Sunday, February 3, 2013

मलय की दो कविताएं



रात में   

इस रात में
सितारों जैसे
हज़ार हज़ार लोगों से मिलता हूं
                 हिलता हूं अंदर तक
अपनी ज़मीन से
                 जड़ों में छन जाता हूं

रात में भी
सुबह जैसी यह सुगंध
लोगों के साथ दौड़ती है
बिजली की कौंध ज्‍यों
                         रास्‍ता रचती है
                      हमें हरा करती है
रचती है बड़ा करती है
सुबह होने के क़रीब
                           खड़ा करती है
                            बड़ा करती है
***

मशक्‍़क़   

मिनट मिनट की मशक्‍़क़त से
वेतन का सवेरा पाता हूं
और मंहगाई की रात में
न चाहकर भी
नंगा हो जाता हूं

ज़माना जिन्‍दगी को चीरकर
धज्जियों की सजावट में
मन लगाता है

मशक्‍़क़त की आंखें लाल हैं
रात को सो नहीं पाता
और इस दिन में भी
दिन
हो नहीं पाता
***

मलय
जन्‍म 19 नवम्‍बर 1929.... सहसन गांव, जबलपुर में।

प्रकाशित पुस्‍तकें
कविता संग्रह - हथेलियों का समुद्र, फैलती दरार में, शामिल होता हूं, अंधेरे दिन का सूर्य, निर्मुक्‍त अधूरा आख्‍यान(लम्‍बी कविता), लिखने का नक्षत्र।
कहानी संग्रह - खेत
आलोचना - व्‍यंग्‍य का सौंदर्यशास्‍त्र
परसाई रचनावली के सम्‍पादक मंडल के सदस्‍य।

सम्‍पर्क : टेलीग्राफ गेट नं. 4, कमला नेहरू नगर, जबलपुर(म.प्र.)
***
एम.एफ. हुसैन की पेंटिंग गूगल छवि से साभार

2 comments:

  1. मलय जी को पढना अपने समय को पढना है।

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  2. मलय जी को पढना अपने समय को पढना है।

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