आप हमेशा याद आएंगे। जानता हूं इधर इक आप में ही था वो बाबा का बताया 'क्षार-अम्ल दाहक विगलनकारी'। मेरा सलाम।
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केपी का बनाया वालपेपर |
ओमप्रकाश वाल्मीकि के निधन पर असद ज़ैदी की महत्वपूर्ण टिप्पणी, असद जी की फेसबुक दीवार से साभार।
ओमप्रकाश वाल्मीकि से मेरी कभी मुलाक़ात न हो पाई, लेकिन उनसे वास्ता रहा। उनके चले जाने का मुझे बहुत अफ़सोस है।
पिछले बीसेक साल में ऐसा मौक़ा कई बार आया — गिनूँ तो शायद पंद्रह बीस दफ़े — जब मुझे मित्रों के इस सवाल का जवाब देना पड़ा कि आख़िर ओमप्रकाश वाल्मीकि के लेखन में ऐसा क्या है कि जिसे महत्वपूर्ण या ज़रूरी कहा जाए? मैंने कभी सकारात्मक तरीक़े से तो कभी रक्षात्मक होकर उनकी कृतियों के (ख़ासकर ‘जूठन’ के) हवाले से, प्रायः धैर्य के साथ अपनी बात रखने की कोशिश की होगी, पर मुझे याद नहीं आता कि भूले से भी एक बार बहस किसी तसल्लीबख़्श जगह पर जाकर ठहरी हो। दरअसल हिन्दी के बौद्धिक विमर्श में लोग अपनी भीतरी सामाजिक चिन्ताओं को साहित्यिक मानदंडों की चिन्ता में बदल देते हैं — दर्द कहीं होता है, दवा किसी और चीज़ की माँगते हैं।
अक्सर ऐसे सवाल के पीछे एक और बड़ा ‘सवर्ण’ सवाल हुआ करता है जो लोग पहले कई तरह से पूछा करते थे, अब नहीं पूछते : क्या साहित्य में दलित लेखन जैसी श्रेणी संभव है? क्या दलित अनुभव ऐसा रहस्य है जिसे सिर्फ़ दलित ही समझ सकते हैं? हिन्दी के कैनन में दलित लेखन ने क्या जोड़ा है? क्या यह उल्टा जातिवाद नहीं है? इत्यादि। ओमप्रकाश वाल्मीकि के जीवन और कृतित्व में इन सवालों के जवाब मिलने शुरू हो गए थे। वाल्मीकि जी दलित अभिव्यक्ति को साहित्य-विमर्श के केन्द्र में लाने वाली हस्ती थे। आज हिन्दी दलित लेखन के रास्ते में पहले से कम काँटे हैं तो उन काँटों को हटाने में वाल्मीकि जी की भूमिका शायद सबसे ज़्यादा है।
पिछले बीसेक साल में ऐसा मौक़ा कई बार आया — गिनूँ तो शायद पंद्रह बीस दफ़े — जब मुझे मित्रों के इस सवाल का जवाब देना पड़ा कि आख़िर ओमप्रकाश वाल्मीकि के लेखन में ऐसा क्या है कि जिसे महत्वपूर्ण या ज़रूरी कहा जाए? मैंने कभी सकारात्मक तरीक़े से तो कभी रक्षात्मक होकर उनकी कृतियों के (ख़ासकर ‘जूठन’ के) हवाले से, प्रायः धैर्य के साथ अपनी बात रखने की कोशिश की होगी, पर मुझे याद नहीं आता कि भूले से भी एक बार बहस किसी तसल्लीबख़्श जगह पर जाकर ठहरी हो। दरअसल हिन्दी के बौद्धिक विमर्श में लोग अपनी भीतरी सामाजिक चिन्ताओं को साहित्यिक मानदंडों की चिन्ता में बदल देते हैं — दर्द कहीं होता है, दवा किसी और चीज़ की माँगते हैं।
अक्सर ऐसे सवाल के पीछे एक और बड़ा ‘सवर्ण’ सवाल हुआ करता है जो लोग पहले कई तरह से पूछा करते थे, अब नहीं पूछते : क्या साहित्य में दलित लेखन जैसी श्रेणी संभव है? क्या दलित अनुभव ऐसा रहस्य है जिसे सिर्फ़ दलित ही समझ सकते हैं? हिन्दी के कैनन में दलित लेखन ने क्या जोड़ा है? क्या यह उल्टा जातिवाद नहीं है? इत्यादि। ओमप्रकाश वाल्मीकि के जीवन और कृतित्व में इन सवालों के जवाब मिलने शुरू हो गए थे। वाल्मीकि जी दलित अभिव्यक्ति को साहित्य-विमर्श के केन्द्र में लाने वाली हस्ती थे। आज हिन्दी दलित लेखन के रास्ते में पहले से कम काँटे हैं तो उन काँटों को हटाने में वाल्मीकि जी की भूमिका शायद सबसे ज़्यादा है।
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