Saturday, March 30, 2013

एकदिन स्त्री चल देती है चुपचाप ...दबे पाँव - कमाल सुरेया, अनुवाद एवं प्रस्‍तुति - यादवेन्‍द्र

कमाल सुरेया (1931-1990)


एक दिन स्त्री चल देती है चुपचाप ...दबे पाँव 
                                                               
कोई स्त्री रिश्तों को निभाने में सहती है बहुत कुछ ..मुश्किलें 
उसका दिमाग,दिल और रूह तक किसी का निष्ठापूर्वक साथ निभाने को 
झेलता  है इतने आघात और झटके  
कि दूसरा आदमी आता ही नहीं उसके दिलो-दिमाग़ में 
वह आदमियों की तरह तुनक कर झगड़ा भी नहीं उठाती 
कि सूप में नमक कम क्यों है
बल्कि उलटे कहती है ..कोई बात नही,यदि कोई मुश्किल है तो इसकी बाबत बात कर लेते हैं 
और मर्द हैं कि सबसे ज्यादा इसी एक बात से खीझते आग बबूला होते हैं।
बातचीत ऐसे ही टलती जाती है ...
कभी मैच ख़तम होने तक ..नहीं तो फिर डिनर या दूसरी गैरजरूरी बातों के बहाने। 

स्त्रियाँ जिद्दी और बावली होती हैं
अपने प्रेम को ऐसे सीने से चिपका के रहती हैं 
जैसे जीवन न हुआ खूँटी के ऊपर टिका हुआ कोई सामान हुआ  
यही वजह है कि वे चाहती हैं तफसील से  बातचीत करें 
और साझा करें अपना दुःख दर्द 
तबतक आस नहीं छोड़तीं जबतक बन्दे को समझा न लें 
और उसके पास बचे न कोई और रास्ता 
स्त्रियाँ देख ही लेती हैं दूर कहीं कोई उजाला और खोल  डालती हैं 
अपनी व्यथा का पिटारा 
पर यह सब करके उनको अक्सर जवाब क्या मिलता है?
"अपनी यह बकवास अब बंद भी करो"
ये सब बातें उसको नाहक की चिख चिख लगती हैं 
और वह उनकी और कभी गौर से देखता तक नहीं 
और इस तरह एक समस्या समाधान के बगैर छोड़ कर 
देखने लगता है दूसरी ओर 
आदमी को कभी एहसास ही नहीं होता 
कि यही अनसुलझी बात गोली की तरह आएगी 
और लगेगी उसके सीने पर एक दिन.

आदमियों की निगाह में यदि स्त्री करती है गिले शिकवे
या बार बार दुहराती रहती है एक ही बात  
आदमी को समझ जाना चाहिए कि उसकी आस अभी टूटी नहीं है 
और रिश्ता उसके लिए बेशकीमती है 
वो सबकुछ के बावजूद उसे निभाने को आतुर है
रहना चाहती है साथ ..सुलझा के तमाम बदशक्ल गाँठें
और इसी पर है उसका सारा ध्यान 
क्योंकि बन्दे से अब भी करती है खूब प्यार।

एकदिन स्त्री चल देती है चुपचाप ...दबे पाँव 
यह उसके प्रस्थान का सबसे अहम् पहलू है
और जाहिर सी बात है कि आदमी इस बात को समझ नहीं पाते
बोलती ,कुछ शिकायत करती और झगडती स्त्री
अचानक चुप्पी के इलाके में प्रवेश कर जाती है 
जब अंतिम तौर पर टूट जाती है रिश्ते पर से उसकी आखिरी आस 
उसका प्यार हो जाता है लहू लुहान 
मन ही मन वो समेटती है अपने साजो सामान सूटकेस के अन्दर 
अपने दिमाग के अन्दर ही वो खरीदती है अपने लिए सफ़र का टिकट 
हाँलाकि उसका शरीर ऊपरी तौर पर करता रहता है सब कुछ यथावत 
इस तरह स्त्री निकल जाती है रिश्ते के दरवाजे से बाहर।
सचमुच ऐसे प्रस्थान कर जाने वाली स्त्री के पदचाप नहीं सुनाई देते  
आहट नहीं होती उसकी कोई  
वह अपना बोरिया बिस्तर ऐसे समेटती है 
कि किसी को कानों कान खबर नहीं होती 
वो दरवाज़े को भिड़काये बगैर निकल जाती है
जब तलक सांझ को घर लौटने पर स्त्री खोलने को रहती है तत्पर दरवाज़ा 
समझता नहीं आदमी उस स्त्री का वजूद  
एकदिन बगैर कोई आवाज किये चली जाती है स्त्री चुपचाप 
फिर रसोई में जो स्त्री बनाती है खाना
बगल में बैठ कर जो देखती है टी वी 
रात में अपनी रूह को परे धर कर जो स्त्री 
कर लेती है बिस्तर में जैसे तैसे प्रेम
वह लगती भले वैसी ही स्त्री हो पर पहले वाली स्त्री नहीं होती 

स्त्रियों के कातर स्वर से ...उनके झगड़ों से डरना मुनासिब नहीं 
क्योंकि वे इतनी शालीनता और चुप्पी से करती हैं प्रस्थान
कि कोई आहट भी नहीं होती।           
***

Sunday, March 24, 2013

गिरिराज किराडू की कविताएँ

गिरिराज के यहां कविता एक नाज़ुक विषय है, गो वो अकसर ख़ुद को कठोर कवि कहता पाया जाता है। मैंने पहले भी दो-तीन बार अनुनाद पर उसकी कविताएं लगाते हुए टिप्‍पणियां की हैं और ख़ुद को ख़ासी मुश्किल में पाया है। उसकी कविताओं को महसूस करना मुझे जितना अपने लिए आसान लगता है, उस पर बात करना नहीं। वो मुश्किल में डालने वाला कवि है, क्‍योंकि वह जीवन और कविता की मुश्किलों का कवि है। उसकी कविता के प्रिय गद्य में आने वाले पात्र और प्रसंग हमारे बहुत आसपास के और अपने होते हैं और बयां उसका बहुत ख़ास 'अपना'। ये जो उसका 'अपना' है, वह कभी सपाट तो कभी जटिल कहन में हमारा अपना होता जाता है। यहां मेरे अनुरोध पर जो उसने कविताएं दी हैं, उनमें से 'अविष्‍कार' वाली लोकमत के दीपभव विशेषांक में छपी हैं, जाहिर है लोगों ने पढ़ी भी होंगी। बाक़ी की तीन मैंने एक चलती बस में उससे सुनीं... साथ कई कविमित्र थे। मैं कभी नहीं भूलूंगा कि उसने अपनी इन कविताओं के पाठ के लिए जो जगह चुनी, वह शोरोगुल और दोस्‍तों की चुहलबाजियों से भरी एक बस थी। पहली कविता के पाठ के तुरत बाद मैंने अपने आप से कहा यह न्‍यायप्रिय नाटकीय मानो हमें दिवंगत करके छोड़ेगा, लेकिन फिर जब वो अंतिम पंक्तियां बार-बार गूंजने लगीं मन में तो मैं कक्षा के किसी सबसे अनुशासित विद्यार्थी की तरह बैठ गया। उसकी आवाज़ में मनुष्‍य होने का ओज था, जो किसी को अत्‍यन्‍त समर्थ कवि होने का दर्प लग सकता था। मैं बिंधा हुआ था कुछ अपने और कुछ गिरिराज की कविताओं में आने वाले जीवन-प्रसंगों से। उसने पढ़ा - हमने सब युद्ध पर्दे पर देखे/ सीधा प्रसारण/ आंख बंद करने पर युद्ध महज आवाज़ था - मैं बॉड्रीलार्द को कोसने लगा....इधर किसी हिंदी कवि ने हाइपर्रियल की धूर्तता को इस तरह उजागर किया हो, मुझे याद नहीं पड़ता।  हिंदी में मौन भी अभिव्‍यंजना है की स्‍थापित कर दी गई महानता के बरअक्‍स गिरिराज का यह ख़याल मुझे ताउम्र याद रहेगा - जिसे वे मौन कहते हैं अगर कुछ होता है तो तीखा महीन मांझा/ कंठ को चीरता जो मनमर्जी से, आवाज़ का खून लगा है जिसकी धार पर....

ख़ैर......मुझे इन कविताओं को प्रस्‍तुत करते हुए कोई लेख नहीं लिखना है, उसके लिए कोई दूसरी जगह होगी और गिरिराज की दूसरी सारी कविताएं। 

अब तक अनुनाद पर हर कवि को शुक्रिया कहता रहा हूं ..... पर तुझे कभी नहीं कहूंगा गिरि... जा तुझे बख्‍़शा गया .... ख़ुश रह और यूं ही ज़माने भर के दर्द से भरा तबाह भी....
*** 


    
चाकू का आविष्कार १९९९

तुम रात दस बजे अपनी साईकिल पर दूध की टंकी लटकाए आये थे
एम.ए. मनोविज्ञान पढ़ रहे एक लड़के का अपने बाप को अब इस उम्र में कुछ आराम से रखने की खातिर साईकिल पर दूध की टंकी ले के चलना बहुत मशहूर था
तुम बिजली के खम्भे के नीचे खड़े बात कर रहे थे मेरे एक दोस्त से
अचानक एक स्कूटर रुका कोई आया तुम पर झपटता हुआ
कई वार हुए
खून कई दिनों तक जमा रहा था दीवार पर

सुबह पता चला तुम दूध देने आये तो मेरे बारे में पूछ रहे थे
सवा सात बजे
तुम ठीक थे तुम्हारी कोहनी के पास वार मामूली था

"जो मुझ पर झपटा इसलिए कि उसकी बहन को चाहता हूँ मैं
उसके पास कुछ नहीं था वार करने के लिए
भैया जो अपना देखा चमकता गली के खम्भे वाली रौशनी में
वह मेरा आविष्कार था --
बिना वार किये जीने की जिम्मेवारी और नहीं निभा सकता था
उसके ऊँचे  प्रेम में और नहीं रह सकता था
अब चाकू मेरा अभिन्न है, इसका कोई भी मतलब हो
कल से दूध देने आपके घर नहीं आऊंगा आखिर आप भी गवाह हैं
माफ़ कीजियेगा
प्रणाम!"
अंगूठी का आविष्कार २००१

यह तय अगर नहीं होता कि हमारी सगाई छह महीने से ज़्यादा नहीं चल पायेगी
तो भी तुम्हारे साथ रहने की कल्पना करने का मुझे कोई अफ़सोस नहीं होता -
यह तय था क्यूंकि मैं शुरू से यह जानती थी

टीबी के मरीजों की वह अस्पताल के एकदम पीछे वाली ईमारत
लेडी लिनलिथग्रो हॉल
अंग्रेज़ों के ज़माने की कुछ वैसी दिखती हुई भी
तुमने चुनी
हमारे मिलने के लिए

हमारे आस पास मरीज़ों के फिक्रमंद

तुम्हें कुछ दिन अपने साथ रखने के लिए
एक अंगूठी का आविष्कार किया था मैंने
उसी शाम
** 
धोखे का आविष्कार १९९२

उस बात को बीस बरस हो गये
चोरी छुपे याद करता हूँ :
वह लड़का जिसके नाम से पुराने शहर के बाजार की एक गली का नाम रखा गया था
शहीद कोठारी मार्ग
मेरा दोस्त था

उससे प्रतिशोध लेने के लिए
उसे यूँ कुत्ते की मौत मरने देने के लिए
जिसका किया मैंने आविष्कार
- कुछ नहीं होगा वहाँ न ईमारतों को ना उसे तबाह करने के इरादे से
गये तुम्हारे जैसे लड़कों को -
वह अब मेरे मरने का सामान है
ना ईमारत बची
न दोस्त
जिसे छब्बीस की उम्र में गली का नाम बनने की कोई तमन्ना नहीं थी

मुझे अब इस याद की देखभाल करनी है  
*** 
झूठ का आविष्कार १९९१  

किसी को कहना मत
यह तुमसे कहा तुम्हारे आशिक ने
तुम उसके लिए नहीं रोये
किसी को नहीं कहा
रहस्य तुम्हारे साथ ही नहीं जायेगा लेकिन 

उसने बानवे में तबाह किया था चीज़ों को
लेकिन तुम सोये थे उसके साथ उससे पहले
तुमने उसके सच को नष्ट किया
यह कहते हुए कि प्रेम करता हूँ तुमसे

दुनिया नष्ट होने तक तुम्हें उस संसर्ग की याद दिलाएगा
तुम्हारा वह आविष्कार
एक झूठ
प्रेम
**** 
आवाज़, अरमान, मौन और अपमान के बारे में  आठ अगस्त दो हजार बारह की दोपहर रोडवेज बस में कहासुनी

अपनी नहीं तो किसकी आवाज़ का अरमान हो तुम?
अल्लाह जाने 
तुम्हारी कोई आवाज़ है भी ?
अल्लाह जाने 
तुम्हारा कोई अरमान है भी?
अल्लाह जाने 

हमने सब युद्ध परदे पर देखे
सीधा प्रसारण
आँखें बंद करने पर युद्ध महज आवाज़ था

जिसे वे मौन कहते हैं अगर कुछ होता है तो तीखा महीन मांझा
कंठ को चीरता जो मनमर्जी से, आवाज़ का खून लगा है जिसकी धार पर

तुम्हें मुझसे बोले एक युग हो गया है, कुछ खबर है? 

मेरे कहने से कुछ नहीं होता जी
इसलिए मैं चुप नहीं बैठा रहता जी

अपमान का एक असर यह भी
कि अपने कहे के व्यर्थ नहीं निरर्थ हो जाने से इतना डर गये हो कि तबसे कुछ नहीं बोले हो

आपको सबको चुप करने के लिए यह बन्दूक मिली है
मुझे सबसे बात करने के लिए यह ज़बान

यात्री अपने जोखिम पे बोलें और अपनी सहूलियत से चुप रहें
यहाँ गाड़ी चा-पानी-पेशाब के लिए दस मिनट रुकेगी
***** 
न्यायप्रिय
(फिर रघुवीर सहाय के लिए)

यह हमारे सहवास का किसी किस्म का सारांश है कि मेरे साथ रहने में तुम्हें अपने से दूर रहना होता है और मुझे अपने से इसी तरह रहने से मृत्यु तक रह पायेंगे साथ साथ इसी तरह रहने से हो सकता है मृत्यु को पार लगा ले जाएँ हम

प्रेम में नहीं ऐसी आत्मीयता में होता है मरने का रोज आविष्कार इस बीच जो अन्याय है हमारे होने से बेपरवाह और हमारे होने से भी उसे कहने की कोशिश की अपने तई कौन किसकी याद में कहेगा यह निर्णय मैंने आज कर दिया है इकतरफा

मैं विदा लूँगा पहले और तुम कहना जाने क्यों करता रहता था यह सब अगर इस तरह धोखे से मुझे अकेले ही छोड़ जाना था बड़ा भारी एक अन्याय तो यही है जाओ यह स्त्री तुम्हें क्षमा नहीं मुक्त करती है अगर होते हों वो मायावी सात जनम मेरे किसी जीवन में कभी ना आना ओ न्यायप्रिय नाटकीय दिवंगत 
****** 
पिता  
(फिर फिर रघुवीर सहाय के लिए)

क्यूंकि तुम अब एक पिता हो अपने अंत पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं रहा
तुम्हें उस अपमान को जो जीवन रोज देता है और वह जीवन
जिसे तुमने जन्म दिया है में से किसी एक को चुनने की स्वतंत्रता नहीं है

तुम अपमान के नहीं उसके पिता हो जिसे तुमने जन्म दिया है
उस जीवन को अनाथ कैसे करोगे  
जिसे तुमने जन्म दिया है 

अब से तुम्हारा अपमान भी उसका पिता है

(गगन गिल की एक काव्य पंक्ति है: पिता ने कहा अब शोक ही तेरा पिता है)
******* 

Friday, March 15, 2013

गिर्दा की दो कविताओं पर एक टिप्पणी-अनिल कार्की



नाज़िम  ने कहा था कि ''मैं कविता के भविष्य पर विश्वास करता हूँ. ऐसे कई रहस्य हैं, जो लोगों को अभी जानने है.... इन शब्दों में थरथरा रहे हैं " गिर्दा  को समझने का  प्रस्थान बिंदु गिर्दा  का संरक्षण नही बल्कि  उनकी कविता की उस तासीर का संरक्षण हैं, जिसमें  एक गंभीर कामरेडानापन है, क्योंकि यह वह चेतना थी, जिसने गिरीश तिवारी को गिर्दा बनाया. कविता का  रहस्य क्या हैंजिसे  जानना हैं अभी ? वो भी उस समय जब जटिल होती दुनिया का सौन्दर्य बदल रहा है.  एक अरबी कहावत है 'उन्जुर माँ क़ाल  ला तन्जुर मन क़ाल ' (देखो की क्या कहा है, मत देखो कि किसने कहा है) - तब यह बहुत ज़रूरी हो जाता है कि हम वह देखें,  जो कहा गया है.  बदलते समय के बदलते सौन्दर्य को समझना भी ज़रूरी हो जाता है कई बार. यह सौन्दर्य विकृत होकर आदमी के सांचे गढ़ने लगता है। यह ऐसे ही नहीं होता. एक रचनाकार के तौर पर कवि की जिम्मेदारी होती हैं कि वह इन जटिल अनुभूतियों को समझता हुआ उस सौन्दर्य को गतिशील करे, जिसे सामाजिक दबावों के चलते समाज विकृत रूप में पोषित करने लगा हो. यदि संस्कृति गतिशील है तो सौन्दर्य भी गतिशील है और उसके भी मानक बदलते है, उसके भी अपने नियम हैं और अपनी सीमा है. कवि जिस समाज में जी रहा है, वह भी उस समाज का समंक है. एक ऐसा समंक जिसे हम समग्र का प्रतिनिधि तब कह सकते है, जब उसका साहित्य अपने वर्ग का ठीक प्रतिनिधित्व करता हो, उसमें समाज की सारी ध्वनियाँ व्याप्त होने के साथ- साथ वह चेतना भी हो जो इस समाज को सही दिशा में ले जा सके. यह अपने समय से एक किस्म की  टक्कर भी है और सृजन भी. मायकोव्यसकी  ने कहा भी  है कि कवि समाज का देनदार होता है”.
 " भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली जीवन की आम सामाजिक ,राजनैतिक और बौद्धिक प्रक्रिया को निर्धारित करती हैं ..आर्थिक बुनियाद के बदलने के साथ ही, समस्त वृहदाकार ऊपरी ढांचा भी कमोबेश तेजी से बदल जाता है. ऐसे रूपान्तरों पर  विचार करते हुए एक भेद हमेशा ध्यान रखना चाहिए, एक ओर तो उत्पादन की आर्थिक परिस्थितियों का भौतिक रूपांतर है, जिसे प्राकृतिक विज्ञान की अचूकता के साथ निर्धारित किया जा सकता है, दूसरी ओर वे क़ानूनी ,राजनीति ,सौंदर्यबोधात्मक या दार्शनिक ...संक्षेप में विचारधारात्मक रूप हैं, जिनके दायरे में मनुष्य इस टक्कर के प्रति सचेत होते हैं और उससे  निपटते हैं "(मार्क्स -एंगेल्स साहित्य तथा कला .मास्को ,१९८१ पृष्ट ४७ -४८ )
गिर्दा की कुछ कविताएँ हैं,  जिनका सौंदर्य जीवन के उस पक्ष को उभारता हैं, जहाँ पर थका हुआ  आदमी लम्बे संघर्ष के इस पूरे सफ़र में थोड़ी देर के लिए कमर टेकता है (घुटने नहीं). तब उस पूरी लडाई का रूपांतर कविता के इस सौन्दर्य में हो जाता है और वह जीवन के उस रहस्य को व्यक्त करता हैं, जहाँ सब एक दूसरे में रचे बसे है. तब सब्जी में जीरे का छौंका भी पूरे गाँव को महका देता है. गिर्दा का साँझ से बड़ा लगाव है. उनकी जीवन के सौन्दर्य से भरी अमूमन कविताओं में साँझ के बड़े मनहर दृश्य हैं. हों भी क्यों सर्वहारा के लिए साँझ का महत्व ही कुछ अलग होता है. साँझ उसके लिए दूर काम पर गये कामगार बेटे का इंतजार है. तुतलाते बच्चों के लिए पसीने में भीगी टाफियां है्. दूर घास-पानी को गयी माँओं के लौट आने की उम्मीद से भरी घुच्ची आँखे हैं. गायों-बछड़ों के जंगल से लौटने और पंछियों के दिन भर की उड़ानों के बाद झुरमुट में लौटने का समय भी साँझ ही है. अपनी मीठी थकानों में रमते हुए आने वाले कल की तैयारी भी साँझ को ही होती है. गिर्दा की कविताओं में यह खास बात है कि उनके यहाँ इस अनुभूति से पूरा गाँव अभिभूत है. सब एक दूसरे से इस तरह मिले हैं कि सबके दर्द आपस में गीत बन जाते हैं. इन कविताओं में बहुत कुछ ऐसा है, जो शब्दों में भले ही हो लेकिन कविता की निर्बाध लय और एक नन्हे बच्चे-सी चंचल पर सचेत भंगिमाओं में गुंफित है. वह चेतना  हैं, उस सर्वहारा वर्ग का यथार्थ. जैसे गोर्की के पात्र दिन भर जी तोड़ मेहनत करते हैं और शाम को वोद्का और  पार्टीसंगीत के धुनों पर थिरकना नहीं भूलते (मेरा बचपन, मेरे विश्वविद्यालय,और जीवन की राहों ,के संदर्भ में). कम कविताएँ और कम कहानियां हैं, जहाँ पर थके-हारे शोषित जीवन के प्रति इतना आशावाद दिखाई दे यदि आशावाद हो भी तो उसके भीतर यह खिलंदड़ापन और होंसियापन नहीं मिलता, जो गिर्दा की कविताओं के भीतर मिलता हैं. यही होंसियापन गिर्दा की कविता के प्रति मेरे लगाव का कारण भी है.
उनकी दो कविताएं या गीत हैं, जिहोंने मुझे हमेशा आकृष्ट किया -  'पार पछ्यों धार बटी' और  ' हो रे दिगो लाली'.  पहला गीत थोड़ा शास्त्रीय किसिम का है और दूसरे की लय चांचरी के करीब ठहरती है. यह दूसरा गीत एक तरह से आदिम संवेदना की पुनर्संरचना करता हुआ प्रतीत होता है, जिसका सौन्दर्य सर्वहारा का सौन्दर्य है.  दोनों गीतों में साँझ का वर्णन है पर पहले गीत की  साँझ  फागुन की साँझ है - बसंती हवाओं वाली, जिसे पहाड़ में 'चलबसंता' या जब ढाण भुईया (एक किसिम की हवा) चलती है तब का लिखा प्रतीत होता है. और दूसरे गीत को लिखा गया है  सावन भादों में जब झड़ (लम्बे दिनों तक पड़ने वाली झमाझम बरखा ) के बाद सावनी साँझ को आकाश अखर (सुखा रहा हैरहा है. झड़ के दिन अक्सर पहाड़ों में 'झड़पातयी ' मनाई जाती थी (हालाँकि अब भी दूर - दराज के गाँव में यह सब देखने को मिल जायेगा). वह विशेष भोजन और गीत जो वर्षा के  समय  बनाये खाए जाते है और साथ बैठकर गाये जाते हैं,  जिनमें जीवन की अजीब कसक होती है.  थोड़ा उदास, थोड़ा यादवादी किसिम के और आने वाले अच्छे दिनों तीज त्यौहारों की गंध इन गीतों में जीरे के छोंके जैसी महकती है. ' हो रे दिगो लाली' असल में इस शब्द का अर्थ ही पहाड़ में कसक और टीस होता हैं जैसे कि  कुछ- कुछ "काश ...." !  यह ऐसा शब्द है - जब अभिव्यक्ति के लिए कुछ नहीं बचता, तब यह उस व्यक्त हो सकने वाली जटिलता को व्यक्त करता है. जाने कब से यह शब्द लोक के मौन को व्यक्त करता रहा है और रहेगा. आदमी के अंतर्द्वन्द से भरा ऐसा शब्द हिंदी  में शायद  ही हो. इस कविता में  एक बार ' हो रे दिगो लाली' हटाकर देखिये, तब यह कविता अशान्त नही करेगी. वह एक सीधे रास्ते पर बह निकलेगी  इसके भीतर का वह अशांत करने वाली टीस इस शब्द पर निर्भर है.  इसलिए गिर्दा के बहाने इस पारिभाषिक शब्द की भी शिनाख्त  ज़रूरी  हो  जाती है. इस शब्द से मेरा भी गहरा नाता है.  यह शब्द पहले-पहल मैंने अपनी माँ से सुना, वो भी तब जब वह दिन भर थकी हारी साँझ को कोई गुजरा हुआ मीठा क्षण याद करती थी या फिर किसी आने वाले मीठे क्षण की कल्पना करती थी. यह ' दिगो लाली' अपने में इतने सारे अंतर्विरोध समेटे हुए है कि मन का बहुत सारा मौन और अनुभूति केवल इसी शब्द से व्यक्त हो जाते हैं.  गिर्दा की कविता की टेक  ही  ' हो रे दिगो लाली' है  जो इस टीस को और बढ़ा देती है.  यह  कविता जितनी शांत दिखती है, मुझे उतना ही अशांत करती रही है.  अब ज़रा हम कविता उस सौन्दर्य की बात करते हैं, जो शब्दों में है और लय में है. पता नहीं इसे आलोचना की भाषा में क्या कहते होंगे, लेकिन मौसम की झनक और जीवन के अन्तर्विरोध कैसे इस कविता में एक- मेक हैं.  इस गीत की चित्रात्मकता पर ध्यान दें और देखें कि ध्वन्यात्मकता भी लाजवाब है.  जहाँ पर थन में लगी बछिया का  चित्र है,  वहीं पर दूध दुहने की ध्वनि 'द्वि-द्वां द्वि -द्वां'. गीली लकड़ी का गीला धुवां हैं,  छानी -खरक है (झोपड़े और जानवरों को बांधने का स्थान), पापड़ के पत्तों में (अरबी की सब्जी के पत्ते) में  ओस की बूँद और उन पर पसरी सफेद चांदनी है और ओस में भीगी और उतरी गहन दर्दों में डूबी लेकिन पीड़ा में भी हंसती जिन्दगी हैकांसे की थाली सा चाँद टंगा है (टंगा है) ऊगा नहीं है. और फिर कुमाऊंनी का लोक गीत न्योली कहीं पार्श्‍व में सुनाई देता है. यह गीत विरह का प्रतीक है.  घने वनों में घस्यारिनों और ग्वालों द्वारा  गया जाने वाला यह गीत, जिसमें  लोक अपनी पीड़ा से सीधा संवाद करता है और हवा जिसकी लय को संप्रेषित करती हैं.  जिसकी प्रेरणा है फ़ाख्‍़ता की प्रजाति का वह पंछी (न्योली) जो टेरता रहता है... कसक भरी आवाज में …..'निहूँ-निहूँ',  इसलिए कवि  इस निखरे आकाश और मनमोहक साँझ के बीच उस पीड़ा को बिसारता नहीं, बल्कि उससे स्पन्दित होता है. जीवन के प्रति अपनी आस्था को मजबूत करता हैं. और  यह सब उसे कुतक्याली (गुदगुदी) लगाते हैं, करते नहीं.
मुश्किल से आमा का चूल्‍हा जला है
गीली है लकड़ी कि गीला धुंवा है
साग क्या छोंका कि गौं महका  है
हो ये गंध निराली
....
कांसे की थाली सा टंगा चाँद है
पात दही का परोस  दिया है
दूर कहीं कोई छेड़ रहा है
हो रे न्योली 'सोरयाली
***
दूसरी कविता है 'पार पछ्यों धार बटी'. यह कविता साँझ के उस बिंदु पर आरंभ होती है, जब ग्वाला घर को लौट  रहा है और दूर शिखरों से मंद - मंद ठुमक - ठुमक कर साँझ उतर रही है.  मोहना की मुरुली और बिनु नाम के बैल की गलघंटी एक साथ बज रही है. आधे रस्ते में बावरी राधा-सी ब्‍याल(साँझ )इस धुन में रम कर खड़ी हो गयी है. हवा चल रही है. वनपरियां झूम रही हैं. बादलों का काला भूरा रंग, जल कर लाल हो गया है. कुमांऊ की किल्योपेत्रा रजुला सौक्याँण, जो केवल खूबसूरत थी बल्कि कबीलाई समाज की बहादुर स्त्री भी थी, जिसने कत्युर  राजा मालूशाही  को कहा  कि यदि तूने अपनी माँ का दूध पिया है तो मेरे भोट आकर मुझे अपनी रानी बना. उस रजुला से सांझ की तुलना करता हुआ कवि अपनी लोक चेतना की सहृदयता और कठोर संघर्ष को व्यक्त करता है. यह सब वह क्यों करता है, राजुला ही क्यों कोई और नायिका क्यों नहीं ? पहाड़ में कई नायिकाएं है शायद राजुला के कविता में होने की वजह हैं कि वह लोक में नारी चरित्र की सबसे मजबूत प्रतिनिधि है
गावं के गाय बछड़ों  संग
मोहना (ग्वाला ) की मुरली रनकी
मस्त बिनु बिजावर की गलघंटी खनकी
आधे रस्ते में खाली घड़ा लिए (इस संयुक्त ध्वनी से संमोहित)  
खड़ी बांवरी राधा सी साँझ
ठिठक गयी
सर्वहारा जीवन की उत्कट जिजीविषा के उत्सव के कवि गिर्दा की ये कविताएं उनकी अन्य कविताओं से भिन्न हैं और भिन्न किस्म से सर्वहारा से जुड़ती भी है. ये इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि गिर्दा ही क्या, इस तरह के सब कवि हमारे अपने कवि हैं, इनकी कविताएँ हमारी हैं, क्योंकि इनके भीतर हमारा संसार रमता है और ये कविताएं  हमारे संसार में रमती हैं. हमें जीवन का यह सौन्दर्य बचाना ही होगा. अपने समाजों और कविताओं के भीतर विचार की इस प्रतिबद्धता को जिन्दा रखना होगा. गिर्दा या अन्य इस तरह के कवियों को याद भर कर लेना किसी दायित्व की पूर्ति से ज्यादा इधर प्रकाश में आए  एक विशिष्‍ट  बौद्धिक अभिजात की बीमारी का भी लक्षण है.  ज़रूरत है उनकी इस परंपरा को किस तरह से आगे बढाया जाए. उन रचनाओं और रचनाकारों की शिनाख्‍़त होनी ही चाहिए, जो हम पर केन्द्रित है. अभी कई रहस्य है जो जानने बाकी है.  वह इन शब्दों के भीतर थरथरा रहे है ' हो रे दिगो लाली'. 
  
अनिल द्वारा विचारित दो कविताओं में से एक को ख़ुद गिर्दा की आवाज़ में अनुनाद की पोस्‍ट 'हमारे साथ हमारे गिर्दा' पर  सुना जा सकता है। मेरा आग्रह है कि एक बार ज़रूर सुनिए।

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