Thursday, November 21, 2013

आशीष नैथानी की तीन कविताएं



यहां आशीष नैथानी की तीन कविताएं दी जा रही हैं। वे हैदराबाद में साफ़्टवेयर इंजीनियर हैं और हिंदी से बाहर के अनुशासन से कविता में आने वाले इन कवियों को मैं हमेशा उत्‍सुकता और उम्‍मीद से देखता हूं। दिखता है आशीष में सहज ही चले आ रहे साधारण-से रूपकों को अचानक लक्ष्‍य तक पहुंचाने देने की ख़ासी सम्‍भावना है। आशीष नैथानी का एक संग्रह भी प्रकाशित है, हैदराबाद में जिसके लोकार्पण की कुछ रपट नेट पर मुझे दिखी हैं। मनुष्‍यता के पक्ष में एक सही राजनीतिक विचार के साथ वे अपनी रचना-यात्रा आगे बढ़ाएं - इस उम्‍मीद और शुभकामना के साथ अनुनाद पर कवि का स्‍वागत है।
*** 

शिलान्यास

फिर एक नेताजी कर गए शिलान्यास;
करोड़ों की डील,
लाखों का विमोचन,
अब कोई सड़क बनेगी 
या कोई पुल
या बिछेगी रेल की पटरी 
कागजों पर |

फिर कागज़ दफ़्न हो जायेंगे फाइलों में,
फाइलें अलमारियों में,
अलमारियाँ दीवारों में |

गाँव के बच्चे पैदल ही जायेंगे स्कूल,
महिलाएँ काटेंगी घास उम्रभर
और पुरुष पत्थर तोड़ेंगे,
बूढ़े बीमारी से दम |

और वो कागज़
जो अलमारियों में सुरक्षित हैं,
जिन पर बनी हैं सड़कें,
दीमक सफ़र करेंगी उन पर
इधर से उधर 
नई काली डामर युक्त सड़कों का 
जायका लेते हुए |
***

मँहगाई

मँहगाई का अहसास 
उस दिन से हुआ
जब माचिस की डिबिया पर
'सील' लगनी बंद हो गई
और कम हो गई
तीलियों की सँख्या भी |

ये ईमानदारी से विमुखता का 
एक सोपान भर था |

फिर ये दुर्घटना 
हर व्यवसाय,
हर उत्पाद और
हर व्यवस्था में हुई |

और जारी है...
***
फीकापन

एक लम्बी रात
जो गुजरती है तुम्हारे ख्वाब में,
तुम्हें निहारते हुए
बतियाते हुए
किस्से सुनते-सुनाते हुए ।

और जब ये रात ख़त्म होती है,
सूरज की किरणें
मेरे कमरे में बने रोशनदानों से
झाँकने लगती हैं,
मेरी नींद टूट जाती है तब ।

तुम्हारे ख्वाब के बाद
नींद का इस तरह टूट जाना,
महसूस होता है गोया
कि जायकेदार खीर खाने के बाद
कर दिया हो कुल्ला,
और मुँह में शेष रह गया हो
महज फीकापन ।
*** 
------------------------------------------------------------------------------------ 
इस स्‍तभ के लिए एक अनुरोध
 
(अनुनाद पर प्रकाशन के लिए बिलकुल नए कवियों की कविताएं मुझे मिलती हैं। यदि उनमें कुछ सम्‍भावना है तो मेरा दायित्‍व बन जाता है, उन्‍हें साझा करने का। फेसबुक ने कई नई सम्‍भावनाओं को अनुनाद तक पहुंचने ही राह दी है। अब इन नए कवियों की कविताएं नया  लेबल के तहत अनुनाद पर दिखेंगी।  मैं प्रकाशित किए जा रहे कवि की इतनी छानबीन करना ज़रूरी समझता हूं कि कहीं वो राजनीतिक रूप से फासिस्‍ट ताक़तों के पक्ष में तो नहीं। बाक़ी मैं इस उम्‍मीद पर छोड़ता हूं कि आगे की उम्रों की कविता और विचार दोनों सही दिशा में विकास करेंगे। अनुनाद के पाठकों से भी निवेदन है कि यदि फेसबुक या किसी और स्‍त्रोत से आपको पता लगे कि अनुनाद पर प्रकाशित कोई लेखक समाजविरोधी तथा किसी साम्‍प्रदायिक विचारधारा का है तो मुझे सूचित करने की कृपा करें।)
*** 

Sunday, November 17, 2013

आप हमेशा याद आएंगे।

आप हमेशा याद आएंगे। जानता हूं इधर इक आप में ही था वो बाबा का बताया 'क्षार-अम्‍ल दाहक विगलनकारी'। मेरा सलाम।

केपी का बनाया वालपेपर
ओमप्रकाश वाल्‍मीकि के निधन पर असद ज़ैदी की महत्‍वपूर्ण टिप्‍पणी, असद जी की फेसबुक दीवार से साभार।

ओमप्रकाश वाल्मीकि से मेरी कभी मुलाक़ात न हो पाई, लेकिन उनसे वास्ता रहा। उनके चले जाने का मुझे बहुत अफ़सोस है।

पिछले बीसेक साल में ऐसा मौक़ा कई बार आया — गिनूँ तो शायद पंद्रह बीस दफ़े — जब मुझे मित्रों के इस सवाल का जवाब देना पड़ा कि आख़िर ओमप्रकाश वाल्मीकि के लेखन में ऐसा क्या है कि जिसे महत्वपूर्ण या ज़रूरी कहा जाए? मैंने कभी सकारात्मक तरीक़े से तो कभी रक्षात्मक होकर उनकी कृतियों के (ख़ासकर ‘जूठन’ के) हवाले से, प्रायः धैर्य के साथ अपनी बात रखने की कोशिश की होगी, पर मुझे याद नहीं आता कि भूले से भी एक बार बहस किसी तसल्लीबख़्श जगह पर जाकर ठहरी हो। दरअसल हिन्दी के बौद्धिक विमर्श में लोग अपनी भीतरी सामाजिक चिन्ताओं को साहित्यिक मानदंडों की चिन्ता में बदल देते हैं — दर्द कहीं होता है, दवा किसी और चीज़ की माँगते हैं। 

अक्सर ऐसे सवाल के पीछे एक और बड़ा ‘सवर्ण’ सवाल हुआ करता है जो लोग पहले कई तरह से पूछा करते थे, अब नहीं पूछते : क्या साहित्य में दलित लेखन जैसी श्रेणी संभव है? क्या दलित अनुभव ऐसा रहस्य है जिसे सिर्फ़ दलित ही समझ सकते हैं? हिन्दी के कैनन में दलित लेखन ने क्या जोड़ा है? क्या यह उल्टा जातिवाद नहीं है? इत्यादि। ओमप्रकाश वाल्मीकि के जीवन और कृतित्व में इन सवालों के जवाब मिलने शुरू हो गए थे। वाल्मीकि जी दलित अभिव्यक्ति को साहित्य-विमर्श के केन्द्र में लाने वाली हस्ती थे। आज हिन्दी दलित लेखन के रास्ते में पहले से कम काँटे हैं तो उन काँटों को हटाने में वाल्मीकि जी की भूमिका शायद सबसे ज़्यादा है।
***

Thursday, November 14, 2013

अनवर सुहैल की कविताएं।



अनवर सुहैल का नाम अरसे से हिन्‍दी की दुनिया में ख़ूब जाना-पहचाना नाम है। लघुपत्रिका प्रकाशन और कविता-कहानी लेखन तक उनकी सक्रियता की कई दिशाएं रही हैं। अनुनाद पर अनवर जी की कविताएं पहली बार आ रही हैं, उनका स्‍वागत है।


1-
बताया जा रहा हमें 
समझाया जा रहा हमें
कि हम हैं कितने महत्वपूर्ण

लोकतंत्र के इस महा-पर्व में 
कितनी महती भूमिका है हमारी 

ई वी एम  के पटल पर
हमारी एक ऊँगली के
ज़रा से दबाव से
बदल सकती है उनकी किस्मत

कि हमें ही लिखनी है
             किस्मत उनकी 
इसका मतलब
       हम भगवान हो गए.....

वे बड़ी उम्मीदें लेकर
आते हमारे दरवाज़े
उनके चेहरे पर
तैरती रहती है एक याचक सी
क्षुद्र दीनता...  
वो झिझकते हैं 
सकुचाते हैं 
गिड़गिडाते हैं 
रिरियाते हैं 

एकदम मासूम और मजबूर दिखने का
सफल अभिनय करते हैं

हम उनके फरेब को समझते हैं
और एक दिन उनकी झोली में
डाल आते हैं...
एक अदद वोट.....

फिर उसके बाद वे कृतघ्न भक्त 
अपने भाग्य-निर्माताओं को
अपने भगवानों को
                   भूल जाते हैं....

2-
उनकी न सुनो तो
पिनक जाते हैं वो

उनको न पढो तो
रहता है खतरा
अनपढ़-गंवार कहलाने का

नज़र-अंदाज़ करो
तो चिढ जाते हैं वो

बार-बार तोड़ते हैं नाते
बार-बार जोड़ते हैं रिश्ते

और उनकी इस अदा से
झुंझला गए जब लोग
तो एक दिन
वो छितरा कर
पड़ गए अलग-थलग
रहने को अभिशप्त
उनकी अपनी चिडचिड़ी दुनिया में...

3-
उन अधखुली
ख़्वाबीदा आँखों ने
बेशुमार सपने बुने

सूखी भुरभरी रेत के
घरौंदे बनाए

चांदनी के रेशों से
परदे टाँगे

सूरज की सेंक से
पकाई रोटियाँ

आँखें खोल उसने
कभी देखना न चाहा
उसकी लोलुपता
उसकी ऐठन
उसकी भूख

शायद
वो चाहती नही थी
ख़्वाब में मिलावट
उसे तसल्ली है
कि उसने ख़्वाब तो पूरी
इमानदारी से देखा

बेशक
वो ख़्वाब में डूबने के दिन थे
उसे ख़ुशी है
कि उन ख़्वाबों के सहारे
काट लेगी वो
ज़िन्दगी के चार दिन.....

4-
वो मुझे याद करता है
वो मेरी सलामती की
दिन-रात दुआएं करता है
बिना कुछ पाने की लालसा पाले
वो सिर्फ़ सिर्फ़ देना ही जानता है
उसे खोने में सुकून मिलता है
और हद ये कि वो कोई फ़रिश्ता नही
बल्कि एक इंसान है
हसरतों, चाहतों, उम्मीदों से भरपूर...

उसे मालूम है मैंने
बसा ली है एक अलग दुनिया
उसके बगैर जीने की मैंने
सीख ली है कला...

वो मुझमें घुला-मिला है इतना
कि उसका उजला रंग और मेरा
धुंधला मटियाला स्वरुप एकरस है

मैं उसे भूलना चाहता हूँ
जबकि उसकी यादें मेरी ताकत हैं
ये एक कड़वी हकीक़त है
यदि वो न होता तो
मेरी आंखें तरस जातीं
खुशनुमा ख़्वाब देखने के लिए

और ख़्वाब के बिना कैसा जीवन...
इंसान और मशीन में यही तो फर्क है......

5-
जिनके पास पद-प्रतिष्ठा
धन-दौलत, रुआब-रुतबा
है कलम-कलाम का हुनर
अदब-आदाब उनके चूमे कदम
और उन्हें मिलती ढेरों शोहरत...

लिखना-पढना कबीराई करना
फ़कीरी के लक्षण हुआ करते थे
शबो-रोज़ की उलझनों से निपटना
बेजुबानों की जुबान बनना
धन्यवाद-हीन जाने कितने ही ऐसे
जाने-अनजाने काम कर जाना

तभी कोई खुद को कहला सकता था
कि जिम्मेदारियों के बोझ से दबा
वह एक लेखक है हिंदी का
कि देश-काल की सीमाओं से परे
वह एक विश्व-नागरिक है
लिंग-नस्ल भेद वो मानता नही है
जात-पात-धर्म वो जानता नही ही

बिना किसी लालच के
नोन-तेल-कपडे का जुगाड़ करते-करते
असुविधाओं को झेलकर हंसते-हंसते
लिख रहा लगातार पन्ने-दर-पन्ने
प्रकाशक के पास अपने स्टार लेखक हैं
सम्पादक के पास पूर्व स्वीकृत रचनाये अटी पड़ी हैं

लिख-लिख के पन्ने सहेजे-सहेजे
वो लिखे जा रहा है..
लिखता चला जा रहां है...
*** 

Monday, November 11, 2013

मृत्‍युंजय की नई कविता


 
मृत्‍युंजय की छवि के पी की नज़र में
 
अबकी कहाँ जाओगे भाई !

इनके घर में गिरवी रक्खा, उनके बंद तिजोरी
इनने पुश्तैनी झपटा है, उनने चोरी-चोरी
 ऊ जनता की बीच-बजारे छीने लोटा-झोरी
माज़ी को ये देंय दरेरा, करते सीनाजोरी

देशभक्ति का चोखा धंधा, गर्दन टोह रहे दंगाई !
​​अबकी कहाँ जाओगे भाई !

इनने लूटा संसद-फंसद, उनने सभा-विधान
माटी पानी जंगल धरती चारा कोल खदान
​​
संबिधान की ऐसी तैसी
बड़े बड़े बिदवान
अभी लूट को माल बहुत है, मत चूको चौहान

देश बड़ा है कर छोटे हैं, अमरीका की चरण पुजाई !
​अबकी कहाँ जाओगे भाई !​

इनने सौ-सौ महल बनाये, लूट लिए बेगार
लोकतन्त्र के खंभे तोड़े, उनने लीजे चार
भ्रष्टाचार भूख भय भीषण चहुंदिस अत्याचार
नंगे पाँव आबले जख्मी बिछे हुए हैं खार

भरी अदालत शातिर बैठे, नाचत नट मर्कट की नाईं!
​अबकी कहाँ जाओगे भाई !​

मुसलमान का ये सिक्खों का वे लें शीश उतार
टाडा पोटा अफ़्सा लादें मधुर मधू व्यापार
इनने दंगे करवाए हैं, उनने नरसंहार
उनने झपटे चैनल सारे, इनके हैं अखबार

पीले पत्रकार पितखबरी, बिष्ठा-निष्ठा है उतराई !

महजिद ध्वंस करे ये वे ताला खोलवाये जात
नगर मुजफ्फर है इनका और उनका है गुजरात
सौ चौवालिस खंभों नीचे न्याय देवि का घात
संझा इनकी बंदी उनका कैदी है परभात

चाहे जितना चिल्लाओगे, लूटेगा ही हातिमताई !
​अबकी कहाँ जाओगे भाई !​

इनके घर में कोर्ट कचहरी, उनके घर में फौज
इनके घर में दावत होती, है उनके घर मौज
जनता को ये नहींथमाये वे पकड़ाते नौज
बोरेंगे दोनों मिलकरके खोद चुके हैं हौज

चौपट राजा वेटिंग अंधा, निरपराध फांसी चढ़वाई !
​अबकी कहाँ जाओगे भाई !
***

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails