यह अत्यन्त गम्भीर मसला है। अनुनाद के लिए सौरभ राय को मिले सूत्र सम्मान का विवरण और उनकी नई कविताएं मैंने स्वयं उन्हीं से अनुरोधपूर्वक मांगी और प्रकाशित कीं। नए का स्वागत हमेशा अनुनाद ने दिल से किया है और इस बार भी यह विवरण इसी लिए चाहा और छापा गया। आज मुझे अग्रज कवि कुमार अम्बुज का यह लम्बा मेल मिला तो मैं सन्न रह गया। समकालीन हिन्दी युवा कविता की एक तस्वीर यह भी है। मैंने इस आभासी संसार से ही सौरभ राय को जाना, स्वागत किया पर अब क्षुब्ध हूं। यहां अम्बुज जी का पूरा मेल अविकल लगाया जा रहा है इस सीख के साथ कि अभी नए का स्वागत करने के साथ उसकी पर्याप्त छानबीन भी ज़रूरी है।
-------------------------------------------------------
प्रिय शिरीष जी,
अभी दो-तीन दिन पहले आपके ब्लॉग पर मैंने सौरभ राय को पुरस्कृत किए जाने संबंधी खबर पढ़ी थी। सौरभ राय ने न केवल अन्य अनेक कवियों की कविताओं/पंक्तियों की सुस्पष्ट चोरी की है बल्कि मेरे पहले संग्रह 'किवाड़' पर तो जैसे वह टूट पड़े। मैंने करीब छह महीने पहले इस बारे में सौरव जी को पत्र लिखा था और बहुत विस्तार से उन सब कविताओं की चोरी करने के संबंध में अपनी आपत्ति जताई थी। वह पत्र और सौरव राय से प्राप्त ईमेल की प्रति यहॉं भेज रहा हूँ।
अभी दो-तीन दिन पहले आपके ब्लॉग पर मैंने सौरभ राय को पुरस्कृत किए जाने संबंधी खबर पढ़ी थी। सौरभ राय ने न केवल अन्य अनेक कवियों की कविताओं/पंक्तियों की सुस्पष्ट चोरी की है बल्कि मेरे पहले संग्रह 'किवाड़' पर तो जैसे वह टूट पड़े। मैंने करीब छह महीने पहले इस बारे में सौरव जी को पत्र लिखा था और बहुत विस्तार से उन सब कविताओं की चोरी करने के संबंध में अपनी आपत्ति जताई थी। वह पत्र और सौरव राय से प्राप्त ईमेल की प्रति यहॉं भेज रहा हूँ।
मुझे
यह इतना गंभीर प्रतीत होता है कि मैं इसे सार्वजनिक करना चाहता हूँ। और
आपके ब्लॉग के संदर्भवश आपके संज्ञान में भी लाना चाहता हूँ। हालांकि,
चौर्यकर्म इतना ज्यादा है कि विस्तार हो गया है लेकिन
उचित समझें तो आप इसे किसी भी रूप में या संक्षेपीकरण के साथ जाहिर कर सकते
हैं। बहरहाल, यह सब
यहॉं सलंग्न है।
सूत्र के निर्णायकों और संस्था का कोई संपर्क मेल मेरे पास नहीं है, मेरी तरफ से आप उन्हें भी यह मेल अग्रेषित कर देंगे तो आभारी रहूँगा।
सूत्र के निर्णायकों और संस्था का कोई संपर्क मेल मेरे पास नहीं है, मेरी तरफ से आप उन्हें भी यह मेल अग्रेषित कर देंगे तो आभारी रहूँगा।
सप्रेम,
कुमार अंबुज
क्या इसे उपेक्षणीय माना जाए!
कभी-कभार पढ़ने-सुनने में आ ही जाता है और प्रतीत भी
होता है कि ये अपनी ही कविताओं की पंक्तियाँ हैं या उनके आधार पर लिखीं साफ
परछाइयाँ हैं। लेकिन उन्हें महज प्रेरणा या सहज प्रभाव मानकर कभी आगे विचार नहीं
किया। तब भी नहीं जबकि कई मित्र ऐसी कविताओं को सीधे मुझे ही भेजते रहे हैं कि इस
पर राय दें। लगता है कि वे कवि से ही सीधे प्रमाण पत्र लेना चाहते हैं कि जब कवि
कुछ आपत्ति नहीं कर रहा है तो बाकियों को क्या दिक्कत और उसकी फुरसत भी क्यों।
बहरहाल, पूर्व
में इक्के-दुक्के ये प्रसंग इतने गंभीर नहीं लगे कि कोई मुद्दा बनाया
जाये।
लेकिन एक महत्वाकांक्षी, युवतर, नये और हिंदी में अल्पज्ञात कवि, जो मूल रूप से बंगाली हैं, झारखंड में पढ़ाई की है और अभी बैंगलूर में नौकरी कर रहे हैं, श्री सौरभ राय ‘भगीरथ’ ने अपने दो कविता संग्रह मुझे भेजे हैं। कुल तीन संग्रह उनके प्रकाशित हैं। इन संग्रहों में उनकी काफी कविताएँ हमारे समकालीन हिंदी कवियों यथा श्रीकांत वर्मा, केदारनाथ सिंह, धूमिल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी वगैरह की काव्य पंक्तियों से सीधे प्रवाभित ही नहीं, प्रवाहित प्रतीत होती हैं। समायाभाव के कारण उतना श्रम तो मैं नहीं कर पा रहा हूँ कि बारीकी से जाँच कर, तमाम कवियों की साम्यताओं को यहाँ बता सकूँ लेकिन उनके संग्रह ‘यायावर’, जिसके प्रकाशक वे खुद ही हैं और जिसके दो संस्करण आ गए हैं, उसमें मुझे मेरी अनेक कविताओं की सीधी नकल या कहें कि लगभग चोरी दिखी। यह इतनी स्पष्ट और थोक में है कि अलग से किसी और टीप की जरूरत आगे नहीं है। सीनाजोरी यह कि उन्होंने मुझे यह संकलन, राय आमंत्रित करते हुए भेजा है। तुर्रा ये शब्द हैं कि- ‘आपकी रचनात्मकता का बचपन से ही प्रशंसक रहा हूँ। आपकी कविताओं को पढ़ते हुए ही बड़ा हुआ हूँ।’
ऐसे प्रशंसकों से भला कौन भयभीत न होगा।
अभी तो मैं इस सोच में हूँ कि आखिर इनका क्या किया जाए! यह गंभीर बात है।
बहरहाल, तब तक आप नीचे नौ उदाहरण देखें। ये सभी संदर्भित कविताएँ मेरे पहले कविता संग्रह ‘किवाड़’ से हैं, जो 1990 तक की कविताएँ हैं और कवि महोदय श्री सौरभ राय ‘भगीरथ’ का जन्म 1989 का है। लगता है उन्हें मेरा यह पहला संग्रह भर हासिल हो पाया।
शेष संग्रहों के लिए खुदा खैर करे!
यहॉं प्रत्येक उदाहरण में पहले मेरी कविता का शीर्षक और वे पंक्तियाँ हैं जिनकी नकल की गई है, उसके ठीक नीचे सौरभ राय की कविता/पंक्तियाँ हैं।
(एक)
गुफा
शुरू होता है यहाँ से
भय और अँधेरा
भय और अँधेरे को
भेदने की इच्छा भी
शुरू होती है
यहीं से।
0000
पहाड़
शुरू होता है
यहाँ से पहाड़
पहाड़ चढ़
उस पार उतरने की इच्छा भी
शुरू होती है
यहीं से!
000
लेकिन एक महत्वाकांक्षी, युवतर, नये और हिंदी में अल्पज्ञात कवि, जो मूल रूप से बंगाली हैं, झारखंड में पढ़ाई की है और अभी बैंगलूर में नौकरी कर रहे हैं, श्री सौरभ राय ‘भगीरथ’ ने अपने दो कविता संग्रह मुझे भेजे हैं। कुल तीन संग्रह उनके प्रकाशित हैं। इन संग्रहों में उनकी काफी कविताएँ हमारे समकालीन हिंदी कवियों यथा श्रीकांत वर्मा, केदारनाथ सिंह, धूमिल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी वगैरह की काव्य पंक्तियों से सीधे प्रवाभित ही नहीं, प्रवाहित प्रतीत होती हैं। समायाभाव के कारण उतना श्रम तो मैं नहीं कर पा रहा हूँ कि बारीकी से जाँच कर, तमाम कवियों की साम्यताओं को यहाँ बता सकूँ लेकिन उनके संग्रह ‘यायावर’, जिसके प्रकाशक वे खुद ही हैं और जिसके दो संस्करण आ गए हैं, उसमें मुझे मेरी अनेक कविताओं की सीधी नकल या कहें कि लगभग चोरी दिखी। यह इतनी स्पष्ट और थोक में है कि अलग से किसी और टीप की जरूरत आगे नहीं है। सीनाजोरी यह कि उन्होंने मुझे यह संकलन, राय आमंत्रित करते हुए भेजा है। तुर्रा ये शब्द हैं कि- ‘आपकी रचनात्मकता का बचपन से ही प्रशंसक रहा हूँ। आपकी कविताओं को पढ़ते हुए ही बड़ा हुआ हूँ।’
ऐसे प्रशंसकों से भला कौन भयभीत न होगा।
अभी तो मैं इस सोच में हूँ कि आखिर इनका क्या किया जाए! यह गंभीर बात है।
बहरहाल, तब तक आप नीचे नौ उदाहरण देखें। ये सभी संदर्भित कविताएँ मेरे पहले कविता संग्रह ‘किवाड़’ से हैं, जो 1990 तक की कविताएँ हैं और कवि महोदय श्री सौरभ राय ‘भगीरथ’ का जन्म 1989 का है। लगता है उन्हें मेरा यह पहला संग्रह भर हासिल हो पाया।
शेष संग्रहों के लिए खुदा खैर करे!
यहॉं प्रत्येक उदाहरण में पहले मेरी कविता का शीर्षक और वे पंक्तियाँ हैं जिनकी नकल की गई है, उसके ठीक नीचे सौरभ राय की कविता/पंक्तियाँ हैं।
(एक)
गुफा
शुरू होता है यहाँ से
भय और अँधेरा
भय और अँधेरे को
भेदने की इच्छा भी
शुरू होती है
यहीं से।
0000
पहाड़
शुरू होता है
यहाँ से पहाड़
पहाड़ चढ़
उस पार उतरने की इच्छा भी
शुरू होती है
यहीं से!
000
(दो)
कटे हुए खेत को देखकर/ उस शाम
जमीन का यह हिस्सा सबसे प्रसन्न है
प्रसव के बाद की यह जमीन
बगल में लेटे शिशु-गट्ठर को देखती हुई
पुलक रही है
चमक रही है डण्ठलों पर
उत्साह भरी ममता और थोड़ी सी संतुष्ट थकान
मैं इस रूप को आँखों में भरना चाहता हूँ
मैं यहीं उतरना चाहता हूँ
कि इस वक्त बेहद जरूरत है इस जमीन को
थोड़े से प्यार की
थोड़े से धन्यवाद की!
0000
मैं बहुत देर तक लेटा रहा!
0000
धरती माँ
धरती का यहाँ सबसे सुंदर रूप है
प्रसव के बाद
यहाँ धरती संतुष्ट सी मुस्कराती है
देखती है बगल में लेटे
हवा में डोलते
धान के गट्ठर को ममता भरी उत्साह से
धरती और धान को जोड़ती नाड़ी
कटे डण्ठलों में दिखती है
वहाँ से गुजरते हुए
उस धरती को धन्यवाद
थोड़ा सा प्यार देना चाहा।
मैं बहुत देर तक मुस्कराता सा
वहाँ लेटा रहा।
0000
कटे हुए खेत को देखकर/ उस शाम
जमीन का यह हिस्सा सबसे प्रसन्न है
प्रसव के बाद की यह जमीन
बगल में लेटे शिशु-गट्ठर को देखती हुई
पुलक रही है
चमक रही है डण्ठलों पर
उत्साह भरी ममता और थोड़ी सी संतुष्ट थकान
मैं इस रूप को आँखों में भरना चाहता हूँ
मैं यहीं उतरना चाहता हूँ
कि इस वक्त बेहद जरूरत है इस जमीन को
थोड़े से प्यार की
थोड़े से धन्यवाद की!
0000
मैं बहुत देर तक लेटा रहा!
0000
धरती माँ
धरती का यहाँ सबसे सुंदर रूप है
प्रसव के बाद
यहाँ धरती संतुष्ट सी मुस्कराती है
देखती है बगल में लेटे
हवा में डोलते
धान के गट्ठर को ममता भरी उत्साह से
धरती और धान को जोड़ती नाड़ी
कटे डण्ठलों में दिखती है
वहाँ से गुजरते हुए
उस धरती को धन्यवाद
थोड़ा सा प्यार देना चाहा।
मैं बहुत देर तक मुस्कराता सा
वहाँ लेटा रहा।
0000
(तीन)
चुप्पी में आवाज
यह एक कसबे की रात की पहले पहर की चुप्पी है
जिसमें एक जरा-सी भी आवाज
कुएँ में दहाड़ की तरह गूँज सकती है
और चुप्पी की गहनता में ही
सबसे ज्यादा याद आती है आवाज
कि कहीं कुछ हो
कैसे भी हो मगर एक आवाज हो
और चुप्पी में अकसर पिछली आवाजें ही आती हैं
जिन्हें हम ही छोड़कर आए थे अकेला
0000
सन्नाटा
बहुत गहरी रात है मेरे शहर में
अजीब सा सन्नाटा है
यहाँ जरा सी आवाज गुँजा सकती है
पूरे शहर को
चारों दिशाओं को जगा सकती है
ऐसे सन्नाटों में ही सुनाई पड़ती हैं पिछली आवाजें
जिन्हें कभी हमने अनसुना छोड़ दिया था
ऐसे सन्नाटों की गहनता में ही
आवश्यक लगने लगता है शोर
कि कुछ तो हो
एक आवाज हो
ऐसे सन्नाटों में ही
सबसे ज्यादा याद आती है आवाज।
0000
चुप्पी में आवाज
यह एक कसबे की रात की पहले पहर की चुप्पी है
जिसमें एक जरा-सी भी आवाज
कुएँ में दहाड़ की तरह गूँज सकती है
और चुप्पी की गहनता में ही
सबसे ज्यादा याद आती है आवाज
कि कहीं कुछ हो
कैसे भी हो मगर एक आवाज हो
और चुप्पी में अकसर पिछली आवाजें ही आती हैं
जिन्हें हम ही छोड़कर आए थे अकेला
0000
सन्नाटा
बहुत गहरी रात है मेरे शहर में
अजीब सा सन्नाटा है
यहाँ जरा सी आवाज गुँजा सकती है
पूरे शहर को
चारों दिशाओं को जगा सकती है
ऐसे सन्नाटों में ही सुनाई पड़ती हैं पिछली आवाजें
जिन्हें कभी हमने अनसुना छोड़ दिया था
ऐसे सन्नाटों की गहनता में ही
आवश्यक लगने लगता है शोर
कि कुछ तो हो
एक आवाज हो
ऐसे सन्नाटों में ही
सबसे ज्यादा याद आती है आवाज।
0000
(चार)
प्रजा के बारे में
सड़क पर चलती लड़कियों को
नए ब्रांड की मोटरों, विशाल मकानों को
देखने की बजाय घूरते हुए हम
बार-बार सड़क दुर्घटनाओं से बचेंगे
टाइल्स लगे बाथरूम में खड़े होकर सोचेंगे देर तक
बदबू न आने का रहस्य
और यदि कभी हम राजा बन भी गए तो
दो पल में ही खो देंगे सिंहासन
हममें है ही नहीं वह रौब, वैभव,
वह नखरा, नफासत और शिकारीपन
हमारा क्रोध इतना घरेलू है
कि हम सिर्फ पति और पिता बन सकते हैं।
0000
प्रजा के बारे में
सड़क पर चलती लड़कियों को
नए ब्रांड की मोटरों, विशाल मकानों को
देखने की बजाय घूरते हुए हम
बार-बार सड़क दुर्घटनाओं से बचेंगे
टाइल्स लगे बाथरूम में खड़े होकर सोचेंगे देर तक
बदबू न आने का रहस्य
और यदि कभी हम राजा बन भी गए तो
दो पल में ही खो देंगे सिंहासन
हममें है ही नहीं वह रौब, वैभव,
वह नखरा, नफासत और शिकारीपन
हमारा क्रोध इतना घरेलू है
कि हम सिर्फ पति और पिता बन सकते हैं।
0000
गँवार
शहर में घूमते हुए हम
आलीशान मकानों, नखरीली लड़कियों
मोटरों को देखने के बजाय
बार-बार सड़क दुर्घटना से ही बचेंगे
चमकते बाथरूम में
घंटों खड़े सोचेगें
खुशबू आने का रहस्य!
और अगर हम तुम्हारी तरह बन भी गए
तो पल भर में ही फिसल जाएँगे
हाथों से तुम्हारे सारे पैसे
हममें नहीं है वह रौब, वह नखरा, वह नजाकत
हमारा गुस्सा हमें
भाई, पति और पिता ही बना सकता है।
0000
(पाँच)
संभावना
यह भयावह खतरा था,,,
कि मैं अधर्म को
धर्म कहने में उनके साथ नहीं था
कि मेरी याददाश्त बाकी थी
आँखों में रोशनी
और हृदय में प्यार बाकी था
यह खतरनाक था कि मैं इतिहास पढ़ चुका था
और विज्ञान में मेरी गहरी रुचि थी
यह विद्रोह था कि मैं बच्चों के खेल में
अपने पूरे बचपन के साथ शामिल होना चाहता था
कि मैं प्रेमिका के होठों को चूम सकता था
छू सकता था उसकी देह
और तितलियों में मेरी दिलचस्पी बाकी थी
और अभी भी मैं
लोगों को उनकी जातियों से नहीं पहचानता था
मेरे पक्ष में केवल एक संभावना थी
कि मैं अपनी हरकतों में
अकेला नहीं था!
0000
विद्रोह
विद्रोह था यह
कि मैं अधर्म को
धर्म नहीं सकता था
विद्रोह था
कि मेरी आँखों में रोशनी
और हृदय में ज्वार था शेष
विद्रोह ही तो था
कि मैंने इतिहास पढ़ा था
और गणित में मेरी रुचि थी
बच्चों के साथ मैं अपना बचपन जीता था
चूम सकता था अपनी प्रेमिका को
छू सकता था उसकी देह
खेतों में तितलियों के बीच दौड़ना
मुझे आज भी अच्छा लगता था
विद्रोह था कि मैं पड़ोसी से संपर्क रखता था
उसकी जाति धर्म जाने बिना
संभवना थी बस इतनी
कि मेरे इस विद्रोह में
मैं अकेला नहीं था।
0000
(छह)
प्रजा के बारे में
हमारा पेट हमारे चेहरे पर है
भूख हमारे संस्कार में
0000
नागरिक मंत्र
भूख हमारे संस्कार में है
और पेट चेहरे पर
0000
(सात)
अक्तूबर का उतार/उदासी/नींद और नींद से बाहर/यथास्थिति में
आलू की सब्जी शाम तक चल जाने लायक इन दिनों में
इस रोनी दुनिया में
मुस्कराए जाने की गुंजाईश के साथ
बूढ़े हैं कुछ
जो गलियों में बरगद के पत्तों की तरह उड़ रहे हैं
त्यौहार गुजर जाएँगे चुपचाप
नींद से बाहर नींद एक कठिन सपना है।
00000
अनिद्रा
आलू की सब्जी
शाम तक चल जाएगी शायद
इस साल भी त्योहार
चुपचाप गुजर गए
इस रोनी दुनिया में
मुस्कराना भी एक कला है
मेरे विचार गलियों में
बरगद के पत्तों की तरह
उड़ रहे हैं
नींद से बाहर नींद
एक असंभव सपना है।
0000
(आठ)
आत्मकथ्य की पहली सुरंग में से
प्रेम आदिम वासना से भरा हुआ था
लड़की की आँखें
गहन वन की गुफाओं में हिंसक चमक छोड़ी परछाइयाँ हैं
पता चलता है पूरी साक्षर योग्यता
एक नौकरी पा जाने पर तय की जानी है
सब कुछ जानने की इच्छाओं में
मधुबाला और नरगिस अपनी अप्राप्य सुंदरताओं में
लगातार घटित होती हैं
अपना बचपन भी नहीं बच पाता
किशोरावस्था का जादू किसी मंत्र के प्रभाव में
काँच की तरह तड़-तड़ टूटता है
किरचे गिरते हैं खुद के ऊपर ही!
याद निकालने लगती है पाँव के काँटे
जो पक गए हैं
साँवली रेत पर उभरने लगते हैं
तीन नम्बर जूते लायक पाँव के निशान।
0000
अंतर्कथा
प्रेम एक गहन
दुर्गम सपना है
लड़की की आँखें परछाइयाँ हैं
मेरी पूरी साक्षर योग्यता
तय होनी है एक नौकरी पा जाने के बाबत
कोशिश सब कुछ जान लेने की
तस्वीरें कुछ अप्राप्य नायिकाओं की
बचपन
जो किशोरावस्था से टकराकर
रोज टूटता था मेरे समक्ष
कभी यादें पाँव में गड़े काँटे थे
गड़ते थे या पक चुके थे
मेरे पैरों की परछाईं
चार नंबर के जूते भर की थी
00000
(नौ)
स्वप्न/ मोड़
और मिट जाते हैं नक्शों से सीमाओं के सारे निशान
और धर्मग्रंथों के शाप से मुक्त यह धरती
अधिक संतुलित घूमती हुई अपनी धुरी पर
छपकेदार कत्थई-हरी हो जाती है।
इस मोड़ के पीछे
बहुत दूर तक नहीं है रोशनी
इस मोड़ के आगे
बहुत दूर तक नहीं होगा अँधेरा।
एक वाहियात सपना
धर्मग्रंथों, प्रथाओं के बोझ के उठते ही
नक्शे की सीमाओं के निशान मिट जाते हैं
यह लाल धरती संतुलित हो जाती है
इस स्वप्न के पीछे
दूर तक नहीं है रोशनी
इस स्वप्न के आगे
कहीं आगे तक है घुप्प अँधेरा।
00000
आलू की सब्जी
शाम तक चल जाएगी शायद
इस साल भी त्योहार
चुपचाप गुजर गए
इस रोनी दुनिया में
मुस्कराना भी एक कला है
मेरे विचार गलियों में
बरगद के पत्तों की तरह
उड़ रहे हैं
नींद से बाहर नींद
एक असंभव सपना है।
0000
(आठ)
आत्मकथ्य की पहली सुरंग में से
प्रेम आदिम वासना से भरा हुआ था
लड़की की आँखें
गहन वन की गुफाओं में हिंसक चमक छोड़ी परछाइयाँ हैं
पता चलता है पूरी साक्षर योग्यता
एक नौकरी पा जाने पर तय की जानी है
सब कुछ जानने की इच्छाओं में
मधुबाला और नरगिस अपनी अप्राप्य सुंदरताओं में
लगातार घटित होती हैं
अपना बचपन भी नहीं बच पाता
किशोरावस्था का जादू किसी मंत्र के प्रभाव में
काँच की तरह तड़-तड़ टूटता है
किरचे गिरते हैं खुद के ऊपर ही!
याद निकालने लगती है पाँव के काँटे
जो पक गए हैं
साँवली रेत पर उभरने लगते हैं
तीन नम्बर जूते लायक पाँव के निशान।
0000
अंतर्कथा
प्रेम एक गहन
दुर्गम सपना है
लड़की की आँखें परछाइयाँ हैं
मेरी पूरी साक्षर योग्यता
तय होनी है एक नौकरी पा जाने के बाबत
कोशिश सब कुछ जान लेने की
तस्वीरें कुछ अप्राप्य नायिकाओं की
बचपन
जो किशोरावस्था से टकराकर
रोज टूटता था मेरे समक्ष
कभी यादें पाँव में गड़े काँटे थे
गड़ते थे या पक चुके थे
मेरे पैरों की परछाईं
चार नंबर के जूते भर की थी
00000
(नौ)
स्वप्न/ मोड़
और मिट जाते हैं नक्शों से सीमाओं के सारे निशान
और धर्मग्रंथों के शाप से मुक्त यह धरती
अधिक संतुलित घूमती हुई अपनी धुरी पर
छपकेदार कत्थई-हरी हो जाती है।
इस मोड़ के पीछे
बहुत दूर तक नहीं है रोशनी
इस मोड़ के आगे
बहुत दूर तक नहीं होगा अँधेरा।
एक वाहियात सपना
धर्मग्रंथों, प्रथाओं के बोझ के उठते ही
नक्शे की सीमाओं के निशान मिट जाते हैं
यह लाल धरती संतुलित हो जाती है
इस स्वप्न के पीछे
दूर तक नहीं है रोशनी
इस स्वप्न के आगे
कहीं आगे तक है घुप्प अँधेरा।
00000
जब
मैंने यह सब मेल से सौरभ जी को भेजा तो बहुत इसरार के साथ उनका तुरंत फोन आया कि
इस मामले को किसी भी तरह सार्वजनिक न किया जाए। मैंने उनसे आग्रह किया कि वे अपनी
बात मुझे मेल द्वारा ही कहने का कष्ट करें। बहरहाल, फोन पर किए गए अनेक आग्रहों
को अलग करते हुए उन्होंने जो मेल मुझे किया वह इस प्रकार है-
प्रिय
कुमार अम्बुज जी,
बात 2006
की है - स्कूल में विज्ञान
का छात्र होने के कारण मुझे
अत्यधिक कवितायेँ पढ़ने नहीं दी जाती थीं । ऐसे समय में अपने ऑटो/बस का खर्च बचाकर मैंने आपकी कविता
संग्रह 'किवाड़' रांची के गुड बुक्स से खरीदी थी । उन
दिनों भी मैं कवितायेँ लिखता था, और आपकी कविताओं से तुरंत जुड़ भी गया था । समय एवं पैसों के
आभाव में मैं बहुत सारी कवितायेँ पढ़ नहीं
पाता था, इसीलिए किवाड़ को
मैंने उन दिनों बार बार पढ़ा था ।
तत्पश्चात कॉलेज के दिनों में मैंने श्रीकांत वर्मा और केदारनाथ सिंह जी को भी पढ़ा । उनसे प्रभावित भी हुआ । मंगलेश डबराल जी को मैंने हाल में ही
पढ़ा है । धूमिल तथा राजेश जोशी जी की
कवितायेँ अबतक नहीं पढ़ीं हैं । मेरी हमेशा से ही कोशिश रही है कि मैं अपनी
कविताओं की प्रेरणा को उनका उचित श्रेय दूं - जैसे
कपास मंत्र में केदारनाथ जी, या नागरिक मंत्र में दिनकर जी ।
मैं बाकियों के बारे में नहीं जानता, पर आपकी कविताओं से जो मेरी रचनाओं में समानता दिखती है, उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ ।
मैं अपनी सफाई में कुछ कहना नहीं चाहता । बस इतना कि जैसा आपको लग रहा है कि मैंने किवाड़, या अन्य कवियों के
संग्रहों को बगल में रखकर, देख देखकर अपनी
कवितायेँ रचीं हैं, ऐसा नहीं है । ये ideal worshiping का विषय भी हो सकता है । आज से 6 साल पहले,
एक कम उम्र में किवाड़ की ताकतवर रचनाओं से
जुड़ना,
और उनको रात दिन
पढने के प्रतिफल में अवचेतना में शायद मैंने ऐसा किया है । आपको यह संग्रह भेजते समय भी मुझे इस बात का ज्ञान नहीं था । मैंने आपको अपने
संग्रह बड़ी लगन एवं आशाओं के साथ भेजे थे । आपका पत्र पढ़कर मैं
भी उतना लज्जित हुआ हूँ, जितना व्यथित शायद आप मेरी किताब देखकर हुए हैं ।
अम्बुज जी,
यायावर के दो
संस्करण आये हैं,
पर क्योंकि ये
स्वप्रकाशित हैं, इनके हर संस्करण में
50-100
प्रतियाँ ही निकाली
जाती हैं । यायावर सहित अन्य संग्रहों के पीछे मेरी वर्षों की मेहनत लगी है । अगर आपकी अनुमति हो तो इन कविताओं के
सन्दर्भ में आपका नाम लिखना चाहता हूँ । अगर आप आदेश दें, तो अगले संस्करणों से उन कविताओं को
निकाल भी दूंगा, जो आपको विवादस्पद
लगती हैं ।
सच कहूँ तो स्वयं से घृणित हूँ, कि जिस कवि को मैंने सबसे अधिक सराहा है, उसी की नज़रों में गिर गया हूँ । मैंने इसके बारे में काफी सोचा, और मुझे लगता है की आपको पूरा हक है कि आप अपने लेख को प्रकाशित करें ।
मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे ऐसा दिन देखना पड़ेगा, लेकिन जो सामने है
उससे मुकरना भी नहीं चाहता । फलस्वरूप मैंने यह भी तय किया है कि अगले 2-3 सालों तक मैं
कवितायेँ न पढूंगा, और न ही लिखूंगा । इस तप के पश्चात, अगर मैं लिख सका, तो शायद ऐसी भूल नहीं
होगी,
और मैं अपने अन्दर
के कवि को बेहतर जान सकूँगा ।
आपका,
सौरभ राय
इस क्रम में यह दूसरा हिस्सा
सौरभ राय 'भगीरथ' जी,
आज संयोगवश ही मैंने आपकी कविताओं की एक और किताब ‘अनभ्र रात्रि की
अनुपमा’
वरिष्ठ कवि आग्नेय
के माध्यम से देखी। उसमें भी अनेक कविताएँ/पंक्तियाँ फिर मुझे मिलीं जो पुन: मेरे
उसी पहले और आपके अनुसार आपके प्रिय संग्रह ‘किवाड़’
से हैं। यह सिलसिला
आपके विभिन्न संकलनों में खत्म होने को ही नहीं आ रहा है। (इसमें भी हिंदी के
अनेक अन्य समकालीन कवियों की कविताओं की/पंक्तियों की नकल और सीधी उपस्थिति है।
पहले मैं आपको कुछ नाम बता ही चुका हूँ, यहाँ दो नाम फिर तत्काल लिए जा सकते हैंः श्रीकांत
वर्मा और नवीन सागर।)। फिर तुर्रा यह है कि आप अपने पत्र में इसे महज आयडॅल वर्शिपिंग या अवचेतन के
खाते में डाल कर बरी होना चाह रहे हैं। पर आपके इस संग्रह की कविताओं में भी, जरा
इन विभिन्न पंक्तियों और आपके 'भगीरथ'
प्रयास पर एक बार
फिर जरा गौर तो फरमाएँः
यहॉं आपकी पंक्तियाँ
और फिर इटैलिक में ‘किवाड़’
संग्रह से पंक्तियाँ
(एक)
शीर्षकः एक सवाल
उसने चहकते हुए पूछा
तो तुम कवि हो किस काल के?
मैंने कहा- ‘मैं उस समय का कवि
हूँ
जब लड़की के हाथ में ‘फोटो’
रख
‘प्यार’
करने को कहा जाता है
और उसके मना करने पर
उसे चूल्हे में झोंक दिया जाता है’
0000
शीर्षकः शहनाज के लिए कुछ कविताएँ
(5 कविताओं की श्रंखला की दूसरी कविता)
एक और सपने में उसने मुझसे कहा-
‘मुझे नहीं पता तुम बीसवीं सदी के नवें दशक
के कवि हो या अंतिम दशक के
मुझे पता है लेकिन तुम उस समय के कवि हो
जब लड़की से कहा जाता है- ‘प्रेम करो’
और लड़की के मना करने पर
गोली मार दी जाती है।
0000
(दो)
शीर्षकः चप्पल से लिपटी चाहतें
चाहता हूँ.....
कविता लिखने के लिए एक कोरा कागज
चित्र बनाने के लिए एक शांत कोना
चाहता हूँ नीली-कत्थई नक्शे से निकल
हरी जमीन पर रहूँ
चाहता हूँ भीतर के वेताल को निकाल फेकूँ
खरीदना है मुझे मोल भाव करके आलू प्याज बैंगन
अर्थशास्त्र पढ़ने से पहले।
गेहूँ को भूख से बचाना चाहता हूँ
और कपास को नंगा होने से
इन अनथकी यात्राओं के बीच
मुझे कीचड़ से निकलकर जाना है नौकरी माँगने।
0000
शीर्षकः आत्मकथ्य की पहली सुरंग में से
और नहीं है एक भी कोरा कागज कविता लिखने के लिए
नहीं है एक भी कैनवस चित्र बनाने के लिए
सिर्फ एक नक्शा है नीली-कत्थई रेखओं से भरा हुआ
एक वेताल है मेरे भीतर जो हमेशा मेरे बाहर विचरता है
मैं अर्थशास्त्र पढ़ने से पहले
थोड़ा सा नमक खरीदना चाहता हूँ
गेहूँ को भूख से बचाना चाहता हूँ
कपास को नंगा नहीं देखना चाहता.....
पाँवों में अनथकी यात्राएँ हैं...
00000
(तीन)
शीर्षकः खुशी
वोट देने दो कोस जाने पड़ते हैं
चिकित्सा को बाईस कोस क्यों?
एक बच्ची आज बिस्तर पर नग्न लेटी है...
मेरी खुशी में शामिल है....
कुछ नौजवान सिगरेट के धुएँ में
अपना अतीत,वर्तमान, भविष्य खोज रहे
हैं...
पृथ्वी के गाल पर आँसू
आज बाढ़ बन कितनों को रुला रहे हैं।
00000
शीर्षकः भरी बस में लाल साफेवाला आदमी/उदासी/
नींद और नींद से बाहर
(पूछना चाहता है लाल साफेवाला आदमी)
जब वोट डालने के लिए चलना पड़ता है सिर्फ दो मील
तो इलाज कराने के लिए बीस मील क्यों?
(इस उदासी में शामिल हैं)
कुछ लड़कियाँ हैं जो गुड्डे खेलने के मौसम में बिस्तर पर नग्न हैं
कुछ नौजवान है नशे में धुत्त
नदी एक आँसू है पृथ्वी के गाल पर बहता हुआ।
00000
(चार)
शीर्षकः वो अमसीहा
वह दुनियादार आदमी...
उसकी बेतरतीब मूँछें और ओछी सी दाढ़ी
उसके सीने में गड़ती हैं
रात रोड रोलर की तरह धड़धड़ाकर
उसके ऊपर से गुजरती है...
अधजले ब्रेड खाकर वह घर से निकलता है
जंग लगे ताले में अपनी जिंदगी को लटकाकर!
दुर्गा पूजा में वो चंदा देता है....
उसके दुलार से
तेरह बरस की एक लड़की डर जाती है
....
जिसके सपनों में मल्लाह के दो मजबूत हाथ।
00000
शीर्षकः अकेला आदमी/दुनियादार आदमी/ नाव
रात पूरे वजन के साथ
उसके ऊपर से गुजर जाती है
उससे कोई नहीं कहता उसकी मूँछें बेतरतीब हो गई हैं
....बह लौटता ब्रेड का एक पैकिट लेकर
सुबह के लिए बचा लेता है चार स्लाईस
और अपना सब कुछ एक जंग लगे ताले के भरासे
छोड़कर चल देता है कहीं भी
दुनियादार आदमी
दुर्गापूजा रामलीला के लिए देता है चंदा
उसके दुलार भरे स्पर्श से
चैदह बरस की लड़की एकाएक डर जाती है
.......
जिसके सपनों में हों मल्लाह के दो मजबूत हाथ।
00000
(पाँच)
शीर्षकः रतजगे
सपनों से भरी इस रात में मैं अकेला
दसों ज्ञात दिशाओं में
स्वयं को तलाशकर संवेदित हो हार कर जाग रहा हूँ
मेरा प्रतिबिम्ब काँच के टुकड़ों सा
तड़-तड़ टूट चुका है
हृदय में एक ज्वार है...
प्रेम की प्रबल कामना और तृष्णा के निर्जन द्वीप पर
बिल्कुल अकेला
चंद्रमा उधार की रोशनी में
पृथ्वी को लुभा रहा है
चाँदनी की गुमसुम गरज साथ लिए कुछ
उलझी झाडि़याँ, लताएँ और अतृप्त तृष्णाएँ!
बाहर बगीचे में कुछ झींगुर
चिर्र-चिर्र....किर्र-किर्र
कुछ मेरे भीतर भी
मेरी आँखें धरती की सीमा लाँघ
तारों के संग अंतरिक्ष में टिमटिमा रही हैं.....
मेरी मुस्कराहट के पीछे
एक पपड़ी सी उदासी है
उपन्यास में जीवित लोगों के बारे में पढ़ता हूँ
जीवित लोगों से मिलना भी चाहता हूँ......
....कोर्स के खेत में जैसे बिजूका।
वो बहता पसीना माटी कितनी जल्दी सोखता है।
00000
शीर्षकः आत्मकथ्य की पहली सुरंग में से
भटक रहा हूँ मैं दसों ज्ञात दिशाओं में
संवेदनाएँ मुझे स्पंज की तरह निचोड़ रही हैं
किशोरावस्था का जादू....काँच की तरह तड़ तड़ टूटता है
हृदय में लहराता समुद्र है
प्रेम की प्रबल कामना और तृष्णा के द्वीप पर...
मैं नितांत असभ्य और आदिम निर्वसन खड़ा हुआ हूँ....
चंद्रमा उधार की रोशनी में
पृथ्वी को लुभा रहा है
चाँदनी में गुमसुम चमक रही हैं
उलझी झाडि़याँ, लताएँ और अतृप्त कामनाएँ....
झींगुर हैं कुछ मेरे कानों में
चिर्र-किर्र की आवाजें करते हुए....
और मेरी आँखें धरती के बाहर
अंतरिक्ष में तारों के साथ टिमटिमा रही हैं....
मेरी मुस्कराहट के पीछे
एक पपड़ी पड़ी हुई उदासी है
मुझे अपने हल किताबों में नहीं चाहिए
मुझे जीवित लोग मिले थे
मुझे जीवित लोगों से मिलना है...
पढ़ाई के सरकारी दिन....
जैसे खड़ी फसल के बीच खड़े हों बिजूके...।
कैसे खेत की मिट्टी सोख लेती है पसीना।
00000
(छह)
शीर्षकः जरा सी देर में
जरा सी देर में बड़ा हो गया
गाँव से निकलकर शहरी हो गया...
...जरा सी देर में प्यार हो गया
एक लड़की की हँसी में सारा संसार पाया।
जरा सी देर में बरामदे का पौधा पेड़ बन गया
जरा सी देर में स्कूल छूट गया
दोस्त छूट गए
फेल कर गया आईआईटी का एक्जाम
जरा सी देर में.....
डरावना सपना टूटा
लटका रहा मेरा भाई फाँसी के तख्ते पर
00000
शीर्षकः जरा सी देर में
जरा सी देर में बड़ा हो गया मैं
और गाँव के सिवान से बाहर निकल आया
शहर की लड़की से प्यार किया
और जरा सी देर में वह लड़की
लिपिस्टिक की दुनिया में गायब हो गई....
जरा सी देर में नीम पर निंबोरी आ गईं
जरा सी देर में....
काॅलेज की आखिरी साल की परीक्षा से भाग आया...
जरा सी देर में दोस्त बने
जरा सी ही देर में
लड़की झूल गई पंखे पर।
00000
(सात)
शीर्षकः अक्स
उसका अक्स मुझ हिरण का
व्याघ्र की तरह पीछा करता था...
मेरे हाथ लगी थी बस
दो स्वप्नों के बीच की अनिद्रा।
00000
शीर्षकः चुप्पी में आवाज/ मेरे पास
....यह जुड़वाँ आवाज मुझ हिरण का
व्याघ्र की तरह पीछा करती है.....
मेरे पास शेष थी सिर्फ
दो स्वप्नों के बीच की अनिद्रा।
00000
(आठ)
शीर्षकः काँव-काँव
मुझे
अपने बारे में कुछ नहीं कहना है
मुझे
आपके बारे में कुछ नहीं कहना है
मुझे आपके और मेरे बीच के गहरे फर्क की
कतई चर्चा नहीं करनी.....
मैं तो बस यह कहना चाहता था
कि मुझे आपसे कोई बात नहीं करनी।
00000
शीर्षकः निवेदन
मुझे
मेरे शरीर के बारे में कुछ नहीं कहना है
मुझे
आपके शरीर के बारे में भी कुछ नहीं कहना है
आपके और मेरे बीच के गहरे फर्क के बारे में
सचमुच मुझे कुछ नहीं कहना है......
...मैं आपसे अंतिम बार निवेदन करता हूँ
‘कृपया सारी फाइलों और योजनाओं में से
आप मेरा नाम तुरतं निकाल दें!’
00000
सौरभ जी,
इसके अलावा ‘किवाड़’ शीर्षक या ‘आत्मकाव्य’ शीर्षक सहित अन्य कई
कविताएँ ऐसी हैं जिनमें शब्दों और संदर्भों के हेरफेर अथवा शाब्दिक बदलावों के
जरिए भी महान प्रेरणा अर्जित कर ली गई है। उनका जिक्र या पड़ताल समयसाध्य और
किंचित श्रमसाध्य भी है। कुछ कविताओं के तो शीर्षक तक चुरा लिए हैं। श्रीकांत
वर्मा की कई कविताओं का ही अपहरण कर लिया गया है। कोई सुधि स्मृतिवान पाठक या
आलोचक,
आपकी लगभग सभी
कविताओं में पिछली पच्चीस-तीस बरस की चर्चित हिंदी कविता के, सीधे उद्धरण और अक्स
खोजने में सहज समर्थ होगा।
मैं खुद नए कवियों को प्रोत्साहन देना चाहता हूँ, उनकी अच्छी कविताओं
का सहज प्रशसंक भी हो जाता हूँ लेकिन आपके साथ ऐसा करना बिलकुल भी उचित प्रतीत
नहीं हो रहा है। आप विशु्द्ध नकल को उचित ठहराने की अजीबोगरीब कोशिश कर रहे हैं।
आपको इसका भान भी है लेकिन कोई समुचित सार्वजनिक क्षमायाचना या, खेदप्रकटीकरण से भी
बचना चाह रहे हैं। यह कॉपीराईट के सरासर उल्लंघन का मामला भी बनता है।
फिलहाल,
आपके प्रति
संवेदनाऍं प्रकट की जा सकती हैं।
बाकी क्या कदम उठाना है, यह विचार कर रहा हूँ।
कुमार अम्बुज