Tuesday, April 30, 2013

मेरे जीवन में-मन में वह एक-अकेला औघड़ बाबा - संस्‍मरण





प्रगतिशील हिंदी कविता का वह परम औघड़-ज़िद्दी यात्री, जिसे नागार्जुन या बाबा कहते हैं, मेरे जीवन में पहली बार आया तब मैं आठवीं में पढ़ता था। 1986 की बात रही होगी जब सुनाई पड़ा कि ये महाकवि हर बरस अपनी गर्मियाँ जहरीखाल में वाचस्पति जी के घर गुज़ारते हैं जो राजकीय महाविद्यालय में मेरे पिता की ही तरह हिंदी के प्राध्यापक हैं। हम उसी इलाक़े में नौगाँवखाल नामक गाँव में रहते थे। दो साल बाद हाईस्कूल की पाठ्यपुस्तक में नागार्जुन की एक कविता बादल को घिरते देखा हैसामने आयी। हालाँकि बरसात के दिनों में मित्रों के साथ शराब पी लेने के बाद पिता को अकसर इस कविता कुछ हिस्से सुनाते हुए पाया था, ख़ासकर वो जिसमें किन्नरों की मृदुल मनोरम अँगुलियाँ वंशी पर फिरती हैं, जाहिर है कविता के उस हिस्से में मदिरा का भी ज़िक्र था, जो तब तक पिता  के उदर और मस्तिष्क के कुछ अंशों पर हावी हो चुकी होती थी। बताना होगा कि पिता 70 के ज़माने में नागपुर में शोध करते हुए नागार्जुन के सम्पर्क रह चुके थे लेकिन उनके ऐसे अद्भुत प्रशंसक थे, जिनमें 60-70 किलोमीटर दूर जहरीखाल में मौजूद अपने प्रिय कवि से मिलने जाने की कोई इच्छा मैंने कभी जागते नहीं देखी। कुछ सबन्ध शायद ऐसे ही होते होंगे, जिनमें सम्पर्क करना/रखना अनिवार्य न होता हो।

बहरहाल, वक़्त बहुत जल्दी गुज़रा और 1990 की बरसात में हमारा परिवार पिता के स्थानान्तरण के फलस्वरूप नैनीताल जि़ले के रामनगर क़स्बे में जा पहुंचा। यहाँ पहुंचते ही सुनाई दिया कि अब फिर बाबा जहरीखाल से काशीपुर आ चुके वाचस्पति जी के घर पाए जाते हैं। काशीपुर की दूरी रामनगर से 27 किलोमीटर थी। मैं भी अब बी.एस-सी. का छात्र हो चुका था और कुछ इच्छाएँ साहित्य प्रेम के चलते मेरी भी जागने लगी थीं। अगले बरस यानी 1991 में वाचस्पति जी का संदेश आया कि बाबा पधार चुके हैं और हम अगर मिलना चाहें तो हमारा स्वागत है। यूं पिता और मैं उनसे मिलने काशीपुर गए। अब तक मैं नागार्जुन को काफ़ी कुछ पढ़ चुका था और उनके धारदार चुटीले व्यंग्य का कायल था। बस में वक़्त गुज़ारते हुए कई बार दिल की धड़कन बढ़ी कि मेरा भी अत्यन्त प्रिय हो चुका यह बुज़ुर्ग कवि कैसा होगा और हमसे कैसे मिलेगा। पतली गली में आकर थोड़ी खुली जगह पर एक उजड़ रही चूना भट्टी के सामने वाचस्पति जी का घर मिला, जिसके मुख्य द्वार पर कालबेल की छोटी गोल काली बटन तो थी ही, एक मोटी लोहे की साँकल भी थी, जिसे बिजली न होने की स्थिति में दरवाज़े पर भरपूर शोर के साथ बजाया जा सकता था। मैंने अपने उस किशोर उत्साह में दोनों का प्रयोग किया तो ऊपर मंज़िल से एक कड़क आवाज़ आयी - अरे बेटू देखो तो कौन है? कहो आ रहे हैं भाई, आ रहे हैं! इतनी भी जल्दी क्या है!  फिर तुरत ही ऊपर से मूंछों वाला एक चेहरा नीचे देखता हुआ बोला - कहिये ! किस से मिलना है!  अब पिता ने अपनी वाणी को अवसर देते हुए कहा - मैं हरि मौर्य हूं.... ऊपर वाला चेहरा एकाएक अपनी मूंछों में जैसे खिल उठा - अरे भाई साब आप है! आता हूं। आता हूं!  हम सीढ़ियों से ऊपर पहुंचे तो एक गोल बरामदे में हमें बैठा दिया गया। पता चला जिस बेटू को आवाज़ दी जा रही थी, वह वाचस्पति जी का बड़ा बेटा है और घर में मौजूद ही नहीं है। वे मूंछें ख़ुद वाचस्पति जी के चेहरे की शान हैं, जिन्हें शायद उन्होंने अपनी स्वाभाविक मानवीय स्निग्धता और स्नेह को छुपाने के लिए उगाया है, ताकि रौब ग़ालिब करने में कोई कसर न रहे। उन्होंने बताया बाबा अभी खाना खाकर सोए हैं, एकाध घंटे का इंतज़ार करना होगा। तब तक एक स्त्री निकल कर आईं, जिनके समूचे व्यक्तित्व में एक अनोखी आभा थी और उतना ही अनोखा अपनापा भी। वे घर की मालकिन शकुतंला आंटी थीं। परिचय के तुरत बाद ही वे मुझे अपने साथ बरामदे के दूसरे कोने पर मौजूद एक कमरे की ओर ले गईं जो उनका कार्यक्षेत्र था- उनकी रसोई। बिना कुछ बोले एक पीढ़े पर बिठाया और आलू-टमाटर की सब्ज़ी और गर्म पूडि़यों की एक विराट प्लेट मेरे सामने धर दी। मैं हिचकिचाया तो बोलीं-  अरे बस से आए हो। बच्चे हो भाई, भूख लग आई होगी। शर्माओ मत, खाओ। अभी खीर भी गर्म करती हूं।  मैंने सोचा क्या मैं यहाँ तक सिर्फ़ खाना खाने आया हूं? तब पता नहीं था कि यही खाना एक दिन मुझे जीवन की उन राहों तक ले जाएगा, जिन पर मुझे कविता से लेकर प्रेम तक वे तमाम चीज़ें मिलेंगी, जिनके बिना अब जीवन सम्भव नहीं।

कुछ देर बाद अंदर के कमरे से अचानक काफ़ी खाँसने-खँखारने और बलगम निकालने की आवाज़ों का एक विकट सिलसिला शुरू हो गया और वाचस्पति जी ने कहा -लगता है बाबा जाग गए!  यह साधारण-सा लगनेवाला वाक्य मेरे लिए बेहद असाधारण था और मैं तुरत कुर्सी से उठकर अंदर जाने को तत्पर हुआ। वाचस्पति जी ने रोका, कहा - ज़रा रुकिए, पहले देख लें कहीं और तो नहीं सोएंगे।  वे अंदर गए और सूचना लाए कि अब नहीं सोएंगे, आप लोगों को बुला रहे हैं। ख़ुदा-ख़ुदा करके सहर हुई थी। हम लोग अंदर गए। मैं पलंग पर बैठे व्यक्ति को देखकर भौंचक्का रह गया। चेहरा तो फोटो में देखा था और उस चेहरेवाले व्यक्ति की कल्पना एक पतले-दुबले बुज़ुर्ग़ की ही थी पर इतने अशक्त की नहीं। बहुत छोटा-सा क़द जो बैठे होने पर और भी छोटा लग रहा था। इस क़द के बड़प्पन के बारे में अभी मुझे बहुत कुछ जानना था।

हमारी पहली मुलाक़ात के तुरत बाद बाबा दस-पन्द्रह दिनों के लिए हमारे घर रामनगर आए और आनेवाले तीन साल तक इसी तरह आते रहे। कुल मिलाकर अपने जीवन के कोई साठ दिन उन्होंने हमारे साथ गुज़ारे होंगे और इन साठ दिनों की स्मृतियाँ अब मेरे जीवन भर का धन हैं। इस धन में बाबा के पत्रों का कुछ चक्रवृद्धि ब्याज भी है, जिन्हें कभी सबके पढ़ने के लिए उपलब्ध कराऊँगा। अभी की बात सिर्फ़ स्मृतियों की.....बाबा के बारे में जो कुछ मैं लिख रहा हूं शायद सैकड़ों बार कई लोगों ने यही कुछ लिखा होगा ...और ऐसा इसलिए कि बाबा का दिया हुआ स्मृतिधन मेरे अकेले की बपौती नहीं....मुझ जैसे सैकड़ों लोगों के पास वह है और कईयों के पास तो मुझसे कई गुना ज़्यादा। ऐसे लोगों में सर्वोपरि वाचस्पति जी हैं पर इस स्मृतिधन को ख़र्च करने में उनके जैसा कंजूस भी मैंने दूसरा नहीं देखा।

बाबा घर आए तो उनके आने की सूचना मुहल्ले की कुछ धर्मपारायण स्त्रियों को मिली। ऐसी स्त्रियों को जिनके पति सुनार, इंजीनियर, व्यापारी आदि थे और उनके गिर्द घूसखोरी, टैक्सचोरी, गबन आदि का बड़ा मज़बूत घेरा था, जिसके भीतर वे स्त्रियाँ पुण्य की लालसा में मंदिरों, सत्संगों, बाबाओं आदि के चक्कर काटा करती थीं। पुण्य और सत्संग की यही इच्छा उन्हें हमारे घर लायी। वे आयीं तो साथ में पुष्प, अक्षत, धूप, मिठाई वगैरह से भरी भारी-भारी थालियाँ भी लायीं, जिन्हें उन्होंने बाबा के चरणों में रखा। बाबा अद्भुत रूप से प्रसन्न हुए। अपनी मूंछों पर कुछ अंश गिराते हुए मिठाई में से कुछ उन्होंने ग्रहण भी किया। फूल आदि उन औरतों के सिर पर रखे तो वे धन्य हो गयीं। उन्होंने बाबा से सत्संग की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि सुंदर गृहणियों का साथ तो हमेशा ही सत्संग है....वे और भी प्रसन्न हुईं। बाबा ने सासों से बहुओं के हाल पूछे और बहुओं से सासों के। पतियों का भी नंबर आया...कुछ नवविवाहिताएँ लजा गईं। उनके मुखड़े की लाली बाबा को भायी। मैं परेशान हुआ कि यह सब हो क्या रहा है! मुझे बाबा ने कालेज जाने का आदेश दिया। उस सत्संग में आगे क्या हुआ मैं नहीं जानता पर बाबा के प्रवास के दौरान उन स्त्रियों का आना हर साल अबाध रूप से जारी रहा।

मेरी माँ का नाम कला है और वे काफ़ी साफ़ रंग की हैं पर बाबा ने पहले दिन से ही उन्हें कल्लू कहा। बताया कि उम्र, शक्ल-सूरत और आदतों में वे ठीक बाबा की उड़ीसावाली बेटी की तरह हैं अतः वे उनकी बेटी ही हैं और मेरे पिता उनके दामाद जिन्हें ठीक किए जाने की सख़्त ज़रूरत है। माँ इन बातों से ख़ुश हुई और बाबा की ख़ातिरदारी में लगी रही। सामन्ती कूड़े के बीच ज़िन्दगी गुज़ारते रहने के कारण पिता को ठीक किए जाने वाली बात उन्हें विशेष अच्छी लगी थी। बाबा के साथ उनका सम्बन्ध स्थिर हो गया और स्थायी भी। बाबा ने पिता को तंग करने का कार्यक्रम आंदोलन के स्तर पर शुरू कर दिया। पिता से भयभीत रहनेवाला मैं उनकी विद्रोही गतिविधियों में शामिल रहने लगा।

कविता और साहित्य की कोई बात कई दिनों तक नहीं हुई। फिर एक दिन अचानक कुमाऊँनी के प्रसिद्ध कवि श्री मथुरादत्त मठपाल तशरीफ़ लाए। मठपाल जी का बड़ा बेटा नवेन्दु मुझसे पाँच साल बड़ा था और मेरे भीतर की ज़मीन तोड़ रहा था ताकि आइसा, आई.पी.एफ. और जसम के बीज वहाँ बोए जा सकें। मैं अपनी शिक्षा और संस्कारों से मार्क्‍सवादी ही था सो उसे अपने काम में दिक्‍कत नहीं हुई। मठपाल जी ने साहित्य का ज़िक्र बड़े ज़ोरों से छेड़ा...बाबा उनके परिवार में दिलचस्पी ले रहे थे पर मठपाल जी थे कि बात को काटकर कुमाऊँनी कविता पर आ जाते थे। उन्होंने आँग-आँग चिचैल है गोशीर्षक अपनी लोकप्रिय कविता का ज़ोरदार पाठ किया और बाबा को उसका भावानुवाद बताते हुए प्रतिक्रिया की अनिवार्य माँग रखी। बाबा ने थोड़ा पानी माँगा और कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद टूटे-फूटे शब्दों में कहा कि जैसे बछड़े को दाग कर साँड बनने और लोगों के बीच आतंक फैलाने के लिए शंकर जी के नाम पर छोड़ दिया जाता है वैसे ही तुम्हें भी कुमाऊँनी के नाम पर किसी ने छोड़ दिया है। यह भीषण प्रतिक्रिया थी और मठपाल जी के कान शायद बाबा की अस्पष्ट आवाज़ को सुनने के लिए ठीक से अभ्यस्त नहीं थे, तब भी इसका भावार्थ उनकी समझ में तुरत आ गया। वे लाल हो गए और चुप भी। अपने आक्रमण के बाद छाए इस युद्धविराम के बीच अब बाबा ने उनकी पत्नी की ओर रुख़ किया। उनसे घर-गृहस्थी की बातें कीं और यह भी पूछा कि एक ज़िद्दी और इतने ज़बरदस्त कवि के साथ निभाने में उन्हें किन मुश्किलों का सामना आम तौर पर करना पड़ता है। कुछ बातें अपनी पत्नी अपराजिता देवी के बारे में बताई और उनके बलिदानों को सलाम भी पेश किया। मेरे लिए इस सत्संग में शामिल रहना कमाल की बात थी। मुझे अब लगने लगा कि यही बाबा नागार्जुन हैं और यही वह बात है जिसके कारण समूची प्रगतिशील कविता में वे अलग हैं। बाबा से मिलने आनेवालों में लालबहादुर वर्मा, उनके दामाद, स्थानीय रंगकर्मी अजीत साहनी और बहुत से वामपंथी कार्यकर्ता शामिल थे।

बाबा हर बार आते और कहने-सुनने को बहुत कुछ छोड़ जाते। मैं उनके व्यक्तित्व को अब जानने लगा। उनकी कविताओं में जो आग, अटपटापन, अपनी तरह की अनोखी कलात्मकता, सपाटबयानी, छंद, बहक, तोड़-फोड, भटकाव, विचार, प्रतिहिंसा, शास्त्रीयता, लोकराग आदि एक साथ था, वह सबकुछ ज्यों का त्यों ख़ुद उनमें भी उसी स्तर पर मौजूद था। वे अपनी कविताओं की तरह थे और कविताएँ उनकी तरह थीं।

दिनचर्या के बारे में निजी हो कर कहूं तो वे नहाना तो दूर कभी दाँत भी साफ़ नहीं करते थे। कपड़े कभी महीने में मुहूर्त निकालकर बदलते थे। उनके धुले कपड़े भी मनमाने इस्तेमाल के चलते ख़ासे गंदे ही दिखाई देते थे। मेरी माँ उन्हें एक-एक घंटा उबलते पानी में रखती थी। खाने के शौकीन पर कम खाते थे। दिन में एकाध बार बिफरने की हद तक नाराज़ हो जाते थे। भद्रलोक की ऐसी-तैसी करने का कोई मौक़ा नहीं गँवाते थे। भाषा का बोलचाल में कभी-कभी कवितानुमा इस्तेमाल करते थे और कविता में बोलचालनुमा का। मेरे हिस्से के दिनों में मैंने उन्हें कभी कविता लिखते नहीं देखा - हाँ, पत्र लिखा करते थे.... पोस्टकार्ड्स पर कुछ पंक्तियाँ, जो अकसर श्रीकांत, विजयबहादुर सिंह, हरिपाल त्यागी, रामकुमार कृषक आदि के नाम होते थे और उनमें बाबा की निकटसम्भावी दिल्ली वापसी का ज़िक्र होता था।

मेरे पिता पान खाया करते थे... दिनभर में चालीस-पचास......निरन्तर....जबड़ा चलता रहता था....बोलते बहुत कम थे। बाबा को यह बात अच्छी लगी। एक दिन कहा भी कि हरि तुम पान खाते हो और हम लोगों की जान खाते हैं....पान की वजह से बोलते नहीं हो...अच्छा करते हो....कई लोगों को सुख मिलता होगा। औरों का तो पता नहीं पर शायद ख़ुद बाबा को ज़रूर कोई सुख मिलता होगा। बाबा से पिता के रिश्ते पुराने थे...गुरु रामेश्वर शर्मा के ज़माने के, जिन्होंने हमारे चारों प्रगतिशील कवियों पर पहले आलोचनात्मक लेख लिखे। कुछ हँसी-मज़ाक का सम्बन्ध भी था, यूं हँसी-मज़ाक तो बाबा पहली बार मिले आदमी से भी करते थे। मैं भोजन में माँस पसन्द करता हूं और बाबा के लिए मेरा प्रतिदिन का माँसभक्षण उत्सुकता का कारण बनता गया। घर में माँस सप्ताह में एक बार ही बनता था पर मुझे चौराहे पर ठेले पर  मिलनेवाला भुटवा बहुत प्रिय था, जिसे बकरे की आँतों और दूसरे बेकार समझकर अलगाए गए हिस्सों से बनाया जाता था - यह मेहनतकश मजदूर वर्ग का व्यंजन है, उनके लिए प्रोटीन का एक बड़ा स्त्रोत जो कम दामों पर मिल जाता है। हमारे घर रहते हुए बाबा अकसर मुर्गे का सीनेवाला एक टुकड़ा बड़े स्वाद से खाया करते थे। रात के खानेपर अकसर इस बात पर बाबा का पिटारा खुला रहता था कि उन्होंने ख़ुद कितनी तरह का माँस अब तक खाया है। इस विषय में उनके पास तिब्बत से लेकर सिंहलद्वीप तक के अनुभव थे। बिहार और बंगाल का मत्स्यप्रेम इसमें शामिल था। भुटवा के बारे में पता लगने पर उन्होंने बताया कि मुसहरों के साथ भुना हुआ चूहा तक वे खा चुके थे। मछलियों की किस्मों पर बाबा अबाध और आधिकारिक किस्म का व्याख्यान प्रस्तुत करते थे। शाम को अकसर रसोई में पहुंच जाते थे। माँ की पाककला में निखार का बीड़ा उन्होंने उठाया और एक हद तक निखारकर भी दिखाया। आम उन्हें पसन्द थे पर शायद दमे के कारण वे आम खाते नहीं थे। बाबा के रामनगर आगमन का मौसम आसपास के बग़ीचों से ख़ुश्बूदार आम की आमद का मौसम भी होता था। बाबा साबुत आम लेकर उसे बहुत देर तक सूंघा करते। उन्हें मिथिला की अमराईयाँ याद आतीं। कभी कटे हुए टुकड़े पर हल्के-से जीभ की नोक फिराकर वापस रख देते। आम के साथ उनकी ये कार्रवाईयाँ प्रणय के स्तर तक जा पहुंचतीं। बाद में छूट लेते हुए मैंने इस दिशा में प्रकाश डाला तो वे खुलकर हँसे और कहा कि बच्चू इस कच्ची उम्र में प्रणय के बारे में कहाँ से जाना। मेरा जवाब था अज्ञेय के उपन्यास नदी के द्वीपसे। वे हँसे और कहा अगर अज्ञेय से प्रणय के बारे में जानोगे तो उम्र भर खोज पूरी नहीं होगी...वो तो शहरों की तरह स्त्रियाँ बदलता रहा...फिर बाबा ने शमशेर और एक स्त्री और अज्ञेय के किसी त्रिकोण का अस्पष्ट-सा ज़िक्र भी किया। मैं 19-20 साल का था और मेरे जीवन में प्रेम तो नहीं पर एक बेहद आत्मीय मित्रता का रिश्ता पनप चुका था...जो बाद में पक कर प्रेम बना।  बाबा आम के सन्दर्भ में कही गई मेरी बात को लेकर लगातार संज़ीदा होते गए। वे बारबार पूछते कि कितनी लड़कियों से तुम्हारी दोस्ती है....नहीं है तो क्यों नहीं है....और है तो किस हद तक है। एक अजीब से संकोच में मैं उन्हें कभी सीमा से नहीं मिला पाया, जो मेरी पत्नी बनी।

मैं भाऊ समर्थ की किताब चित्रकला और समाजसे बेहद प्रभावित था और उसके असर में रेखाचित्र बनाने लगा था जो कुछ पत्रिकाओं में छपने लगे थे। कविताएँ भी कुछ लिखीं थीं पर उन्हें किसी को दिखाया तक नहीं था...पता नहीं क्यों कविता करना मुझे प्रेम करने जैसा लगता था। वह संकोच और आइसा के कुछ कार्यकर्ताओं के बीच गोपन सम्भाषण का विषय था। मैंने बाबा को कविताएँ तो नहीं, रेखांकन ज़रूर दिखाए। उन्हें पसन्द आए और उन्होंने मुझसे कलाओं की सामाजिक भूमिकाओं पर कई बार बातचीत की। भाऊ समर्थ उनके मित्र रहे थे और मेरे पिता के भी....उन दोनों के बीच भाऊ की बातें अकसर हुआ करती थीं।

रामनगर रहते हुए बाबा से मिलने और उन्हें अपने घर न्योतने कई लोग आते थे। एम.ए. की कुछ लड़कियाँ थीं जिनमें कविता की समझ तो बिलकुल नदारद थी पर नागार्जुन का नाम और हैसियत उन्हें हमारे घर खींच लाती थी। एक सुंदर-सी लड़की ने बाबा के साथ फोटो खिंचाने की ख़्वाहिश जाहिर की तो बाबा ने कहा पहले कच्ची-पक्की कैसी भी एक कविता लिखकर लाओ हम फोटो खिंचा लेंगे। लड़की ने कहा उसे लिखना नहीं आता। बाबा ने जाँच बिठाई कि कुछ तो लिखती होगी...कुछ नहीं तो सहेलियों और रिश्तेदारों को पत्र.....वैसा ही कुछ ले आओ। इस संवाद के बाद उस लड़की ने हमारे घर का रुख़ कभी नहीं किया। फोटो के मामले में बाबा बहुत चौकन्ने थे। वाचस्पति जी ने भी बता रखा था कि वे फोटो खिंचाना पसन्द नहीं करते। मैं इस मामले में सावधान रहता था पर उन्होंने कई फोटो खींचने का मौका मुझे दिया।

बाबा की साप्ताहिक साफ़-सफ़ाई करने का जिम्मा मेरा था। हालाँकि वे इसके लिए आसानी से तैयार नहीं होते थे। कभी दमे का हवाला देते तो कभी हाइड्रोसिल का, जिसका वज़न बक़ौल बाबा साढ़े-तीन पाव था। मैंने अपनी नौजवानी के कुछ बेहद ऊर्जावान दिन उस औघड़ के साथ गुज़ारे और वह मेरे भीतर कहीं हमेशा के लिए बस गया। वे मुंहफट थे, ज़िद्दी थे, अटपटे थे लेकिन जीवन और अपार प्रेम से भरे। मेरे साथ रहते हुए उन्होंने कविता की बातचीत कम की...ख़ुद की कविता की तो बिलकुल नहीं। वाचस्पति जी ने दो-तीन बार उनके सम्मान में जो काव्यगोष्ठियाँ आयोजित कीं, उनका आनन्द बाबा ने अपने हिसाब से लिया। इन गोष्ठियों में स्थानीय तुक्कड़ और हास्य के नाम हद दर्जे़ की फूहड़ता परोसने वाले लोग होते थे, जिन्हें किसी हाल में कवि नहीं कहा जा सकता। कवि वहाँ दो होते थे- बल्लीसिंह चीमा और हरि मौर्य... एक बार मुरादाबाद से नवगीतकार श्री माहेश्वर तिवारी आए, जिन्हें सुनना अच्छा लगा। बाबा मौज में होते थे और अपनी बेतरतीब खिचड़ी मूंछों में मुस्कान बिखेरते। एक बार ऐसी ही गोष्ठी से कुछ पहले बाबा ने अपने झोले से सीताकान्त महापात्र की कविताओं का हिंदी संकलन निकाला और मुझे कहा जल्दी से पढ़ जाओ। यह 92 या 93 की बात है। मैंने उसे उलटाया-पलटाया और भगवान को धिक्कारती  एक कविता पर रुक गया...बाबा को वह पेज दिखाया....बोले – बिलकुल सही जगह पकड़े हो कविता को ...किताब अपने पास रखो और पेज नंबर भी याद रखो।  गोष्ठी शुरू हुई और किसी फार्म हाउस की मालकिन एक महिला ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की। कुछ और लोगों की वाणी गूंजी फिर अचानक बीच राह में बाबा कड़के – यह कविता है? कविता की ऐसी तैसी हो रही है! फिर बोले ये जो कोने में लड़का बैठा है न हरि जी का सुपुत्र यह आपको बताएगा कि कविता क्या होती है। मैं अचकचाया। सारे लोगों की कुपित दृष्टि मुझ पर मानो मैंने बाबा को भड़का दिया हो। एक-दो बार थूक गटक कर मैंने बाबा को देखा, उनका चेहरा ख़ुराफ़ात करने के बाद किसी शैतान बच्चे-सा खिला हुआ....वैसी ही मुस्कान। मैं समझ गया। मैंने काँपते हाथों से वह किताब खोली और उस कविता का पाठ करना शुरू किया। शुरूआती भर्राहट के बाद स्वर भी स्थिर हो गया। यह मेरे जीवन का पहला कवितापाठ था और आश्चर्यजनक रूप से कामयाब भी...पीछे बाबा की मुस्कान टूटे-अधटूटे गँदले दाँतों वाली....कहती हुई ....अजी घिन तो नहीं आती? अजी बुरा तो नहीं लगता?

मैंने कविताएँ लिखीं...95 में कथ्यरूप से पहला संकलन एक पुस्तिका के रूप में आया...तब तक बाबा का काशीपुर-रामनगर आना छूट गया था। पता लगा कि बाबा के बड़े पुत्र को उनकी ऐसी यात्राएँ नहीं भातीं थीं। मैं दिल्ली गया पर अपनी पुस्तिका उन्हें नहीं दी। वे कभी ठीक से नहीं जान पाए कि शिरीष कविता लिखता है। मैंने अपनी पुस्तिका त्रिलोचन जी, कृषक जी, सलिल जी सहित कई कवियों को दी पर बाबा को देने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। बाबा कहते थे नए कवि अपनी कविताएँ लेकर प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया और अन्यथा प्रोत्साहन की आकांक्षा में पुराने कवियों की तरफ भागते हैं, जबकि कविताओं को जनता के बीच जाना चाहिए। जनता ही किसी को कवि बना सकती है, कोई पुराना कवि या आलोचक नहीं। मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई कि मैं बाबा को अपनी कविताएँ दिखाऊँ। मेरी यह कायरता दरअसल उस छोटे-से कमज़ोर शरीर के भीतर मौजूद हिंदी की महाकाय और महान कविता के प्रति मेरा प्रेम और आदर था और हमेशा रहेगा। मुझे ख़ुशी है कि बाबा ने मुझे एक राजनैतिक कार्यकर्ता और उत्साही नौजवान के रूप जाना और अपना प्यार दिया। वह बीहड़ व्यक्ति और कवि मेरी साहित्यिक ही नहीं, व्यक्तिगत और निजी स्मृतियों का भी वासी है, यह बात मुझे उपलब्धि की तरह लगती है और सुक़ून देती है। यह संस्मरणनुमा थोड़ा-सा लेखाजोखा भी उसी का एक छोटा-सा अंश है, बहुत कुछ बताना-कहना अभी शेष रह गया है, ठीक मेरी ऊटपटांग कविताओं की तरह!

पुरखों की ये कोहराम मचाती यादें इसी तरह धीरे-धीरे व्यक्त होंगी। 

Sunday, April 28, 2013

कविता जो साथ रहती है 4: प्रभात की कविता : गिरिराज किराड़ू



विस्थापन और आत्मबोध की दूसरी कथा


अपनों में नहीं रह पाने का गीत

उन्होंने मुझे इतना सताया
कि मैं उनकी दुनिया से रेंगता आया
मैंने उनके बीच लौटने की गरज से
बार-बार मुड़कर देखा
मगर उन्होंने मुझे एकबार भी नहीं बुलाया

ऐसे अलग हुआ मैं अपनों से
ऐसे हुआ मैं पराया

समुदायों की तरह टूटता बिखरता गया
मेरे सपनों का पिटारा

अकेलेपन की दुनिया में रहना ही पड़ा तो रहूँगा
मगर ऐसे नहीं जैसे बेचारा

क्योंकि मेरी समस्त यादें
सतायी हुई नहीं हैं
***

1

हिन्दी कविता में विस्थापन के कई वृतांत है, जिनमें सबसे लोकप्रिय लेकिन एक स्तर पर निराश और खिन्न करने वाला (इरिटेटिंग) वृतांत केदारनाथ सिंह के यहाँ हैः – काव्यनायक शहर आ गया है, जाहिर ही काम करने (प्रोफेसर बनने?) आया है और इसको लेकर एक नपातुला, अपनी गतिकी में लगभग डिजाईनर जान पड़ने वाला अपराध बोध उसके भीतर स्थायी हो गया है. केदारजी के काव्यनायक की समस्या अक्सर यह है कि वह अपने ड्राईंगरूम में कुल्हाड़ी कहाँ रक्खे या गाँव से आये दोस्त या कार्यकर्ता से नज़रें कैसे मिलाये. यह खिन्न इसलिये करता है कि इसमें काव्यनायक की स्थिति नियतिवत है – वह अपनी विस्थापित अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं करेगा और इसी कारण जो पीछे रह गया – गाँव – उसकी अवस्था में भी नहीं. उसकी अवस्था भी उसके लिये नियतिवत ही है. हालाँकि ऐन इसी कारण एक दूसरे स्तर पर केदारजी की कविता ‘विकास’ का कुछ पठन विधियों से मार्मिक महसूस होने वाला सबआल्टर्न आख्यान भी बनती है. लेकिन मेरी अपनी पढ़त में यह काव्यनायक ठीक से हमदर्द नहीं बन पाता क्यूंकि उसे अपने अपराधबोध से ही मुक्ति नहीं मिलती. गाँव अपने प्रभाव में छिन चुके स्वर्ग (लॉस्ट पैराडाईज) जैसी मिथकीयता हासिल कर लेता है और बिल्कुल एंथ्रोपोलॉजिकल स्तर पर आपको नस्लीय ढंग की कल्पना के फेर में ले लेता है जिसका परिणाम गाँव और शहर के बीच दिव्य और दानवीय की बाईनरी में होता है.

पहाड़ से रोजी रोटी के लिये मैदान आये मंगलेश डबराल के यहाँ विस्थापन के ज्यादा अंतःसंवादी विवरण हैं, मंगलेश ज्यादा डायलेक्टिकल हैं केदारजी के बरक़्स. बद्री नारायण में भी इस वृतांत के कई रूप हैं लेकिन एक तरह की वर्जिन मासूमियत से परिभाषित, किंचित रोमानी 'लोक' वहाँ भी है. प्रभात की यह कविता विस्थापन की कथा दूसरे छोर से कहती है. इस कविता के काव्यनायक को विस्थापित करने वाले ‘बाहरी’/ ‘पराये’/ ‘दूसरे’ नहीं है, ये ‘अपने’ हैं जिन्होंने उसे विस्थापित किया हैः

उन्होंने मुझे इतना सताया
कि मैं उनकी दुनिया से रेंगता आया
मैंने उनके बीच लौटने की गरज से
बार-बार मुड़कर देखा
मगर उन्होंने मुझे एकबार भी नहीं बुलाया

ये है जन्नत की हक़ीक़त. ये गाँव या लोक की रोमानी मिथकीयता के बरक़्स उसका बेरहम रोजमर्रा है. विस्थापन की यह प्रतिकथा कविता में ऐसी सघन प्रत्यक्षता से आती है कि आप इस यातना के ताप से झुलसने लगते हैं. कवि ने चार बार सोचके ‘रेंगने’ जैसी क्रिया का प्रयोग किया है या यह पहली स्वाभाविक च्वॉयस थी? ‘गरज’ के दूसरे अर्थ, उसकी ‘व्यंजना’ के बारे में सोचा था उसने?

ऐसे अलग हुआ मैं अपनों से
ऐसे हुआ मैं पराया

अपने इस तरह अलग होने ‘पराये’ होने, सपनो के बिखरने का सादृश्य कवि के पास यह हैः

समुदायों की तरह टूटता बिखरता गया
मेरे सपनों का पिटारा

‘सपनों का पिटारा’ यहाँ अभिधा में है या मुहाविरे में? यह आत्म-कथा है या समुदाय-कथा? क्या यह वही समुदाय है जिसने उसे इतना सताया या कोई दूसरा? इस काव्यनायक को सताने वाले भी इसके ‘अपने समुदाय’ के हैं. यह कविता अन्य का दानवीकरण (Demonization) करने से इंकार करती है (और यह कहते हुए यह नोट करना प्रासंगिक हो सकता है कि इस कविता का ऑथर एक जनजातीय समुदाय से आता है) और इस तरह विस्थापन के साथ साथ आधुनिकता और विकास का एक दूसरा वृतांत बन जाती है. यह कविता यहाँ, इस बिंदु, पर समाप्त हो जाती तो भी एक मुकम्मिल संरचना, एक मुकम्मिल रचनानुभव होती लेकिन इसका उत्तरार्द्ध इसे पूर्णतर रचना बनाता हैः

अकेलेपन की दुनिया में रहना ही पड़ा तो रहूँगा
मगर ऐसे नहीं जैसे बेचारा
क्योंकि मेरी समस्त यादें
सतायी हुई नहीं हैं

सबआल्टर्न प्रत्याख्यानों में स्मृति की एक बेहद महत्वपूर्ण, रणनीतिक भूमिका है. स्मृति प्रतिरोध की, पुनर्निर्माण की सामग्री भी है, विधि भी. क्या यह पहला सबआल्टर्न काव्य-स्वर है जो कह रहा है, ‘मेरी समस्त यादें सतायी हुई नहीं हैं’ और इस तरह दूसरों द्वारा अपने अधूरे, एकांगी निरूपण/प्रतिनिधित्व के मुकाबले ज्यादा संश्लिष्ट, मनुष्य होने की संपूर्णता का क्लेम करने वाले आत्म का आविष्कार करता है. और यह कवि की निजी उपलब्धि मात्र नहीं है, यह सामुदायिक प्रक्रियाओं को सक्रिय करने वाला ‘आत्म’-बोध है.

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प्रभात की कविता मेरे लिये प्रेरक और शिक्षाप्रद रही है. उस पर मैंने पहले भी लिखा है, शायद उसकी लगभग हरेक कविता पर एक निबंध लिख सकता हूँ. प्रभात, महेश वर्मा, और कुछ हद तक मनोज कुमार झा की कविता मुख्यधारा के रैह्ट्रिकल/रेवोल्यूशनरी हाईवे से दूर अपने अपने ढंग से ‘कविता का छत्तीसगढ़’ है.  

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कुछ लिंक्सः



Wednesday, April 24, 2013

समय के बंजर में ज़मीन पर बारिश उगाता कवि : केशव तिवारी की कविता पर युवा आलोचक सुबोध शुक्‍ल


केशव तिवारी मेरे बहुत प्रिय कवि हैं, जिनकी कविता के महत्‍व पर बातचीत मुझे हमेशा हमारी आज की कविता के हित में बहुत ज़रूरी लगती  रही है। युवा आलोचक सुबोध शुक्‍ल ने अनुनाद के लिए इस दायित्‍व को स्‍वीकार किया है। इस लेख के लिए मैं सुबोध को शुक्रिया कहता हूं और अनुनाद पर उनका दिल से स्‍वागत करता हूं।  अनुनाद को उनसे आगे और भी सहयोग की उम्‍मीद है। 



‘और यदि तुम अपना जीवन वैसा नहीं बना सकते
                                जैसा चाहो
तो इतना करो कम से कम : उसे सस्ता मत बना दो.’   (कॉन्स्टेनटीन कवाफ़ी) 


कविता भाषा में बुनी कोई ट्रिक नहीं है जो अनुभवों की अराजक आसक्ति  और भावनाओं की मनुष्यधर्मी फैंटसी के बीच, किसी किस्म का अपरिहार्य और वैज्ञानिक संतुलन बनाने का हठधर्मी प्रयास करे. वह प्रगति और विचार की चौतरफा अकुलाहटों की मजमालगाऊ अदालती कार्यवाही भी नहीं है जो फैसले  और न्याय के किसी प्रतियोगात्मक अनुबंध में बंधी है. वह सिर्फ एक वस्तुधर्मी फासला है- सहजता का कृत्रिमता से, सहिष्णु सादगी का निरंकुश अलौकिकता से और आत्मीय स्वभाव का एक अमानवीय आदत से. वह उम्मीदों के  सामंती व्यापारीकरण के विरुद्ध  अपने समय के अधूरेपन को भरती है; प्रतिपक्ष के सांस्कृतिक औजारों को पैना करती है, और मज़ाक में तब्दील होते जाते युग-सत्य को अपने पाँव पर खड़ा होने का अभय देती है. कोई दोराय नहीं कि हर कविता अपने युग के सुविधाजीवी अकेलेपन के क्रूर मौन को तोड़ने और रेखांकित करने वाली, एक अयाचित और विश्वस्त परियोजना रही है.

केशव हस्तक्षेप के कवि हैं. उनकी कविता का भूगोल, प्रतिरोध के कामचलाऊ हिस्सेदारी वाले क्लास-रूम संघर्षों के बाहर शुरू होता है. ये कविताएँ निर्वासित समझी जा सकती हैं, असहिष्णु भी और साथ ही साथ अधीर भी. पर ये तीनों ही तत्व उनकी कविता का एक खबरदार लोक-धर्म और मेहनतकश यथार्थ निर्मित करते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि ये कविताएँ घरौंदों और कोटरों में छिपे-सहमे जीवन का दुस्साहसिक बयान तो हैं ही साथ ही दस्तावेज हैं उन बेशुमार दहलीजों का जिनके आँगन छीन लिए गए. वे प्रतिरोध के बुनियादी जीवन-सन्दर्भों को, एक समूची आत्मनिर्वासित सामाजिकता के अनुभव-बोध से जोड़ते हैं. जिसके कारण, सामाजिक विन्यास की एक अव्यवस्थित और अस्तव्यस्त संस्कृति अपने पूरे खुरदुरे और ऊबड़खाबड़पन के साथ सामने आती है. यहाँ यह बात ध्यान देने वाली है कि केशव तिवारी में प्रतिरोध का स्वर जितना मुखर है उतना ही सांकेतिक भी. और इन दोनों ध्रुवों को कविता के केन्द्रीय अक्ष पर साधने में, तकनीकी रूप से वे न तो किसी भड़काऊ मिथ का इस्तेमाल करते और न ही किसी  भाषिक इंजीनिअरिंग का.

बिना किसी  नाटकीय कौतूहल और हवा-बांधू चमत्कार के, ये कविताएँ तुरंत हाथ थामती हैं और साथ चलने लगती हैं. यह एक वजह है कि  केशव जी  की कविताओं में प्रतिरोध, किसी सपाट भागदौड़ और चालबाज़ आतुरता की पैदाइश नहीं है, वह परिवेश के संभावित खतरों में जनजीवन के खंडित परिचयों का स्पेस है और साथ ही अपने समानांतर आदर्शों की  यथार्थ मनोभूमि की तलाश है. इन कविताओं से गुज़रते हुए इन बातों का ध्यान रखना होगा कि प्रतिरोध की तमाम वैचारिक संरचनाओं और प्रतीकधर्मी शिल्पों के सहारे इसे न तो पहचाना जा सकता है न खोला जा सकता है.

यह वक़्त ही / एक अजीब अजनबीपन में जीने / पहचान खोने का है / पर ऐसा भी तो हुआ है / जब-जब अपनी पहचान को खड़ी हुई हैं कौमें / दुनिया को बदलना पड़ा है / अपना खेल – ‘गड़रिया’

बहुत दिनों से नहीं लिखी कोई कविता / पढी भी नहीं कोई किताब / सोचता रहा कथरी के चीलरों / के बारे में / सड़कों पर घूम रहे / पागल कुत्तों के बारे में / मैले के ढेर पर पिले / सूअरों के बारे में / न जाने क्या-क्या सोचता रहा मैं / देखता रहा बंद कमरों में / सन्न पड़े बच्चों को / पहली बार लगा / सन्नाटा भूख से भी / खतरनाक है – ‘ पहली बार लगा’

यहाँ संघर्ष के निजी सत्य और विरोध की पाठकीय ऊष्मा भर से, कविता की आंतरिक इच्छा-शक्ति की पड़ताल संभव नहीं है. घेराव की बौखलाई भागीदारियों से दूर केशव जी की कविताओं में प्रतिरोध इसीलिये  एक वैकल्पिक सहभागिता के बतौर आता है. जीवन के शिल्प में वे स्वयं को उकेरते हैं और यहीं से कविता अपनी ऑर्गेनिक चुनौतियों में प्रतिरोध का अर्थ ढूंढना शुरू करती है. यही कारण है कि उनकी कविताओं में प्रतिरोध किसी मुद्रा या स्वांग की तरह नहीं बल्कि एक जीवन-शैली की तरह प्रवेश करता है- भले ही वह कितनी विडंबना और अनमनेपन से भरी हो. इन कविताओं से होकर कितनी ही पूर्व भ्रांतियों  और निश्चल आग्रहों के थोथे कर्मकांड सरकते हैं, ढीले पड़ते हैं. प्रतिरोध को क्रोध और हिंसा की उद्विग्न मनः प्रवृत्तियों से जोड़ने वाले तैयारशुदा चिंतन, किस तरह  अनजाने में ही उसे एक आत्मकेंद्रित और सामूहिक रूप से विस्थापित चेतना में तब्दील करते जाते हैं, इसके स्पष्ट खुलासे उनकी कविता में एक रचनात्मक शिलालेख की तरह मौजूद हैं.

एक सांसत जो / हमारे भीतर पल रही थी / वह यहाँ तक भी / पहुँच चुकी है /___/ एक तरफ कांक्रीट / पत्थरों से सजा बाज़ार है / दूसरी तरफ / बचे रहने का संकट- ‘वक़्त का आईना’

अनगिनत रातों की / कालिख है मेरे चेहरे पर / तमाम अपराधों का / बोझ है मेरे कन्धों पर / एक मुरझाया फूल / एक टूटा शीशा, सरमाया है मेरा / कविता में तमाम झूठ, पूरे / होशो हवास में बोलता रहा हूँ / तुम्हें दिखाए और देखे सपनों का /  हत्यारा मैं खुद / एक गलत जगह गढ़ा  / दिशासूचक मैं / ये लो मेरी गर्दन हाज़िर है / तुम ले आओ / दारो रसन अपना – ‘ मैं खुद’

ये कविताएँ एक नागरिक के व्यवहारतः अपरिभाषित रह जाने की पीड़ा भी हैं. एक समूची परम्परा को नज़रंदाज़ करते चले जाने के ऐसे चालबाज़ सूत्र  महानगरीय आत्ममुग्ध धुंधलके और ग्रामीण-कस्बाई बोध को, निर्वासन की  जबरन शर्मिंदगी से भर दी गई संस्कृति तक फैले हैं. एक निःशब्द उपेक्षा से भरी यह आंचलिक तिलमिलाहट और ऐतिहासिक पेशेवरपन का शिकार होता  बुनियादी लोकबोध, इसी अवांछित सांस्कृतिक दुर्घटना का आघात है. और संभवतः इसीलिये  त्रासद और वैमनस्य से भरी राजनीतिक बदनसीबी और असमर्थ संवेदनाओं के  प्रतियोगितापरक न्यौते के बीच पिसने के लिए अभिशप्त भी है.

इन कविताओं का चेतना -स्तर और भाव-संकुलता दोनों ही अभिव्यक्ति के व्यापक परिवृत्त में मानवीय संभावनाओं के विपुल स्तरीय अंतरालों को पाटने का काम करता है. ध्यान रहे कि इन अंतरालों का मूल्यांकन ये कविताएँ देश-काल के एक संगठित दायरे में मनोवेग और लोक आवेग के सिलसिले में करती हैं. इससे युगीन प्रतिमानों के आपसी द्वंद्व अपने वस्तुगत विश्वासों के साथ, अपनी सहज प्रतिक्रिया में ‘तनाव’ का आलोचनाधर्मी पाठ तैयार करते हैं. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि तनाव, केशव  जी की कविताओं में लोकधर्मी पक्षधरता की एक रागात्मक चेष्टा के रूप में सामने आता है. यह उनकी कविता का ऐसा चारित्रिक अनुशासन है जो कविता को प्रतिगामी समसायिकता से निकालकर एक जुझारू तात्कालिकता में तब्दील कर देता है. ये कविताएँ यही वजह है कि उल्लास,निराशा और स्वप्न को एक साथ यथार्थगामी जिजीविषा में कायांतरित करती चलती हैं.

बाबा के लिए इसका मतलब / एक लद्दी बनिया था जो / गाँव-गाँव घूम कर / अनाज के बदले देता था नमक / कुछ और छोटी-छोटी चीज़ें / _/ पिता के लिए यह एक / भरा पूरा बाज़ार था जो / बुला रहा था ललचा रहा था / _/ मेरे लिए यह एक तिलिस्म है / जिसका एक हाथ मेरी गर्दन पर / और दूसरा मेरी जेब में है – ‘बाज़ार’

इन  कविताओं में  सभ्यता की   उन आधारभूत समस्याओं से टकराव हैं जिनमें लंबवत व्यवस्थागत गतिरोध है; जो निरंतर परिवर्तित अनुभूतियों के अस्थायी परिणामों के ज़रिये, समाधानों के पारंपरिक रूप से प्रचलित मानकों को नकारने का माद्दा रखती हैं. एक परिपक्व और संवेदनशील सौंदर्यशास्त्र की लोकानुकूलित सापेक्षता, इन कविताओं को कैसे भी विज्ञापित आत्मविश्वास और शास्त्रीय जिम्मेदारियों के कुहासे से अपनी पूरी नैष्ठिक सदाशयता के साथ खींचकर बाहर ले आती है. ये  कविताएं  हमारे अपने होने का स्वाद हैं. अपने जीवन के विभाजित अन्तः साक्ष्यों का एकत्रीकरण हैं. अपने बहिरंग में ये जितनी सर्वग्रासी दुविधा और संक्रामक वस्तुस्थिति  को उजागर करती हैं उतनी ही एक सिलसिलेवार अंतर्मुखता की  सामाजिक प्रक्रिया में पैवस्त, विरोधाभासी रोमानों और आकस्मिक प्रचार-प्रसंगों के  संगीन सत्य की भी पड़ताल करती हैं. एक कंटीली  और प्रश्नाकुल सार्वजनिकता में स्थानिक उद्वेगों और आकस्मिक जीवन-आवेगों को गहराई से पकड़ती केशव तिवारी  की कविता हमारी उन स्वाभाविक अनुगूंजों और विस्मित भाव की गवाह हैं जिनकी उपस्थित अपने परसेप्शन में जितनी अमूर्त है उतनी ही अपनी कंडीशनिंग में प्रत्यक्ष.

ज़िंदा हूँ कि एक कवि / होने का अहसास ज़िंदा है / आज ढोल की तरह टांग दिया है / तुमने खूंटी पर / कल नगाड़े की तरह / तुम्हारे सर पर मुनादी करूंगा / अपने समय का कवि हूँ / समय का सवार नहीं हूँ मैं – ‘ अपने समय का कवि’

चने को घुन खा रहा है / लोहे को खाए जा रहा है जंग / मित्र अब शिष्ट हो रहे हैं / पहले की तरह बेचैन नहीं दीखते / कविता की आत्मा से / जोंक की तरह चिपक गए हैं भांड / हत्यारे राजघाट पर प्रायश्चित्त कर रहे हैं / सधे हुए मिरासियों की तरह / राजपथ पर दौड़ते-दौड़ते / इस बूढ़े घोड़े की घिस चुकी है नाल / इसकी टापों से रिस रहा है खून – ‘इन दिनों’

इसलिये वहाँ न तो कैसी भी नियतिधर्मी सहूलियतें हैं और न ही बौद्धिक किस्म की कोई कुलीन सी दिखने वाली चालू दुश्चिंता. उनकी चिंता मनुष्यता की उस पारिस्थितिकी को बचाने की है जिसमें हमारी सुपरिचित जीवनानुभूतियों के एकाग्र संयोजन हैं और संवेदनात्मक अर्थोंमेष की ठोस सम्वहनीयता मौजूद है. अपनी कहन में चुनौतियों के ऐसे केन्द्रीय-विन्यास और जनव्यक्तित्व  के वृहत्तर आयामों में बहुवचनीयता का कोऑर्डिनेशन ही उनकी कविताओं का संयमित और विवेकशील लोक-जीवन तैयार करता है.

( मेरे भीतर भटक रही है / एक वतन बदर औरत / अपने गुनाह का सबूत / अपनी लिखी किताब लिए / दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र /  का नागरिक मैं /  उसे देख रहा हूँ सर झुकाये –‘ एक औरत’)                       

लोक, भारतीय सन्दर्भों में, विशेषतया हिन्दी कविता में, अवधारणात्मक रूप से और साथ ही विमर्श की दृष्टि से सर्वाधिक अधीरता से प्रयोग में लाया जाने वाला बोध है. बहुतेरे इकहरे और अंतर्विरोधी हस्तक्षेपों के चलते, लोक एक आलोचनात्मक जिरह और नैतिक रेटौरिक का तो विषय बनता चला गया पर जीवन -दृष्टि की व्यापक वैचारिकी का हिस्सा बनने से रह गया. लोक, वस्तुतः भाव,विचार और संवेदना के आवयविक तर्क-संगठन में एक अविकल जीवेषणा का  प्रतिबद्ध रूपांतरण है. यह रूपांतरण भाषा,इतिहास और परम्परा तीनों स्तर पर सामूहिक और मिले-जुले रूप में ही होता है. लोक-चेतना, ऐन्द्रिक रूप से अन्तःसंगठित होते हुए भी विचार और वस्तु के स्तर पर विभाजित दिख सकती है. और शायद इसी वजह से लोक से जुड़े हुए सामाजिक संवाद बहुधा सरलीकरण का शिकार हो जाते हैं. लोक की अभिधा तक पहुँचने के लिए शुद्धतावाद के क्लासिकी चातुर्य और तथाकथित आत्मग्रस्त भद्र पर्यावरण की  तरकीबों से भरी व्यंजना को बेधना होगा. यहाँ इस बात को टेक की तरह मानकर चला जाय कि लोक भाव किसी इश्तिहारी भाषा का कोई भावुक प्रलाप नहीं जो संघर्ष के दैन्य आशयों और प्रतिकार की किसी अपराध-चेतना से ग्रस्त है. असल में वह हमारे जीवन-राग की सांस्कृतिक अन्वीक्षा है. सभ्यताओं के नैसर्गिक अन्तःसंघर्षों के बीच हमारी खांटी और ठेठ जीवनी-शक्ति की प्राप्ति है या कहें कि उस अवचेतन की समीक्षा है जिसे प्रगति के गलाकाट नैरेटिव और विकास के मसीहाई यूटोपिया ने कहीं गहरे दफन कर दिया. लोक इसी मसीहाई ढिठाई  के विरुद्ध गुमनाम ‘साधारण’ का समूचे बुनियादी अल्हड़पन के साथ प्रतिरोध है. केशव जी की कविताएँ यथार्थ के इस मानवीय मुहावरे का  जीवन के आत्मसंघर्ष में अनुसंधान हैं, सृजन की भूमिका की शिनाख्त हैं. इन कविताओं का स्वर, रचना के आचरणगत  सौभाग्य का लोक भाषा में पुनरागमन है. निश्चित ही प्रतिरोध की अस्मिता और जन-संवेदना का वस्तु-संसार, उनकी  कविताओं में असहमति के तमाम मुखर आयामों और समय के नैमित्तिक मूल्यांकन के साथ प्रवाहित होता है. सरोकारों की आत्मतृप्त करुणा के बाजारू विश्व में कवि अपने इसी, दुनियावी स्तर पर अप्रासंगिक मान लिए गए क्षोभ और क्रोध के बुनियादी संतुलन को साधते हैं.

जिस गली में कभी / दुनिया के हर रास्ते ख़त्म होते थे / एक दिन उसी गली से / रास्ते खुले भी / जब प्रेम डहरी पर डटा / दरिद्र हो जाए / और मन डाड़ी मार का तराजू / चेहरों पर सिर्फ अतीत की / इबारतें रह जाएँ / और वर्तमान खाली सपाट / जमुना में समाती केन का दृश्य / आँखों में लिए हम / कब तक जी सकते हैं / इतना ही सोचकर होता है संतोष – ‘रास्ते’

यह संतुलन, ध्यान रहे कि उसी त्रासद राजनीतिक मंशा के आततायी निहितार्थों के बीच साधा गया है जिसने पूंजी की जालसाज़ आशाओं और सत्ता के उतावलेपन से भरे भागीदारी वाले नुक्ते को लोक-विश्वासों की एकाग्र-स्थायी समष्टि से मिलाने का प्रयास किया. केशव जी  में राजनीति के इस दोमुंहेपन और भौतिकता के  नियोजित पाखण्ड की गहरी पहचान है. वे बातचीत करने वाले कवि हैं. बिना किसी सैद्धांतिक आडम्बर और व्यावहारिक घटाटोप के वे समाज के उस आख़िरी आदमी से एक सरल और उतना ही साहसिक संवाद स्थापित करते हैं. सामन्ती मूल्यों के अतिरंजित भावावेग के सामने उनकी कविता का पुरुषार्थ अपने तमाम बेख़ौफ़ सवालों और बेफिक्र फैसलों के साथ सामने आता है.

हालांकि रोजमर्रा के दृश्य-बिम्ब, छवियाँ, और ब्यौरों का आनुपातिक आत्म-संयम उनकी कविता में अपने आधारभूत तापमान के साथ, बिना किसी औचक आरोह-अवरोह के मौजूद है पर उनके बीच व्याकुलता,संत्रास,संदेह और आघात की अन्तः वेदनाएं एक सान्द्र विवेक-शक्ति का निर्माण करती हैं जिसके ज़रिये उनकी कविता तक पहुँच और भी सुगम और बेधड़क हो जाती है. इसके साथ ही गौरतलब बात यह है कि इन कविताओं की आक्रामकता उल्लेखनीय रूप से नियंत्रित है. वह न तो किसी यांत्रिक पराक्रम की आत्मरति से ग्रस्त है( जैसी अधिकाँश प्रगतिशील कविताओं का हश्र है) न ही पराजय-बोध के किसी दकियानूसी नैतिक दांव से.

किस किस को बताता / अपनी उदासी का सबब / किस किस से पूछता एक ऐसी उदासी / जिसमें बेचैनी न हो / हर तरफ फ़ैली / एक मित्र ने कहा कामरेड / बिना वजह की उदासी भी एक रूमान है / मैं उसे देखता रहा / वजहों पर बहस क्या करता / बेवजह कुछ करने में भी सुकून है उसे क्या बताता / ऊँट सी तानी गर्दन लिए / कोई कब तक रह सकता है /वैसे बगुलों सी झुकीं गर्दनें / देख कर भी डर जाता हूँ मैं – ‘ उदासी’

वह अभिव्यक्ति में किसी भी दार्शनिक ढोंग और किसी भाग्यवादी भितरघात की मुद्रा से सर्वथा भिन्न हैं. कविता, केशव तिवारी  के लिए स्वयं को अधिक से अधिक मानव में बदलते जाने की जद्दोजेहद है. विशेष बात है कि घर,द्वार,चौपाल,अमराई, खेत की मेंड़ से लेकर दिल्ली की सडकों तक फैला उनका कवि, सत्ताजनित और तंत्रजनित आभिजात्य के ठन्डे और खामोशपन को उनके सभी संज्ञा और विशेषण रूपों के साथ बेनकाब करता है. ‘गड़रिया’, ‘ईसुरी’, ‘दिठवन एकादशी’ से लेकर कश्मीर के विस्थापितों तक, बांदा से लेकर अफगानिस्तान तक, जितना भी कुछ है वह सब-कुछ उस सचेतन लोक-लय का क्षैतिज विकास है जिसमें हमारे एक से सपने और एक से ही धोखे हैं. भूगोल की कलाएं और सीमाओं के स्थापत्य, मानवता के आकाश और ज़मीन के ऐन्द्रिक साम्य को विवादास्पद बना सकते हैं, विभाजित कर सकते हैं पर झुठला नहीं सकते. यही कारण है कि केशव, परिवेश के आवेशित अनुभव-बोध को उसके संकोची अंतर्मुख और एक प्रामाणिक इच्छा-शक्ति के साथ देखने का प्रयास करते हैं. रूपांतरण की यह प्रक्रिया वैचारिक स्तर पर जितनी रचनात्मक है भौतिक स्तर पर उतनी ही प्रयोगशील भी. ये कविताएँ आत्मानुभूति को सह-अनुभूति के साथ संयुक्त करती चलती है जिससे कि अतीत और वर्तमान, स्थानिकता के सिलसिले में एक समूची जातीय-चेतना का भाग लग सकें.

हम बच भी गए तो / कब तक बचे रहेंगे / उन लोगों के बिना / जो हमारी अनुभूतियों में विश्वास की तरह ज़िंदा हैं / वे इस धरती के /  सबसे बहादुर लोग थे / जो किसी जंग या मुहिम में नहीं / दूध और सब्जी बेचते हुए मारे गए – ‘ कब तक बचे रहेंगे’

कभी डाकू / कभी पुलिस / इस चक्की में तो तुम / दाने मात्र हो / इस चक्की को / आखिर चला कौन रहा है / तुम्हें कौन समझा रहा है / कि / बिरादरी में ही है / तुम्हारी मुक्ति / वह जो तुम्हारे बीच से /  लखनऊ में जाकर बैठ गया / उसके लिए तुम, डाकू पुलिस / सिर्फ उसकी सफलता के / औज़ार हो / जिसे वह समय-समय पर मौके हिसाब से आजमाता है – ‘स्वांग’

उनकी कविता से जुडी हुई जो सबसे बेचैन चाहना है वह यह  कि  वर्ग तथा इतिहास को देखने की जो आम नस्लीय व्यवस्था है वह वैज्ञानिक चेष्टाओं के साथ पनपने लगे. केशव जी  अपनी कविता का व्याकरण सांस्कृतिक वातावरण के सम्मिलित अभिप्रायों के बीच रेखांकित करते हैं. जिससे कि उनके स्वभावगत द्वंद्व के अचेतन पहलू सार्वजनिक अस्मिताओं के तद्भव संयोजनों में बदल जाते हैं .वे कविता को उस अर्जित अन्तरंग की जागरूक स्वायत्तता के बतौर अपनाते हैं जो अमूर्त रूप से एक जिद्दी सहानुभूति को एक रागात्मक संचेतन में रूपांतरित कर देती है. उनकी कविता, सम्प्रेषण के अकेलेपन और समझ की हठधर्मिता से भी जूझती है. उनके लोक का आयाम बहुत सारी सामासिक परतों के अंतरजाल बुनता है जिससे  विचार और भावुकता के पारस्परिक टकराव एक सार्वकालिक जनधर्मी विरासत को जन्म देते हैं. न तो समकालीनता के विश्रृंखलित तर्कों के आधार पर न ही प्रगतिशीलता के राजनैतिक उपभोगवाद के आधार पर ही, केशव जी कहीं से समझौतावादी दीखते हैं. यह ध्यान रखा जाय कि समझौतावादी कहने के यहाँ निषेध से ज़्यादा स्याह अर्थ होंगे. चाहे वह किसी किताबी इतिहास की ठंडी अनास्था हो या किसी असहिष्णु वर्तमान का कुंठित समीकरण, कैसी भी चापलूस और कलाबाज़ शर्तों की आमद वे कविता में स्वीकार नहीं करते. कविता की अंदरूनी जलवायु में प्रकृति तत्व को एक लोकतंत्रात्मक कायदे की तरह सम्मिलित करने की पीछे भी उनकी यही मंशा रही है, जिससे कविता का शारीरिक दायरा और मानसिक चौहद्दी निश्चित होने लगती है और चूंकि कवि इस प्रक्रिया में अपने को एक रसायन की तरह इस्तेमाल कर रहा होता है, अनुभूति और चेतना की सांयोगिक उपलब्धि का प्रथम भोक्ता भी वही बनता है. यहाँ यह दृष्टव्य है कि अनुभूति और चेतना का आलोचनात्मक साक्षात्कार ही  सामाजिक-राजनीतिक अंतर्धाराओं में यथार्थ के हमेशा से नज़रंदाज़ कर दिए जाते रहे रूपक की पुनर्व्याख्या सिद्ध होता है.

क्षत्रप अपने को आश्वस्त समझें / अभी उनके छत्र और चंवर सुरक्षित हैं / अदीबों को आदाब है / विरुदावली के स्वरों में / जनता के दुखों का गान जारी रखें / दिल्ली के दुःख से / अवगत रखें दुनिया को / फिलहाल तो हमारा दुःख /  अड़तालीस के तापमान पर / जंगली मकोइयों की तरह पक रहा है / हमारे पाँव इस पठारी ज़मीन से / निकलने की तैयारी कर रहे हैं / आप की पैदा की  हीनता पर / थूकने का साहस पैदा कर रहे हैं हम / जिस दिन अपने मनुष्य होने के / सम्मान का पा लेंगे एहसास / तब दिल्ली में चढ़कर / करेंगे दिल की बात / तब तक तो आश्वस्त रहे आप – ‘ फिलहाल आश्वस्त रहें आप

आधुनिकता, स्वतन्त्रता और मुक्ति के स्वप्नशील आदर्शों की खुशामदी खामोशी और अवसरवादी बर्बरता की बदस्तूर नमकहलाली में व्यस्त और पस्त सृजनधर्मिता के दौर में, केशव तिवारी  आरोप और बहस की एक वैचारिक मर्यादा का अनिवार्य और मानीखेज पर्यावरण रचते हैं. ध्यान रहे कि वे जिस भाषा में एक बेलौस हमलावर लिख रहे हैं उसी भाषा में एक आत्मिक प्रेमी भी. जिस धारणा  से अन्धकार की कालिमा कुरेद रहे हैं उसी अवधारणा से एक मशाल भविष्य का सारांश भी. वे उन बहुत थोड़े से कवियों में हैं जो रचनात्मक विडम्बनाओं की स्व-चयनित और सक्षम बिरादरी के साथ-साथ एक शालीन प्रतिक्रियाधार्मिता और दो-टूक निर्भीकता का निर्वहन बिना किसी आतंकी अट्टहास या किसी वैरागी बुदबुदाहट के कर जाते  हैं. यही केशव जी की कविताओं का संवेग और गाम्भीर्य है जो उन्हें भाषा की उस मौन आस्था पर लाकर खड़ा करता है जो ज़मीन के बिलकुल नज़दीक पहुंचकर उसके अबोध धूसरपन और भीने मटमैलेपन में शामिल होने की कोशिश करता है.

ऐसा नहीं है कि केशव तिवारी  आदर्श के किसी संभ्रमित अवकाश का फायदा उठा रहे हैं, असल में वे एक विचारशील यथार्थ को उसकी स्मृतिधर्मी  वर्जना से बाहर खींच कर ला रहे होते हैं. यह उनकी कविता का अभीष्ट ही नहीं अदब भी है. एक ऐसे वक़्त में जहां जीवन मूल्य की बातें, चिडचिडेपन से भरे मनोवेग का  वेदनामय दुस्साहस बन कर रह जाने वाली हों वहाँ केशव जी  उन अबोध आग्रहों के सामर्थ्यशील बल  को आवाज़  दे रहे होते हैं जिनकी सुदूरगामिता कितने ही बेसुध विश्वासों  और मताग्रही भावुकता को समय की सामूहिक नियति के साथ बंधक बना डालती है. केशव जी  की कविता में न तो ऐसी कोई अन्तःविह्वल अतीत की संक्रमणशील दुश्चिंता है और न ही किसी अमूर्त समय की भविष्यधर्मी आश्वस्ति. वे प्रतितर्कों की भाषा में नहीं रचते. ज़बान लड़ाने वाली क्रांतिधर्मिता और चाबुक चलाने वाली वैचारिक मुद्रा में उनका विश्वास नहीं है. वे बोध के समकालीन मैकेनिज्म के साथ अनुभवगत परम्पराजन्यता को कन्फ्रांट करते हैं. जिससे समाज और व्यक्ति का अपना वस्तुपरक औचित्य, इतिहास और सभ्यता की अटूट श्रृंखला में जीवन के गुणात्मक बिम्ब  की रचना करता है.

एक फ़तवा आता है और / सारा-का-सारा मुल्क / दाढ़ियों के जंगल में / तब्दील हो जाता है / एक दूसरा फ़तवा आता है और / चमकते चाँद काले लबादे में ढँक / सहम कर कोनों में दुबक जाते हैं / तीसरा फ़तवा आता है / अपने को धरती के सबसे मजबूत / कहने वाले कुछ लोगों के द्वारा / वे अचानक / एक पत्थर की मूर्ति से / डर गए थे और / उस पर मोर्टारों और तोपों से हमले / आख़िरी फ़तवा आता है / दुनिया के सबसे शातिर / सपेरे के द्वारा / कि मेरे ही पाले नागों ने अब / बीन की धुन पर /  नाचना बंद कर दिया है / मुझे ही फुफकारने लगे हैं / पहले इनके डँसे लोगों के लिए / दो पल का मौन रखा जाय / फिर इन्हें नष्ट कर दिया जाय / हाँ, पालतू नागों की तलाश जारी रखी जाय – ‘अफगानिस्तान-२’

केशव तिवारी की कविता का मर्म यही है. उनकी कविता का गहरा सांगठनिक तनाव इस बात का द्योतक है कि एक विस्मित ऐंद्रिकता की औपचारिक आस्वादधर्मिता का मिला-जुला समाजशास्त्र, किस तरह  मानवीय परिवृत्त में, जीवन-विवेक और जीवन-यथार्थ के लोक-संपृक्त परिप्रेक्ष्य को उद्घाटित कर जाता है. वे इस लोक-मन की टूट, कदम-कदम पर होती इसकी कातर पराजय और संत्रस्त घुटन को भली-भाँति जानते-बूझते हैं. लगभग अप्रासंगिक होती जाती मानवीय संवेदना में, लगातार हाशिये पर ढकेले जाते साहचर्य-बोध और आदिमपन का शिकार होते जा रहे जिज्ञासु संसाधनों के बीच करुणा और प्रेम के एक जातीय कुनबे को संचित और सुरक्षित रखने की टटकी भावना को केशव जी ने अपनी कविताओं में एक विवेचनात्मक संगति दी है. इसे अन्यथा शब्दों में कहें तो तो उनकी  कविताएँ एक निजी और सार्वजनिक उठापटक की जनधर्मी विसंगति से निकल, ऐसी सिंथेटिक जनपक्षधरता के वातायन को निर्मित करती है जिसे संघर्षशील लोकरूप के वैज्ञानिक आत्मचिंतन के रूप में देखा जा सकता है. इन सब के बीच यह बात ध्यान रहे कि केशव जी  के ठेठपन को उजड्डता न मान लिया जाय. वे चिंतन और समझ की एकायामी कलात्मकता और एकरस भाव-बोध के कवि नहीं है. उनकी कहन में सामुदायिकता तो है पर गिरोहबंदी नहीं है. भाषा और शैली की कैसी भी आयातित दस्तक पर वे कान नहीं धरते. उनकी कविता में व्यक्ति-सत्य और वर्गीय सत्य के रेखांकन स्पष्ट हैं. जैविकता और सामाजिकता की एक कंडेंस्ड समझ और परम्परा में आधुनिकता की एक वाजिब दखल के साथ ही, वह इस  कविता के नागरिक बनते हैं- अभिव्यक्ति के गुपचुप या अवसरवादी दुरभिसंधियों से  पूरे  ऐन्द्रिक ताप में  भिड़ते हुए.

मैं तुम्हारी भूख पर / कविता लिखूंगा / और कवि हो जाऊंगा / तुम्हारी मौत पर मर्सिये/ गाऊंगा और / चर्चा में बना रहूँगा / तुम्हारे लिए... / कागज़ पर लडाइयां लडूंगा / और योद्धा होने के गुमान में / फूला फिरूंगा / तुम्हारी मजबूरियों में भी / क्रान्ति तलाशूंगा / और अमर हो जाऊंगा – ‘और अमर हो जाऊंगा’

 और शायद यही वजह है कि केशव जी की कविताएँ अपने उग्र संकल्पों में आत्म-स्वीकृति और आत्मानुशासन की समावेशी ऊर्जा में कभी-कभी विभक्त होती सी लगती हैं, लेकिन सम्वेदनधर्मी सदिच्छा और आकांक्षाओं का  सहानुभूतिपरक आत्म-विश्लेषण उन्हें विस्थापित होने से बचा लेता है. जिससे कि इन  कविताओं का हमारी आहत आशाओं और भयग्रस्त मानस से एक पारिवारिक रिश्ता सा कायम हो जाता  है. पारिवारिक यों कि जनजीवन के जटिल आत्मीय बोध और स्वतन्त्रता के अन्तर्निहित तर्क उनकी कविताओं के उस बुद्धिसंगत और  भावप्रवण उद्योग्धार्मिता के कॉमन-सेन्स को बनाते हैं जो जीवन की यथातथ्य विषमताओं की  आदिम अभीप्सा के बीच एक प्रतीकात्मक संगति का निर्माण करते हैं. अवधारणाओं पर अवलंबित कसरती नज़रियों और मनुष्यता को किसी यांत्रिक ऐतिहासिकता के अटैचमेंट के रूप में देखने वाली एक समूची काव्य-परम्परा  के बीच केशव तिवारी की कविता, प्रचलन के अटपटेपन और बोलचाल की संकल्पित भाषिक चेतना की एक तहजीब की तरह सामने आती है. और सरोकारों की एकान्तिक मनः स्थितियों के आधार पर पैदा किये जा रहे जाली दायित्वबोधों का नैतिक भय, सभी अप्राकृतिक अनुरक्तियों के साथ ख़ुद को उजागर करता चला जाता है.

जब भी देखता हूँ / तुम समय के क्रोशिये लिए / विश्वास के धागे से / बुनती ही रहती हो / भविष्य के सपने / टांकती ही रहती हो / मनपसंद फूल / सोचता हूँ कितना अटल है / तुम्हारा विश्वास / इस अनिश्चित भविष्य पर / वर्तमान के त्रास को / नकारते हुए भी / तुम डालती ही जा रही हो / भविष्य के नए फंदे / समय के क्रोशिये पर – ‘जब भी देखता हूँ’

एक ऐसे वक़्त में जहां जीवन और मृत्य के प्रश्न, सौन्दर्यबोध के स्टैटिक और लगभग कायर सवालों के सामने, संस्कृति-विरोधी और अनैतिहासिक माने जाने लगे हों; जहां संघर्ष,शक्ति,चेतना, करुणा एक गैरमुमकिन समाज के मुहावरों में तब्दील होते जा रहे हों; केशव तिवारी की कविताएँ आस्था के समानांतर संसार में, संवेदनाओं की भौतिकी को प्रार्थना की तरह दर्ज़ करती हैं. इसमें कोई दोराय नहीं कि उनकी कविताएँ  मौजूदा सामजिक अनिश्चितता से मोहभंग हैं. किसी काल्पनिक तटस्थता के रूपवादी संशयों और आमोदधर्मी उद्वेलनों के विजातीय आदर्शवाद को  वे  समसामयिक विन्यास की चेतन-परिधि में संयोजित करने का प्रयास करते हैं. और साथ ही साथ उन उत्तरदायित्वहीन सत्तावादी प्रयासों  को इतिहास-बोध के अनिवार्य अंतरालों के बीच चीन्हने का प्रयास करते हैं जिससे  एक निरंतर अन्तः विवशता का शिकार होती जाती सांस्कृतिक परिस्थिति को, वर्तमान के सरलीकरण के खतरे से बचाया जा सके. ये कविताएँ एक निर्दोष सहजीवन की तलाश हैं - बिना किसी तिलिस्मी जमघट  और जीवन-सत्य के नियतिधर्मी समाधानों के, प्रतिरोधी लोक-संवेदनों की एक ईमानदार और मांसल जीवनासक्ति बनाती हुईं

जीवन में कितना कुछ छूट गया / और हम विचार की बहंगी उठाये / आश्वस्त फिरते रहे / नदी पर कविता लिखी / और ज़िन्दगी के कितने / जल से  लबालब चौहडे सूख गए /  समय नजूमी की पीठ पर / पैर रख निकल जाता है / और अतीत खोह में पड़ा कराहता है / जिसने प्रेम किया / एक अथाह सागर थहाता रहा / जिसने प्रेम परिभाषित किया / किताबों में दब के मर गया  – ‘ विचार की बहंगी

ये जनतांत्रिक प्रतीतियों की स्वाभाविक अपेक्षाओं की कविताएँ भी हैं. अहर्निश हमारे उस विलुप्त सौन्दर्यबोध की समकालीन परिपक्वता की सकारात्मक और निश्छल जांच-पड़ताल है. यही कारण है कि उनकी कविताओं में प्रेम, एक अपराजेय मनोबल के रूप में सामने आता है और वे प्रेम को न तो किसी स्नायविक रति-प्रसंग के उन्मादी शोर-शराबे की तरह चित्रित करते हैं और न ही किसी भावुक प्रत्याशा के अनमने पश्चाताप की तरह. प्रेम उनकी कविताओं में एक रचनात्मक अन्तः गठन और युग-प्रवृत्ति के पर्यवेक्षण की तरह प्रयुक्त होता है. उल्लेखनीय बात यह है कि प्रेम का यह  परिस्थितिगत संस्पर्श और ममत्व से भरा स्नेहालेप केशव जी की कविता में, एक संतप्त और संकोची आक्रोश के आंतरिक भूलेबिसरेपन के बीच  किसी  विकासधर्मी क्षतिपूर्ति की तरह प्रवेश करता है. वहाँ प्रेम सवाल भी है, समाधान भी. हास भी है, विलाप भी और यही संभवतः संवेदन और अनुभवों के स्वावलंबी विश्व का पुनःसृजन भी है.

केशव जी  की कविताएँ हमारे चिरपरिचित आख्यानों की सहूलियत से भरे सुहाने सुखान्त का  एंटी-क्लाइमेक्स हैं- अपनी पीठ पर वक़्त की करवट अंकित किये हुए और छाती पर आस्था के अरण्य बोते हुए.
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सुबोध शुक्ल / ४- एफ, नवाब यूसुफ़ रोड, सिविल लाइन, इलाहाबाद,२११००१ / सेल – ०९४५१३२२१७२, ०८४००७९१६९३ 

                              

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