Sunday, April 28, 2013

कविता जो साथ रहती है 4: प्रभात की कविता : गिरिराज किराड़ू



विस्थापन और आत्मबोध की दूसरी कथा


अपनों में नहीं रह पाने का गीत

उन्होंने मुझे इतना सताया
कि मैं उनकी दुनिया से रेंगता आया
मैंने उनके बीच लौटने की गरज से
बार-बार मुड़कर देखा
मगर उन्होंने मुझे एकबार भी नहीं बुलाया

ऐसे अलग हुआ मैं अपनों से
ऐसे हुआ मैं पराया

समुदायों की तरह टूटता बिखरता गया
मेरे सपनों का पिटारा

अकेलेपन की दुनिया में रहना ही पड़ा तो रहूँगा
मगर ऐसे नहीं जैसे बेचारा

क्योंकि मेरी समस्त यादें
सतायी हुई नहीं हैं
***

1

हिन्दी कविता में विस्थापन के कई वृतांत है, जिनमें सबसे लोकप्रिय लेकिन एक स्तर पर निराश और खिन्न करने वाला (इरिटेटिंग) वृतांत केदारनाथ सिंह के यहाँ हैः – काव्यनायक शहर आ गया है, जाहिर ही काम करने (प्रोफेसर बनने?) आया है और इसको लेकर एक नपातुला, अपनी गतिकी में लगभग डिजाईनर जान पड़ने वाला अपराध बोध उसके भीतर स्थायी हो गया है. केदारजी के काव्यनायक की समस्या अक्सर यह है कि वह अपने ड्राईंगरूम में कुल्हाड़ी कहाँ रक्खे या गाँव से आये दोस्त या कार्यकर्ता से नज़रें कैसे मिलाये. यह खिन्न इसलिये करता है कि इसमें काव्यनायक की स्थिति नियतिवत है – वह अपनी विस्थापित अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं करेगा और इसी कारण जो पीछे रह गया – गाँव – उसकी अवस्था में भी नहीं. उसकी अवस्था भी उसके लिये नियतिवत ही है. हालाँकि ऐन इसी कारण एक दूसरे स्तर पर केदारजी की कविता ‘विकास’ का कुछ पठन विधियों से मार्मिक महसूस होने वाला सबआल्टर्न आख्यान भी बनती है. लेकिन मेरी अपनी पढ़त में यह काव्यनायक ठीक से हमदर्द नहीं बन पाता क्यूंकि उसे अपने अपराधबोध से ही मुक्ति नहीं मिलती. गाँव अपने प्रभाव में छिन चुके स्वर्ग (लॉस्ट पैराडाईज) जैसी मिथकीयता हासिल कर लेता है और बिल्कुल एंथ्रोपोलॉजिकल स्तर पर आपको नस्लीय ढंग की कल्पना के फेर में ले लेता है जिसका परिणाम गाँव और शहर के बीच दिव्य और दानवीय की बाईनरी में होता है.

पहाड़ से रोजी रोटी के लिये मैदान आये मंगलेश डबराल के यहाँ विस्थापन के ज्यादा अंतःसंवादी विवरण हैं, मंगलेश ज्यादा डायलेक्टिकल हैं केदारजी के बरक़्स. बद्री नारायण में भी इस वृतांत के कई रूप हैं लेकिन एक तरह की वर्जिन मासूमियत से परिभाषित, किंचित रोमानी 'लोक' वहाँ भी है. प्रभात की यह कविता विस्थापन की कथा दूसरे छोर से कहती है. इस कविता के काव्यनायक को विस्थापित करने वाले ‘बाहरी’/ ‘पराये’/ ‘दूसरे’ नहीं है, ये ‘अपने’ हैं जिन्होंने उसे विस्थापित किया हैः

उन्होंने मुझे इतना सताया
कि मैं उनकी दुनिया से रेंगता आया
मैंने उनके बीच लौटने की गरज से
बार-बार मुड़कर देखा
मगर उन्होंने मुझे एकबार भी नहीं बुलाया

ये है जन्नत की हक़ीक़त. ये गाँव या लोक की रोमानी मिथकीयता के बरक़्स उसका बेरहम रोजमर्रा है. विस्थापन की यह प्रतिकथा कविता में ऐसी सघन प्रत्यक्षता से आती है कि आप इस यातना के ताप से झुलसने लगते हैं. कवि ने चार बार सोचके ‘रेंगने’ जैसी क्रिया का प्रयोग किया है या यह पहली स्वाभाविक च्वॉयस थी? ‘गरज’ के दूसरे अर्थ, उसकी ‘व्यंजना’ के बारे में सोचा था उसने?

ऐसे अलग हुआ मैं अपनों से
ऐसे हुआ मैं पराया

अपने इस तरह अलग होने ‘पराये’ होने, सपनो के बिखरने का सादृश्य कवि के पास यह हैः

समुदायों की तरह टूटता बिखरता गया
मेरे सपनों का पिटारा

‘सपनों का पिटारा’ यहाँ अभिधा में है या मुहाविरे में? यह आत्म-कथा है या समुदाय-कथा? क्या यह वही समुदाय है जिसने उसे इतना सताया या कोई दूसरा? इस काव्यनायक को सताने वाले भी इसके ‘अपने समुदाय’ के हैं. यह कविता अन्य का दानवीकरण (Demonization) करने से इंकार करती है (और यह कहते हुए यह नोट करना प्रासंगिक हो सकता है कि इस कविता का ऑथर एक जनजातीय समुदाय से आता है) और इस तरह विस्थापन के साथ साथ आधुनिकता और विकास का एक दूसरा वृतांत बन जाती है. यह कविता यहाँ, इस बिंदु, पर समाप्त हो जाती तो भी एक मुकम्मिल संरचना, एक मुकम्मिल रचनानुभव होती लेकिन इसका उत्तरार्द्ध इसे पूर्णतर रचना बनाता हैः

अकेलेपन की दुनिया में रहना ही पड़ा तो रहूँगा
मगर ऐसे नहीं जैसे बेचारा
क्योंकि मेरी समस्त यादें
सतायी हुई नहीं हैं

सबआल्टर्न प्रत्याख्यानों में स्मृति की एक बेहद महत्वपूर्ण, रणनीतिक भूमिका है. स्मृति प्रतिरोध की, पुनर्निर्माण की सामग्री भी है, विधि भी. क्या यह पहला सबआल्टर्न काव्य-स्वर है जो कह रहा है, ‘मेरी समस्त यादें सतायी हुई नहीं हैं’ और इस तरह दूसरों द्वारा अपने अधूरे, एकांगी निरूपण/प्रतिनिधित्व के मुकाबले ज्यादा संश्लिष्ट, मनुष्य होने की संपूर्णता का क्लेम करने वाले आत्म का आविष्कार करता है. और यह कवि की निजी उपलब्धि मात्र नहीं है, यह सामुदायिक प्रक्रियाओं को सक्रिय करने वाला ‘आत्म’-बोध है.

2

प्रभात की कविता मेरे लिये प्रेरक और शिक्षाप्रद रही है. उस पर मैंने पहले भी लिखा है, शायद उसकी लगभग हरेक कविता पर एक निबंध लिख सकता हूँ. प्रभात, महेश वर्मा, और कुछ हद तक मनोज कुमार झा की कविता मुख्यधारा के रैह्ट्रिकल/रेवोल्यूशनरी हाईवे से दूर अपने अपने ढंग से ‘कविता का छत्तीसगढ़’ है.  

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कुछ लिंक्सः



19 comments:

  1. 'मगर ऐसे नहीं जैसे बेचारा'...!!

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  2. मार्मिक ,कचोटती हुई...विडंबनाऐ पर विलाप नहीं जिसे गिरिराज किराडू ने बड़े सधे हुए शब्दों "सामुदायिक प्रक्रियाओ को सक्रिय करने वाला 'आत्म'-बोध " कहा हैं |प्रभात की कविता खास किस्म की अपने ढब की ...और गिरिराज की यह टीप हिंदी गद्य की शक्ति और असर का दमकता उदाहरण भी बन पड़ा हैं |दोनों को और पढने वालों को भी बधाई...

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  3. प्रिय गिरिराज,
    तुम्हारी टिप्पणी में अन्त अन्त तक आते हुए वही सुपरलेटिव में बात करने का भाव है. दिक़्क़त यह है कि आज ज़्यादातर लोगों का दायरा बस उतनी दूर तक है जितनी दूर तक उनके सूत्र गये हैं.विस्थापन हो या और कोई विषय बात कुच्ह गिने चुने लोगों के उल्लेख से पूरी कर ली जाती है. प्रभात को उम्दा बताने के लिए केदार नाथ सिंह, मंगलेश जैसे कुछ कवियों का उल्लेख कर दिय बस. बड़ी लकीर छोटी लकीर वाले तर्क के आधार पर. मेरे ख़याल में यह कविता को परखने का नज़रिय नहीं होना चाहिये. तुम बहुत पढ़े हुए हो अंग्रेज़ी में एक कहावत है -- कम्पैरिज़न्ज़ आर ओडियस. बस.

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  4. मैं कोई आलोचक नहीं हूं...पर कविता करता रहा हूं...निसंदेह प्रभात की यह कविता कई मायनों में अलग है..पर इसमें ऐसे विरोधाभास भी हैं जिन्‍हें आप नजरअंदाज किए जा रहे हैं..जब कवि कहता है कि... मैं उनकी दुनिया से रेंगता आया...तो क्‍या वह उसकी दुनिया नहीं थी...वह किसी और दुनिया से वहां गया था..मजे की बात यह भी है कि बाद में कवि स्‍वयं ही यह स्‍वीकार भी करता है कि ....ऐसे अलग हुआ मैं अपनों से...।..
    *
    आज की विडम्‍बना शायद यह भी है कि अच्‍छी कविता को अच्‍छा कहने और बनाने के लिए इस तरह के आख्‍यान की जरूरत भी पड़ती है।
    *
    शिरीष जी निश्चित अनुनाद पर अच्‍छा काम हो रहा है। पर मैं पहले भी कहता रहा हूं...केवल अच्‍छी कविताओं पर नहीं कुछ अकविताओं या कि बुरी कविताओं पर भी चर्चा होनी चाहिए..ताकि लिखने वालों को कुछ संकेत मिलें।

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  5. सबके अपने जीवन अपने अनुभव हैं। मेरा जीवन मेरा अनुभव सताया...रेंगता आया और पलटकर किसी ने नहीं बुलाया वाले नहीं हैं, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि मैं इस कविता के मर्म से कनेक्‍ट नहीं पा रहा। मैं उस दुनिया के बारे में सोच रहा हूं, अनुमान लगा रहा हूं,जिसमें प्रभात रहा और अब रह रहा है...उसने बेचारिगी को जिस तरह झटका और न सताई गई यादों को याद किया है...वह उसका निजी ही नहीं, कवि व्‍यक्तित्‍व भी बनाती है, जिससे हमें प्‍यार हैं।
    ***
    राजेश उत्‍साही जी का यह कहना बिलकुल सही है कि बुरी कविताओं पर चर्चा होनी चाहिए। हालांकि अनुनाद पर खुद लेखक होने से अब परहेज करता हूं...लेकिन न हुआ तो यह काम अनुनाद पर ही मैं खुद करूंगा।

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  6. नीलाभजी: फर्क को रेखांकित किया गया है, आप इस पठन में एक भी सुपरलेटिव विशेषण बताइए कहाँ है? और विस्थापन को लेकर एक स्थापित कविता-रुख के दो-तीन उदहारण देते हुए एक फर्क रुख की बात की गई है. आप हमारा कहाँ पढ़ते हैं हमने तो अस्सी फीसदी मृतकों पर लिखा है उनसे हमारा क्या सूत्र. भास से लेकर नवीन सागर तक. वैसे भी कवियों को छोटा बड़ा बताने के उबाऊ पंडिताऊ काम में दिलचस्पी नहीं उसके लिए सक्रिय गिरोहों से आप अच्छे से परिचित हैं.इस कालम में मैं ऐसी कविताओं के बारे में लिखता हूँ जो मेरे साथ रहती हैं.

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  7. राजेश जी: मैंने इसे इस तरह पढ़ा है कि वह उसकी अपनी दुनिया थी लेकिन जब अपनों ने उसे सता कर निकाल दिया तो वह 'उनकी' दुनिया हो गयी. और अच्छी कविता कुल मिलकर अपने से ही अच्छी रहती ऐसे या कैसे भी आख्यान उसके और पाठक के बीच सम्बन्ध को थोड़ा रोशन कर सके इससे ज़्यादा ना उनका महत्त्व होता है ना समझना चाहिए.

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  8. 'अनुनाद' की कविताओं की यात्रा करवाने के लिए धन्यवाद. बहुत अच्छा लगा. क्या आज की अच्छी कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा नहीं लगता कि हम एक ही (सपाट) राजपथ की सैर कर रहे हैं. क्या इसी राजपथ की सैर के लिए छोड़ा था केदार जी ने अपना गाँव? गिरिराज जी की तो क्या कहें, उनके पास तो गाँव है ही नहीं. इसीलिये मुझे लगता है, हिंदी के इस खेमे के कवियों को गद्य से टकराना चाहिए, मगर कविता का झंडा लेकर नहीं, गद्य का लेकर. इससे शायद आत्म-अवसाद से काफी हद तक मुक्ति मिलेगी.

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    1. सर मैं इस खेमे (शहरी) का कवि नहीं हूं लेकिन गद्य से टकराना मैंने शुरू कर दिया है....हालांकि झंडा कविता का ही है,यानी कविता पर ही केन्द्रित हैं ....मेरे लम्‍बे लेख पहल में आ रहे हैं...शायद आपकी नज़रों से गुज़रे हों.....कुछ और योजनाएं भी हैं।

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  9. कविता जो साथ रहती है... किसके साथ ?
    एक एकांत दुनिया... इस भीड़-भाड़ और शोर शराबे से पटी दुनिया के बीच यह एकालाप सुनना कितना अच्छा लगता है. काश यह एकांत हमारे अन्दर ऐसे ही बना रहता. हे कविगण! क्या आपको मेरी आवाज सुनाई दे रही है ?

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    1. हर किसी की कवियों को सुनाने की इच्छा इतनी प्रबल क्यों रहती है? कविता अगर किसी कवि के साथ रहती है तो क्या उसका एकालाप के रूप में रहना अनिवार्य है? वह चेतना पर पड़ते हथौड़े की तरह भी लगातार रह सकती है न?

      कविताएँ किसी के साथ रह सकती हैं ...बस उन्हें संभालने और सहने का ढब ज़रूरी है.

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  10. क्योंकि मेरी समस्त यादें सताई हुई नहीं हैं, क्या खूब लिखा है। विस्थापन पर यह बिलकुल अलग तरह की कविता है जो दिल को छूती है। वैसे मैं कविता कम पढ़ता हूं लेकिन यह कविता पढ़ने के बाद प्रभात को और पढ़ने का मन है। साथ में गिरिराज किराडू की टिप्पणी ने भी मदद की। और हां, अनुनाद का नया रंग रूप भी दिलकश हो गया है। कभी हमें भी याद कर लिया करो।

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    1. ख़ान चाचा मेरी जान....कविता ज्‍़यादा पढ़ा करो.... वो भी मेरी :-) प्रभात को और पढ़ने का मन हम सबका है पर वो है कि दुर्लभ हुआ जाता है...अनुनाद का रूप रंग पसन्‍द आया....ये सब के.रविन्‍द्र का कमाल है। आपको कितना याद कितना करते हैं..आप क्‍या जानो...

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  11. बटरोहीजी आधा जीवन गाँव में बिता दिया, अभी भी छह साल से लगातार गाँव में हूँ। और आप कहते हैं गाँव नहीं है :-) वैसे कविता के डंडे से क्या शिकायत?

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    1. हां बिलकुल, कविता के झंडे से क्‍या शिकायत :-) और गिरि तुम्‍हारी लाजवाब अंग्रेजी चमक के चलते तुम्‍हें गांव से दूर किसी नगर-महानगर का पैदाइशी नागरिक मान बैठते हैं लोग.... काश कभी इस 'पदयात्री के पद' भी देख लिए जाते .....बटरोही जी तो तुम्‍हें निजी तौर जानते नहीं, इसलिए भी भ्रम हो गया।

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  12. बहुत अच्छा लगा एकदम बगल में बैठे दोस्त से मानो टेलीफोन पर बातें करना. बचपन में माचिस के खाली डिब्बों में धागा बांधकर एक-दूसरे से टेलीफोन की तरह बातें करते थे. तब गाँव में फोन होने का सवाल ही नहीं था. पचपन-साठ साल बाद जब चारों ओर फोन-ही-फोन हैं, इतने नजदीकी दोस्तों के बीच भी संपर्क उपलब्ध नहीं है. क्या सचमुच हम दूर हो गए हैं? ये बातें फोन या मोबाइल पर भी हो सकती थीं, मगर हुई नहीं. इसलिए भाई शिरीष, इसे मनःस्थिति ही समझना और अन्यथा न लेना. विभाग की कभी-कभी नराई लग जाती है, इसलिए ऐसी छूट की तुम्हें मुझे इजाजत देनी चाहिए. वहां किसके लिए आऊँ?
    उम्मीद है, गिरिराज जी इस उम्र की शरारत का बुरा नहीं माने होंगे. क्या एक अच्छे पाठक के लिए व्यक्तिगत रूप से जानना जरूरी है? यह बात सही है कि मेरे मन में उनके गाँव की छवि हिंदुस्तानी गाँव की नहीं, 'कंट्री-साइड' की थी/है. वैसे हिंदुस्तान में भी अब इन दोनों के बीच क्या कोई फर्क रह गया है?

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    1. सर आपका स्‍नेह भावुक करने वाला है। आप मानें न मानें पर विभाग में अभी मेरे हिसाब से भावात्‍मक और बौद्धिक दोनों स्‍तरों पर आपको सबसे अधिक मैं समझता-जानता-मानता हूं। आप यहां थे, मेरे लिए यह बड़ी बात है और आप जिस मूल पद से यहां आए वो मेरे पास है....लिखने-पढ़ने के स्‍तर पर वो कितनी बड़ी जिम्‍मेदारी है मेरे लिए, मैं ही जानता हूं.... इसलिए परिस्थितियां कुछ भी हों रचनात्‍मकता से समझौता विभाग में रहते हुए कभी नहीं करता...वरना तो 'रचना' और हिंदी विभाग ....तौबा-तौबा।

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  13. विस्थापन का जो आख्यान प्रभात के यहाँ तुमने लक्षित किया है वह निश्चित रूप से हिंदी कविता के नागर हो चले तमाम कवियों से अलग है. प्रभात के यहाँ जो आथेंसिटी और साफगोई है वह अक्सर अधिक करीब लगती है..इसीलिए वह चौंकाते कम और सेन्सिटाइज अधिक करते हैं.

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