Wednesday, May 28, 2014

सुबह की नब्ज पर- सांस्कृतिक -कलात्मक आन्दोलन की राह में माया एंज़ेलो


विपिन चौधरी की लिखी जीवनी मैं रोज़ उदित होती हूं :माया एंजेलो का विद्रोही जीवन से एक अंश 



1950 के दशक के अंत में माया अन्ज़ेलो, अश्वेत राइटर्स गिल्ड में शामिल हो गयी. वहीँ पर माया की मुलाकात एक प्रमुख अश्वेत लेखक जेम्स बाल्डविन से हुयी बाद में चल कर बेल्ड्विन उनके भाई, दोस्त और सलाहकार बन उनके दुःख- सुख में भागीदार बनते रहे . १९५० में अमेरिका में बनी 'हार्लेम राइटर्स गिल्ड' एफ्रो- अमेरिकन लेखक औरकलाकारों से संबंधित सबसे पुरानी संस्था थी. रोसा गे, जॉन ओलिवर किल्लेंस, डॉ जॉन हेनरिक क्लार्के, विल्लर्ड मूर और वाल्टर क्रिसमस जैसे ख्यातिनाम लेखक, विचारक और कार्यकर्ताओं ने इस संस्था का गठन किया था. इस संस्था का मुख्य उद्देश्य प्रवासी अफ़्रीकी लेखकों के कार्यो के विकास और उसके प्रकाशन में सहायता करना भी शामिल था. जब माया अन्ज़ेलो इस अश्वेत कला आंदोलन के साथ जुडी तो उनकी सक्रिय भागीदारी ने इस आन्दोलन में एक ईंधन के रूप में काम किया। 


हार्लेम नवजागरण के विपरीत, अश्वेत राइटर्स गिल्ड के ब्लैक आर्ट आन्दोलन ने नागरिक अधिकारों के प्रबुद्ध नेता मल्कोल्म एक्स की हत्या के बाद से गति पकड़ी। उसके बाद तो यह आन्दोलन एक पॉवर आन्दोलन बन गया, तभी इस संस्था ने एक कट्टरपंथी और आतंकवादी सौन्दर्य को जैसे गले से लगा लिया और यह एक उग्र कला आदोलन के रूप में जाना जाने लगा. माया अन्ज़ेलो 'हार्लेम लेखक संघ' की एक मजबूत इकाई बन गयी थी.अमरी बरक और जेम्स बाल्डविन के साथ मिलकर अफ्रीकन-अमेरिकन लोगों के लिये रचनात्मकता और सशक्तिकरण के लिये दरवाज़े खोले। इस संगठन के रचनात्मक आगाज़ से आने वाली पीढियां कला के माध्यम से अपने सामाजिक अन्याय के प्रति मुखर हो सकी और उन्हें कला के विभिन्न छेत्रों में आगे आने की प्रेरणा मिली। 

इस कला आन्दोलन से जुड़ कर माया अन्ज़ेलो का व्यक्तित्व अधिक पुख्ता और जागरूक हुआ, खुले मन मस्तिष्क वाले लोग माया के आस- पास मौजूद थे. वे सब समाज में मौजूदा हालत में परिवर्तन लाना चाहते थे और इसलिये नाटक, लेखन और कला के दूसरे माध्यमों में जायदा से जायदा सक्रियता दिखा रहे थे. माया अन्जेलो शुरू से ही कला के प्रति समर्पित थी और अब इस आन्दोलन में शामिल हो कर उनकी कलात्मक अभिरुचि उफान पर थी.. वर्ष १९६० में उन्होंने फ्रेंच नाटककार जीन गेनेट के नाटक 'द ब्लैक" में हिस्सा लिया। 'द ब्लैक' एक महत्वपूर्ण नाटक था जिसमे माया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. आज भी 'द ब्लैक' नाटक को साठ के दशक में फ्रांस में सबसे लंबे समय तक चलने वाला ( तीन साल ) गैर संगीत ब्रॉडवे माना जाता है। 1958 में लिखित और नाट्य निर्देशक जीन जेनेट द्वारा निर्देशित नाटक "द ब्लैक" साठ के दशक में मंचित उस दौर का बेहद सफल नाटक था. अश्वेत कला आन्दोलन की एक अहम् प्रस्तुति के रूप में इस नाटक को जाना गया. 2007 में फिर से दुबारा इस नाटक को नए कलेवर में लंदन के स्ट्रेटफोर्ड, थिएटर रॉयल में खेला गया.तब नयी पीढ़ी में इस नाटक के प्रति रूचि जाग्रत करने के लिए हिप हॉप, स्लैम कविता का रीमिक्स भी शामिल किया गया था. हमारे सबसे गहरे बैठे नस्लीय पूर्वाग्रहों का सामना करने के क्रम में किरदारों का सफेद श्रृंगार धारण कर समाज ने उतरना दर्शकों को हतप्रभ कर देता था.



१९६६ में उन्होंने हास्य अभिनेता गॉडफ्रे कैम्ब्रिज के साथ "स्वतंत्रता के लिए कैबरे" नामक नाटक में काम किया। इस महत्वपूर्ण कलात्मक योजना में शामिल होने के बाद वर्ष 1961-1962 में माया अन्ज़ेलो ने काहिरा, मिस्र से प्रकाशित होने वाले अखबार "अरब ऑब्जर्वर" के लिए एक सहयोगी संपादक के रूप में काम किया। अरब आब्जर्वरसे , अंग्रेजी में निकलने साथ- साथ एक लेखिका के रूप में और फिर सन 1964 से लेकर 1966 में घाना टाइम्स और घाना प्रसारण निगम के साथ जुडी रही. इसके साथ ही वर्ष 1964 में माया अन्ज़ेलो,घाना विश्वविद्यालय के संगीत -नाटक स्कूल की सहायक प्रशासक, और घाना प्रसारण कार्पोरेशन और घाना टाइम्स अखबार , घाना से कार्यरत हुयी, इसी समय माया ने नाटक'मदर करेज' में भी काम किया। घाना विश्वविद्यालय में"मदर करेज"में भी माया अन्ज़ेलो दिखी। 

1973 में उन्होंने " लुक अवे" में में भी काम किया। इस नाटक में माया अन्जेलो के साथ सहयोगी थी गेराल्दिन पेज और नाट्य निर्देशक थे रिप टोरन.नाटक के मुख्य किरदार का नाम ममैरी लिंकन था और मंच में देश काल के रूप में पागल रोगियों काबताविया के स्थित अस्पताल की.कहानी की पृष्ठभूमि में अमेरिका के पहले राष्ट्रपति के पत्नी श्रीमती लिंकन के उस दिन की प्रसंग की है जब राष्ट्रपति की हत्या( जून 14, 1875) हुयी थी. उस रात श्रीमती लिंकन पर क्या बीता इस नाटक में यही दर्शाया गया था. माया बेहद तल्लीनता से नाटकों के किरदारों के साथ खुद को जोड़ लेने के सफल होती थी. एक बार किसी अवसर पर माया को सेनानी डॉ. मार्टिन लूथर किंग का भाषण सुनने को मिला उनके सामाजिक संदेशों से प्रेरित होकर, माया ने अपने जीवन को नागरिक अधिकारों के संघर्ष का एक हिस्सा बनने का फैसला किया. 

माया की लगन को देखते हुए डॉ लूथर किंग ने उन्हें उत्तरी समन्वयक के रूप में एक पद की पेशकश की.यह वर्ष 1961 ही था जब माया दक्षिण अफ्रीकी नागरिक अधिकार आंदोलन के कार्यकर्ता वुसुम्ज़ी मके के प्रेम में गिरफ्तार हुयी, प्रेम की इसी राह पर चलते हुए माया ने वुसुम्ज़ी का लगभग लोनान और अफ्रीका में भी पीछा किया इस वक़्त माया के ऊपर एक जुनूनी पत्रकार वाला जज्बा तारी हो चूका था. वह अपने काम में डूब चुकी थी लेकिन एक बार फिर माया का प्रेम अधिक दिनों तक ठहर नहीं पाया। तब माया अपने बेटे को साथ लेकर काहिरा चली गयी और 1962 में घाना, दक्षिण अफ्रीका चली गयी और वहां एक स्वतंत्र पत्रकार और 'अफ्रीकन रिव्यु'की फीचर संपादक के रूप में काम किया। तीन साल तक वहां काम करने के बाद 1966 में माया संयुक्त राज्य अमेरिका लौटीं और अश्वेत अमेरिकियों के नागरिक अधिकार आंदोलन में मदद करने के इरादे से लौटीं।

दो साल तक माया ने नागरिक अधिकारों के लिये खूब काम किया। लोग जागरूक हो रहे थे और उनके भीतर हौसला बढ़ रहा था कि तभी 1968 में मेल्कम एक्स की हत्या कर दी गयी.  मेल्कम को अश्वेत अमेरिकियों के आत्मसम्मान को ऊपर उठाने और उनहें अफ्रीकी विरासत के साथ दुबारा जोड़ने में सक्रिय योगदान का श्रेय दिया जाता है. मेल्कम को इतिहास में सबसे महत्त्वपूर्ण और सबसे प्रभावशाली अफ्रीकी अमेरिकियों में से माना गया है, 21 फ़रवरी, 1965 को जब मैल्कम एक्स न्यू यॉर्क के मैनहट्टन में अफ्रीकी मूल के अमेरिकी एकता संगठन को संबोधित करने की तैयारी कर रहे थे तब कोई 400 दर्शकों में से पहली पंक्ति में बैठे किसी व्यक्ति ने उन्हें गोली मार दी. उनके अंगरक्षक कुछ करते कि अपने हाथों में बंदूक लिए दो और हमलावर नज़दीक से उनपर गोली चलाने लगे, उन्हें अस्पताल ले जाया गया जहाँ उनकी ऑटोप्सी रिपोर्ट में मालूम हुआ की इस बहादुर इंसान के शरीर पर २१ गोली लगी हैं. माया इस हत्या से हिल गयी तब उनका एकमात्र सहारा था कविता लिखना, जिसमें माया को परम संतोष मिलता था.
***
(पुस्‍तक शीर्षक में दिए लिंक पर क्लिक कर आनलाइन ख़रीदी जा सकती है)
 
माया एंजेलो की कविता 'वुमन वर्क' / अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह 

एक स्त्री की कर्मकथा

मुझे करनी है बच्चों की देखभाल
अभी कपड़ों को तहैय्या करना है करीने से
फर्श पर झाड़ू - पोंछा लगाना है
और बाज़ार से खरीद कर ले आना है खाने पीने का सामान।

अभी तलने को रखा पड़ा है चिकन
छुटके को नहलाना धुलाना पोंछना भी है
खाने के वक्त
देना ही होगा सबको संग - साथ।

अभी बाकी है
बगीचे की निराई - गुड़ाई
कमीजों पर करनी है इस्त्री
और बच्चों को पहनाना है स्कूली ड्रेस।

काटना भी तो है इस मुए कैन को
और एक बार फिर से
बुहारना ही होगा यह झोंपड़ा
अरे ! बीमार की तीमारदारी तो रह ही गई
अभी बीनना - बटोरना है इधर उधर बिखरे रूई के टुकड़ों को।

धूप ! तुम मुझमें चमक भर जाओ
बारिश ! बरस जाओ मुझ पर
ओस की बूँदों ! मुझ पर हौले - हौले गिरो
और भौंहों में भर दो थोड़ी ठंडक ।

आँधियों ! मुझे यहाँ से दूर उड़ा ले जाओ
तेज हवाओं के जोर से धकेल दो दूर
करने दो अनंत आकाश में तैराकी तब तक
जब तक कि आ न जाए मेरे जी को आराम।

बर्फ़ के फाहों ! मुझ पर आहिस्ता - आहिस्ता गिरो
अपनी उजली धवल चादरें उढ़ाकर
मुझे बर्फीले चुंबन दे जाओ
और सुला दो आज रात चैन से भरी नींद।

सूरज , बारिश , झुके हुए आसमान
पर्वतों , समुद्रों , पत्तियों , पत्थरों
चमकते सितारों और दिप - दिप करते चाँद
तुम्हीं सब तो हो मेरे अपने
तुम्हीं सब तो हो मेरे हमराज़।
***
 


Saturday, May 24, 2014

शैलजा पाठक की कविताएं



शैलजा पाठक की ये कविताएं मेल में मिलीं। इन्‍हें पढ़ना शुरू किया तो लगा एक अनगढ़ वृत्‍तान्‍त के कई सिरे खुलते जा रहे हैं। यह स्‍त्री होने और उस होने को लिखने का वृत्‍तान्‍त है। इसमें कई संवाद हैं, जो बिना कोई बड़ा और बनावटी बयान दिए गम्‍भीर जिरह में बदलते जाते हैं। बहनें शीर्षक कविता के दो भाग एकबारग़ी तो असद ज़ैदी की कविता की याद में ले जाते हैं, लेकिन जल्‍द ही अपना उतना ही मौलिक आवेग भी महसूस कराते हैं। इन कविताओं का स्‍वर कुछ खिलंदड़ा, आसपास बोलने-बतियाने जैसे आत्‍मीय ताप से भरा है। आप भी देखिए और महसूस कीजिए कि असल जीवन की कठिन बातें किस तरह विमर्शादि का कुहासा चीर कर धूप-सी बिखरती-फैलती हैं।
***   

कमाल की औरतें 



औरतें भागती गाड़ियों से तेज भागती है 
तेजी से पीछे की ओर भाग रहे पेड़
इनके छूट रहे सपने हैं
धुंधलाते से पास बुलाते से सर झुका पीछे चले जाते से
ये हाथ नही बढाती पकड़ने के लिए
आँखों में भर लेती है जितने समा सकें उतने

ये भागतीं हिलतीं कांपतीं सी चलती गाड़ी में ..जैसे परिस्थितियों में जीवन की

निकाल लेती हैं दूध की बोतल ..खंघालती हैं
दो चम्मच दूध और आधा चीनी का प्रमाण याद रखती हैं
गरम ठंढा पानी मिला कर बना लेती हैं दूध
दूध पिलाते बच्चे को गोद से चिपका ये देख लेती हैं बाहर भागते से पेड़
इनकी आँखों के कोर भींग जाते हैं फिर सूख भी जाते है झट से

ये सजग सी झटक देती हैं डोलची पर चढ़ा कीड़ा
भगाती हैं भिनभिनाती मक्खी मंडराता मच्‍छर
तुम्हारी उस नींद वाली मुस्कान के लिए
ये खड़ी रहती हैं एक पैर पर

तुम्हारी आँख झपकते ही ये धो आती हैं हाथ मुंह
मांज आती हैं दांत खंघाल आती है दूध की बोतल
निपटा आती हैं अपने दैनिक कार्य
इन ज़रा से क्षणों में ये अपनी आँख और अपना आँचल तुम्हारे पास ही छोड़ आती हैं

ये अँधेरे बैग में अपना जादुई हाथ डाल
निकाल लेती हैं दवाई की पुडिया तुम्हारा झुनझुना
पति के ज़रुरी कागज़, यात्रा की टिकिट
जिसमे इनका नाम सबसे नीचे दर्ज़ है

अँधेरी रात में जब निश्चिन्त सो रहे हो तुम
इनकी गोद का बच्चा मुस्काता सा चूस रहा है अपना अंगूठा
ये आँख फाड़ कर बाहर के अँधेरे को टटोलती हैं
जरा सी हथेली बाहर कर बारिश को पकड़ती हैं
भागते पेड़ों पर टंगे अपने सपनों को झूल जाता देखती हैं
ये चिहुकती हैं बडबडाती हैं अपने खुले बाल को कस कर बांधती है


तेज भाग रही गाडी की बर्थ नम्बर ५३ की औरत
सारी रात सुखाती रही बच्चे की लंगोट नैपकिन खिडकियों पर बाँध बाँध कर
भागते रहे हरे पेड़ लटक कर झूल गए सपनों की चीख बची रही आँखों में
भींगते आंचल का कोर सूख कर भी नही सूखता
और तुम कहते हो की कमाल की औरतें हैं

ना सोती है ना न सोने देती हैं
रात भर ना जाने क्या क्या खटपटाती हैं ...............

***



वही मैं वही तुम 



दर्द को कूट रही हूँ
तकलीफ़ों को पीस रही हूँ
दाल सी पीली हूँ
रोटी सी घूम रही हूँ
गोल गोल
तुम्हारे बनाये चौके पर

जले दूध सी चिपकी पड़ी हूँ
अपने मन के तले में
अभी मांजने हैं बर्तन
चुकाना है हिसाब
परदे बदलने हैं
आईना चमकाना है
बिस्तर पर चादर बन जाना है
सीधी करनी है सलवटें

बस पक गई है कविता
परोसती हूँ

घुटनों में सिसकती देह
और वही
चिरपरिचित तुम ...........

*** 

बहनें १ 



कुछ कतरनों में हमनें भी सहेजी है
नैहर की थाती

हमारे बक्से के तले में बिछी
अम्मा की पुरानी साड़ी
उसके नीचे रखी है पिताजी की वो तमाम चिठ्ठियाँ
जो शादी के ठीक बाद हर हफ्ते लिखी थी

दो तीन चादी का सिक्का जिसपर बने भगवान् की सूरत उतनी नही उभरती
जीतनी उस पल की जब अपनी पहली कमाई से खरीद कर
भाई ने धीरे से हाथ में पकड़ा दिया ये कह कर
बस इतना ही अभी

तुम्हें नही पता तुम्हारा इतना ही कितना बड़ा होता है कि
भर जाती है हमारी तिजोरी

कि अकड़ते रहते हैं हम अपने समृद्ध घर में ये कहते
भैया ने बोला ये दिला देंगे वो दिला देंगे

हद तो ये भी कि भाभी के दिए एक मुठ्ठी अनाज को ही
अपने घरों के बड़े छोटे डिब्बों में डालते ये कह कर कि जब तक
नैहर का चावल साथ है ना
हमारे घर में किसी चीज़ की कमी नही ...

किसी को ये सुन कर बुरा लगता है की
परवाह किये बगैर

पुरानी ब्लैक न वाइट फोटो में हमारे साथ साथ वाली फोटो है ना
सच वो समय की सबसे रंगीन यादों के दिन थे

हाँ पर अम्मा की गोद में तुम बैठे हो
हम आस पास खड़े मुस्करा रहे हैं
हमे हमेशा तैयार जो रखा गया दूर भेजने के लिए

अच्छा वो मोटे काजल और नहाने वाली तुम्हारी फोटो देखकर
तुम्हें चिढ़ाने में कितना मज़ा आता
तुम्हारी सबसे ज्यादा फोटो है की शिकायत कभी नही की हमने
हमारे लिए तुम्ही सबसे ज्यादा रहे हमेशा

अब तुम बड़े हो गये हो
तुम्हारे चौड़े कंधे और चौड़ी छाती में
हम चिपक जाती हैं तितलयों की तरह
एक रंग छोड़कर उड़ जाना है दूर देश

कभी आ जाओ न अचानक ..बिना दस्तक दरवाजा खोल दूंगी ..तुम्हारी आहटों को जिया है हमने .... 

*** 

बहनें




बहनें हमेशा हार जाती है
कि खुश हो जाओ तुम
जबकि उन्हें पता है जीत सकती हैं वो भी

अजीब होती है... बड़ी हो जाती है तुमसे पहले
अपने फ्रॉक से पोछ देती है तुम्हारे पानी का गिलास
तुम पढ़ रहे हो ..भींग जाता है तुम्हारा हाथ
पन्ने चिपक जाते हैं

तुम कितनी भी रात घर वापस आओ
ये जागती मिलती हैं
दबे पाँव रखती है तुम्हारा खाना
तुम्हारे बिस्तर पर डाल देती हैं आज का धुला चादर
इशारे से बताती हैं ..अम्मा पूछ रही थी तुम्हें
काहे जल्दी नही आ जाते ..परेशान रहते हैं सब

बहनें तुम्हारी जासूस होती हैं ..बड़ी प्यारी एजेंट भी
माँ भी ..की इनकी गोद में सर धरे सुस्ता लो पल भर

बहनें तुम्हारे आँगन की तुलसी होती हैं
तुम्हारे क्यारी का मोंगरा
बड़े गेट के पास वाली रातरानी
आँगन के उपेक्षित मुंडेर की चिड़िया होती है भैया
पुराने दाने चुगते हुए तुम्हारे नए घरों का आशीष देती हैं

हमारी आँखों के कोर पर ठहरे रहते हो तुम
हम जतन से रखती हैं तुम्हें

बहनें ऐसी ही होती हैं ....

*** 



खूंटे से बंधा आकाश 



भीगे गत्ते से
बुझे चूल्हे
को हांकती
टकटकी लगाये ताकती
धुंए में आग की आस

जनम जनम से बैठी रही इया
पीढ़े के ऊपर
उभरी कीलों से भी बच के निकल
जाती है

धीमी सुलगती लकड़ियों में
आग का होना पहचानती है
हमारी गरम रोटियों में
घी-सी चुपड़ जाने वाली इया

घर की चारदीवारी में चार धाम का पुण्य कमाती
भीगे गत्ते को सुखाती
हमेशा बचाती रहीं
हवा पानी आग माटी
और अपने खूटे में बंधा आकाश ....

***



गाँव के रंग 





गाँव में पुआल
बचपन ..धमाल

पुवाल वाला घर
लुटे हुए आम ..गढ़ही में गिरा ..सुग्गा का खाया
पत्थर से तोडा की निहोरा से मिला
पकाए जाते थे
पर अक्सर पकने के पहले
खाए जाते थे

अक्सर पुवाल घर में मिलती थी
नैकी दुल्हल की लाल चूड़ियाँ टूटी हुई
और बिखरी होती थी
दबी खिलखिलाहटें

पुवाल से हम बनाते थे
दाढ़ी मूंछ हनुमान की पूँछ
दुल्हे की मौरी
कनिया की चूड़ी

पुवाल से भरी बैलगाड़ी पर
हम चढ़के गाते थे
हिंदी सिनेमा का गीत
दुनियां में हम आये है तो .....

उस घर के छोटे झरोखे से
दुलहिनें देखती थी हरा भरा खेत
उनके नैहर जाने वाली पगडण्डी
सत्ती माता का लाल पताका और धूल वाला बवंडर

अचानक पुवाल घर को छोड़कर
हम पक्के रस्ते से शहर आ गए

आज भी यादों की पुवाल में पकता है
बतसवा आम ..चटकती ही मुस्कराती चूड़ी
सिनेमा के गाने बदल गए गाँव भी बदल गया बाबा
पर बादल बरसते हैं तो माटी की महक से हुलस जाता है मन
नन्हके पागल ने लगा दी है बचे हुए पुवाल में आग

शहर के आसमान पर वही गाँव वाला बादल छाया है बाबा
अभी अभी हम दोनों की आँख मिली
और बरस पड़े .....

*** 

मेरी चोटी में बंधा फूल 




तुमने मुझे बेच दिया
खरीदार भी तुम ही थे
अलग चेहरे में

उसने नही देखीं मेरी कलाइयों की चूड़ियाँ
माथे की बिंदी .मांग का सिंदूर
उसने गोरे जिसम पर काली करतूतें लिखीं
उसने अँधेरे को और काला किया... काँटों के बिस्तर पर
तितली के सारे रंग क्षत-विक्षत हो गये

तुमने आज ही अपनी तिजोरी में
नोटों की तमाम गड्डियां जोड़ी हैं
खनकती है लक्ष्मी
मेरी चूड़ियों की तरह

चूड़ियों के टूटने से जखमी होती है कलाई
धुल चूका है आँख का काजल
अँधेरे बिस्तर पर रोज़ बदल जाती है परछाईयां
एक दर्द निष्प्राण करता है मुझे

तुम्हारी ऊँची दीवारों पर
मेरी कराहती सिसकियाँ रेंगती है
पर एक ऊँचाई तक पहुँच कर फ्रेम हो जाती है मेरी तस्वीर
जिसमे मैंने नवलखा पहना है

खूंटे से बंधे बछड़े सी टूट जाउंगी एक दिन
बाबा की गाय रंभाती है तो दूर बगीचे में गुम हुई बछिया भाग आती है उसके पास
मैं भी भागुंगी गाँव की उस पगडण्डी पर
जहाँ मेरी दो चोटियों में बंधा मेरे लाल फीते का फूल
ऊपर को मुह उठाये सूरज से नजरें मिलाता है .......

***

अनुनाद पर शैलजा पाठक पहली बार छप रही हैं- उनका स्‍वागत और समृद्ध रचनायात्रा के लिए शुभकामना भी।


Thursday, May 22, 2014

लोक और कविता- 2/ लोक और समकालीन काव्य- शिवप्रकाश त्रिपाठी



इस अनुक्रम का पहला शोधालेख जितेन्द्र कुमार ने लिखा है, जिसे इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है। 
 
अंग्रेजी के ‘फोक’ शब्द का हिंदी में रूपांतरण ‘लोक’ किया गया | पाश्चात्य साहित्य में यह फोक शब्द प्रारम्भ में नाटकों से आया,जिसको आदिम समाज के लिए प्रयोग किया जाता है | अशिष्ट और भदेश समझे जाने वाले नाटकों को ‘फोक प्ले’ की संज्ञा दी  जाती थी | वैसे ‘लोक’ शब्द भारतीय समाज में तथा साहित्य में प्राचीन काल से देखने को मिलता है |                
 हमारे समाज में लोक से ज्यादा परलोक की चर्चा हुई है |मै भी अपने घर में बचपन से परलोक के विषय में सुनता आया हूँ,बाद में मुझे यह बोध हुआ कि एक ऐसी स्थिति जिसका कोई अस्तित्व नहीं है,वह परलोक है और ठीक इसके विपरीत स्थिति, जहाँ हम रहते हैं,जीते हैं अर्थात जिसका अस्तित्व है,जिसे हम जानते,समझते और देखते हैं,वह लोक है| इसप्रकार हमारे लोक में नगर-ग्राम, शोषक-शोषित,जीव-जंतु,चर-अचर तथा प्रकृति आदि सब आ जाते हैं | साहित्य समाज का दर्पण है तथा समाज भी लोक का ही एक रूप है तो लाज़मी है कि साहित्य में भी लोक होगा | भक्तिकाल में लोक को लेकर काफ़ी कुछ कहा और सुना गया| कबीर, जायसी, सूर और तुलसी आदि सभी कवियों ने लोक को लेकर अपने काव्य के माध्यम से काफी कुछ कहा है| तुलसीदास जी स्पष्टतः कहते है –
                   “लोकहूँ वेद विदित कवि कहहीं”1
                  लोक की अवधारणा को स्पष्ट करने में सर्वप्रथम प्रमुख भूमिका जिन आलोचक की देखने को मिलती है,उनका नाम हैं आचार्य रामचंद्र शुक्ल | चिंतामणि भाग-एक में एक निबंध है ‘साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद’, इसमें शुक्ल जी ने लोक की अवधारणा का विकास करते हुए व्यक्ति वैचित्र्यवाद के विरोध में
साधारणीकरण के सिद्धांत की प्रतिष्ठा की और लोक की व्याख्या इस प्रकार की –
“सच्चा कवि वही है जिसे लोकहृदय की पहचान हो, जो अनेक विशेषताओं और विचित्रताओं के बीच मनुष्य जाति के सामान्य हृदय को देख सके | इस लोकहृदय में हृदय के लीन होने की दशा का नाम रसदशा है|” 2 
                शुक्ल जी का मानना है कि प्रत्येक मनुष्य की अपनी अलग पहचान होती है, एक मनुष्य का चेहरा दूसरे से नहीं मिलता किन्तु समग्र को साथ ले तो शुक्ल जी के शब्दों में, ‘सामान्य आकृति-भावना’ बनती है, ठीक इसी तरह समाज में अनेक विचित्रताएँ मिलती है जिसे हमें समग्रतः लोक के रूप में देखना चाहिए| आगे लोकवाद के विकास क्रम में लोकधर्म की भी बात करते है |आचार्य शुक्ल जी लोकधर्म को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “संसार जैसा है उसे वैसा मानकर उसके बीच से एक-एक कोने को स्पर्श करता हुआ जो धर्म निकलेगा वही लोकधर्म होगा|”3           
                  आचार्य रामचंद्र शुक्ल के यहाँ यह पूरा संसार ही लोक है चूँकि शुक्ल जी को शास्त्र से कोई परहेज नहीं है अतः वह सम्पूर्ण जगत को लोक के लपेटे में लेते है| किन्तु कालांतर में दूसरे बड़े आलोचक हुए जिन्होंने लोक को पुनः परिभाषित किया वो हैं पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी | द्विवेदी जी अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’(1941) के आरम्भ में ही यह घोषणा करते हैं कि “मतों,आचार्यों,सम्प्रदायों और दार्शनिक चिंताओं के मानदंड से लोकचिंता को नहीं नापना चाहता बल्कि  लोक चिंता की अपेक्षा में उन्हें देखने की सिफारिश कर रहा हूँ |”4  यहाँ द्विवेदी जी बंधे-बंधाये दृष्टिकोण से न देख कर उसे नई दृष्टि से देखने की वकालत करते है, मतलब वह शुक्ल जी के शास्त्र सम्मत लोक को लोक नहीं मानतें और न ही उस कसौटी पर लोक को परखतें हैं | शुक्ल जी के लोक औए द्विवेदी जी के लोक में अंतर यह है कि जहाँ शुक्ल जी का लोक शास्त्रानुमोदित समाज है,वही द्विवेदी जी के लोक में मुख्यतः दबे कुचले,अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियां हैं|
                 
 आधुनिक काल में रामविलास शर्मा ने लोक को नए सिरे से परिभाषित किया | शर्मा जी लोक को सीधे-सीधे गाँव और किसानों का पर्याय मानते हैं| शर्मा जी के अनुसार किसान चेतना ही लोक चेतना है|शर्मा जी अपने लोक से नगर तथा नागरिक को अलग कर देते हैं | उनका लोक शोषितों का लोक है, मिलों में काम करने वाले मजदूरों का लोक है,जमीदारों के यहाँ काम करने वाले किसानों का लोक है| उनके लोक में बढई,लोहार तथा अस्पृश्य समझी जाने वाली सभी जातियां हैं | इसे अदम गोंडवी के शब्दों में कहा जाये तो-वो जिसके हाथ में छाले व पैरों में बिवाई हैं | यही शर्मा जी के लोक के मूलाधार हैं| शिव कुमार मिश्र भी लोक के विषय में अपने विचार व्यक्त करते हैं |वह अपने पुस्तक “भक्ति आन्दोलन और भक्तिकाव्य” में ‘भक्तिकाव्य और लोकधर्म’ नामक शीर्षक में कहते हैं कि “लोक शब्द हिंदी में साधारण जन के लिए भी प्रयुक्त होता है जिसका विलोम अभिजन या अभिजात्य वर्गों के लोग हैं|” 5  मिश्र जी लोक को जन या जनता का समूह मानते हैं वह जनता भी सामान्य लोग है विशिष्ट नहीं| जनता को लेकर कई कवियों ने लिखा है,जनता कौन है ? धूमिल कहते हैं-
  जनता क्या है ?
   एक शब्द ........... सिर्फ एक शब्द है
   कुहरा और कीचड़ और कॉंच से
   बना हुआ ”6  
                 समकालीन कविता में भी लोक को पर्याप्त जगह मिली है |सभी कवियों ने अपने-अपने ढ़ंग से अपने काव्य में लोक का चित्रण किया हैं|आज के समय में तथा प्रेमचंद के समय में पर्याप्त अंतर आ चुका है |आज के गाँव पहले के गाँव नहीं रहे| एक समय था, जब खेतों में प्रेमचंद जी के हीरा और मोती जैसे बैलों से जुताई होती थी परन्तु आज उन बैलों की जगह स्वचालित यंत्रों ने ले लिया है| अर्थात आज के गाँव और पुरातन गाँव में भौतिक रूप से काफ़ी परिवर्तन हो गया है,किन्तु स्थितियां एवं परिस्थितियाँ कमोबेश वही है जो आज से अस्सी-नब्बे साल पहले थी| अंधविश्वास,छुआछूत और महाजनी सभ्यता आज भी पैर पसारे बैठी हुई हैं | इन्ही परिस्थितियों का चित्रण समकालीन कवि बखूबी कर रहे हैं|
                      समकालीन कवियों में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्राप्त बड़े कवि ‘वीरेन डंगवाल’के काव्य में लोक का बहुत ही सुन्दर चित्रण हुआ है|डंगवाल जी के काव्य संग्रह “स्याही तल में” में एक कविता है जिसका शीर्षक है ‘उधों मोहि ब्रज’,जिसमे वह अपने पुराने दिनों को याद करते हुए लिखते है कि-
                   गोड़ रही माई ओ मउसी ऊ देखौ
                   आपन-आपन बालू के खेत
                   कहाँ को बिलाये ओ बेटवा बताओ
                   सिगरे बस रेत ही रेत 7   
इस कविता में भाषा भी लोक से जुडी हुई है,या यूँ कहे कि लोक की भाषा से कविता जुडी है  | वीरेन  जी के काव्य में लोक के अन्दर मौजूद तत्वों एवं अंगों का चित्रण करते हैं –
                   मुलायम आवाज में गाने लगे मुँह-अंधेरे
                   कउए सुबह का राग शीतल कठोर
                   धुल और ओस से विचित्र सुगंध वाले फल
                   फेरे लगाने लगी गिलहरी चोर  8  
उपर्युक्त कविता से गाँव की सोंधी महक आती है
                      लोक का चित्रण उत्तराखंड के महत्वपूर्ण कवियों में से एक शिरीष कुमार मौर्य के काव्य में भी देखने को मिलता है| शिरीष जी के काव्य संग्रह “पृथ्वी पर एक जगह”,में पहली ही कविता ‘हल’शीर्षक से है जिसमे वह हल की महत्ता को स्पष्ट करते हैं एवं दूसरी कविता जो ‘भूसा’ नाम से है, दृष्टव्य है –
                   फसल के साथ कटकर यह भी खलिहान में आया
                    अलगाया गया दानों से .....
                    .............................. ...
                    पता नहीं क्या होगा इसका ?
                    किसी मिल में कागज बन जायेगा
                    या फिर यह थान पर खड़े किसी भूखे पशु की
                    जिंदगी में शामिल हो जायेगा  9  
 ‘तसला’ नाम की कविता जो बहुत ही संवेदनाओं से भरी हुई कविता है जिसमे मजदूरों के दिन-हीन अभावग्रस्त जीवन को को बड़ी ही बेबाकी से चित्रण किया है –
                   अच्छे से मांज-धोकर आटा भी गूंथा जा सकता
                   है उसमें उसी को उल्टा धर आग पर सेंकी जा
                   सकती हैं रोटियां
                   यह मैंने कल शाम को देखा 10


                    बुन्देलखंड से केशव तिवारी जी अपने काव्य में लगातार लोक की बात करते रहे हैं|तिवारी जी के एक कविता –“हम का बुझे” में वह साफ-साफ इस ओर इशारा करते है कि-
                   तुम्हारी जबान मालिक
                   हम ठहरे गवई गंवर गट
                   चार बिश्वा जमीन
                    सोख गई जिनगी
                    कीचा कादौ के बीच 11
              केशव तिवारी के काव्य में लोक बखूबी देखने को मिलता है उनके काव्य में गाँव के अलग-अलग विषयों को लेकर बहुत ही सुंदर कविताएँ लिखी है,जिनमे – ‘भरथरी गायक’,’गवनहार आजी’,’बग्गण’,’घडा’आदि शीर्षक से कविताएँ हैं,जो एक तरह से पूरा लोक ही स्पष्ट कर देती है, उनकी एक कविता ‘गडरिये’ से उदाहरण देखिए-
                    मेरे गाँव के गड़रियों के पास अब भेड़े नहीं है
                     नानी कहती थी कि
                     नई बहुरिया बिना गहनों के
                      और चुगलखोर बिना चुगली के
                      रह सकते हैं पर
                      गडरिये बिना भेड़ों के नहीं 12   
कितना आर्त स्वर कितनी विकट परिस्थिति का चित्रण यहॉं पर देखने को मिलता है| आज के बाजारवाद,उत्तर आधुनिकता और उत्तर उपनिवेशवाद के समय का एक यह भी स्याह चेहरा है जो स्पष्ट करता है कि गाँव तो आज भी वहीँ है जहाँ पहले था|
                      आज भी गाँव में सामन्तीय जोर देखने को मिलता है कुछ बदले स्वरूप के साथ बालू के, ईट के, गिट्टी के ठेकेदार के रूप में | अमित श्रीवास्तव के कविता में उनका लोक कुछ इस तरह प्रस्फुटित होता है –
                      झोपडी की आग में छुप गया
                      सूरज बुझ गया जब
                      सामन्ती गाड़ियों के पहिये वृहद् विशाल
                      गीली मिट्टी पर गहरे निशान छोड़ते हैं
                      तोड़ते रहे मांद ढूह मेड़
                       मेड़ो में उगे सपनों के कुकुरमुत्ते
                       स्वरों से हमारा पसीना नहीं
                       तब खून टपकता रहा हुजूर 13 
             इस प्रकार से हम देखते है कि समकालीन कविता में लोक खुलकर आता है|चूँकि लोक शब्द हमेशा समाज और साहित्य से जुड़ा रहा | देशकाल परिस्थितियां के अनुसार आज भी कुछ परिवर्तनों के साथ काव्य में परिलक्षित होता है|समकालीन कवियों ने लोक को अपनी-अपनी नजरो से देखा,समझा,परखा और फिर लिखा |       
                    
    संदर्भ-
1.  समीक्षा ठाकुर,पत्रिका-आलोचना(अक्तूबर-दिसंबर2013),पृष्ठ-83
2.  आचार्य रामचंद्र शुक्ल,चिंतामणि भाग-एक,पृष्ठ-151
3.  आचार्य रामचंद्र शुक्ल,गोस्वामी तुलसीदास,पृष्ठ-15
4.  समीक्षा ठाकुर,पत्रिका-आलोचना(अक्तूबर-दिसंबर2013),पृष्ठ-84
5.  शिव कुमार मिश्र,भक्ति आन्दोलन और भक्तिकाव्य,पृष्ठ-275
6.  धूमिल,पटकथा(संसद से सड़क तक),पृष्ठ-104
7.  वीरेन डंगवाल, उधो मोहि ब्रज(स्याही तल),कविता कोश से साभार
8.  वही.
9.   डॉ शिरीष कुमार मौर्य,पृथ्वी पर एक जगह,पृष्ठ-12
10.वही०,पृष्ठ-95 
11.केशव तिवारी,एस मिट्टी से बना,पृष्ठ-12
12. केशव तिवारी,विदा नहीं आसान,पृष्ठ-10
13.अमित श्रीवास्तव,अनुनाद ब्लाग पोस्ट से साभार
 

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