Tuesday, November 20, 2012

कविता जो साथ रहती है / 3 - देवीप्रसाद मिश्र की कविता : गिरिराज किराड़ू


अस्वीकार की अनन्य

-गिरिराज किराडू


देवी प्रसाद मिश्र
इंद्र, आप यहाँ से जाएँ
तो पानी बरसे

मारूत, आप यहाँ से कूच करें
तो हवा चले

बृहस्पति, आप यहाँ से हटें
तो बुद्धि कुछ काम करना शुरू करे

अदिति, आप यहाँ से चलें
तो कुछ ढंग की संततियां जन्म लें

रूद्र आप यहाँ से दफा हों
तो कुछ क्रोध आना शुरू हो

देवियो-देवताओ, हम आपसे
जो कुछ कह रहे हैं
प्रार्थना के शिल्प में नहीं

(प्रार्थना के शिल्प में नहीं, देवी प्रसाद मिश्र)


नार्कीसस का कायान्‍तरण:सल्‍वाडोर डाली

1

मन में 'प्रार्थना' के कई संस्मरण हैं.

और अधिकांश स्त्रियों के हैं या बचपन के.

मैंने किसी पुरुष को कोई अविस्मरणीय प्रार्थना करते नहीं देखा, अब तक तो नहीं.

मेरी नानी ने ऐसा जीवन जिया जिसमें वह  जितना संवाद हम सब से करती थी उससे अधिक पितरों और मृतकों से - अब जबकि वह खुद दिवंगत है मुझे उससे बात करने का कोई तरीका मालूम नहीं. जब उसके हिसाब से कुछ भी कुछ गलत हो जाता वह तुरंत, मंच पर स्वगत की तरह, किसी से बात करने लगती और उस वक्त उसके चेहरे पर जो भाव होता वह बाद में मुझे एक पराये मन्दिर में एक लड़की के चेहरे पर भी देखना था. माँ निश्शब्द प्रार्थना करती है और अक्सर उसे सुसमाचार या उसके संकेत सपने में दिखते हैं. नानी और माँ को मैं फ्रायडियन श्रेणियों में समझने की कोशिश भी करता रहा हूँ और उत्तर भारतीय परिवारों की अर्थ/कामना-दमन प्रणालियों के सन्दर्भ से भी लेकिन ठीक प्रार्थना के क्षण उनके चेहरे पर देखा हुआ जीवंत तादात्मय ("रामकृष्ण परमहंस क्षण" ?) मेरे लिए रश्क का बायस रहा है. जब बचपन में यह सब देखा था तो एक तरह से मन पर छप जाने वाले दृश्य थे - पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले लेने वाले. बाद के बरसों में उनके तार्किकीकरण की कोशिशें उन चेहरों पर पढ़ी इबारत से टकराती रहीं.

लेकिन प्रार्थना के संकेतक केवल मिस्टिक ही नहीं थे, 'कॉमिक' भी थे. घर के ७ लड़कों में से दो बचपन में 'पौटी' ठीक से आ जाये इसके लिए भी बाबा रामदेव का जाप करते थे. क्यूंकि दोनों की माताएं 'नीले घोड़े के असवार, रानी नैतल के भरतार' राम-सा-पीर की ज़बरदस्त भक्त थीं.

लेकिन पौटी के लिए प्रार्थना करते उन बालकों के चेहरे पर जो सिंसियरिटी और तादात्मय होता था वह उस कॉमिक इफेक्ट को कम-से-कम तब हमारे लिए मिस्टिक जैसा ही बना देता था.

'प्रार्थना' के इन गंभीर, 'पवित्र', मिस्टिक-कॉमिक संकेतों की छाया में खुद भी कई बार प्रार्थना की थी -- अँधेरी गलियों से गुजरते हुए ख़ासकर लेकिन अपना प्रार्थना करना कभी प्रार्थना करने की तरह अंकित नहीं हुआ. वह 'आपदा प्रबंधन' जैसा कुछ रहा मन में. अपने को कुछ करते हुए कैसे देखा जाता है, अपने से थोड़ा दूर जाकर, यह काम अब तक तमीज़ से आया नहीं है - कविता लिखने की लगातार कोशिशों के बावजूद;  उन दिनों तो कैसे हो पाता.

प्रार्थना करना भी गलत हो सकता है भला?

2

देवी प्रसाद मिश्र की काव्योक्ति  'प्रार्थना के शिल्प में नहीं' जिस कविता का शीर्षक है, उसे हिंदी कविता की मुख्यधारा द्वारा मिथक/पुराण के आख्यान के (जो प्रभावी रूप से 'इतिहास' भी रहा है इस गल्पप्रेमी समाज में), 'परंपरा' के दृढ अस्वीकार और अवज्ञा की प्रभावी कविता की तरह पढ़ा गया है. और कहीं न कहीं हिंदी साहित्य के 'देवताओं' और उनकी सत्ता के अस्वीकार और अवज्ञा की तरह भी हिंदी के 'इनसाइडर्स' के मानस में रही है यह कविता (हालाँकि यह अहसास गहराता जा रहा है कि कम-से-कम हिंदी कविता के संसार में केवल 'इनसाइडर्स' ही तो नहीं रह गये हैं?). मानो यह कविता हिंदी साहित्य के 'इन्द्रों', 'मरुतों' आदि से भी कहती है कि 'आप यहाँ से दफा हों तो कुछ ढंग की कविता जन्म ले'. यह दिलचस्प है कि इस कविता को, कम-से-कम मेरी जानकारी में, हिंदी दलित साहित्य द्वारा कभी अपने हक में नहीं पढ़ा गया.

लेकिन यह इस कविता का ज्ञात इतिहास है; इसके समान्तर वह प्राइवेट पृष्ठभूमि है बचपन की  जिसके सम्मुख एक संकट की तरह आन खड़ी हुई थी यह कविता.

3

प्रार्थना करने, करने के अंदाज़ में कुछ कहने में क्या गलत हो सकता है? यह 'स्मृतियों' से मिली उलझन थी जो सहसा मेरे नास्तिक हो जाने, वी.पी.सिंह का अनुयायी हो जाने, सी.पी.एम. के लोकसभा उम्मीदवार कामरेड श्योपत का 'माइनर' कार्यकर्ता हो जाने और चौदह बरस का हो जाने की प्रक्रियाओं में एकदम हिंसक, हार्मोनल तरीके से छिन्न भिन्न कर दी गयी. प्रार्थना करने वाले दकियानूस हो गये ('बुर्जुआ' नहीं, बीकानेर के परकोटे के भीतर के चुनावी लाल मुहावरे में इस पदावली की कोई ज़रूरत नहीं थी) और शौचालय में बैठकर रोटी का कौर तोड़ने से अपने 'स्वतन्त्र' आत्म का अहसास होने लगा - इससे बिल्कुल अनजान कि उसी समय देवी प्रसाद मिश्र की यह कविता लिखी जा रही थी, पुरस्कृत हो रही थी, हलचलें पैदा कर रही थी.

शायद १९९३ में मैंने इसे पहली बार पढ़ा होगा, छपने के चारेक साल बाद. तब तक कामरेड श्योपत कामरेड कहने भर के थे यह ज़ाहिर हो चुका था, वी.पी.सिंह को लेकर अपना लगाव आसपास के सख्त ब्राह्मण माहौल में ज़ाहिर करना खतरे से खाली नहीं रह गया था, और मैं 'माइनर' से 'वोटर' हो गया था. इन चार बरसों में एकाध गुप्त प्रार्थनाएं, अपने से छुपाकर, एक लड़की के लिए, वी.पी. के लिए और अपने को अनिष्ट से बचाने के लिए किसी अनाम के नाम की गयीं.

इस कविता ने प्रार्थना के अर्थों को बदल दिया. 'दकियानूसी' के  साथ-साथ प्रार्थना 'शक्ति' द्वारा चिन्हित एक क्रिया है, 'वर्चस्व' द्वारा चिन्हित एक सम्बन्ध है और यह 'कर्ता' से अधिक कर्म के लक्ष्य द्वारा परिभाषित एक कर्म है यह जितना साफ़ साफ़ इस कविता से पता चला था उतना 'क्रांतिकारी' होने की किशोर कोशिशों से ना कभी पता चलना था ना चला.  

4

क्या यह कविता सचमुच 'परंपरा' से कोई वास्तविक प्रस्थान करती है? यह सवाल बाद के सालों में मन में आया. 'परंपरा' जो अब बहुत समस्यामूलक चीज़ वैसे भी लगती है, उससे एकदम रेडिकल प्रस्थान कैसे होता है? क्या उसके 'पुनराविष्कार' से? यह 'पुनराविष्कार' वाला तरीका परंपरा के वर्चस्व को प्रछन्न ढंग से कायम रखने की कवायद तो नहीं होता? क्या बिना अधिक मूल्यनिष्ठ कोई विकल्प प्रस्तावित किये 'परंपरा' की तोड़फोड़ या उसके सम्पूर्ण अस्वीकार से भी कुछ हो पता है? बहुत सारा 'अवां गार्द' क्या इसी संकट का सामना करने से बचता नहीं रहा है? या ऐसा हो सकता है कि यह प्रक्रिया किसी रिले रेस की तरह हो कुछ प्रयत्न तोड़फोड़ के हों और आगे बैटन विकल्प बनाने वालों के पास चला जाए?

देवी प्रसाद मिश्र की यह कविता जिस 'हिन्दू' 'परंपरा' के बरक्स अपने को लोकेट करती है, खुद उस 'परंपरा' के भीतर/बाहर अस्वीकार के स्वर पहले भी थे, लेकिन हिंदी कविता में उस ख़ास मरहले पर ऐसी तीक्ष्णता से नहीं. देवी प्रसाद की यह कविता १९८९ में प्रकाशित हुई थी और ठीक उस समय और उसके बाद के 'हिन्दू समाज' में इस कविता को कैसे पढ़ा गया होता?  'परंपरा' की जो सोशल इंजीनियरिंग उस समय (१९८४-१९९२) हुई उसमें यह कविता कुफ्र मान ली गयी होती  लेकिन क्या कवि  उस सोशल इंजीनियरिंग को भांप पा रहा था? कविता देवताओं को रफा दफा कर रही थी और समाज एक अपूर्व धार्मिक उन्माद की गिरफ्त में आ रहा था. और कई चीज़ों की तरह प्रार्थना के शिल्प  को भी 'हिन्दू दब्बूपन' मानने वाला यह उन्माद ललकार पर टिका था. प्रार्थना के शिल्प को अस्वीकार करने वाले दो एकदम विपरीत मुहावरों की यह ऐतिहासिक सम-क्षणिकता भी इस कविता को और यादगार बनाती गयी है मेरे लिए.

5

अशोक वाजपेयी की अनथक कोशिशों के बावजूद हिंदी कविता में प्रार्थना का, प्रार्थना के ईश्वर-निरपेक्ष, सेक्यूलर, कन्फेशनल संस्करण का भी पुनर्वास नहीं हो पाया है - उनकी मौजूदगी हिंदी में इतनी जटिल है कि उनके कई कामों के बारे में बाद में ही कभी बात हो पायेगी.

6

प्रार्थना, कवियों के हाथ में, अस्वीकार की अनन्य है - उसके शिल्प में भी दृढ अस्वीकार संभव है.  
*** 

Sunday, November 18, 2012

वन्‍दना शुक्‍ल की कविताएं



भोपालवासी कवि-कहानीकार और संगीतज्ञ वन्‍दना शुक्‍ल की कविताएं समकालीन स्‍त्री मुहावरे से बाहर निकलने/होने की जिद से भरी नहीं, बल्कि उसके भीतर अलग स्‍वर में बोलती कविताएं हैं। उनकी चिन्‍ताओं का दायरा सीमित नहीं है। वे विमर्श के बंधन को तोड़ती हैं। उनकी कविता का ये प्रश्‍न स्‍त्री-संसार और उसके गिर्द विमर्श रचने वालों के आगे एक मंद्र-गम्‍भीर किंतु अनेक हलचलों वाले आलाप की तरह उपस्थित होता है- क्यूँ वैश्विक कलाएं,साहित्य,त्रासदियाँ / घूम फिरकर / टिका लेते हैं सिर औरत के कंधे पर ही ? 

अनुनाद पर ये वन्‍दना शुक्‍ल की कविताओं की दूसरी प्रस्‍तुति है। अनुनाद कवि के प्रति आश्‍वस्‍त है और शुक्रगुज़ार भी।
***
गूगल इमेज से साभार


औरत और पृथ्वी 

पृथ्वी के गोल होने के साक्ष्य  
और भी बहुतेरे  हैं
जुगराफिया सबूतों के अलावा  
बाइबल के सत्य (?)और
गेलीलियो /कोपर्निकस के विवादों  
और वैचारिक टकराहटों से परे भी 
असत्य सत्य पर शास्वत सत्य के वुजूद से इतर
अतीत के धुंधले अंधेरों में
कुछ प्रश्न-चिन्ह आज भी खड़े हैं  
सलीबों की मानिंद 
ठुकी हुई हैं कीलें  
हर काल की हथेली पर
अपने तमाम ज्ञानों, आदर्शों ,और
उपलब्धियों को झोली में भरे
औरत
पृथ्वी के चक्र के साथ  
अंततः  
उसी बिंदु पर आकर मिलती हैं
दुनिया की सबसे पहली औरत से
शिकायत करती है हर युग की  
विकास और आधुनिकता के
हज़ारों दम्भों के बावजूद  
जो अंतत छलता रहा है
उसके वुजूद को  ही
पूछती हैं वो उससे
फिर 
क्यूँ दुनिया के नक़्शे में
छाई हुई है औरत ही
और 
क्यूँ वैश्विक कलाएं ,साहित्य ,त्रासदियाँ
घूम फिरकर
टिका लेते हैं सिर औरत के कंधे पर ही  ?
***

चक्र

चाहने और होने  
मृगतृष्‍णा और सच्चाई
ज़िंदगी और मौत के बीच  
ना जाने कितने विवशताओं लंबी
सड़क होती है जिसके
एक ओर तमाम सपनों को गठरी लिए   
खड़े रहते हैं हम किसी 
उम्मीद के  
कच्चे रास्ते पर
पार जाने का एक
सतत इंतज़ार आँखों में भरे
और पाते हैं कि अनियंत्रित ट्रेफिक में
ले उड़ा है कोई हमारी
गठरी ना जाने कब
शायद नियति ...?
***

अदृश्य

प्रेम को नहीं चाहिए 
अपने होने के बीच 
कोई कविता ,शब्द 
रंग , गीत या दृश्य
मौन प्रतीक्षा की
प्रेम एक अदृश्य ज़रूरत है
एक नीली पारदर्शी नदी 
बहती रहती है जो चुपचाप 
कोमल विरलता में
आत्मा से आत्मा तक
***

अफ़सोस

पिता रिटायरमेंट के बाद का
ख़ालीपन भरते अख़बार से पर  
माँ को राजनीति में गहरी रुचि थी |
पिता पढ़ते जनसंघ की
रणनीतियाँ ,योजनाएं ,घोषणाएं
अख़बार में और माँ 
ख़बरों में टटोलतीं कांग्रेस की उपलब्धियां,
समृद्ध इतिहास और देश का विकास
जनसंघ की ख़बरों के ऊपर अक्सर वो
काटतीं पालक मेथी सरसों की भाजी
पिता का बेहद ख़याल रखने वाली
सभ्य सुसंकृत माँ और सीधे सादे पिता के बीच 
अपनी अपनी पार्टियों को लेकर छिड़ जाती
गर्मागर्म और गंभीर बहसें अक्सर
विरोधी पार्टियों पर
महंगाई,भ्रष्टाचार,अपराध आतंक के
आरोप-प्रत्यारोप
कभी-कभी
दो-तीन दिन तक अबोला हो जाता उनमें  
एक दिन ना रहे पिता, ना रहीं माँ
आज भी होता है कभी-कभी अफ़सोस
क्यूँ गंवाए उन्होंने
अबोले में वो दिन
अपनी सीमित और अमोल ज़िंदगी के 
बेज़ा ,निरर्थक  अंतहीन बहसों में  
*** 

रास्ते और इंतज़ार

हर वक़्त को दरकार होती है
किसी प्यास के पकने की
अधपकी प्यास अधूरे सपने का
कच्चापन है
उतनी ही लापरवाह जैसे
पैदा होकर भूल जाना अपने होने को
और रस्ता देखना उस सड़क का
जो हमारी खिड़की के नीचे से होकर
कभी नहीं गुज़रेगी
***

धोबी घाट

पिछवाड़े एक नदी है छोटी,उथली सी  
जिसके पाट पर बिछी हैं तमाम पटिया
रोज तड़के आतीं हैं आवाज़ें वहाँ से
कुछ सपनों के पछीटे जाने की
और कुछ गैर सपने
जो बंधे रखे होते हैं गठरियों में अभी
रंग बिरंगे गुमड़े हुए ,
किन्ही में महक बसी कुछ कमसिन जिस्मों की
और कुछ गाढ़े पसीने से लिथड़े हुए
कुछ पर सिलवटें हैं प्यार की  
अब तक
सबको डुबो दिया है उसने बेदर्दी से
नदी की धारा में
और निचोड़ दिया है उन्हें  
उन जंगली घांसों के चेहरे पर  
बेवजह बेज़रूरत उग आई हैं जो
पटियों के बीच उनके इर्द गिर्द
ज़रूरी था ये दुनिया में
कुछ ताज़ी उम्मीदें बची रहने लिए  
और उन घासों के लिए भी |
पसीनों से लथपथ अपनी देह और
गंधाते कपड़ों में उन्हें अक्सर
आने लगती हैं सहसा गठरियों की गंध
वो और ज़ोर से पछीटने लगते हैं
अपनी साँसें ,
जैसे बहा देंगे आज ही वो अपने सपनों की पूरी नदी    
और अपनी इच्छाओं को निचोड़ डाल देंगे सूखने किसी
उम्मीद की डोरी पर फिर से
***

संशय

तमाम कारण हैं अकारण होने के
जैसे सुखी ,दुखी ,जैसे प्यार में होना
जैसे ख्व्वाब में जीना सौ बरस
रात भर और  
और मर जाना सुबह ....अकारण
कारण ढूंढते हुए
***

परिधि  

ध्वनि व प्रकाश को स्पर्श करने की जिद्द ने 
बहुत तेज रफ़्तार कर दी है जीवन की
इतनी कि सांस से सांस की दूरी
अपनी सूक्ष्मता को भांप नहीं पाती
ना ही माप पाती अपनी गर्माहट
बाज़ार ने घेर लिया है मस्तिष्क की मासूमियत 
का जो बड़ा हिस्सा
ये कबीर की उलटवासियों सा
खुदा है पीठ पर
मानव जाति के भविष्य की 
बहुत भर गया है हर ख़ालीपन
दिलों का 
जैसे भर जाती है कोई रात
झक्क सफ़ेद अंधेरों से
फिर भी कुछ तो है
जिससे हार जाते हैं हम
मंजिल के बहुत करीब आ आकर
दिल और दिमाग का गठबंधन हुआ है जबसे
ज़रूरत से ज्यादा चौकन्ने हो गए हैं विचार 
दुनिया के किस कोने में घुसपैठ कर रही हैं हिंसा
अपनी सम्पूर्ण अराजकता के साथ !
किस देश का राष्ट्रपति
कितना अहमक और स्वार्थी है ,
(हमारे लिए )...!
कौन भूल चुके हैं अपने पूर्ववर्ती इतिहास को
किस देश की संस्कृतियों से वहां के
लोगों को लगाव नहीं रहा
कहाँ का इतिहास वहां की इतिहास की पुस्तकों में
जा बैठा है लोगों के दिल से 
खंगालते हैं धरती के आदि का लेखाजोखा
उसके अंत की मय तारीखों की घोषणाओं तक
बस हम नहीं जानते खुद को उससे ज्यादा
कोई जलती हुई मोमबत्ती घेरती हैं जितना अन्धेरा
हम सिर्फ दौड़ते हैं उतना
नहीं रोकते जहाँ तक ज़ख्म के सपने हमें
हम सिर्फ हँसते हैं उतनी दूरी तक 
नहीं मिल जाता जहाँ तक कोई सच टहलता हुआ
***

वंदना शुक्ल 
भोपाल 
प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में सामयिक लेख एवं कहानियां प्रकाशित |कादम्बिनी लेखन प्रतियोगिता से पुरस्कृत,रंगकर्मी,एवं आकाशवाणी की चयनित सुगम संगीत कलाकार |प्रेमचंद की कुछ कहानियों का नाट्य रूपांतरण। 
सम्प्रति -शिक्षिका 
कवि से इस ई पते पर सम्‍पर्क किया जा सकता हैshuklavandana46@gmail.com 


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