Wednesday, April 23, 2014

अशोक कुमार पांडेय की नई कविताएं



अशोक का दूसरा संकलन अभी आया ही है कि उसकी इधर की कविताओं के शिल्‍प में फिर एक नई तोड़-फोड़ दिखाई देने लगी है। कविता में अपने को, अपने समाज और राजनीति को कोई तरह से कहने की इच्‍छा से भरा ये कवि उम्‍मीदों के साथ-साथ विकट संघर्षों का कवि भी साबित हुआ है। यहां तीन कविताएं बिना शीर्षक की हैं और पांच कविताओं का समुच्‍चय हत्‍यारे से बातचीत शीर्षक के साथ। वो अपनी कविताओं को अपने शब्‍दकोश के अभी ख़ाली पड़े पन्‍नों का थिसारस कह रहा है – यानी वो अर्थ में नहीं अभिप्रायों में प्रवेश कर रहा है। कविता की आत्‍मा अपने अभिप्रायों में निवास करती है, इसका प्रमाण देखना हो तो अशोक की इन कविताओं में देखा जा सकता है। पहली तीन कविताओं में उम्‍मीद एक बीज शब्‍द है। अपनी कविता की दुर्धर्ष कला के साथ वो कहता है – उम्मीद किसी फलदार वृक्ष की ओर उछले पत्थर का नाम तो नहीं। उम्‍मीद को वाम राजनीति के तहत जिस तरह देखने की आज ज़रूरत है, अशोक उस तरह देखना चाहता है। हत्‍यारे से बातचीत में दो टुकड़े प्रेम और सपनों पर भी हैं, जिनसे एक हत्‍या के नए सिरों का पता चलता है – वीर प्रेम नहीं करते, वसुंधरा उनकी भोग्‍या होती है। पांचवें में आया एक पंक्ति का आकस्मिक-सा अंत जाहिर तौर पर बातचीत का टूटना लगता लेकिन उसमें बहुत बड़ा ख़ालीपन जो छूटता है, वह पाठकों मन में जन्‍मने लगी कविता के लिए है। जहां कोई कहता है जाइए अब मुझे कोई बात नहीं करनी, बात वहीं से फिर शुरू हो जाती है। मुझे पहली पढ़त में ऐसा कुछ लगा। मैं अधूरा रह गया हूं पर अनुनाद के प्रिय पाठक मेरे इस छूटे हुए कथन को पूरा करेंगे।       
    
(एक)

तुमसे नहीं होगा
सिर्फ इसलिए तो छोड़ नहीं दोगे तुम वह काम
मसलन एक कविता लिखने की कोशिश

आख़िरी पत्ते उतार चुका है पेड़
और वसंत लुटे हुए बजाज की तरह शर्मिन्दा खड़ा है दरवाज़े पर

बहुत तेज़ धूप में बहुत तेज़ चलते हुए
ज़रूरी नहीं कि किसी छाया की तलाश में चल रहा हो वह

क्या फर्क पड़ता है कि वह लय में नहीं रो रहा था
आंसू का कोई तुक उम्मीद से मिलता है क्या?

उसके जीतने की फ़िक्र में हलकान नहीं हूँ मैं
मेरा दुःख तुम्हारी उस हार से है जिसने युद्ध की घोषणा का इंतज़ार भी नहीं किया.

(दो)

उम्मीद किसी फलदार वृक्ष की ओर उछले पत्थर का नाम तो नहीं

तुम्हें उससे उम्मीद थी इसलिए तुम नज़रंदाज़ करते आये जाने क्या क्या
प्रेम करते हुए जैसे घोंट जाता है कोई उबासियों को

मैं ख्वाब में था दिन चढ़े तक और रात जैसे चद्दर की तरह लिपटती गयी मुझसे
अजीब वक़्त था जब उम्मीदों के लिए रात की निगहबानी ज़रूरी हो चली थी

यह थीलिखते हुए चाहता हूँ तुम है पढो
उम्मीद और किसे कहते हैं?

(तीन)
गिनतियाँ ख़त्म नहीं होती
जैसे प्रेम ख़त्म नहीं होता

वह तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है यह भ्रम तुम्हें भटकाता है
जबकि सच में प्रतीक्षा कर रही होती है वह तुम कहीं और होते हो

सौन्दर्य ख़त्म हो जाता है एक दिन पहाड़े की तरह
और स्मृति में रह जाती है उसकी लय
तुम अपनी स्मृतियों से प्रेम करते हो और उस लय से

तुम जिस क्षण नहीं कहकर लौट आते हो
गढ़ पाकर सिंह को खोये हुए राजा की तरह कलपते हो

हाँएक मुश्किल शब्द है नहीं उसका विलोम नहीं है
कोई लिखित शब्द नहीं एक अनचाहा स्वप्न है उसका पर्यायवाची

मेरे शब्दकोश में तमाम ख़ाली पन्ने हैं
मेरी कविताएँ उन्हीं शब्दों का उदास थेसारस हैं...
***
हत्यारे से बातचीत

(एक)

तो तुम्हारा घर...

घर छोड़ दिया था मैंने
मुझे घरों से नफ़रत थी
मैंने सबसे पहले अपना घर उजाड़ा

मुझे नफ़रत थी छोटे छोटे लोगों से
मुझे ग़रीबी से नफ़रत थी, ग़रीबों से नफ़रत थी
मुझे मुश्किल से जलने वाले चूल्हे की आग से नफ़रत थी
मुझे उन सबसे नफ़रत थी जो मेरे लिए नहीं था
जो मेरे लिए था मुझे उससे भी नफ़रत थी

असल में मैंने घर नहीं छोड़ा
मैंने अपनी नफ़रतों का घर बनाया
और फिर जीवन भर उसमें सुकून से रहा

जो घर जलाए मैंने
उनकी चीखें मेरे जीवन का संगीत हैं.

(दो)

प्रेम ...

प्रेम मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है
मैंने नहीं किया प्रेम और बनता गया मज़बूत दिनोदिन
वीर प्रेम नहीं करते, वसुंधरा उनकी भोग्या होती है.

मैंने जंगल देखे तो वह मुझे छिपने की जगह लगी
मुझे तेज़ तूफ़ान सबसे मुफीद लगे ह्त्या के लिए
बच्चों को देखकर मुझे कोफ़्त होती थी
मैंने चाहा कि रातोरात बड़े हो जाएँ वे
स्त्रियाँ मेरे जीवन में आई चीखने की तरह

मैंने खुद को प्रेम किया
और खुश रहा.

(तीन)

डर...

डर नहीं लगा कभी मुझे..
असल में लगा
चीखें मेरे डर का इलाज थीं
बहते खून ने मेरी नसों में हिम्मत भरी
डरी हुई आँखों की कातरता ने हरे मेरे डर

जहाँ से शुरू होता है तुम्हारा डर
वहां से मेरा ख़त्म हो जाता है
मैं रात के अंधेरों से नहीं दिन के उजालों से डरता हूँ

(चार)

सपने....

मुझे सपनों से नफरत है
मैं रातों को सोता नहीं उनकी आशंका से
पता नहीं कहाँ से आ जाते हैं नदियों के शांत तट
खेल के मैदान, बच्चे...वे औरतें भी जिन्हें बहुत पीछे छोड़ आया था कहीं

मैं नहीं चाहता लोग सपने देखें और डरना भूल जाएँ थोड़ी देर के लिए
मैं नहीं चाहता लोग सपने देखें और सोचना शुरू कर दें
मैं नहीं चाहता कि लोग सपने देखें और नींद में गुनगुनाने लगें
मैं नहीं चाहता कि सपने देखते हुए इतिहास की किसी दुर्गम कन्दरा में ढूंढ ले वे प्रेम
और जागें तो चीखने की जगह कविताएँ पढ़ने लगें

असल में मुझे कविताओं से भी नफरत है
और संगीत की उन धुनों से भी जो दिल में उतर जाती हैं
मुझे नारे पसंद है और बहुत तेज़ संगीत जो होठ और कानों तक रह जाएँ
मैं चाहता हूँ हृदय सिर्फ रास्ता दिखाए लहू को
और जब मैं एकदम सटीक जगह उतारूं अपना चाकू
तो निकल कर ज़मीन को लाल कर दे  

मैं इतिहास में जाकर सारे ताजमहल नेस्तनाबूद कर देना चाहता हूँ
और बाज बहादुर को सूली पर चढाने के बाद रूपमती को जला देना चाहता हूँ
मैं उन सारी किताबों को जला देना चाहता हूँ जो सपने दिखाती हैं

मैं उनके सपनों में अँधेरा भर देना चाहता हूँ
या इतना उजाला कि कुछ दिखे ही नहीं.

(पांच)

लेकिन...

जाइए मुझे अब कोई बात नहीं करनी!

Tuesday, April 8, 2014

इतिहास जहाँ पर चुप हो जाता है, कविता बोलती हैै : केशव तिवारी के नए कविता संग्रह 'तो काहे का मैं' पर महेश पुनेठा का आलेख

कवि का रेखाचित्र : कुंवर रवीन्‍द्र

लोकधर्मिता, न गाँव के दृश्य या घटनाओं को कविता में लाना भर है ,न पेड़-पत्ती-फूल की बात करना मात्र ,न केवल किसी अंचल विशेष की लोकसंस्कृति का उल्लेख करना और न लोकबोली के शब्दों का अपनी कविता में प्रयोग करना भर है। लोकधर्मिता एक व्यापक अवधारणा है जो गाँव से लेकर महानगर तक फैली उस संवेदना का पर्याय है जो उस हर व्यक्ति से संबंद्ध है जो उपेक्षित-पीडि़त-शोषित है और अपने शारीरिक श्रम पर जीवित है। युवा कविता में इस लोकधर्मिता की सबसे अधिक व्याप्ति हमें केशव तिवारी के यहाँ दिखाई देती है। उनके सद्य प्रकाशित कविता संग्रह ‘तो काहे का मैं’ में उनका लोक अपने गाँव से लेकर दिल्ली तक फैला है जिसमें मुराद अली ,जोखू, गुरु पासी, बिसेसर, सुगिरा काकी, धनई काका, मइकू, मोमिना से लेकर मानबहादुर सिंह, विनायक सेन, विष्णु चंद्र शर्मा, कपिलेश भोज तक मौजूद हैं। उनकी कविताओं में एक ओर ‘गाँव के रास्ते का कुआँ’ है तो दूसरी ओर पेरिस,मांटेस्क्यू ,वास्तील के किले का जिक्र मिल जाएगा। इसी तरह कहीं गाँव की ‘रामलीला’ तो कहीं चित्रकूट में ‘औरंगजेब का मंदिर’ दिख जाएगा। सब अलग-अलग भावभूमि पर लेकिन सबके केंद्र में लोक। क्या मुराद अली, जोखू, गुरु पासी, बिसेसर, सुगिरा काकी, धनई काका, मइकू, मोमिना आदि का जीवन संघर्ष केवल किसी ख़ास लोकेल में रहने वालों का जीवन संघर्ष है? सर्वहारा गाँव में रहता हो या शहर में, क्या उसका जीवन संघर्ष एक समान नहीं है? उनकी कविताओं में आने वाले दृश्य-बिंब-पात्र भले ग्रामीण परिवेश से अधिक हों लेकिन संवेदना सार्वभौम है। औरत के लिए ‘बस इतनी सी आजादी’ की माँग, ‘बेरोजगारी में इश्क’, ‘तो काहे का मैं’, ‘जोगी’, ‘डर’ जैसी कविताओं को क्या हम किसी गाँव या शहर की सीमा में बाँध सकते हैं।  उनकी कविता कभी माडि़या-गोड़ से हमारा परिचय कराती है। कभी जगदलपुर तो कभी कौसानी ले जाती है।

संग्रह की पहली ही कविता से शुरू करें जो चित्रकूट में औरंगजेब द्वारा बनवाये गए बालाजी के मंदिर को अवलंब बनाकर लिखी गई है। इसे हम किसी खास क्षेत्र तक सीमित नहीं कर सकते हैं। यह कविता इतिहास के सांप्रदायीकरण पर गहरी चोट करती है। जनसामान्य में औरंगजेब या मुगल शासकों को हमेशा मंदिरों और मूर्तियों के विध्वंसक के रूप में ही देखा जाता है। बहुत कम यह जानते हैं कि औरंगजेब ने मंदिर भी बनवाए। केशव ऐसे ही एक मंदिर से अपनी कविता में पाठकों को परिचित कराते हैं। वह कहते हैं भले ‘यहाँ नहीं उमड़ती भक्तों की भीड़’ लेकिन ‘एक रास्ता इधर से भी जाता है’। यह वह रास्ता है जिससे पाठक इतिहास के उन पन्नों तक पहुँचाता है जिन्हें जानी-बूझी साजिश के चलते नेपथ्य में डालने की कोशिश की गई ताकि एक खास कालखंड को एक खास धर्म की छवि को बिगाड़ने के लिए इस्तेमाल किया जा सके लेकिन कवि ऐसा नहीं होने देता है। वह हमें कुछ ऐसे उजले पक्षों के दर्शन कराता है जो इतिहास की दरारों को भरने का काम करते हैं। यह कविता उसी का उदाहरण है। कवि अपील करता है -तमाम धार्मिक उद्घोषों/जयकारों के बीच धर्म और इतिहास के मुहाने से/चीखती एक आवाज/तमाम ध्वंस अवशेषों से क्षमा माँगती/कोई सुने तो रुक कर। ’ लेकिन दुर्भाग्य इसी बात का है कि रुक कर सुनने को कितने तैयार हैं? यहाँ तो अधिकांश ने अपने आँख-कान बंद कर लिए हैं। अपनी सुविधानुसार इतिहास को स्वीकार कर लिया है। इतिहास के तथ्यों की जाँच और विश्लेषण के भाववादी कारण ढूंढ लिए हैं। धर्मग्रंथों या खास संगठनों की प्रचार सामग्री को इतिहास मान लिया है।  कैसी विडंबना है आदमी डर के कारणों में ही डर की मुक्ति देख रहा है- दुनिया भर की तमाम/पवित्र किताबें/भय और आतंक से/भरी पड़ी थीं/और मैं/अपने सबसे डरे समय में/उन्हीं को पढ़ रहा था।(डर) बिना शोरशराबे के सांप्रदायिकता का ऐसा विरोध जो उसके जड़ों पर ही चोट करता है। यह केशव तिवारी का काव्य कौशल है। केशव इतिहास की गड़बडि़यों पर पैनी नजर रखते हैं। वह जानते हैं कि इतिहास हमेशा आल्ह ऊदल ताला सैयद मलखान जैसे लोक नायकों का नाम तक नहीं लेता है। केशव इस बात से अच्छी तरह परिचित हैं कि -इतिहास का होता है एक/अपना गणित /वह जानता है कहाँ बोलना है/और कहाँ सोट खींच लेना है/पर सच तो यह है कि /इतिहास जहाँ पर चुप हो जाता है/कविता बोलती हैै।(महोबा) केशव की कविता इसी भूमिका में है।

इसी तरह एक लंबी कविता‘बिसेसर’ है जिसे हम किसी गाँव या शहर की कविता नहीं कह सकते हैं। यह आजादी से मोहभंग और प्रजातंत्र के नाम पर हो रहे पाखंडों को उघाड़ने वाली   कविता है। बिसेसर जो-‘पुस्तैनी धंधा मुराई का/सब्जी उगाते सर पर रखकर/गाँव-गाँव फेरी लगाते या/हाट के दिन बाजार हो आते’ उन्होंने देश की आजादी के लिए हुए संघर्ष को देखा-सुना है। ‘देश आजाद हुआ तब जवान हो चुके थे बिसेसर।’ उन्होंने देखा-‘वही कोठी जहाँ से चलता/था अंग्रेजों का हुकुम/अब खद्दरधारियों का ठिकाना बन रही थी/बाबू साहब की हिंस्र आँखों की दिखावटी/दया टपक रही थी।’ क्योंकि देश में प्रजातंत्र आ गया था। ‘बिसेसर इस प्रजातंत्र में एक पार्टी के/कोल्हू के बैल हो गए थे।’ लेकिन कुछ समय बाद‘ धीरे-धीरे नए-नए लोग आने लगे/नई-नई बात समझाने लगे/बात बढ़ते-बढ़ते गाँधी बाबा/और जवाहर लाल के जादू से /छूटने लगी/पर बिसेसर कभी यहाँ कभी वहाँ/जाति बिरादरी के नाम पर/भटकते रहे/एक खोह से निकलकर दूसरी /में अटकते रहे। देश के हर आम आदमी की स्थिति यही थी। केशव बिल्कुल सही पकड़ते हंै-यह राजनीति के जाल और झूठ का समय था/लोग उलझ कर मर रहे थे/बिसेसर बिना गोसइयाँ की गाय हो चुके थे/उन्हें कोई नहीं दिख रहा था/जिस पर भरोसा करते। इस भरोसे के टूटने से ही जनता में ‘कोई नृप होई हमै का हानी’ का नैराश्य भाव पैदा हुआ जो दिन प्रतिदिन मजबूत होता जा रहा है। उसी का परिणाम है-बिसेसर की आजादी/घूम फिर कर वहीं/बाबू साहब की कोठी/के इर्द-गिर्द चक्कर/काटती रही। आजादी से पहले भी बिसेसर बाबू साहबों की कोठी में फेरी लगाकर सब्जी बेचता था और आज भी। बस अंतर इतना ही आया कि ‘अब शोषण का प्रजातांत्रीकरण’ हो गया है। लोकतंत्र की आड़ में लोक का शिकार किया जा रहा है। ‘प्रजातंत्र के नाम पर एक/पूरी की पूरी पीढ़ी को/गन्ने की तरह’ चूसा जा रहा है। लेकिन दुःखद यह है कि जनता में इस सब के खिलाफ कोई खास हलचल नहीं है।कोई संगठित प्रतिरोध नहीं। केशव इस विडंबना को कविता के अंत में इस प्रकार व्यक्त करते हैं-बिसेसर तमाम लोगों के साथ/एक जहाज पर बैठे/हाथ हिला रहे थे/बिना यह जाने कि वे आखिर /किधर जा रहे थे।’ यहाँ यह जहाज प्रजातंत्र है जिस पर बैठी जनता कभी इसे तो कभी उसे हाथ हिला रही है।जहाज को चलाने वाले उसे अपनी मनचाही दिशा में ले जा रहे हैं।

कवि केशव तिवारी की  कविताओं की मिठास डाल से गिरे उस अमरूद की तरह है जिसे सुग्गे ने आधा खा दिया हो जिसे एक जरूरतमंद बच्चा अपनी कमीज से पोंछ कर खा लेता है।जरूरतमंदों-उपेक्षितों-शोषितों-पीडि़तों की यही दुनिया है जिसे केशव अपनी कविता के सीने से लिपटाए रखना चाहते हैं। उसी के लिए कविता को बुनना चाहते हैं और ऐसी बुनावट रखना चाहते हैं जो इतनी महीन न हो कि उसमें बुनावट ही बुनावट दिखे चित्र दब कर रह जाय। कुछ कलावादी उनकी कविताओं की बुनावट को लेकर नाक-भौं सिकोड़ते हों लेकिन वह उनकी परवाह नहीं करते हैं।वह सीधे कहते हैं-जुलाहे भाई इतना भी/महीन न बुनो कि/बुनावट भर रह जाए/और चित्र खो जाए/कभी-कभी मूँज से/खर खर बिनी खटिया/कितनी खूबसूरत बन पड़ती हैं।(जुलाहे भाई) खूब लिखी जा रही नकली और अमूर्त कविताओं के ढेर में केशव की कविताएं बिल्कुल उनकी कविता ‘धनई काका’ की अलबी-तलबी की तरह लगती हैं-‘जैसे संकर के दौर में/देसी टमाटर की खटास/जैसे पानी देखते ही चटक उठे/बहुत देर से रोकी प्यास/जैसे दना रहे चना का लोनहा खेत/जैसे तलुओं में गुदगुदाए चढ़ती/नदी की रेत/जैसे फटा पड़े जमकर पाँसी/ऊख से रस/जैसे /बहुत दिनों का भूखा/परसने वाली से न कहे बस।’ उनकी कविताओं को पढ़ते हुए भी बस कहने का मन कहाँ होता है।एक प्यास बनी रहती है। ऐसी कविताएं वही लिख सकता है जो जीवन में सहज हो, जिसने बेकार के दंभ न पाले हों और अभिजात्य के खिलाफ खड़ा हो सकता हो ‘धनई काका’ की तरह।

उनकी कविताओं में जो बुंदेली जन आते हैं-इनके गहरे काले रंग पर/दुपहरिया के चमकते फूल खिलते हैं/उदास आँखों के कोनों में कहीं/हर वक्त अलसी के फूलों के/ दीए जलते हैं/ये विंध्य से ज्यादा मजबूत/और बड़े हैं/बात जब-जब आन पर आई/अड़े हैं/आँधी,बारिश में खैर के/पेड़ की तरह खड़े हैं(मेरे बुंदेली जन) अपने जन पर इतना गहरा विश्वास एक लोकधर्मी कवि का ही हो सकता है।केदार,त्रिलोचन,नार्गुजन जैसे कवियों के यहाँ ऐसी रागात्मकता दिखाई देती है। उनकी इस रागात्मकता के दर्शन ‘ढोल पुजाई’ कविता में भी होते हैं। अपने जन से इतना प्रेम करते हैं इसलिए तो शुभ दिनों की शुरुआत और हर शगुन में खूब टनकने वाली ढोल का चुपचाप खूँटी पर टँगा रहना उनको नहीं भाता है और उससे कहते हैं-तुम गूँजो उन सूने घरों में/जहाँ तुम्हारा गूँजना अब/बहुत ही जरूरी हो गया है....तुम गरजो बादलों की तरह/कि गेहूँ के पौंधों से मुरझाए/चेहरों का विश्वास न डिगे।’ अपने जन से प्रेम ही है कि उसके बिना वह प्रकृति की सुंदरता की कल्पना तक नहीं करते हैं। वह मानते हैं कि मनुष्य ही है जिसके चलते प्रकृति की सुंदरता का महत्व है।गेहूँ के दूर-दूर तक फैले खेत और चमक रहा चाँद कवि को तभी सुंदर लगते हैं जब उनके बीच घरों को लौटते लोग होते हैं।     उनकी कविता के नायक वे लोग हैं जो तमाम अभावों के बीच भी अपने ‘नाम’ और स्वाभिमान को बचाए रखने के लिए सचेत हैं -गगरी गढ़ते वक्त एक सूत/रंेच न रह जाए कि/नाम धरें लोग /नहीं है दाना-पानी ,मौजे में /मइकू का पानीदार नाम तो है।(मइकू का नाम) बाजारवादी समय में जहाँ लोग ऐन-केन प्रकारेण पैसा जुटाने में लगे हैं, मइकू का इस तरह सोचना आश्वस्त करता है कि अभी भी बहुत कुछ बचा है जिससे इस दुनिया की सुंदरता बनी हुई है।एक कवि जितना अपने जन के नजदीक होता है और उसके सुख-दुःख का साझीदार बनता है तथा उसे मान-सम्मान देता है उतना ही जनता अपने कवि को देती है और उसकी बाँह पकड़ लेती है......जब भी मन किया जाने को बाहर/इन सबने बाँह पकड़ कर कहा/तुम अकेले ही नहीं थके हो/तुम अकेले ही नहीं थके हो/इन दुःखों के बोझ से हम भी थके हैं/हम जैसे सहते हैं सहो/हमारी बात कहो/पर कवि हमारे साथ ही रहो।(कवि हमारे साथ रहो) 

कविवर केशव तिवारी अद्भुत कल्पनाशीलता के धनी हैं, जिसके चलते वह सुरों में डूबी धरती के हृदय में गड़े कांटे को भी देख लेते हैं और सुरों में डूबी धरती की कराह को सुन लेते हैं।कहीं न कहीं यह कल्पनाशीलता उनके यथार्थ की गहरी पकड़ और परम्परा से गहरे जुड़ाव का परिणाम है। वह कहते हैं-मैं जयशंकर को पढ़ता हूँ/और निराला के आगे/ सिर धुनता हूँ/परम्परा में जीता हूँ और /उसी में अफनाता भी हूँ।’ यह उनके कवि की विशेषता है कि वह परम्परा में जीता है लेकिन उससे बंधता नहीं। बिल्कुल उस बीज की तरह जो जमीन के भीतर अंकुरित तो होता है लेकिन उसी जमीन को तोड़कर बाहर निकल आता है और अपना स्वतंत्र रूप-रंग ग्रहण करता हैै। इसके बावजूद जमीन से ही जल और खनिज लवण लेता रहता है।परम्परा से ताकत ग्रहण करने वाला कवि ही समय के हाथों संचालित नहीं होता है बल्कि अपने समय का साझेदार बनकर रहता है तभी इतने विश्वास से कह पाता है-आज ढोल की तरह टाँग दिया है/तुमने खूँटी पर/कल नगाड़े की तरह/तुम्हारे सर पर मुनादी करूँगा। (अपने समय का कवि) उनकी कल्पनाशीलता की ताकत प्रकृति के मानवीकरण में भी दिखाई देती है।तभी तो उनकी कविताओं मेें कहीं पलास का पेड़ अपनी लाल झंडी सी बाँह हिलाता है, कहीं कोयल कूक कर रेल के देर-सबेर पहुँच ही जाने का उद्घोष करती है, कहीं -बसंत में शलभ सी/उड़ने को तैयार यह सोमेश्वर घाटी/पावस में/सीढ़ीदार खेतों के बीच धानी साड़ी पहन/पैर लटकाए बैठी/कोसी से कुछ बतिया रही है।

 इन कविताओं में मानव मन की हरेक भाव दिखाई देता है। कवि खुश होता है तो उस खुशी को व्यक्त करता है और उदास होता है तो उदासी भी छुपाता नहीं।दूसरों की बेचैन आँखों को पढ़ने में भी चूकता नहीं है। लेकिन कवि की चिंता का सबब एक ऐसी उदासी है जिसमें बेचैनी नहीं है।जीवन में उदासी होना स्वाभाविक है लेकिन उसमें बेचैनी का न होना खतरनाक है। कवि अच्छी तरह जानता है कि यदि उदासी में बेचैनी है तो वह बदलाव की लड़ाई की ओर बढ़ती है लेकिन बेचैनीविहीन उदासी पूरे समाज को अवसाद के गर्त में धकेलती है। ऐसा समाज पलायनवादी या यथास्थितिवादी हो जाता है। जो खालिस उदासी की चादर ओढ़ लेते हैं वे ‘कुछ नहीं हो सकता है’ के दर्शन को बढ़ावा देकर अंततः उदासी के कारकों ही को सहायता पहुँचाते हैं। इसलिए जब कभी कवि उदास होता है अपने पुरखे से मदद की गुहार करता है-‘ओ मेरे गायक मेरे मन को /तमूरे की तरह बजा तू/मुझे उदासी से बाहर निकाल।’ कवि कबीर के पास जाता है । उसे आशा है कि वह ही उसे उदासी से बाहर निकाल सकता है।                                  

एक कवि की जिम्मेदारी बहुत बड़ी होती है। वह केवल कविता लिखने तक ही सीमित नहीं होता है।उसे जीवन में भी साबित करना होता है। खुद को ही बचा लेना उसके लिए पर्याप्त नहीं है। समाज में घटित होने वाली हर अच्छाई-बुराई में उसका भी अंश है। केशव अपनी इस सामूहिक जिम्मेदारी को समझते हैं इसलिए जब तस्लीमा को अपनी लिखी किताब के लिए वतन बदर कर दिया गया तो उनके कवि का सिर शर्म से झुक गया-‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र/का नागरिक मैं/उसे देख रहा हूँ सर झुकाए’ यह भारतीय लोकतंत्र की कैसी विडंबना है कि-जहाँ मनुष्यता के हत्यारे/खुले आम घूम रहे हैं/वहीं सर छुपाने की जगह/माँग रही है वह।’ कुछ लोग अपने को लिखने तक सीमित रखने की बात करते हैं ,उनका प्रतिरोध शब्दों तक ही रहता है लेकिन केशव तस्लीमा के हवाले से कहते हैं-‘ये वक्त ....उनसे आँख मिलाने का है/जिनके खिलाफ लिख रहे हो तुम।’ केशव की पूरी कोशिश रहती है कि जिन लोगों के खिलाफ वह लिख रहे हैं जीवन में उनसे आँख न चुराएं। इसी के चलते वह‘विनायक सेन’ का समर्थन करते हुए उन पर कविता लिखते हैं और उन्हें ‘सामूहिक स्वरों का मुक्ति गान’ स्वीकार करते हुए अपना स्वर भी उसमें मिलाते हैं। जीवन-संघर्ष में उतरने की बात उनकी इन पंक्तियों में भी व्यक्त होती है-‘जीवन में कितना कुछ छूट गया/और हम विचार की बहँगी उठाए/आश्वस्त फिरते रहे/नदी पर कविता लिखी/और जिंदगी के कितने/जल से लबालब चैहड़े सूख गए।’उनकी दृढ़ मान्यता है कि -जिसने प्रेम किया/एक अथाह सागर थहाता रहा/जिसने प्रेम परिभाषित किया/किताबों में दबकर मर गया।’ वह खुद को कटघरे में खड़ा करने में देर नहीं लगाते-जब रुक कर सोचने का वक्त था/खुद को समेटने का /हम विचारों की घुड़सवारी कर रहे थे। समीक्ष्य संग्रह की शीर्षक कविता ‘तो काहे का मैं’  में तो जैसे वह खुलकर ही इस बात को कहते हैं-‘अगर यह सब कविता में तुम्हें/सिर्फ सुनाने के लिए सुनाऊँ/तो फिर काहे का मैं।’ उनके लिए कविता सिर्फ सुनाने भर के लिए नहीं बल्कि जीवन में उतारने के लिए है। वह बेईमान की आँखों में खटकने ,मित्रों को गाढ़े में याद आने और मुहब्बत से देखने वालों के सीधे सीने में उतर जाने पर विश्वास करते हैं। वह कविता की चिंता के लिए समाज के पास जाने वाले नहीं बल्कि समाज की चिंता से कविता के पास जाने वालों में से हैं। उनके लिए कविता लिखना कुछ भौतिक लाभ प्राप्त करने की आकांक्षा नहीं है।यह अपना पक्ष तय करने, मन की कलौंच धोने और खुद की रेकी करने सा है-कविता कितनी निर्ममता से/माँजती है मन/जैसे झाँवा से हलवाई/रगड़ता है कढ़ाई की कलौंच/कविता लिखना एक आत्ममुग्ध/दुनिया में/खुद के ऐब गिनाने सा/लगता है।(कोई रोकता है)उनका स्पष्ट मानना है कि कविता तंग काफी हाउस या वातानुकूलित कमरों में बैठकर नहीं लिखी जा सकती है और न ठंडी किताबों को पढ़कर । हवाई किलों में कवि का दम घुटता है वह जीवन के विस्तृत मैदान में विचरण कर नए-नए अनुभव ग्रहण करना चाहता है। तभी सच्ची कविता संभव है। एक कवि जीवन में धँस कर ही बड़ी कविता लिख सकता है।उसे किसान की तरह तैयारी करनी पड़ती है।यह तैयारी उनके यहाँ दिखती भी है। उन्हें महिनों तक तमाम कठिनाइयों को उठाते हुए असुविधाओं के बीच अपने गाँव और उसके जन के बीच खुशी-खुशी दिन गुजारते हुए देखा जा सकता है।   

यही कारण है कि केशव  मध्यवर्गीय जीवन जीते हुए भी लोकजीवन में इतनी गहरी पैठ रखते हैं। उनकी कविता में हमें किसानी संस्कार मिलते हैं। किसान का पूरा जीवन धड़कता है। उनकी कविताओं में अधिकांश बिंब किसान जीवन से ही आते हैं। कितना अद्भुत बिंब है-‘जिंदगी हाथ में हरा चारा/और पीछे रस्सी छुपाए/बुलाती रही।’ इस बिंब से गुजरते ही वह चित्र सामने उतर   आया जिसमें माँ कुलाँचें मारती बछिया को हरी घास देकर बाँधने का प्रयास करती है। किसान जीवन जीने वाला ही इतना अनूठा बिंब कविता में ला सकता है।लोक और प्रकृति से दूर रहकर ऐसे बिंब कविता में लाना संभव नहीं है। ‘एक वृद्ध लोेक गायक को सुनकर’ एक किसान चेतना का कवि ही इतना भाव-विभोर हो सकता है कि उसका मन लय की वलय पर तैरने लग जाय। उसके चैता को सुनकर यह महसूस करने लगे-‘सींच रहा है तपे मन को/कुशल कृषक सा/कोई कोना न छूट जाए  /कौन सुरों से जोत रहा है/इन खेतों की उदासी/और अभावों की शिला तोड़ता है।’ एक किसान आँखों के सामने घूमने लगता है। क्या मध्यवर्गीय मानसिकता में डूबा कवि ऐसी पंक्तियाँ लिख सकता है? केशव को किसी लोकगीत का गाया जाना ‘सिर्फ मनसायन नहीं’ लगता है। यह सत्य भी है लोकगीत केवल मनोरंजन के लिए नहीं जाता है वह लोकमन की हर्ष-उल्लास,दुःख-दर्द और संघर्ष की अभिव्यक्ति है। वह मानते हैं कि यह -‘एक जिंदा आवाज का दखल है/सन्नाटे और धूप के बीच।’इस जिंदा आवाज के बदौलत लोक ने न जाने कितने संघर्षों का कितनी बार मुकाबला किया।

लोक का एक बड़ा हिस्सा गाँव में बसता है इसलिए लोकधर्मी कविताओं के केंद्र में गाँव और उसकी समस्याओं का होना स्वाभाविक है। केशव भी इस दृष्टि से अपवाद नहीं हैं। गाँव उनकी कविताओं में खूब आता है। अपने अलग-अलग रूपाें में। जिस ‘साँझे की शान ’ की बात वह करते हैं वह गाँव में ही संभव हो सकती है-गाँव भर ने मिल कर छाई/गाँव-भर ने उठाई/पूरे गाँव के कंधे पर तनी रही......कँधई की छान है यह/गाँव-भर की आन है यह।’ यहीं आते-जाते लोग छाँह बैठते ,यहीं पानी पीते और यहीं बेघर अपना घर बनाते।किसी शहर में यह नहीं देखा जा सकता है। इसी तरह ‘ढोल पुजाई’ और ‘खेत जगाए जा रहे हैं’ जैसे दृश्य भी गाँव मंे ही दिखाई दे सकते हैं। इन कविताओं में ग्राम्य-संस्कृति से तो पाठक का परिचय होता ही है।साथ ही किसानों की दुर्दशा से भी। कवि को यह स्थिति बहुत कचोटती है-‘न धान को जड़ों भर पानी/न खेतों को कम्पोस्ट और डी.ए.पी./भूखे-प्यासे खड़े हैं खेत।’ कवि खेतों के साथ जागने वालों को तो जानता ही है साथ ही उनकोे भी जो-‘सड़ते हुए अनाज पर/गलत बयानी करते जा रहे हैं।’ और किसानों की आत्महत्या के लिए जिम्मेदार हैं। कवि संकेत करता है कि भूखे-प्यासे खड़े खेतों की भूख-प्यास को कोई आयोग दूर नहीं करेगा बल्कि उसे दूर करने के लिए उन्हीं लोगों को आगे आना होगा जो खेतों के साथ-साथ जाग रहे हैं। यहाँ केशव पूरी तरह राजनीतिक हो जाते हैं। इससे उनकी राजनीतिक चेतना का पता चलता है। वह कोई भावुकता  भरा समाधान नहीं सुझाते। वह अच्छी तरह जानते हैं कि बिन लड़े कुछ नहीं मिलता है। वह जानते हैं जीवन दुखों की एक अनंत यात्रा है।लड़ना ही इनसे बाहर निकलने का एकमात्र उपाय है। गाकर दुःख न कटे और न कटेंगे इसलिए वह अपनी एक कविता में सोचने के लिए कहते हैं-जब कभी ठहर जाय मन/कुछ थिरा जाय दुःख/तो सोचना सुगिरा काकी तुम/जरूर सोचना/उस कहावत के बारे में/जिसे कहती आयी हो आज तक/कि गाए गाए कट जाता है दुःख।(सुगिरा काकी) दुःख तो लड़कर ही कटेगा। कवि इस आवश्यकता की ओर हमारा ध्यान खींचता है। सोचने को प्रेरित करता है।तमाम अभावों के बावजूद जीने की ललक को भी कवि दुःख के खिलाफ लड़ने की एक शुरुआत के रूप में देखता है। छोटे-छोटे विरोध में भी बड़ी संभावना देखना कवि केशव की विशेषता है।छोटी-छोटी उड़ानाें से एक लंबी उड़ान पर उनका विश्वास है। केशव किसी का दुःख देखकर फफक उठते हैं। सुनसान रस्ते उन्हें हर पल बुलाते से लगते हैं। अपने ठिकानों में लौटकर नई तैयारियों और नई मंजिलों के बारे में सोचते हैं। अन्न की तरह भूख तक पहुँचने की इच्छा रखते हैं अर्थात सचमुच उस आदमी तक पहुँचने की जिसको उनकी जरूरत है।

ग्राम्य लोक के नजदीक होने का  मतलब यह कतई नहीं कि वहाँ फैली कुप्रवृत्तियों का वह समर्थन करते हों। उनका तो स्पष्ट मानना है कि एक सच्चा लोकधर्मी कवि लोक में फैली तमाम गलत बातों का पहला विरोधी होता है। वह लोक में मौजूद बदमाशी को बताते हैं। वह यह रेखांकित करने से भी नहीं चूकते कि आपसी लड़ाई-झगड़ा ,कोर्ट-कचहरी,मुकदमा भी गाँव से पलायन का एक बड़ा कारण है-कई-कई बार बोला वह/एक रोटी खाकर भी न छोड़ता देस/रोटी ही नहीं यह वजहें भी थी(कल रात)। लेकिन इस सब के बावजूद अपने देस में बहुत कुछ ऐसा होता है जो उसकी याद आते ही आँखंे नम कर देता है। ‘अवध की रात’ कविता में भी वह गाँव के अंधेरे पक्ष को उजागर करते हैं-गाँव के गाँव चलती है/हत्यारों की हाँक/भेड़ों की तरह शाम से ही/घरों में कैद हो जाते हैं लोग। 

केशव तिवारी गाँव से शहर गए मध्यवर्गीय जीवन में आने वाले बदलावों को भी बारीकी से चित्रित करते हैं-सबसे पहले बदली हमारी बोली/तब हमें समझ में आया यहाँ/उन चीजों के साथ नहीं रह सकते/जो हमारे रक्त और संसार में शामिल हैं/यह एक विस्थापन का दौर था/सब धीरे-धीरे विस्थापित हा रहा था/एक नए-पुराने के अजीब से/मेल हो चुके थे हम। उनकी ‘मरचिरैया’ कविता गाँव से शहर विस्थापित होने के दौरान पाने और गँवाने का हिसाब रखती है-‘सालों साल बाद इतना कुछ सहकर/हमने जो पाया था/उसके बदले में जो गँवाया था।’ लेकिन एक उलझन कवि केे मन में भी है कि इसे नई पीढ़ी को बताया जाय कि नहीं। वह इस तिलिस्म को महसूस करता है कि-कैसे बाजार के दलदल में फँसा आदमी/तब तक नकारता है /जब तक उसमें डूब नहीं जाता है/हमने चाहा/पुरखेे कभी-कभी किस्से/कहानियों में सुपरमैन से आएं/उनका संघर्ष उनकी साँसत उनका जीवन/जबान पर भी न आए।’ इस कविता में गाँव व शहर के बीच झूलते मध्यवर्ग की सांसत को बहुत सुंदरता से व्यक्त किया गया है।

आधुनिकतावाद के प्रभाव में अधिकांश लोग अपनी देसज पहचान को छुपाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि देसज दिखने से लोग उन्हें असभ्य व पिछड़ा मानेंगे। गवाँर कहकर मजाक उड़ाएंगे। लेकिन केशव अपनी पहचान के साथ जीना चाहते हैं।लापहचान नहीं होना चाहते हैं।जिस गाँव में खड़े होकर उन्होंने पहली बार दुनिया को देखना प्रारम्भ किया अब उसे सारी दुनिया को दिखाना चाहते हैं। जब भी परदेस गए ‘अपने नदी तालाब पेड़ बोली बानी के साथ’। अपनी देस की मामूली चीजें भी उनके भीतर तक धँसी रहती हैं। ‘ये दुनिया में जहाँ भी पहुँचे हैं/पहुँचे हैं अपनी अवधी पहचान के साथ’ यह बात केशव ने भले अवधी आमों के लिए कही हो पर केशव तिवारी पर भी बहुत अधिक लागू होेती है। अवध के आमों की तरह उनकी कविताओं की महक बता देती है कि वह किस जमीन से आए हैं। वह अपनी पहचान के प्रति कितने सतर्क रहते हैं इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-मेरा गाँव मेरी वल्दियत/जिसके बिना/लापहचान हो जाऊँगा मैं.....मित्र कहते हैं पाँच सितारा/होटल में भी /झलक जाता है मेरा देसीपन/मुझे लगता है झलकना नहीं/साफ दिखना चाहिए/जब मैं धनहे खेत से आ रहा हूँ/तो मुझे दूर से ही गमकना चाहिए।’कितना अद्भुत भाव है। एक ऐसे समय में जब लोग श्रम की गंध को महेंगे-महेंगे इत्रों से छुपा रहे हैं, वह दूर से ही गमकना चाहते हैं और इस  पहचान को बदलना भी नहीं चाहते हैं। साफ-साफ कहते हैं- बदलना ही पड़ा तो/हम मौसमों की तरह/तो बिलकुल ही/नहीं बदलेंगे/न किसी इश्तहार की तरह/जिंदा चेहरों की तरह/अपनी-अपनी छाप लिए/बदलेंगे हम।(छाप)  कुछ लोगों के लिए वह कभी नहीं बदले लेकिन इसको उनकी न बदलने की जिद की तरह नहीं लिया जा सकता है या यह नहीं माना जा सकता है कि वह बदलाव विरोधी हैं बल्कि जैसा कि वह स्वयं कहते हैं-‘इस केंचुल बदलते समय के बीच/कुछ चीजों को उनके/मूल रूप में ही देखना चाहता हूँ।’ अब सवाल उठता है मूल रूप में ही क्यों देखना चाहते हैं? क्या यह उनका नास्ल्टेजिया तो नहीं? नहीं ऐसा नहीं है । दरअसल उनका मानना है कि फैशन के चलते कुछ चीजों के बदले रूपों की अपेक्षा उनके मूल रूप बेहतर हैं तो फिर बदलाव क्यों? फिर केंचुल बदलना वास्तव में बदलना नहीं है। वह पूछते भी हैं-क्या सुबह की नारंग धूप का रंग/आप पीला देखना पंसद करेंगे।

इन कविताओं में कवि का गहरा आत्मसंघर्ष भी प्रस्फुटित हुआ है। कवि बाहर से मुटभेड़ करने के साथ-साथ बार-बार खुद से भी मुटभेड़ करता हुआ दिखता है। एक कवि के लिए यह जरूरी भी है। वह खुद से प्रश्न करते हैं- यह खाली जेब किसान/जिस आशा और ललक से/देख रहा है/आम के इन टिकोरों को/मैं उसे क्यों नहीं देख पाता। खुद ही उसका उत्तर देते हुए बताते हैं कि ऐसा इसलिए होता है कि आदमी का ‘सौंदर्यबोध’ उसका आर्थिक स्तर तय करता है। सौंदर्यबोध पूरी तरह वस्तुगत तथा निरपेक्ष नहीं होता है।केशव के कवि मन में कोई गोरी,तीखे-नैन नक्श व फूलों के रंग वाली  छायावादी नायिका नहीं बल्कि सांवली सूरत वाली बैलाडीला के लोहे या डोंगरी के ताँबे से रंग वाली लड़की माँदल की तरह गूँजती है। देखने वाली बात है कि गूँज भी किसी अभिजात्य वाद्य की नहीं बल्कि लोक वाद्य की। कवि का विश्वास है-ए साँवली सूरत वाली लड़की/तेरे आँखों की कोर में सिमटी/नदी जिस दिन/तेरे हाेंठों से फूटेगी/धरती थमकर सुनेगी उसका संगीत।’ इस तरह वह पाठक के भीतर लोकधर्मी सौंदर्यबोध पैदा करते हैं जहाँ काला रंग,खुरदुरापन,सांवलापन,अनगढ़पन, जैसे अभिजात्य सौंदर्यशास्त्र से निष्कासित सौंदर्य मूल्य सम्मान पाते हैं।

प्रेम कवियों का सबसे प्रिय विषय रहा है। इतनी अधिक प्रेम कविताएं लिखी जा चुकी हैं कि    उसमें मौलिक रहना आसान नहीं है।हर रूपक-उपमा ,प्रतीक व बिंब पुराना व बासी ही लगता है।लेकिन केशव यहाँ भी नए बिंब व रूपक खोज लाते हैं। देखिए यह छोटी सी कविता- तुम्हारा रूप जैसे पूस की सुबह/केन पर चमकती हुई धूप/तुम्हारा नाम जैसे होंठ पर/रच-रच जाए देसी महोबिया पान/इस आँधी में हमारा प्यार/जैसे लफ़-लफ़ जाए/आरर जामुन की डार।(तुम्हारा रूप) कितनी भी लपक जाए जामुन की डाल पर टूटती नहीं है।तमाम मुसीबतों के बीच प्यार में उतार -चढ़ाव आते रहते हैं, लेकिन सच्चा प्यार वही होता है जो इस सब के बावजूद टूटता नहीं है।पे्रयसी के रूप और नाम को लेकर जो रूपक प्रयुक्त किए गए हैं वे एकदम मौलिक और जीवंत हैं। प्रेम कहीं भी हो केशव की कवि नजरों से वह छुपता नहीं है। एक‘जोगी’ की अनासक्ति के पीछे छुपी आसक्ति को भी वे ताड़ लेते हैं और प्रेम में डूबी सांसों को पढ़ने में देर नहीं लगाते हैं। वह पूछते हैं-एकतारा का तार तो/सुरों से बँधा है/तुम्हारा मन कहाँ बँधा है जोगी। और फिर खुद ही कहते हैं-प्रेम यही करता है जोगी/डुबाता है उबारता है/भरमता है भरमाता है। प्रेम पर कविता लिखने की अपेक्षा प्रेम करने में विश्वास करने वाले कवि केशव की प्रेम के बारे में राय है कि.......प्रेम एक अनंत यात्रा है जिसमें/अक्सर लोग थककर/कहीं कोने में रखकर /भूल जाते हैं बांसुरी.......प्रेम इन पठारी मैदानों में/कमर में मउहर खोंसे/अलमस्त फिरता एक गड़रिया है/दुनिया के तमाम सुर हैं/उसकी रेवड़े/यह डेढ़ फुट का इटकुटार /जब फूलेगा/उसमें फूलेंगे हमारे ही प्रेम के फूल।(आती जाती ऋतुओं में) ‘बेरोजगारी में इश्क’ का भी अपना एक अलग अनुभव होता है -कुछ खुली अधखुली थी दुनिया/इतना भी न रहता कि कुछ दे पाते उसे मनपसंद/एक समय के बाद तो कुछ देने का वादा/करने पर भी आने लगी शर्म।  लेकिन इसके बावजूद ‘प्रेम की के एक उदात्त अनुभूति को जी रहे थे’.... खाली जेब उससे मिलते और/भरे मन वापस लौट आते। .........एक समय के बाद प्रेम में यह स्थिति भी आती है-.कटे धान की उदासी रह गया है/हमारा प्रेम/जिसमें स्मृतियों के फूल काँटों की तरह कसकते हैं/तुम्हारे दरवाजे से गुजरता मैं/तुम्हारे होने के अहसास को अनखता हूँ।(कटे धान की उदासी)

केशव तिवारी की कविताई की खासियत है कि वह कविता के लिए विषय नहीं ढूँढते हैं बल्कि किसी सामान्य से अनुभव को भी अपनी लोक संवेदना से कविता में बदल देते हैं। इसके चलते विवरण कब कविता में बदल जाते हैं पता ही नहीं चलता है। ‘दिल्ली में एक दिल्ली यह भी ’ कविता को ही देखिए -इसमें कवि अपनी दिल्ली यात्रा का जिक्र करते हुए वरिष्ठ कवि विष्णुचंद्र शर्मा की आत्मीयता के बारे में बताते हुए इस बात को रेखांकित कर देते हैं कि राजधानी अर्थात सत्ता के केंद्र  में रहते हुए भी एक सच्चा कवि कैसे अपनी संवेदनशीलता को बचाए हुए है।उस दिल्ली में जहाँ लोगों के पास न मिलने का समय है और न ही इच्छा वहीं एक बूढ़ा कवि अपनी शरीरिक कमजोरी तथा अभी-अभी पत्नी के बिछुड़ने के दुःख में डूबा होने के बावजूद गर्मजोशी से आगंतुक का स्वागत करता है। वास्तव में -‘वह राजधानी में एक और ही दिल्ली को जी रहा था।’ यह एक पंक्ति इतनी काव्यात्मक है कि पूरे विवरण को कविता में बदल देती है।यह न केवल राजधानी के चरित्र को बता देती है बल्कि एक संवेदनशील कवि के माध्यम से असली दिल्ली कैसी होनी चाहिए ,यह भी बताती है।

उनकी कविताओं में स्त्रियों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है। ‘मोमिना’ एक ऐसी महिला है जो विधवा है। परदे से बाहर निकल गाँव-गाँव जाकर खटिया बिनने का काम करती है।यह काम करते हुए उसने परम्परा को भी तोेड़ा है। खटिया बिनते हुए उसकी अंगुलियां मछली-सी चपल चलती हैं। उसके बारे में कवि की राय है-खटिया बीनती मोमिना/मेरे गाँव की/सबसे जागती कविता है।....गाँव-गाँव घूमती/जिंदगी के चिकारे का/तना तार है मोमिना। ’ इन पंक्तियों में एक तरह से कवि मोमिना के साहस और श्रम की प्रशंसा करता है। इस कविता में श्रम भी है और प्रतिरोध भी उस व्यवस्था का जो स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक मानती है। उसे बांधे-झुकाए रखना चाहती है। यह बड़ी बात है कि मोमिना परदे से बाहर भी आती है और तने भी रहती है। इस कविता में एक विधवा स्त्री का पूरा संघर्ष भी उजागर होता है। केशव के स्त्री पात्रों में कोई तनकर खड़ी हो रही है तो कोई अपनी देेह पर मालिकाना हक माँग रही है। केशव जानते हैं कि लज्जा,शील,भय,भावुकता आदि वे हथियार हैं जिससे औरत की आजादी का शिकार किया जाता रहा है। उनके स्त्री पात्र इन हथियारों को धता बताती हैं और मुनादी करती हैं-जीने का इरादा लिए/मरने को तैयार/तुम्हारे रचे व्यूह के बीच मुनादी करती/तुम्हारे गौरव पर पैर रख/निकल जाना चाहती है एक औरत। (शिवकली के लिए)  वह फटे कपड़ों में खुद को समेटे खेत काटती औरतों के भूख के खिलाफ संघर्ष को देखते हैं।वह जानते हैं भूख और भूख के खिलाफ संघर्ष का इतिहास बहुत पुराना है। दुःखद है कि लाख कोशिशों के बाद भी स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं आया-कब से डटी हैं ये भूख के खिलाफ/इनके हिस्से है इस धरती की भूख/पर इनके समय का धँसा पहिया/लाख कोशिशों के बाद भी/जौ भर नहीं जुमका। कैसी विडंबना है कि-इनका वक्त दुनिया की घडि़यों/के बाहर है। ऊपर एक कविता में ‘व्यूह’ का और यहाँ ‘धँसा पहिया’ का प्रयोग पाठक को बहुत दूर इतिहास में पहुँचा देता है। स्मृतियों में अभिमन्यु कौंध आता है। वास्तव में पुरुषप्रधान समाज द्वारा रचे व्यूह में इन स्त्रियों के संघर्ष-रथ का पहिया अभी फँसा हुआ सा ही लगता है। ये अभी उस व्यूह को तोड़ने में समर्थ नहीं हो पायी हैं। ऐसे में एक जनपक्षधर कवि का मन समय के उस धँसे पहिए में फँसे रहना स्वाभाविक है। केशव तिवारी  स्त्री के लिए अपने जीवन को अपनी मर्जी से जीने की आजादी के समर्थक हैं।वह औरत के लिए अपनी पसंद का पहनने,पढ़ने ,घूमने की-‘बस इतनी सी आजादी/जो किसी की कृपा पर न हो।’चाहते हैं। इस कविता में ‘बस इतनी सी आजादी’ पदबंध के बहुत गहरे निहितार्थ हैं।कवि बिना कहे यह जता देता है कि औरतों को इतनी सी आजादी भी प्राप्त नहीं है बड़ी-बड़ी आजादी की क्या बात करें। कवि को यह पता है कि जिस दिन कृपा जताए बिना औरत को यह आजादी मिल जाएगी उस दिन अन्य तो वह खुद प्राप्त कर लेगी। दरअसल औरत को यह आजादी देना उसके स्वतंत्र अस्तित्व और अस्मिता को स्वीकार कर लेना है जो सबसे बड़ी जरूरत है।     

प्रस्तुत संग्रह की  कविताएं एक स्लाइड शो का सा आनंद देती हैं। जिसमें कहीं आज भौंड़े शोर में दब गए ‘मुराद अली’ के मशक बीन के सुर-‘गदराये आमों में/धीरे-धीरे/मिठास की तरह उतर रहे होते’ हैं।कहीं ‘मोमिना’ की खटिया बिनती ‘मछली-सी चलती चपल उँगलियाँ’ दिखती हैं। कहीं गगरी गढ़ते मइकू का पानीदार नाम चमकता है। कहीं अपनी अबली-तलबी सुनाते ‘धनई काका’ मिलते हैं। कहीं ‘सुगिरा काकी’ दुःख को काटने के लोकगीत गाती है। कहीं सब्जी उगाते और बेचते ‘बिसेसर’। कहीं गाँव से दूर शहर में रह रहे लोगों की रातों में रोती हुई ‘मरचिरैया’।कहीं दीवाली पर खेत जगाते लोग हैं तो कहीं धान का खेत हंेगाते कीचड़ में नहाए स्त्री-पुरुष-बच्चे।कहीं होटल में छूट गई घड़ी को देने भागकर आता बिहारी बैरा संतोष है जिसका चेहरा एक अजीब गर्व से चमकता है।कहीं गिट्टी तोड़ते पहाड़ जैसे ही मजबूत और पहाड़ी रंग वाले पहाड़ी लोग।कहीं गेहूँ की कटाई के बीच आम के पेड़ों से पीठ टिकाए आम की चटनी के साथ रोटी खाते बिलासपुरिया मजूर।कहीं घुटने-घुटने पानी में खड़े हच्छू-हच्छू करते कपड़े धोते धोबी। एक विविधता-भरा संसार दिखता है इसमें। पूरा भूदृश्य और स्थिति हमारे सामने चित्रित हो उठती है। केशव एक दृश्य बिंब को सामने प्रस्तुत कर अपनी कविता की शुरुआत करते हैं। इसलिए उनकी कविताएं देखने और पढ़ने दोंनों का आनंद देती हैं। वह पाठक को वहीं खड़ा कर देते हैं जहाँ कविता घटित हो रही है। इन संग्रह की कविताओं में भाषा की व्यंजकता का विस्तार हुआ है तथा  बिंबों और प्रतीकों का नया संसार पाठक के सामने खुलता है। लोकबोली के शब्द भाव की गहराई को और अधिक बढ़ाते हैं।अवधी की महक और तेज हुई है। अच्छी बात है कि उनकी कविताओं में बनावटीपन नहीं है इलिसए कहीं उदासी तो कहीं थकान भी दिख जाती है। मन की कशमकश भी व्यक्त होती है। उनका कवि हर वक्त खराद पर भी नहीं रहना चाहते हैं। हर वक्त की बेचैनी से बचना भी चाहता है। चीजों को वैसे ही मान लेना चाहता है जैसा कि लोग कहते हैं लेकिन यह भाव स्थाई नहीं है। भीतर बैठा कवि गश्ती सीटी बजाने लगता है। कवि तय नहीं कर पाता है-अतीत का  कोठार भरा है/क्या चुनूँ उससे/और वर्तमान के कोठार में भी/बेमतलब का बहुत है। कवि वहाँ पहुँचना चाहता है-जहाँ आदमी का
समीक्षक का रेखाचित्र : कुंवर रवीन्‍द्र
बनाया सब कुछ/मिले हर आदमी को। वह बैठे ठाले के कवि नहीं-हम चाहते हैं ये नदी,पेड़,पहाड़,लोग/सब निकल पड़े हमारे साथ। उनके यहाँ हमें ईमानदार स्वीकारोक्ति भी मिलती है। वह अपने चेहरे की कालिख और अपने कंधों के अपराध के बोझों को छुपाते नहीं है।यह कहने में भी नहीं चूकते कि-कविता में तमाम झूठ/पूरे होशो हवाश में बोलता रहा हूँ/तुम्हें दिखाए और देखे/सपनों का हत्यारा मै खुद/लो मेरी गर्दन हाजिर है/तुम ले आओ दारो रसन अपना। कितने कवि हैं अभी हिंदी साहित्य में जो इस ईमानदारी के साथ खुद को प्रस्तुत करते हैं।यही खासियत केशव के कवि को लंबे समय तक जिंदा रखेगी।
*** तो काहे का मैं(कविता संग्रह) केशव तिवारी
प्रकाशक-साहित्य भंडार 50 चाह चंद इलाहाबाद 211003
मूल्यः पचास रुपए।

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