ख़्वाब
की तफ़सील और अंधेरों की शिकस्त
(वीरेन
डंगवाल की कविता पर अपर्याप्त–सा कुछ)
(एक
टूटी-बिखरी नींद थी और एक अटूट ख़्वाब था अट्ठारह की नई उम्र का जब मैं वीरेन
डंगवाल के पहले संग्रह इसी दुनिया में की समीक्षा करना चाहता था, स्नातक स्तर की पढ़ाई और वाम छात्र-राजनीति करते हुए ...फिर एक
टूटा-बिखरा ख़्वाब था और एक अटूट नींद थी अट्ठाइस की उम्र के सद्गृहस्थ जीवन में
जब वीरेन डंगवाल के दूसरे संग्रह दुश्चक्र में स्रष्टा की समीक्षा करना
चाहता था, एक महाविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हुए। अब न वैसे
ख़्वाब हैं, न वैसी नींद है ... पढ़ना भी बदलने लगा है और
पढ़ाना भी ... इधर वीरेन डंगवाल का तीसरा संग्रह (स्याही ताल) भी 2009 में
आ चुका है ... और अब मैं किसी भी लेखन-योजना से बाहर कुछ लिखने बैठा हूँ, वीरेन डंगवाल के सभी तीन संकलनों
को सामने रख कर। जाहिर है वे दो समीक्षाएँ कभी हो न सकीं और कह नहीं सकता कि अब जो
होगा, उसमें कितना महज कहना होगा- कितना लिखना..)
***
पहली
बात जो वीरेन डंगवाल की कविता को देखते ही बहुत स्पष्ट सामने आती है, वो ये कि जब समकालीन हिंदी कविता पाठ और अर्थ के नए अनुशासनों में अपना
वजूद खोने के कगार पर खड़ी है, तब वीरेन डंगवाल कविता में
कही गई बात को अर्थ के साथ (बल्कि उससे अलग और ज़्यादा) अभिप्राय और आशय पर लाना
चाहते हैं। भाषा में दिपते अर्थ, अभिप्राय, आशय और राग के मोह के चलते वे एक अलग छोर पर
खड़े दिखाई देते हैं, जो जन के ज़्यादा निकट की जगह है। वे
हमारे वरिष्ठों में अकेले हैं जो हिंदी पट्टी के बचे हुए मार्क्सवाद - जनवाद के
सामर्थ्य के साथ उत्तरआधुनिक पदों को भरपूर चुनौती दे रहे हैं। इस तरह वीरेन डंगवाल
और उनकी कविता के बारे में जैसे ही सोचना शुरू करता हूं तो उन्हीं के शब्दों में
आलम कुछ ऐसा होता है - लाल-झर-झर-लाल-झर-झर लाल.... समकालीन कविता के
बने-बनाए खाँचें में वीरेन डंगवाल की कविता ने सब कुछ उलट-पुलट कर रख दिया है।
अपने समय की कविता में जितनी उथल-पुथल निराला, मुक्तिबोध,
शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन
और धूमिल ने की थी, वैसी ही वीरेन डंगवाल ने अस्सी के दशक की
पीढ़ी में कर दिखाई है। वे अपने पुरखों से सबसे ज़्यादा सीखने लेकिन उस सीख को
व्यक्तित्व में पूरी तरह अपना बनाके बिलकुल अलग अंदाज़ में व्यक्त करने वाले कवि
हैं।
मुझे
वीरेन डंगवाल की कविता में सबसे ज़्यादा नागार्जुन नज़र आते हैं पर याद रखें कि
मैं प्रभाव की बात नहीं कर रहा हूं। किसी को वीरेन डंगवाल और नागार्जुन एक बिलकुल
अटपटा युग्म लग सकता है और ऐसा लगने पर मैं तुरत यही कहूंगा कि हाँ ! यही तो है वह
बीज शब्द ‘अटपटा’
जो दोनों कवियों को जोड़ देता है बल्कि दो ही नहीं, और जो नाम मैंने ऊपर लिए उन्हें भी।
अपने
ही भीतर अजब तोड़फोड़ का एक अटपटापन निराला का, विराट बौद्धिक
छटपटाहट और चिंताओं से भरा एक अटपटापन मुक्तिबोध का, कविता
को सामाजिक कला में बदल देने और सामान्य पाठकों में भी उस बदलाव का ख़्वाब देखते
रहने का एक अटपटापन शमशेर का, हमारे महादेश की समूची जनता को
अपने हृदय में धारण किए कबीरनुमा मुँहफट-औघड़ एक अटपटापन नागार्जुन का, सहजता को ही कविता का प्राण मान लेने के बावजूद बहुत कुछ जटिल रच जाने का
एक अटपटापन त्रिलोचन का और ठेठ उजड्ड गँवईं संवेदना का सहारा लेकर नक्सलबाड़ी और
लोकतंत्र तक के तमाम गूढ़ प्रश्नों से टकराने का एक अटपटापन धूमिल का। इतने
अलग-अलग कवियों में घिरकर भी अपनी बिलकुल अलग राह बनाने का फ़ितूर जैसा अटपटापन
वीरेन डंगवाल का। वैसा ही दिल भी उनका, मोह और निर्मोह से एक
साथ भरा।
इस
कवि की कविता समीक्षा से परे जा चुकी है, यह जान लेना अब
ज़रूरी हो चला है। समकालीन आलोचना की जो हालत है, उसमें
वीरेन डंगवाल का एक विकट नासमझ और मुखर विरोध मैं वरिष्ठ आलोचक नंदकिशोर नवल के
आलेख में देख चुका हूं, जो कुछ बरस पहले उन्हीं के द्वारा
सम्पादित कसौटी नामक पत्रिका में छपा था...... और फिर कुछ युवा आलोचकों
द्वारा उनका मूल्यांकन करते समय पूजा-वंदना की स्थिति में आ जाना भी किसी से छुपा
नहीं है। मेरे सामने बड़ा संकट विरोध नहीं, वंदना है। जब कोई
अग्रज कवि एक समूची युवा पीढ़ी द्वारा लगभग वंदनीय मान लिया जाए तो ख़तरे की घंटी
नहीं, दमकल का हूटर बजने लगता है मेरे भीतर। मेरा मानना है
कि अपने समय और समाज की तमाम कमज़ोरियों से भरी उनकी कविता एक ऐसी विकट चुनौती है,
जिससे हारकर उसकी वंदना भर कर लेना आलोचना की हार तो है ही, कवि के साथ भी अन्याय है। यह अन्याय मैं नहीं करूँगा, ऐसा कोई वादा भी नहीं कर सकता - यह एक अटपटापन मेरा भी।
***
शुरूआत
के लिए कवि के पहले संग्रह इसी दुनिया में की बात करूं ... यह साधारण नाम
वाला बहुत असाधारण संग्रह हैं, किंतु पहले संग्रह के रोमांच से
बहुत दूर। ग़ौर करने की बात है कि 44 साल की कविउम्र में रोमांच उस तरह सम्भव भी
नहीं पर विचार की संगत के उल्लास में पूरा संग्रह पाठकों के आगे इसी दुनिया में
किसी और दुनिया की तरह खुलता है। वीरेन डंगवाल का यह संग्रह 1991 में आया। इसके
आने की अन्तर्कथा इतनी है कि कवि के कविमित्र और प्रकाशक नीलाभ उनकी कविताओं का
हस्तलिखित एक रजिस्टर उठा ले गए, जिसे उन्होंने संकलन के
रूप में संयोजित किया। तब तक भी वीरेन डंगवाल की कविताएं अपने पाठकों में ख़ूब
लोकप्रिय थीं। उनके साथी हमउम्र कवि कविता संकलनों की संख्या और अनुपात में उनसे
बहुत आगे थे पर यही बात कविता की स्थापना और विकास के सन्दर्भ में नहीं कही
जाएगी। 44 की उम्र में वीरेन डंगवाल अपनी कविता को किताब के रूप में सेलिब्रेट
करने के मामले में निर्मोही साबित हुए थे लेकिन अब ये बहुप्रतीक्षित संकलन परिदृश्य
पर मौजूद था और इसे सेलिब्रेट करने वाले जन भी। इसके लिए उन्हें रघुवीर सहाय स्मृति
पुरस्कार(1992) और श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार(1993) दिया गया, यह उनके योगदान को यत्किंचित रेखांकित करने जैसा था, जबकि कवि किसी भी पुरस्कार-सम्मान की हदबंदी में अंटने के अनुशासन से
बाहर खड़ा था। एक भले और मित्रसम्पन्न संसार को याद करते हुए मैं नीलाभ के
प्रकाशकीय वक्तव्य का शुरूआती अंश उद्धृत करना चाहूंगा – वीरेन डंगवाल की
लापरवाही और अपनी कविताओं को लेकर उसकी उदासीनता एक किंवदंती बन चुकी है। लेकिन जो
वीरेन को नज़दीक से जानते हैं और उसकी कविताओं से परिचित हैं, उन्हें बख़ूबी मालूम है कि वीरेन की प्रकट लापरवाही और उदासीनता के नीचे
गहरी संवेदना, लगाव और सामाजिक चिंता मौजूद है। यही नहीं, बल्कि वह कविता और कविकर्म को लेकर उतना लापरवाह और उदासीन भी नहीं है, जितना वह ऊपरी तौर पर नज़र आता है। यह ज़रूर है, और
उल्लेखनीय भी, कि वीरेन डंगवाल कविता के कंज़्यूरिज़्म, चर्चा-पुरस्कार की उठा-पटक या राजधानियों के मौजूदा कवि-समाज की आत्मविभोर
परस्पर पीठ-खुजाऊ मंडलियों से अलग है। यह बात उसके व्यवहार में भी झलकती है और
कविताओं में भी। नीलाभ का ये कथन आज कविता में वीरेन डंगवाल के
महत्व को जानने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें कोई आलोचना-तत्व नहीं है, तब भी इसकी राह पर हमें न सिर्फ़ वीरेन डंगवाल की कविता, बल्कि उनकी समूची पीढ़ी की कविता की पहचान के कुछ आरम्भिक सूत्र मिलते
हैं। वीरेन डंगवाल कविता लिखने के प्रति उदासीन या लापरवाह नहीं है, वे तो अपने हमउम्रों में ख़ुद के लिए सबसे कठिन उत्तरदायित्वों के
निर्वहन का संकल्प लेने वाले कवि हैं। वे शुरूआत से जानते थे कि पीठ-खुजाऊ
मंडलियों के कारण उनसे बाहर दरअसल कविता किस गति को प्राप्त हो रही है –
कवि का सौभाग्य है पढ़ लिया जाना
जैसे खा लिया जाना
अमरूद का सौभाग्य है
हां, स्वाद भी अच्छा और तासीर में भी
(इसी
दुनिया में)
कोई
हैरत नहीं कि इलाहाबाद में अपने लम्बे रहवास के कारण कवि को अमरूद याद आया और
इसमें इलाहाबाद की मिली-जुली कवि-परम्परा भी पीछे कहीं गूंजती है। यह कविता की
हक़ीक़त हो चली थी जो बाद में और कठोर रूपाकारों में सामने आयी। इस संकट की भनक तब
वीरेन डंगवाल के साथी कवियों में दिखाई नहीं दी थी, वे नई
लोकप्रियता, आलोचकीय-प्रकाशकीय मान्यता और आगे चल पड़ने के
उल्लास से भरे थे और वीरेन डंगवाल समय को आंकने-भांपने के अपने कर्म में लीन, ताकि आने वाली नौजवान पीढ़ी पीछे मुड़कर देखे तो उसे ये कुछ निर्मम आत्ममूल्यांकन
के दृश्य भी दिखाई दें –
सफल होते ही बिला जाएगा
खोने का दु:ख और पाने का उल्लास
तब आएगी ईर्ष्या
लालच का बैंड-बाजा बजाती।
(इसी
दुनिया में)
इस
संग्रह के मुखर राजनीतिक स्वर बहुत क़ीमती हैं। इसमें साहित्य की तुष्टि के लिए
नहीं, जनता के अटूट जीवन संघर्षों के बीच रहने-सहने की इच्छा की राजनीति है। वीरेन
डंगवाल अपने समकालीन कवियों में सबसे अधिक मार्क्सवादी कवि हैं, जबकि उनकी कविताओं में नारे नहीं हैं। वे अधिक मार्क्सवादी इसलिए हैं क्योंकि
उनके यहां जन का दु:ख-दर्द और विकट संघर्ष अधिक बेधने वाले साबित हुए हैं। कविता
में उनकी पुकारें ओज से भरी हैं। वे लगातार क्रूर और निरंकुश सत्ताओं को चुनौती
देते हैं। अपनों की भीड़ में बिलकुल अलग आवाज़ में बोलती इसी दुनिया में की
कुछ पुरानी कविता नए वक़्त में दस्तावेज़ बन गई है।
***
जगहों
को लेकर अपने एक मोह में मेरा ध्यान अकसर इस तरफ़ गया है कि हमारी समकालीन हिंदी
कविता जगहों को किस तरह ट्रीट और सेलिब्रेट कर पा रही है। जगहें हर किसी के जीवन
में बहुत ख़ास होती हैं। आदमी जहां कुछ देर को भी बसता है, उस जगह को जाने-अनजाने अपने भीतर बसा लेता है। जगहें महज भूगोल नहीं
होतीं। वे समाज और संस्कृति होती हैं। साहित्य में उनका एक ख़ास मोल होना चाहिए।
जगहों में विचार और मानवीय रिश्तों के आकार बनते हैं। हमारे प्रिय वरिष्ठ कवि
केदारनाथ सिंह ने जगहों को नास्टेल्जिया के शिल्प में व्यक्त किया पर वे उससे
बाहर बेहतर गूंजती हैं और इस गूंज को वीरेन डंगवाल की कविता में कहीं साफ़ और सही
स्वर में सुना जा सकता है। इन जगहों में कुछ शहर हैं। कहना अतिरेक न होगा कि
हिंदी में आज अगर कोई सच्चे अर्थ में शहरों का कवि है तो वो वीरेन डंगवाल हैं।
शहरों को अकसर सत्ता और शोषणकेन्द्रों के रूप में स्थापित किया गया है और उसमें
बसने वाले हमारे लाखों-लाख जन अनदेखे ही रह गए। ये उम्रभर के लिए भव्य इमारतों और
भागती हुई सड़कों के बीच फंसे हुए लोग हैं, जिनके जीवन में आसपास
की तथाकथित भव्यता के बरअक्स एक स्थाई होती जाती जर्जरता है। वीरेन डंगवाल की
कविता ने शहरों को धिक्कारने की जगह इस प्रिय आत्मीय जर्जरता को पहचाना है। ढहने
के दृश्यों को आकार दिए हैं और जूझने की हदें आज़मा कर देखी हैं। नामों से देखें
तो इलाहाबाद उनका प्रिय शहर है। वे इस शहर को अपने और कविता के भीतर बसाए बैठे
हैं। इसी क्रम में बाद में चलकर कानपुर भी आता है, बरेली के
दृश्य कई कविताओं में लगातार बने रहते हैं। नागपुर पर भी कविता है और रॉकलैंड
डायरी के समूचे रचाव में जाएं तो दिल्ली पर भी। जिस भी शहर- जिस भी जगह कवि जाता
है, उसे अपने भीतर बसाता है। वीरेन डंगवाल की यह स्थानप्रियता
उनकी कविता की एक बहुत बड़ी दिशा है, जिस पर कभी विचार नहीं
हुआ।
इलाहाबाद
एक अद्भुत जगह है। हिंदी के भूगोल में ये एक दोआबा अलग चमकता है। ये एक ऐसा शहर है, जो कहीं न कहीं एक खंरोंच-सी लगा देता है ज़ेहन पर। वीरेन डंगवाल के पहले
संग्रह में इलाहाबाद :1970 नाम की कविता है तो तीसरे संग्रह में इलाहाबाद
और वहां पनपी रचनात्मक और वैचारिक प्रिय मित्रताओं की कसक भरी याद में टीसती ऊधो, मोहि ब्रज मौजूद है, जिसे
अजय सिंह, गिरधर राठी, नीलाभ, रमेन्द्र त्रिपाठी और ज्ञान भाई को समर्पित किया गया है। लगभग
अड़तीस-चालीस बरस का फ़र्क़ दोनों के रचनाकाल में है। इतने बरस तेज़ी से बदलते
ज़माने में न सिर्फ़ व्यक्ति के बल्कि शहर के इतिहास में भी मायने रखते हैं। 70
का दौर इलाहाबाद से लिख-पढ़कर आजीविका के लिए दूसरे शहरों की ओर चले जाने के अहसास
का था और दूसरी कविता का दौर, जिस ओर गए, उधर कुछ पा लेने के बाद मुड़ कर देखने और अपने भीतर शहर को याद करने का
है, जहां उस तरह लौटना और रहना-बसना कभी होगा नहीं।
मैं ले जाता हूं तुझे अपने साथ
जैसे किनारे को ले जाता है जल
एक उचक्कापन, एक अवसाद, एक शरारत,
एक डर, एक क्षोभ, एक फिरकी, एक पिचका
हुआ टोप
चूतड़ों पर एक ज़बरदस्त लात
खुरचना बंद दरवाज़ों को पंजों की दीनता से
विचित्र पहेली है जीवन
जहां के हो चुके हैं समझा किए
तौलिया बिछाकर इतमीनान की सांस छोड़ते हुए
वहीं से कर दिए गए अपरिहार्य बाहर
(इलाहाबाद 1970, इसी दुनिया में)
कविता
के इस शुरूआती नोट में ही अर्थ से परे कितने ही नाज़ुक अभिप्रायों की दुनिया खुलती
है। इस लम्बी कविता का अंत इसमें न होकर स्याही ताल की कविता में मौजूद
है...बल्कि उसे भी अंत कहना अभी जल्दबाज़ी होगा, क्योंकि
जानता हूं अभी बहुत इलाहाबाद बाक़ी है कविमन में। ऊधो, मोहि ब्रज की शुरूआत ऐसी किसी भी कविता की हिंदी
कविता के प्रचलित मुहावरे में अब तक असम्भव रही एक अद्वितीय शुरूआत है (गो वीरेन
डंगवाल किसी भी तरह के प्रचलित से बाहर एक असम्भव के ही कवि साबित भी हुए हैं) –
गोड़ रही माई ओ मउसी ऊ देखौ
आपन – आपन बालू के खेत
कहां को बिलाये ओ बेटवा बताओ
सिगरे बस रेत ही रेत
अनवरसीटी हिरानी हे भइया
हेराना सटेसन परयाग
जाने केधर गै ऊ सिविल लैनवा
किन बैरन लगाई ई आग
(स्याही ताल)
किन
बैरन....
अकसर भीमसेन जोशी के राग दरबारी के मंद्र गम्भीर सुरों में सुनता रहा हूं लोक के बिलखते
भावघर से सजग वैचारिकी ओर बढ़ता ये सुलगता हुआ सवाल। और इधर शहर और प्रिय राजनीति
की कितनी परतों को खोलता कैसा ये कविता के आखिर का उलाहना –
कुर्ते पर पहिने जींस जभी से तुम भइया
हम समझ लिये
अब बख़त तुम्हारा ठीक नहीं
(ऊधो, मोहि ब्रज, स्याही ताल)
इलाहाबाद
वीरेन डंगवाल के शहरों का स्थाई है मगर राग से वीतराग में बदलते इस किस्से के
कुछ और भी पड़ाव भी हैं – जैसे कानपुर ...कवि के शब्दों में कानपूर। दस
टुकड़ों में ये लम्बी कविता स्याही ताल में है, जो पहली बार पहल में छपी और चर्चित हुई। कविता की शुरूआत प्रेम के बारे
में एक असम्बद्ध लगते बयान से होती है –
प्रेम तुझे छोड़ेगा नहीं
वह तुझे ख़ुश और तबाह करेगा
(कानपूर, स्याही ताल)
लेकिन
वीरेन डंगवाल असम्बद्ध नज़र आने वाली चीज़ों/बातों में रागपूर्ण सम्बद्धता सम्भव
करते हैं। वे असम्बद्धता के बारे में हमारे भ्रमों को लगातार तोड़ते चलते हैं।
सम्बद्धता – असम्बद्धता अकसर हमारे सोच-विचार के दायरे से बाहर स्वत: घटित होने
वाला तथ्य है, हम कभी उसे देख पाते हैं, कभी नहीं – वीरेन डंगवाल
की कविता इसे देखने की समझ देती है। बहुत दूर घटित हुए किसी और प्रेम की खातिर कवि
इस शहर में है, जहां वो पहले कभी नहीं था। प्रेम में ख़ुशी
और तबाही एक साथ हैं और इसे प्रेम पर व्यंग्य समझने की भूल न की जाए। सायास लिखी
जा रही प्रेम-कविताओं में व्यर्थ हो रहा हमारे समय का कवित्व प्रेम की उस मूल
समझ से दूर जा रहा है, जिसे यहां दो छोटी पंक्तियों में कह
दिया गया है। शहर के ब्यौरों में उतरने
से पहले वीरेन डंगवाल पहले अपने भीतर की हलचलों में राह खोजते हैं और इस बहुत लम्बी
कविता के अंत की उर्दू क्लासिक की-सी इन पंक्तियों में फिर वहीं लौट आते हैं, मानो किसी उदात्त राग के बड़े ख़याल में सुरों को जहां से जगाया गया था, वहीं लाते हुए उनका स्थायी प्रभाव बनाकर छोड़ा जा रहा हो – गा/सुन चुकने
के बाद जैसे राग की स्मृतियां बरक़रार रहती है –
रात है रात बहुत रात बड़ी दूर तलक
सुबह होने में अभी देर है माना काफ़ी
पर न ये नींद रहे नींद फ़क़त नींद नहीं
ये बने ख़्वाब की तफ़सील अंधेरों की शिकस्त
(वही)
अंधेरों
की शिकस्त का दावा करने / इच्छा रखने वाले बहुत कवि हमारे समय में मौजूद हैं पर
ख़्वाब की तफ़सील देने वाले बिरले ही होते हैं, वीरेन
डंगवाल उनमें हैं...फिलहाल अकेले....
वीरेन
डंगवाल की कविता में मौजूदा शहर हैं और ऐसा शहर भी है, जो कहीं नहीं है पर जानना मुश्किल नहीं कि यह तो एक बार फिर वही इलाहाबाद
है, जो एक उम्र के बाद उस तरह नहीं रहा जैसा कभी कवि के जीवन
में था। अलबत्ता इसे नाम न देकर कवि ने सबका बना दिया है। यह कविता जो शहर
कहीं था ही नहीं दूसरे संग्रह दुश्चक्र में स्रष्टा में है। इसमें
पीड़ा अधिक घनीभूत हुई है, क्योंकि शहर तो है पर इस तरह
जैसे था ही नहीं। होने का नहीं होना कविता में ऐसे अभिप्रायों को स्वर
देता है, जो इतनी टीस के साथ कम ही देखे गए हैं। इस शहर की
याद भी अतीव सुन्दर प्रेम है। मुहल्ले भरपूर बूढ़े, सजीले पान, मिठाई की दुकानें,
सूरमा मच्छर और मेला साल में एक बार ज़बरदस्त
हमें बताते हैं कि यह इलाहाबाद है। यह समझ कविता में ही सम्भव हो सकती है कि जहां
हम क़दम नहीं रख सकते वहां भी अकसर जाना होता है अपनी फ़रेबसम्भवा भाषा के
साथ। यही और ऐसा ही है इलाहाबाद, जिसे निराला, शमशेर और वीरेन डंगवाल ने लगभग अमर बना दिया है कविता के भीतर और बाहर
भी।
***
वीरेन
डंगवाल की कविता में असाधारण का साधारणीकरण और साधारण का असाधारणीकरण विचार के
बहुत सधे हुए ताने-बाने में मुमकिन होने वाली प्रक्रियाएं हैं। उनके कोई शास्त्रीय
हल या व्याख्याएं मौजूं ही नहीं हैं। यहां वे बहुचर्चित कविताएं हैं, जिन्हें अतिसाधारण चीज़ों और जीवों का सन्दर्भ लेते हुए लिखा गया है। समोसा-जलेबी
आम आदमी के जीवन में उपस्थित व्यंजन हैं, जिनसे कवि अपनी
कविता के लिए व्यंजना प्राप्त कर लेता है। पपीता है, जिसकी कोमलता घाव की तरह लगती है। साइकिल पर एक आख्यान है। साम्राज्यवादी
ताक़त की प्रतीक इलाहाबाद के कम्पनी बाग़ की तोप है,
जिसका मुंह बंद हो चुका है। रेल आलोक धन्वा की कविता में भी है और वीरेन डंगवाल
की कविता में भी – यहां आशिक जैसी उसांसें और सीटी भरपूर वाले भाप
इंजन की आत्मीय स्मृति है, रेल का विकट खेल और उपूरे
दपूरे मपूरे का खिलंदड़ापन है, इसमें आम आदमी की
यात्राओं का आसरा तिनतल्ला शयनयान है। ऊंट जैसा मेहनतकश संतोषी पशु
है, जो सिर्फ़ मरुथलों में नहीं, पूरब
के मैदानों में भी आम आदमी का संगी रहा है। यहीं राजसी वैभव से बाहर आ चुका हाथी
भी है। बारिश में भीगा अद्भुद मोद भरा सूअर का बच्चा है। जीते-जी कहीं न
गिरने का साहस साधे झिल्ली डैनों वाली मक्खी, पुरखों
की बेटी छिपकली और सृष्टि के हर स्वाद की मर्मज्ञ कुत्ते की जीभ के
संदर्भ मनुष्य की कथा कहने के लिए हैं। ये वो छोटे जीव हैं,
जिनका जीवट बहुत बड़ा है। जाहिर है कि वीरेन डंगवाल कविता में वस्तुओं और जीवों से
व्यवहार की एक नई कला विकसित कर चुके हैं। इस कला पर कवि की निजी छाप है, उसकी कोई नक़ल तैयार कर पाना एक नामुमकिन चुनौती है। यहां से हमें यह समझ
भी मिलती है कि कविता में वस्तुएं और विषय निजी नहीं होते पर कला होती है।
***
रात
हमेशा से कवियों का लक्ष्य रही है। रात पर और उसके अलग-अलग रचावों पर हमारे पास
कविताएं हैं पर वीरेन डंगवाल के यहां एक पूरी रातगाड़ी मौजूद है, जो मुश्किल में पड़े देश की रात को लादे है। इस रात के अपने कई ब्यौरे
हैं, जिन्हें यहां दूंगा तो लेख अपनी तय सीमा से बाहर निकले
जाएगा पर इतना तो ज़रूरी होगा –
इस क़दर तेज़ वक़्त की रफ़्तार
और ये सुस्त जिन्दगी का चलन
अब तो डब्बे भी पांच ए.सी. के
पांच में ठुंसा हुआ बाक़ी वतन
आत्मग्रस्त छिछलापन ही जैसे रह आया जीवन में शेष
प्यारे मंगलेश
अपने लोग फंसे रहे चीं-चीं-चीं-टुट-पुट में जीवन की
भीषणतम मुश्किल में दीन और देश
...
कोमलता अगर दीख गई आंखों में, चेहरे पर
पीछे लग जाते हैं कई-कई गिद्ध और स्यार
बिस्कुट खिलाकर लूट लेने वाले ठग और बटमार
माया ने धरे कोटि रूप
....
रात विकट
विकट रात विकट रात
दिन शीराज़ा
शाम रुलाई फूटने से ठीक पहले का लम्बा पल
सुबह
भूख की चौंध में खुलती नींद
दांत सबसे विचित्र हड्डी
(रात-गाड़ी, दुश्चक्र में स्रष्टा)
यहां
सिर्फ़ बाहरी दृश्य नहीं हैं, यह रात आत्मग्रस्त छिछलेपन की
भी है। रात पर एक छोटी कविता स्याही ताल है -
मेरे मुंतजि़र थे
रात के फैले हुए सियह बाज़ू
स्याह होंठ
थरथराते स्याह वक्ष
डबडबाता हुआ स्याह पेट
और जंघाएँ स्याह
मैं नमक की खोज में निकला था
रात ने मुझे जा गिराया
स्याही के ताल में।
(स्याही ताल)
इस
कविता का मतलब क्या है?
रात है, समझ में आता है। विकट रात है, जिसमें सब कुछ स्याह है, यह भी समझ में आता है। फिर
उस रात का संक्षिप्त किंतु तीव्र ऐंद्रिक विवरण, जहाँ वक्ष,
डबडबाता हुआ पेट, जो अकसर प्रौढ़ावस्था में
होता है और जंघाएँ भी हैं। ये सब अंग स्याह हैं और अंतत: नमक की खोज में निकले
कवि को रात स्याही के ताल में जा गिराती है...यह उस रात की विडम्बना है या कवि की,
कुछ साफ़ समझ नहीं आता। यह रात विकट तो है पर मुक्तिबोध की रातों की
तरह भयावह और क्रूर नहीं....यहाँ ऐंद्रिक मिलन जैसा कुछ होते-होते रह गया-सा लगता
है। इस कविता के अंत में रात कवि को स्याही के ताल में जा गिराती है ... कविता कुल
मिलाकर एक अनोखा-आत्मीय-करुण और कलात्मक वातावरण रच देती है, जिसमें पाठक का घिर जाना तय है। ऐसा होना शमशेर की गहरी याद दिलाता है।
यही कवि का अटपटापन और फि़तूर भी है। यहाँ मुझे दुश्चक्र में स्रष्टा में संकलित
शमशेर वाली कविता की यह पंक्तियाँ भी याद आती हैं -
अकेलापन शाम का तारा था
इकलौता
जिसे मैंने गटका
नींद की गोली की तरह
मगर मैं सोया नहीं
(शमशेर, दुश्चक्र में स्रष्टा)
इस
रात्रिकथा में हृदयस्थ सूर्य के ताप से प्रेरित भोर के हस्तक्षेप लगातार
बने रहते हैं । यहीं से कवि अपनी अलग राह का साक्ष्य प्रस्तुत करता है –
इसीलिए एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने
फ़ितूर सरीखा एक पक्का यक़ीन
इसीलिए भोर का थका हुआ तारा
दिगंतव्यापी प्रकाश में डूब जाने को बेताब
(कटरी की
रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा,स्याही ताल)
समकालीन
क्रूरताओं-निमर्मताओं और हत्यारी सम्भावनाओं के बीच वीरेन डंगवाल उम्मीद को
कहीं कोई नश्तर नहीं लगने देते, फिर चाहे जो उम्मीद है /
भले ही वह फ़िलहाल तकलीफ़ जैसी हो। आस
या उम्मीदें उनके यहां महाख्यान होने के क़रीब आती हैं। वे विसंगतियों, विडम्बनाओं, विफलताओं और तमाम अनाचारों के बीच
मनुष्यता के पक्ष में जुझारूपन और लड़ाकूपन के चित्रों को अपना ख़ास गाढ़ा लाल
रंग देते हैं। रॉकलैंड डायरी कैंसर से लड़ते हुए कवि की निजी-व्यथाकथा हो
सकती थी लेकिन यह वीरेन डंगवाल का हृदय नहीं, जो दु:खों में
निजता को साधे। इस लम्बी कविता के अंत में फिर कवि का वही लाल चमकता-भभकता दिल है, जो जनसंघर्षों के हर सम्भव पथ को आलोकित करता है –
मेरी बंद आंखों में
छूटते स्फुल्लिंग
मेरे दिल में वही ज़िद कसी हुई
किसी नवजात की गुलाबी मुट्ठी की तरह
मेरी रातों में मेरे प्राणों में
वही-वही पुकार :
‘हज़ार जुल्मों के सताए मेरे लोगो
तुम्हारी बद्दुआ हूं मैं
तनिक दूर पर झिलमिलाती
तुम्हारी लालसा’
वीरेन
डंगवाल के यहां उम्मीद दिलासा की तरह नहीं है, वह हमारे काल में यक़ीन
की तरह धंसी हुई है। देखना होगा कि अब तक समकालीन कविता में असम्भव रही यही वीरेन
डंगवाल की कला है, जो अपनी पूरी ताक़त के साथ एक भरपूर
समर्पित सामाजिक और राजनीतिक कृत्य में बदल जाती है। यह जानना कितना सुखद और
आश्वस्तिप्रद है कि इस कला को पूर्णता में पाकर भी कवि सोता नहीं, निरन्तर जागता और जगाता है। इसी कला से उनके सभी संग्रह बने है। कटरी
की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा तीसरे संग्रह की पहली कविता है, जिसकी पंक्तियों को पहले मैंने उद्धृत किया -हर समर्थ कवि अपने समाज का
विश्लेषण करने और उसके बारे में कोई राजनीतिक बयान देने में रुचि रखता है, लेकिन वीरेन डंगवाल स्थूल विश्लेषण से कहीं आगे उसके रग-रेशे में प्रवेश
करके ख़ुद को उसके साथ रच लेने के उस हद तक हामी हैं, जहाँ
बयान देने की कोई ज़रूरत ही नहीं रह जाती, वह उस रचाव के बीच
से ख़ुद ही निकलकर आता है। यह कविता इसका एक बड़ा उदाहरण है। कविता लगातार दिल में
गूंजती है। बरेली से लगा हुआ रामगंगा के कछार पर बसा कटरी गाँव। वहाँ रहती
रुक्मिनी और उसकी माँ की यह काव्य-कथा। नदी की पतली धार के साथ बसा हुआ साग-सब्जी
उगाते नाव खेते मल्लाहों-केवटों के जीवन की छोटी-बड़ी लतरों से बना एक हरा कच्चा
संसार। कलुआ गिरोह। 5-10 हज़ार की फिरौती के लिए मारे जाते
लोग, गो अपहरण अब सिर्फ उच्च वर्ग की घटना नहीं रही। कच्ची
खेंचने की भट्टियाँ। चौदह बरस की रुक्मिनी को ताकता नौजवान ग्राम प्रधान। पतेलों
के बीच बरसों पहले हुई मौत से उठकर आता दीखता रुक्मिनी का किशोर भाई। पतवार चलाता 10 बरस पहले मर खप गया सबसे मजबूत बाँहों वाला उसका बाप नरेसा। एक पूरा
उपन्यास भी नाकाफ़ी होता इतना कुछ कह पाने को। अपने कथन की पुष्टि के लिए नहीं बस
एक सूचना के लिए बताना चाह रहा हूं कि अभी बया (अंक 18) में चर्चित युवा कथाकार
अनिल यादव ने इस कविता को आधार बनाते हुए कटरी की रुकुमिनी नाम से ही एक
अद्भुत कहानी लिखी है। यह कविता और कहानी के बीच अपनी तरह का पहला पुल है, जिसे शायद वीरेन डंगवाल की कविता और अनिल यादव की अलग विद्रोही समझ ही
मुमकिन कर सकती है। संक्षेप में कहूं तो यह कविता हमारे समय की मनुष्यनिर्मित
विडम्बनाओं और विसंगतियों के बीच कवि की अछोर करुणा का सघनतम आख्यान प्रस्तुत करती
हुई सदी के आरम्भ की सबसे महत्वपूर्ण कविता मानी जाएगी। मैं सिर्फ आने वाले कुछ
दिन नहीं, बल्कि पूरी उमर इसके असर में रहूंगा। निजी सम्बन्धों
के बावजूद कवि से कह नहीं सकता और भाग्य को भी नहीं मानता पर कहना ऐसे ही पड़ेगा
कि हमारा सौभाग्य है कि हम उन्हें अपने बीच पा रहे हैं। सुकांत भट्टाचार्य की
कविता से आया इस कविता का उपशीर्षक ‘क्षुधार राज्ये
पृथिबी गोद्योमय’ भी कुछ कहता है, जो
महज आज की कविता नहीं बल्कि उसकी भाषा पर विमर्श छेड़नेवाली आलोचना को भी द्वन्द्व
की एक राह देता है, जिसे लोग भूल रहे हैं। गद्य अलग है और
कविता अलग लेकिन वह कैसा अजब शिल्प है, जिसमें गढ़ा गया गद्य
भी अंततः कविता बनने को अभिशप्त है। उसे कविता होना होगा क्योंकि कविता में ही
मनुष्य की सर्वकालिक अभिव्यक्ति की मुक्ति है। कहानी-उपन्यास-नाटक-निबंध होते
रहेंगे, उनका अपना अलग महत्व है, पर
कविता उन्हें एकसाथ एक साँस में रच लेने वाली विधा सिद्ध हुई है। इस कविता की गूंज
में मैं स्त्रियों के गुमनाम रहे संसार का पता भी पाता हूं। इसी दुनिया में सड़क
पर सात कविताओं की आखिरी कविता में दारूण दृश्य आता है,जहां
एक औरत को नंगा करके पीट रहे हैं सिपाही – आततायियों की राह बनीं इन सड़कों
पर कवि को उम्मीद है एक दिन इन्हीं पर चलकर आएंगे हमारे भी जन। इसी
संग्रह में भाषा (सिंह) और समता (राय) पर दो कविताएं हैं। भाषा तब
बच्ची थी, कवि ने सत्ताओं के बारे में उसके पूछे जिन
सवालों का उल्लेख किया और उम्मीद दिखायी, वह अब साकार हो
चुकी है –भाषा जन और जनान्दोलनों को समर्पित एक जुझारू पत्रकार बनी हैं, उनके बचपन के सवाल बाद के जीवन में उसी दिशा में बढ़ कर उन्हें वामपंथी पत्रकारिता
में एक मुकाम दिला चुके हैं। समता भी
प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट कार्यकर्ता हैं – इस मामले में वीरेन डंगवाल विचार
के पक्ष में भविष्यदृष्टा कवि साबित हुए हैं। यहां उनका इन्वाल्वमेंट बहुत
गहरा है। गर्भवती पत्नी के अनुभव संसार पर उनकी कविता अपनी तरह की अकेली कविता
है। मेरे ग़रीब देश की बेटी पी.टी.उषा के बहाने उन्होंने जिन ख़तरनाक खाऊ
लोगों को रेखांकित किया, उनका बढ़ते जाना हमारे नए उदारवादी
देश की सबसे बड़ी विडम्बना बन चुका है। वीरेन डंगवाल की पुरानी कविता वन्या में
जंगल जाते हुए ठेकेदारों और जंगलात के अफ़सरों से डरती किशोरी के डर अब वास्तविकता
में बदल चुके हैं और उत्तराखंड बनने के बाद इनमें अब भूमाफिया और शराबमाफिया -तस्कर
भी शामिल हो गए हैं। जिस सिपाही रामसिंह को उसके जीवन और भविष्य के प्रति
कवि 1980 में चेतावनी दे रहा था, वह अब स्याही ताल की
कविता गंगोत्री से हरसिल के रस्ते पर में अपनी बेटी को एक बोतल शराब के
लिए दिल्ली के तस्कर की लम्बी गाड़ी में घुमा रहा है। निरीह लड़कियों के
सुखद स्वप्न अब स्थायी दु:स्वप्नों में बदल गए हैं। इक्कीसवीं सदी की
शुरूआत में विकास और आम आदमी की समृद्धि
की मासूम इच्छाओं के साथ अस्तित्व में आए नए राज्यों में सत्ता और लोलुपता के
नए दुश्चक्रों में सबसे बड़ी क़ीमत अपने मनुष्य होने के ज़रूरी सम्मान और गरिमा
की बलि देकर औरतों ने चुकायी है। यहां उनकी एक कविता को इधर स्त्री संसार
पर लिखी जा रही सुनियोजित कविताओं के सामने रखकर ज़रूर देखा जाना चाहिए -
रक्त से भरा तसला हैं
रिसता हुआ घर के कोने-अंतरों में
हम हैं सूजे हुए पपोटे
प्यार किए जाने की अभिलाषा
सब्ज़ी काटते हुए भी
पार्क में अपने बच्चों पर निगाह रखती हुई
प्रेतात्माएं
हम नींद में भी दरवाज़े पर लगा हुआ कान हैं
दरवाज़ा खोलते ही
अपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्ल पर
पैदा होने वाला बेधक अपमान हैं
हम हैं इच्छा मृग
वंचित स्वप्नों की चरागाह में तो
चौकडियां मार लेने दो हमें कमबख़्तो
(हम औरतें, इसी दुनिया में)
वंचित
स्वप्नों की चरागाह में चौकड़ी मार सकने का हक़ साबुत-सलामत रखना चाहतीं इन इच्छा-मृगों
द्वारा अपने नरक की बेतरतीबी में ही थोड़ी खीझ भरी प्रसन्नता के साथ अपनी अपरिहार्यता
तसल्ली ढूंढने का दृश्य दुश्चक्र में स्रष्टा में आता है। इन
कविताओं के पाठक के हैसियत से मुझे कहना होगा कि वीरेन डंगवाल ने अपनी कविभाषा में, स्पष्ट दिखायी देने वाले रूपों के साथ ही इन छुपे हुए रूपिमों को भी
भरपूर चमकाया है।
***
वीरेन
डंगवाल ने कविता में छंद का महत्व को भी ख़ूब पहचाना और उसके मर्म को बेहतर मांजा
और आज़माया है। उनके तीनों कविता संग्रहों में ऐसी कविताएं हैं। हिंदी में एक
निश्चित राजनीति और वैचारिकी में छंदमुक्तता जन की हामी रही है किंतु उसका निकट
का साथी अब भी छंद ही है। मेरी पढ़त में यह क्रम एक अद्भुत कविता इतने भले नहीं
बन जाना साथी से शुरू होता है, जिसे हम
छात्र-राजनीति के दौर में मुहावरे की तरह दोहराते थे। अंधकार की सत्ता में
चिल-बिल चिल-बिल मानव जीवन के बीच संस्कृति के दर्पण में मुस्काती
शक्लों की असलियत समझना हमने सीखा, कहना होगा कि यह समझ अब
भी काम आती है। मैं इन कविताओं की सूची नहीं दे रहा पर ये याद आ रही हैं। दुश्चक्र
में स्रष्टा में हमारा समाज है, जिसके पाठ के
सफल हमलावर प्रयोग हमने कालेपन की संतानों की अभिजात महफ़िलों में किए हैं। छंदयुक्त
इन कविताओं के अलावा मैंने देखा है कि वीरेन डंगवाल की कविता में शब्दों की जगह
का चयन हमेशा एक लय पाने की इच्छा से संचालित रहा है। शिल्प की तोड़फोड़ के बीच
भी यह लय बनी रहती है। कुछ कद्दू चमकाए मैंने जैसी कविता व्यंग्य के
भीतरी घरों में भी वही लय खोज लाती है। वीरेन डंगवाल का बहुत अलग और प्रखर
कवि-कौशल है, जिसमें कविता के शिल्प का बदलाव उसी लय में
बंधा रहता है, जिसमें वह पाठकों के लिए अधिकाधिक ग्राह्य
होती जाती है।
***
कविता
ही नहीं मनुष्यता के स्तर पर वीरेन डंगवाल बड़े हैं। उनकी कविता की अपवाद
असफलताएं और विकट उलझनें दरअसल मनुष्य बने रहने के द्वन्द्व की हैं – यदि यहां
समझौता हुआ होता तो ये कविताएं ज़्यादा कटी-छंटी, सधी और
चमकीली हो सकती थीं, इनमें भरपूर आप्तवचन हो सकते थे, इनमें विचार के स्तर पर सीख, नारे और जाहिर
प्रेरणाएं हो सकती थीं .... तब इन पर आलोचना भी बहुत आसान होती। इस तरह के एक झूटे
और धूर्त होते जाते अकादमिक संसार में इन कविताओं की स्वीकार्यता भी बढ़ती लेकिन
फिर ये हमारी न होतीं, न ये कवि हमारा होता। जब से आलोचना
महज बुद्धि व्यवसाय के रूप में स्थापित हुई है, तब से उसकी
अपनी मुश्किलें बढ़ीं और विश्वसनीयता घटी है – दिक्कत यह है कि इस बात को अभी
पहचाना/स्वीकारा नहीं जा रहा है। मैं अपने आसपास देखता हूं कि जिन लोगों ने इस
तरह के एकेडेमिक्स में अपनी जगह बना ली है, वे इस कवि की
अतीव (और विवश) मौखिक प्रशंसा करते हुए भी उसे समझ नहीं पाते और इस तथ्य को
गाहे-बगाहे जताते भी चलते हैं। वीरेन डंगवाल दरअसल जीवन के सहज उल्लास और असाधारण
मुश्किलों के कवि हैं – इन दोनों को अपना बनाए बिना उन पर आलोचना सम्भव नहीं और जाहिर
है कि इन दो चीज़ों को अपनाना भी इतना सरल नहीं।
***
यहां
मैंने जो कुछ लिखा, वह अपर्याप्त तो है ही, बिखरा हुआ भी है – इससे
बाहर अभी वीरेन डंगवाल को कितनी ही तरह से देखा जाना बाक़ी है। एक अच्छे-प्रिय
कवि पर काफ़ी कुछ लिखा जाना हमेशा बाक़ी ही रहता है। लिखते हुए उस कवि के प्रति दूसरे
कवि का गहरा प्यार और सम्मान भी बांध-सा देता है, जैसे मैं
बंध गया हूं ... इन पृष्ठों को लिखना मेरे लिए मुश्किल होता गया है और अपनी बहक
को सम्भालना भी। लेकिन इसे भी समझा जाए कि यही बात आलोचक कहाए जाने वाले लेखकों
के लिए उसी तरह नहीं कही जा सकती। खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि सियाराम शर्मा और
पंकज चतुर्वेदी को छोड़ बाक़ी ओजस्वी वामपंथी आलोचकों ने वीरेन डंगवाल के सन्दर्भ
में मुझे बहुत निराश किया है। बोल कर उन्हें बड़ा बताने वाले कई आलोचक और चिंतक
कवि परिदृश्य पर मौजूद रहे हैं, पर उन्होंने लिखकर कभी यह
काम नहीं किया। जिन बातों का अभिलेख होना चाहिए, वे वायु में
विलीन हो रही हैं। बहुत बड़े आलोचक तो जैसे सन्नाटे में हैं। सबको ये जो चुप-सी
लगी है, उसके चलते अपनी बात के अंत में मुझे अचूक कहन वाले
पुरखे ग़ालिब की याद आ रही है –
दिल-ए-हसरतज़द: था मायद: -ए-लज़्ज़त-ए-दर्द
काम यारों का, बक़द्र-ए-लब-ओ-दन्दां निकला
***
पहल-92, सम्पादक : ज्ञानरंजन, 101,रामनगर,अधारताल,जबलपुर(म.प्र.)