन्द शुरू हो जाता है। लोक समय के साथ-साथ परिवर्तनशील है तथा उसमे नित नयी उदभावानाएं  होती रहती हैं । इस प्रकार लोक प्रगतिशील तथा शास्त्र प्रतिगामी सिध्द हो जाते हैं । इस प्रकार जो प्रश्न हमने गाँव  और शहर को लेकर उठाया था तथा लोक और नगर को लेकर जो अर्थ निष्पत्ति वहाँ  हुई थी वह यहाँ आकर एकदम विपरीत हो जाती है तथा यह प्रश्न और उलझ जाता है।

परन्तु यदि हम समग्रता पूर्वक विवेचना करें तो यह ज्ञात होता है कि लोक एक व्यापक अर्थान्वित प्रदान करने वाला शब्द है जिसका अर्थ अपने सन्दर्भ के अनुरूप परिवर्तित होता रहता है। लोक शब्द का प्रयोग संसार के लिए होता है कुछ शब्दों में उपसर्ग की तरह प्रयोग करने पर इसके अर्थ का संकुचन तथा प्रत्यय की तरह प्रयोग करने पर इसके अर्थ का प्रांकुचन होता है और सन्दर्भ विशेष में इसका अर्थ परिवर्तित होता रहता है। जैसे शहर के बरक्स लोक ग्रामीण सभ्यता का बोधक होता है। और बहुत कुछ यथास्थितिवादी तथा प्रतिगामी अर्थ देता है। शास्त्र के विपरीत लोक प्रगतिशीलता तथा आधुनिकता के अर्थ का बोध कराता है, और यदि हम लोक धर्म की बात करें तो उपरोक्त तमाम कवियों के विवेचन से स्पष्ट होता है कि उसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा नही दी जा सकती। सभी भक्त कवियों का अपना अपना अलग दृष्टिकोण है तथा उसी के अनुरूप उनका अपना-अपना अलग-अलग लोक धर्म है। यह बात अवश्य है कि वे सभी जिस एक बिन्दु पर सहमत हैं वह है प्रेम और यह प्रेम इतना विशाल है कि यह अपनी व्यापकता में चर अचर सभी को समाहित कर लेता है। इस प्रकार हम देखते हैं  कि समय तथा परिस्थिति के अनुरूप लोकधर्म की अवधारणा निरन्तर परिवर्तन शील रही है जिसमें केवल और केवल एक सनातन मूल्य सुरक्षित और शाश्वत रह सकता है और वह है प्रेम जायसी कहते हैं  कि ‘‘प्रेम अदिष्ट गगन सौं ऊॅंचा‘‘ अन्यथा पहले से कहा-सुना, विधि-निषेध सब झूठे पड़ जाते हैं तथा धर्म सम्प्रदाय बन जाता है, शब्द शास्त्र बन जाते हैं । और एक नये लोकधर्म की आवश्यकता बननी शुरू हो जाती है।
                                                                    ****
                                                        

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top