अनुनाद

अनुनाद

अरुणाभ सौरभ की कविताएं

ये एक नौजवान कवि की कविताएं हैं, जिनमें उसकी उम्र छलकती-सी दीखती है। इतना उत्‍साह और हर जगह भागीदार होने का अहसास अपने समकालीन जीवन में मुझे अच्‍छा लगा है। इन कविताओं के कवि का आज जन्‍मदिन है – मैं उन्‍हें बधाई देता हूं, साथ ही अनुनाद पर उनके प्रथम प्रकाशन पर उनका स्‍वागत भी करता हूं। 

जन्‍मदिन मुबारक हो अरुणाभ

शहर भागलपुर के
नाम एक कविता


अबकी इस शहर की
उन्हीं गलियों मे घूमा
जहां कभी
आवारागर्दी का माज़दा था
शर्बत और ठंढई के नशे मे घोला हुआ था गप्प
चौकों पर
पान गुमटी मे आबाद
किस्सों का संसार
वो नुक्कड़,घंटाघर
तिलकमांझी चौक
सुंदरपुर चौराहा
टी॰एन॰बी कॉलेज के
लड़के लड़कियों की टोली
वो हंसी-ठहाके
बुजुर्गों की बातेंबीते ज़माने की

आवारापन मे भागता हुआ
शहर भागलपुर
जहां कभी आदमी और लंगूर
साथ-साथ भागते थे
टसर सिल्क की तरह
मुलायम था जहां प्यार

अब तातारपुर मे
इजलास मियां की जलेबी
रफ़फू मियां की चाय
मीठी नही लगती
परबत्ति चौक की झाल-मूढ़ी से
नमक-मिर्च गायब है

अब इस शहार मे
बांग्ला के गीत,
मैथिली  की लोकधुनें
अंगदेस की लोककथाएं
सुनाई नहीं पड़ती
शरद्चंद्र फिर नही आए यहाँ
चन्द्रमुखी चेहरे की झुर्रियाँ और
जर्द होती देह संग
देव बाबू की याद लेकर
चली गाई पताल-लोक
जोगसर के कोठे पर
पसर गया बीरानापन
चंपानगर और नाथनगर मे
छा गया गर्द-गुब्बार
और उन्नीस सौ नाबासी ने
बची-खुची शहरों की उम्मीदों की कमर तोड़ दी

कुल मिलाकर
अब यह शहर नही
शहर के नाम पर
                महज औपचारिकता है
                किसी भागी हुई लड़की का
                पुराना पता है

***

मेरे तुम्हारे बीच में   
मेरे तुम्हारे बीच में 
पटना -इलाहबाद है 
गाँव-देहात है 
खेत-खलिहान है 
ज़ाफ़री मचान है 
रेलों का आना-जाना 
मेरे तुम्हारे बीच में 
शाहरुख़ ख़ान है 
टाम क्रूज और आमिर ख़ान है 
एंजेलीनाकटरीनादीपिका 
गुलज़ार, समीर 
ए आर रहमान है 
मेरे तुम्हारे बीच में 
इंटरनेशनल एअरपोर्ट है 
वीजा पासपोर्ट है 
कई भाषाएँ और बोलियाँ 
कई देश और परदेश 
कई पसंद,
नापसंद 
फिर भी मै हूँ कि चुप हूँ 
तुम हो कि बोलती ही नही 
क्यो़कि तुम्हारे बोलने पर 
थरथराने लगता है हावड़ा ब्रिज 
हँसते ही चमक उठता है 
ताजमहल का सफ़ेद संगमरमर
नज़र उठाने पर झुकती जाती 
है 
पीसा की मीनार 
मेरे तुम्हारे बीच में 
सुकरात के जूठे ज़हर का कटोरा है 
दुर्दांत यातना सह चुके 
कवि की उदास कविता है 
मेरे तुम्हारे बीच में 
कई होनी अनहोनी है ………….
*** 

गुलमोहर की छाँव  
                               
सन्नाटे में स्वाँस
जैसे चलती हवाओं का
स्वर
जैसे हरे पेड़ का धरती को चुंबन  
गुलमोहर के हाथ टूटे
हुए
बिखरे हुए
एक प्यारी लड़की के
फूल से हाथ में
रख देता गुलमोहर का
लाल-लाल फूल
उसके जूड़े में खोंसता
इसी हरी पहाड़ी के
नीचे
धूप की ताप के
विरुद्ध
गुलमोहर की छाँव में
लाल गुलमोहर की छाँव
हो तुम
जो मेरा बोधिवृक्ष है
जिस छाँव में
गहराइयाँ टटोलता हूँ अपनी
रोम-रोम को धूप से
बचाकर
दुनिया की नज़रों से
आँख चुराकर
इसी हरी पहाड़ी के ताल
मे
इसी झील के किनारे
चलती हवाओं के साथ
इसी पत्थर पर बैठकर
गुलमोहर की छाँव में
तुम्हारी आँखों को
पढ़ना चाहता हूँ
यह गुलमोहर सिर्फ़ एक
पेड़ नहीं है
यह तो सभ्यताओं की
कहानी है
आत्मा की कातर पुकार
है
निःशब्द गवाही देता
है
प्यार की,पूर्णता की
सम्पूर्ण कर देता है
मेरा- तुम्हारा प्यार
यह गुलमोहर आँख है
बेहद प्यारी आँखें
तुम्हारी आँखें जैसी
इसके हरे पत्ते की
छांह से छनकर
आती धूप की टुकड़ियाँ
आँखें जैसी दीखती है
ज़मीन पर
देह पर पड़ने पर
हजारों आँखें बनती
हैं
समेट लूँ मुट्ठियों
में
इन सभी धूप की
टुकड़ियों को
आओ कि इतने दिनों से
यह गुलमोहर तुम्हारा
साथ पाने को व्याकुल है
तुम्हारे माथे पर
प्यार से
टपकेगा
एक-एक , लाल फूल
आँचल मे भर और लाल 
हो जाएगा
माफ कर देना भूल-ग़लती
मेरा साथ
तुम्हारा साथ
अब हमारा साथ बनकर
गुलमोहर के साथ का
हिस्सा बन जाएगा
***     
दुनिया बदलने तक 
                                          
लौट आओ पंछियो 
कि सूरज तुमसे कई
झूठ-मूठ वादे करके
छिप रहा है झील के उस पार
अंदाज़ा लगा रहे हैं
पहाड़ के नीचे
खेलनेवाले बच्चे
की सूरज ने दगा किया
पंछियों से
पर ये पंछी शाम को
ही घर जाते हैं
जैसे कि हम
कौन कहता है कि
कोई पहाड़कोई मैदानकोई झील
कोई किनारा नहीं
बचेगा
जहां आज़ाद पंछी
करेंगे प्यार
कौन कहता है कि
अब चिड़ियाँ नहीं जा
सकेंगी
क्षितिज के उस पार
बड़ी-बड़ी इमारतों सेटावरों से
टकराकर
ज़ख्मी हो जाएँगे पंख
चहको पंछियो कि
शाम ने कई रंगों को
शामिल कर लिया है
अपने चित्र में
पर उसके पास आवाज़
नहीं है
अपने दल-बल के साथ आओ
चहको इतनी तेज़ कि
हुक्मरानों के कान का
पर्दा फटकर
चिथड़ा हो जाए
नाचो पंछियो
तांडव मुद्रा में कि
तुम्हारी नाच से  
                                           1.
प्रकंपित हो जाये पृथ्वी
                                       
कौन कहता है
कि सारी चिड़ियाँ
अब चली जाएगी बुवाइलर
में घुसाकर परदेश
जहां गोरे बर्गर के
संग
तुम्हारा ज़ायका
लगाएंगे
अभी वक़्त की लापरवाही
झेल रही है दुनिया
अभी समुंदर की अंगड़ाई
से वाकिफ़ नहीं है दुनिया
अभी रौशनी कै़द हो गयी
है कोयला खदान मे
अभी नदी की गहराई
टटोल नहीं पायी है दुनिया
अभी मौसम उदास है इस
दुनिया में
अभी नकली सूरजनकली आसमान है
अभी जान की क़ीमत
सिर्फ़ श्‍मशान है
आओ पंछियो आओ
यह शहरयह गाँव
तुम्हारे स्वागत मे
नहीं बजाएँगे ढोल
हम आएंगे तुम्हें
लेने
तुम मेरे माथे पर
फुदकना
कूदना
आज़ाद हो तुमचाहे जब उड़
जाना
उड़ो पंछियो
उड़ो पूरी आज़ादी से
कि समूचा आकाश
तुम्हारा है
पानी तुम्हारी
परछाइयों की आहट से बहता है
फसलें तुम्हारी चहकन
से लहलहाती है
पहाड़ तुम्हें देखकर
अंगड़ाइयाँ लेता है
जीयो पंछियो जुग-जुग
कि आदमी तुम्हारे
सहारे ज़िंदा है
मौसम तुम्हारा गीत
सुनकर जीता है
हवा तुम्हारे पंखों
के स्पर्श से थिरकती है
युग तुम्हारे रूप को
निहारकर चुपचाप बीतता चला जाता है
मैं कहता हूँ कि
लौट आओ पंछियो
                               
क्षितिज के उस पार से
रंग बिरंगा दल-बल
लेकर
चहको ऊँचे स्वरों में
नाचो कि दिशा बदल जाए
आओ कि तुम्हारे साथ
खेलना है
उड़ो पंछियो दूर-दूर
तक
कि जीना है जमकर
चहकना है कसकर
उड़ना है गा-गाकर
……………..दुनिया
बदलने तक …….
*** 

मैना के बहाने आत्मस्वीकारोक्ति
                                               
पीली चोंच में हजारों साल
का दंश
    
ह्रदय के कोने से चेंहाकर
मिरमिरायी आवाज़
आर्त्तनाद में कई आतंक/कई
संशय
वक्ष में छिपाकर
सामने चहकती मैना एक
     
अपने दल से अलग
पहाड़ी वनस्पतियों की हवा खाकर
उतरी है दरवाजे के पास
कुछ कहना चाहती हो जैसे
अपनी गोल आँखों से
चोंच खोलकर चें..चें..
जैसे किसी को बुला बुलाकर थक गयी
हो
कोई कातर पुकार
  
मैना के करीब जाकर
उसके दुःख को टोहने की कोशिश करना
चाहता हूँ
क्या पहाड़ के उजड़ने का उसे दुःख है?
या नदियों के पानी के सूखने चिंता ?
क्या हरियाली नष्ट होने का उसे दुःख है
?
या विस्तृत आकाश पर छाई परायी सौतन
सत्ता से परेशान है वो
ऐसे अनगिनत प्रश्नों से घिरता जाता हूँ
अगर मैं सालिम अली होता तो
सब समझ जाता
कालिदास होता तो
उसके दुःख निवारण हेतु
आषाढ़ मास के बादल का पहला टुकड़ा
उसके नाम कर देता
और उसके नायक के विषय में पूछता ज़रूर
बुल्‍लेशाह होता तो भी
उस हीर की आँखों को पढकर
उसके प्यार को समझता
और भी बहुत कुछ होता तो
बहुत कुछ करता
पर अभी जो कुछ हूँ
उससे इतना ही कह सकता हूँ कि
इस वक्त ये मैना
बहुत दुःख में है
और हम हैं कि,
कुछ भी नहीं कर पाते इसके लिए
सिवाय इस कविता को लिखने के
*** 
अरुणाभ सौरभ
जन्म 09
फरबरी 1985 बिहार के सहरसा जिला के चैनपुर
गाँव में। 
प्रारभिक शिक्षा ननिहाल में, फिर भागलपुर और पटना में। बी.ए.आनर्स (हिंदी), एम.ए(हिंदी) – बनारस हिन्दू यूनीवर्सिटी। बी.एड.-जामिया मिल्लिया इस्लामिया,नई दिल्ली। शिक्षा में एम.ए. टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोसिअल साइंस मुंबई से। ‘हिंदी की लम्बी कविताओं का
समाजशास्‍त्रीय अध्ययन’ विषय पर पी. एच डी. उपाधि हेतु शोधरत।
वागर्थवसुधावर्तमान साहित्यसर्वनामबयापक्षधरकल के लिएयुवा संवादसंवदियासमसामयिक
सृजन
जनपथकथोपकथनहिंदुस्तानदैनिक जागरणसेंटिनल
आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित। 
समसामयिक सृजनपाखी, युवा संवादसेंटिनलप्रभात ख़बरपरिंदेसम्प्रति पथ आदि में आलेख एवं समीक्षा प्रकाशित। मातृभाषा मैथिली में भी समान गति से लेखन.असमिया की कुछ  विशिष्‍ट रचनाओं का
मैथिली एवं अंग्रेजी में अनुवाद। 
मैथिली कविता संग्रह ‘एतवे टा नहि’ २०११ मैथिली में बहुचर्चित। हिंदी में ‘कोसी की नई ज़मीं’ पुस्तक के पहले खंड में कविताएं. रंगकर्मसाहित्यिक आयोजनयात्रा और गायन में विशेष सक्रियता 
सम्प्रति अध्यापन एवं स्वतन्त्र लेखन.
पता-द्वारा हिंदी विभाग केंद्रीय
विद्यालय ए.फ.एस बोरझार
, माउंटेन शैडो, अजारा, गुवाहाटी ७८१०१७ (असम)
फ़ोन०९९५७८३३१७१
email arunabhsaurabh@gmail .com  

0 thoughts on “अरुणाभ सौरभ की कविताएं”

  1. आपकी कवितायेँ अनुनाद पर पढ़ी .सब कवितायेँ अच्छी हैं।एक नया रंग लिखती हैं ये कवितायेँ ,एक नयी पीड़ा ,एक नया प्रेम लिखती हैं ये कवितायेँ।लेखन हेतु बधाई और भविष्य की शुभकामनाएं .

  2. "कवि लोग बहुत लम्बी उमर जीते हैं
    मारे जा रहे होतें हैं
    फिर भी जीतें है
    कृतघ्न समयों में भूखों और लम्पटों के साथ
    निभाते दोस्ती
    उनके हाथों में ठूसते अपनी किताब
    कवि लोग बहुत दिनों तक हँसते हैं
    चीखते हैं और चुप रहते हैं
    लकिन मरते नहीं हैं कम्बखत …"

    अरुणाभ आपकी कबिताये पढ़ते हुए ऋतुराज की कविता 'कवी लोग ' की कुछ पंक्तियाँ बरबस याद आ गयी …आप भी लम्बी उम्र जीयें और ऐसे ही लिखते रहें।

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