अशोक
का दूसरा संकलन अभी आया ही है कि उसकी इधर की कविताओं के शिल्प में फिर एक नई
तोड़-फोड़ दिखाई देने लगी है। कविता में अपने को, अपने समाज
और राजनीति को कोई तरह से कहने की इच्छा से भरा ये कवि उम्मीदों के साथ-साथ विकट
संघर्षों का कवि भी साबित हुआ है। यहां तीन कविताएं बिना शीर्षक की हैं और पांच
कविताओं का समुच्चय ‘हत्यारे से बातचीत’ शीर्षक के साथ। वो अपनी कविताओं को अपने शब्दकोश के अभी ख़ाली पड़े पन्नों
का थिसारस कह रहा है – यानी वो अर्थ में नहीं अभिप्रायों में प्रवेश कर रहा है।
कविता की आत्मा अपने अभिप्रायों में निवास करती है, इसका
प्रमाण देखना हो तो अशोक की इन कविताओं में देखा जा सकता है। पहली तीन कविताओं में
‘उम्मीद’ एक बीज शब्द है। अपनी कविता
की दुर्धर्ष कला के साथ वो कहता है – ‘उम्मीद किसी फलदार
वृक्ष की ओर उछले पत्थर का नाम तो नहीं’। उम्मीद को वाम
राजनीति के तहत जिस तरह देखने की आज ज़रूरत है, अशोक उस तरह
देखना चाहता है। हत्यारे से बातचीत में दो टुकड़े प्रेम और सपनों पर भी हैं, जिनसे एक हत्या के नए सिरों का पता चलता है – वीर प्रेम नहीं करते, वसुंधरा उनकी भोग्या होती है। पांचवें
में आया एक पंक्ति का आकस्मिक-सा अंत जाहिर तौर पर बातचीत का टूटना लगता लेकिन उसमें बहुत
बड़ा ख़ालीपन जो छूटता है, वह पाठकों मन में जन्मने लगी कविता
के लिए है। जहां कोई कहता है जाइए अब मुझे कोई बात नहीं करनी, बात वहीं से फिर शुरू हो जाती है। मुझे पहली पढ़त में ऐसा कुछ लगा। मैं अधूरा रह गया हूं पर अनुनाद के प्रिय
पाठक मेरे इस छूटे हुए कथन को पूरा करेंगे।
(एक)
तुमसे नहीं होगा
तुमसे नहीं होगा
सिर्फ
इसलिए तो छोड़ नहीं दोगे तुम वह काम
मसलन एक
कविता लिखने की कोशिश
आख़िरी
पत्ते उतार चुका है पेड़
और वसंत
लुटे हुए बजाज की तरह शर्मिन्दा खड़ा है दरवाज़े पर
बहुत तेज़
धूप में बहुत तेज़ चलते हुए
ज़रूरी नहीं
कि किसी छाया की तलाश में चल रहा हो वह
क्या फर्क
पड़ता है कि वह लय में नहीं रो रहा था
आंसू का
कोई तुक उम्मीद से मिलता है क्या?
उसके जीतने
की फ़िक्र में हलकान नहीं हूँ मैं
मेरा दुःख
तुम्हारी उस हार से है जिसने युद्ध की घोषणा का इंतज़ार भी नहीं किया.
(दो)
उम्मीद किसी फलदार वृक्ष की ओर उछले पत्थर का नाम तो नहीं
(दो)
उम्मीद किसी फलदार वृक्ष की ओर उछले पत्थर का नाम तो नहीं
तुम्हें
उससे उम्मीद थी इसलिए तुम नज़रंदाज़ करते आये जाने क्या क्या
प्रेम करते
हुए जैसे घोंट जाता है कोई उबासियों को
मैं ख्वाब
में था दिन चढ़े तक और रात जैसे चद्दर की तरह लिपटती गयी मुझसे
अजीब वक़्त
था जब उम्मीदों के लिए रात की निगहबानी ज़रूरी हो चली थी
यह “थी” लिखते हुए चाहता हूँ तुम “है” पढो
उम्मीद और
किसे कहते हैं?
(तीन)
गिनतियाँ
ख़त्म नहीं होती
जैसे प्रेम
ख़त्म नहीं होता
वह
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है यह भ्रम तुम्हें भटकाता है
जबकि सच
में प्रतीक्षा कर रही होती है वह तुम कहीं और होते हो
सौन्दर्य
ख़त्म हो जाता है एक दिन पहाड़े की तरह
और स्मृति
में रह जाती है उसकी लय
तुम अपनी
स्मृतियों से प्रेम करते हो और उस लय से
तुम जिस
क्षण नहीं कहकर लौट आते हो
गढ़ पाकर
सिंह को खोये हुए राजा की तरह कलपते हो
“हाँ” एक मुश्किल शब्द है “नहीं” उसका विलोम नहीं है
कोई लिखित
शब्द नहीं एक अनचाहा स्वप्न है उसका पर्यायवाची
मेरे
शब्दकोश में तमाम ख़ाली पन्ने हैं
मेरी
कविताएँ उन्हीं शब्दों का उदास थेसारस हैं...
***
हत्यारे से
बातचीत
(एक)
तो
तुम्हारा घर...
घर छोड़
दिया था मैंने
मुझे घरों
से नफ़रत थी
मैंने सबसे
पहले अपना घर उजाड़ा
मुझे नफ़रत
थी छोटे छोटे लोगों से
मुझे ग़रीबी
से नफ़रत थी,
ग़रीबों से नफ़रत थी
मुझे
मुश्किल से जलने वाले चूल्हे की आग से नफ़रत थी
मुझे उन
सबसे नफ़रत थी जो मेरे लिए नहीं था
जो मेरे
लिए था मुझे उससे भी नफ़रत थी
असल में
मैंने घर नहीं छोड़ा
मैंने अपनी
नफ़रतों का घर बनाया
और फिर
जीवन भर उसमें सुकून से रहा
जो घर जलाए
मैंने
उनकी चीखें
मेरे जीवन का संगीत हैं.
(दो)
प्रेम ...
प्रेम
मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है
मैंने नहीं
किया प्रेम और बनता गया मज़बूत दिनोदिन
वीर प्रेम
नहीं करते,
वसुंधरा उनकी भोग्या होती है.
मैंने जंगल
देखे तो वह मुझे छिपने की जगह लगी
मुझे तेज़
तूफ़ान सबसे मुफीद लगे ह्त्या के लिए
बच्चों को
देखकर मुझे कोफ़्त होती थी
मैंने चाहा
कि रातोरात बड़े हो जाएँ वे
स्त्रियाँ
मेरे जीवन में आई चीखने की तरह
मैंने खुद
को प्रेम किया
और खुश
रहा.
(तीन)
डर...
डर नहीं लगा कभी मुझे..
डर नहीं लगा कभी मुझे..
असल में
लगा
चीखें मेरे
डर का इलाज थीं
बहते खून
ने मेरी नसों में हिम्मत भरी
डरी हुई
आँखों की कातरता ने हरे मेरे डर
जहाँ से
शुरू होता है तुम्हारा डर
वहां से
मेरा ख़त्म हो जाता है
मैं रात के
अंधेरों से नहीं दिन के उजालों से डरता हूँ
(चार)
सपने....
मुझे सपनों
से नफरत है
मैं रातों
को सोता नहीं उनकी आशंका से
पता नहीं
कहाँ से आ जाते हैं नदियों के शांत तट
खेल के
मैदान,
बच्चे...वे औरतें भी जिन्हें बहुत पीछे छोड़ आया था कहीं
मैं नहीं
चाहता लोग सपने देखें और डरना भूल जाएँ थोड़ी देर के लिए
मैं नहीं
चाहता लोग सपने देखें और सोचना शुरू कर दें
मैं नहीं
चाहता कि लोग सपने देखें और नींद में गुनगुनाने लगें
मैं नहीं
चाहता कि सपने देखते हुए इतिहास की किसी दुर्गम कन्दरा में ढूंढ ले वे प्रेम
और जागें
तो चीखने की जगह कविताएँ पढ़ने लगें
असल में
मुझे कविताओं से भी नफरत है
और संगीत
की उन धुनों से भी जो दिल में उतर जाती हैं
मुझे नारे
पसंद है और बहुत तेज़ संगीत जो होठ और कानों तक रह जाएँ
मैं चाहता
हूँ हृदय सिर्फ रास्ता दिखाए लहू को
और जब मैं
एकदम सटीक जगह उतारूं अपना चाकू
तो निकल कर
ज़मीन को लाल कर दे
मैं इतिहास
में जाकर सारे ताजमहल नेस्तनाबूद कर देना चाहता हूँ
और बाज
बहादुर को सूली पर चढाने के बाद रूपमती को जला देना चाहता हूँ
मैं उन
सारी किताबों को जला देना चाहता हूँ जो सपने दिखाती हैं
मैं उनके
सपनों में अँधेरा भर देना चाहता हूँ
या इतना
उजाला कि कुछ दिखे ही नहीं.
(पांच)
लेकिन...
जाइए मुझे अब कोई बात नहीं करनी!
लेकिन...
जाइए मुझे अब कोई बात नहीं करनी!