भोपालवासी कवि-कहानीकार और संगीतज्ञ वन्दना शुक्ल की कविताएं समकालीन स्त्री मुहावरे से बाहर निकलने/होने की जिद से भरी नहीं, बल्कि उसके भीतर अलग स्वर में बोलती कविताएं हैं। उनकी चिन्ताओं का दायरा सीमित नहीं है। वे विमर्श के बंधन को तोड़ती हैं। उनकी कविता का ये प्रश्न स्त्री-संसार और उसके गिर्द विमर्श रचने वालों के आगे एक मंद्र-गम्भीर किंतु अनेक हलचलों वाले आलाप की तरह उपस्थित होता है- क्यूँ वैश्विक कलाएं,साहित्य,त्रासदियाँ / घूम फिरकर / टिका लेते हैं सिर औरत के कंधे पर ही ?
अनुनाद पर ये वन्दना शुक्ल की कविताओं की दूसरी प्रस्तुति है। अनुनाद कवि के प्रति आश्वस्त है और शुक्रगुज़ार भी।
***
![]() |
गूगल इमेज से साभार |
औरत और पृथ्वी
पृथ्वी के गोल होने के साक्ष्य
और भी बहुतेरे हैं
जुगराफिया सबूतों के अलावा
बाइबल के सत्य (?)और
गेलीलियो /कोपर्निकस के विवादों
और वैचारिक टकराहटों से परे भी
असत्य सत्य पर शास्वत सत्य के
वुजूद से इतर
अतीत के धुंधले अंधेरों में
कुछ प्रश्न-चिन्ह आज भी खड़े हैं
सलीबों की मानिंद
ठुकी हुई हैं कीलें
हर काल की हथेली पर
अपने तमाम ज्ञानों,
आदर्शों ,और
उपलब्धियों को झोली में भरे
औरत
पृथ्वी के चक्र के साथ
अंततः
उसी बिंदु पर आकर मिलती हैं
दुनिया की सबसे पहली औरत से
शिकायत करती है हर युग की
विकास और आधुनिकता के
हज़ारों दम्भों के बावजूद
जो अंतत छलता रहा है
उसके वुजूद को ही
पूछती हैं वो उससे
फिर
क्यूँ दुनिया के नक़्शे में
छाई हुई है औरत ही
और
क्यूँ वैश्विक कलाएं ,साहित्य ,त्रासदियाँ
घूम फिरकर
टिका लेते हैं सिर औरत के कंधे पर ही ?
***
चक्र
चाहने और होने
मृगतृष्णा और सच्चाई
ज़िंदगी और मौत के बीच
ना जाने कितने विवशताओं लंबी
सड़क होती है जिसके
एक ओर तमाम सपनों को गठरी लिए
खड़े रहते हैं हम किसी
उम्मीद के
कच्चे रास्ते पर
पार जाने का एक
सतत इंतज़ार आँखों में भरे
और पाते हैं कि अनियंत्रित ट्रेफिक
में
ले उड़ा है कोई हमारी
गठरी ना जाने कब
शायद नियति ...?
***
अदृश्य
प्रेम को नहीं चाहिए
अपने होने के बीच
कोई कविता ,शब्द
रंग , गीत या
दृश्य
मौन प्रतीक्षा की
प्रेम एक अदृश्य ज़रूरत है
एक नीली पारदर्शी नदी
बहती रहती है जो चुपचाप
कोमल विरलता में
आत्मा से आत्मा तक
***
अफ़सोस
पिता रिटायरमेंट के बाद का
ख़ालीपन भरते अख़बार से पर
माँ को राजनीति में गहरी रुचि थी |
पिता पढ़ते जनसंघ की
रणनीतियाँ ,योजनाएं ,घोषणाएं
अख़बार में और माँ
ख़बरों में टटोलतीं कांग्रेस की
उपलब्धियां,
समृद्ध इतिहास और देश का विकास
जनसंघ की ख़बरों के ऊपर अक्सर वो
काटतीं पालक मेथी सरसों की भाजी
पिता का बेहद ख़याल रखने वाली
सभ्य सुसंकृत माँ और सीधे सादे
पिता के बीच
अपनी अपनी पार्टियों को लेकर छिड़
जाती
गर्मागर्म और गंभीर बहसें अक्सर
विरोधी पार्टियों पर
महंगाई,भ्रष्टाचार,अपराध आतंक के
आरोप-प्रत्यारोप
कभी-कभी
दो-तीन दिन तक अबोला हो जाता उनमें
एक दिन ना रहे पिता, ना रहीं माँ
आज भी होता है कभी-कभी अफ़सोस
क्यूँ गंवाए उन्होंने
अबोले में वो दिन
अपनी सीमित और अमोल ज़िंदगी के
बेज़ा ,निरर्थक अंतहीन बहसों में
***
रास्ते और इंतज़ार
हर वक़्त को दरकार होती है
किसी प्यास के पकने की
अधपकी प्यास अधूरे सपने का
कच्चापन है
उतनी ही लापरवाह जैसे
पैदा होकर भूल जाना अपने होने को
और रस्ता देखना उस सड़क का
जो हमारी खिड़की के नीचे से होकर
कभी नहीं गुज़रेगी
***
धोबी घाट
पिछवाड़े एक नदी है छोटी,उथली सी
जिसके पाट पर बिछी हैं तमाम पटिया
रोज तड़के आतीं हैं आवाज़ें वहाँ से
कुछ सपनों के पछीटे जाने की
और कुछ गैर सपने
जो बंधे रखे होते हैं गठरियों में
अभी
रंग बिरंगे गुमड़े हुए ,
किन्ही में महक बसी कुछ कमसिन
जिस्मों की
और कुछ गाढ़े पसीने से लिथड़े हुए
कुछ पर सिलवटें हैं प्यार की
अब तक
सबको डुबो दिया है उसने बेदर्दी
से
नदी की धारा में
और निचोड़ दिया है उन्हें
उन जंगली घांसों के चेहरे पर
बेवजह बेज़रूरत उग आई हैं जो
पटियों के बीच उनके इर्द गिर्द
ज़रूरी था ये दुनिया में
कुछ ताज़ी उम्मीदें बची रहने लिए
और उन घासों के लिए भी |
पसीनों से लथपथ अपनी देह और
गंधाते कपड़ों में उन्हें अक्सर
आने लगती हैं सहसा गठरियों की गंध
वो और ज़ोर से पछीटने लगते हैं
अपनी साँसें ,
जैसे बहा देंगे आज ही वो अपने
सपनों की पूरी नदी
और अपनी इच्छाओं को निचोड़ डाल
देंगे सूखने किसी
उम्मीद की डोरी पर फिर से
***
संशय
तमाम कारण हैं अकारण होने के
जैसे सुखी ,दुखी ,जैसे प्यार में होना
जैसे ख्व्वाब में जीना सौ बरस
रात भर और
और मर जाना सुबह ....अकारण
कारण ढूंढते हुए
***
परिधि
ध्वनि व प्रकाश को स्पर्श करने की
जिद्द ने
बहुत तेज रफ़्तार कर दी है जीवन की
इतनी कि सांस से सांस की दूरी
अपनी सूक्ष्मता को भांप नहीं पाती
ना ही माप पाती अपनी गर्माहट
बाज़ार ने घेर लिया है मस्तिष्क की
मासूमियत
का जो बड़ा हिस्सा
ये कबीर की उलटवासियों सा
खुदा है पीठ पर
मानव जाति के भविष्य की
बहुत भर गया है हर ख़ालीपन
दिलों का
जैसे भर जाती है कोई रात
झक्क सफ़ेद अंधेरों से
फिर भी कुछ तो है
जिससे हार जाते हैं हम
मंजिल के बहुत करीब आ आकर
दिल और दिमाग का गठबंधन हुआ है
जबसे
ज़रूरत से ज्यादा चौकन्ने हो गए
हैं विचार
दुनिया के किस कोने में घुसपैठ कर रही हैं
हिंसा
अपनी सम्पूर्ण अराजकता के साथ !
किस देश का राष्ट्रपति
कितना अहमक और स्वार्थी है ,
(हमारे लिए )...!
कौन भूल चुके हैं अपने पूर्ववर्ती
इतिहास को
किस देश की संस्कृतियों से वहां
के
लोगों को लगाव नहीं रहा
कहाँ का इतिहास वहां की इतिहास की
पुस्तकों में
जा बैठा है लोगों के दिल से
खंगालते हैं धरती के आदि का लेखाजोखा
उसके अंत की मय तारीखों की
घोषणाओं तक
बस हम नहीं जानते खुद को उससे
ज्यादा
कोई जलती हुई मोमबत्ती घेरती हैं
जितना अन्धेरा
हम सिर्फ दौड़ते हैं उतना
नहीं रोकते जहाँ तक ज़ख्म के सपने
हमें
हम सिर्फ हँसते हैं उतनी दूरी तक
नहीं मिल जाता जहाँ तक कोई सच
टहलता हुआ
***
वंदना शुक्ल
भोपाल
प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में
सामयिक लेख एवं कहानियां प्रकाशित |कादम्बिनी
लेखन प्रतियोगिता से पुरस्कृत,रंगकर्मी,एवं आकाशवाणी की चयनित सुगम संगीत कलाकार |प्रेमचंद
की कुछ कहानियों का नाट्य रूपांतरण।
सम्प्रति -शिक्षिका
कवि से इस ई पते पर सम्पर्क किया जा सकता है - shuklavandana46@gmail.com
"औरत और पृथ्वी " तथा "धोबी घाट" कविताएं मेरे मन की हैं. ज़िन्दा कविताएं , जी हुई कविताएं . मज़ा आया !
ReplyDelete'Afsos'padkar achchaa lagaa..
ReplyDelete