हिंदी कविता की परम्परा में बहुत समर्थ और विचार के लिए अत्यन्त स्वप्नशील कवियों ने भी जीवन में कभी न कभी हताशा, बेबसी, उदासी और हार जाने के अहसास का सामना किया है। कविता में द्वन्द्व के सम्भव होने के लिए ये कुछ अनिवार्य अहसास हैं। ऐसी टूटी बिखरी हुई कविताओं में उम्मीदों, स्वप्नों और जीत की घोषणाओं की बजाए इन सभी के लिए लड़ने-जूझने वाली बहस का जन्म होता है। ये हारते हुए लिखीं जाती लगती हैं पर होती नहीं हैं। इनमें प्रतिवाद और प्रतिरोध बहुत मुखर और कहीं अधिक गहरे होते हैं। सत्ताएं जो साहित्य में भी कभी न कभी बन ही जाती हैं, उनसे बहस करना जनता और मनुष्यता के पक्ष में साहित्य को समृद्ध करना है। ये बहसें बहुत स्पष्ट रूप में या तो आलोचनात्मक निबन्धों में हो सकती हैं या फिर कविता के शिल्प में.... हमारे पास इन बहसों का इन दोनों ही आकारों में अब एक इतिहास है। अशोक की यहां दी जा रही नई कविता भी ऐसी ही बहस का एक ज़रूरी प्रयास और स्वप्न है। इसमें अशोक ने उस प्रिय भाषा का सहारा लिया है, जो उत्तर भारत के दोआबे की बहुत आत्मीय विरासत है। अनुनाद के पाठक ख़ुद देख पाएंगे कि मेरी कही गई इन थोड़ी-सी बातों के कितने सिरे अशोक की इस कविता में जुड़ते और खुलते हैं.....आगे कुछ कहने की जगह सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे पाठकों की है।
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अनाम चित्रकार की पेंटिंग : प्लेनली स्केटर्रड- गूगल से साभार |
सपने में होना भी होना है होने
जैसा
एक मुसलसल यात्रा के बीच मिली
बापरवाह नींद में भी सपने आते हैं
सारी वजूहात हैं अवसाद में डूब
जाने की
सारी वजूहात है तुम्हें आखिरी
सलाम कर चुपचाप कोई तीसरी कसम खा लेने की
सारी वजूहात हैं मौत से पहले एक
लम्बी नींद में डूब जाने की
ऐसे हालात में तुम याद दिलाते हो वह अभिशप्त शब्द – मुखालिफत
वैसे इन दिनों एक यह भी तरीका है
कि इसकी जगह लिखा जाय खिलाफ़त और चुपचाप किसी खलीफा के दरबार में कब्ज़ा कर ली जाए
कोई जगह.
उनका किस्सा और है जिनकी /हारना किस्मत है/ मुखालिफत फितरत
उनका किस्सा और है जिनकी /हारना किस्मत है/ मुखालिफत फितरत
बेतार के तारों में उलझी कितनी ही
आवाजें गूंजती हैं
कितने शब्द तैरते हैं सिलिकान
शिराओं में दिन-रात
रोज कितने ही सवाल
कितने ही जवाब
कैसी आपाधापी
कैसी चुप
सच
झूठ
मीठे
कडवे
आज मैं किसी ऐसे दोस्त के फोन के इंतज़ार में हूँ जिसे अपनी उस
पुरानी प्रेमिका की याद आ रही हो अचानक जिसे मैं जानता था. आज मैं एक शराबी शायर
का पाजामा पहनकर ऊंची आवाज़ में गाते हुए गुज़रना चाहता हूँ तुम्हारी गली से और
किसी दोस्त की छत पर देखना चाहता हूँ अपने मष्तिष्क की नसों को बिखरते हुए
रेशा-रेशा.
मैं किसी गलत ट्रेन में चढ़ गया हूँ शायद. या फिर जिस सीट पर बैठा
हूँ वह नहीं है मेरी. जिन कपड़ों में है इन दिनों मेरी देह वह किसी लाश की देह से
उतारे हुए हैं शायद और उनकी गंध ने हर ली है मेरी देहगंध. मैं जिस घर में हूँ
उसमें कोई कमरा मेरा नहीं. जो कुछ सबका था वह सब अब हुआ समाप्त. ले दे के सड़क ही
बची है अंतिम शरणगाह, जहाँ
बहुत भीड़ है और एक भयावह खालीपन.
आज इस शब हो जाए वह सब जो होना है /शब-ए-क़यामत है कमबख्त किसे सोना
है
मैं नींद
में नहीं हूँ स्वप्न में हो सकता हूँ. वह दीवार जमींदोज हो चुकी है जिसके उस पार स्वप्न थे और इस पार सच.
मैं उस दीवार के मलबे में धंसा पाँव निकालने की कोशिश में लगी चोटों के दर्द के
सहारे फर्क करता हूँ ख़्वाब और हकीक़त में और दोनों बहते से लगते हैं खून की ताज़ा
धार में.
होना इन दिनों दर्द की भाषा का एक विस्थापित शब्द है
मैं नीमबेहोशी में उठता हूँ और चलता हूँ तुम्हारी ओर
तुम इंकार कर दो मुझे पहचानने से
मैं खुद के होने से इंकार करने आया हूँ तुम्हारे पास
यह वस्ल की शब है इसे अलग होना है शब-ए-हिज्राँ से
***
यह अनुनाद की 581 वीं पोस्ट है
अवसाद का होना बुरा नहीं है ,बुरा है उसका जम जाना ! यह अच्छी बात है कि अशोक अपने भीतर कुछ भी ज़मने नहीं देते... पकते ही परोस देते हैं और हाँडी फिर खाली ...फिर से चूल्हे पर चढने के लिए तैयार, कोई नई चीज पकाने के लिए !
ReplyDeleteकविता तो है ही गज़ब की !
हमारी अंतिम शरणगाह हमारे अभिशप्त शब्द ही है. इस कविता के साथ जैसे सपने में होना भी है होने जैसा. या होना इन दिनों दर्द की भाषा का विस्थापित शब्द है. अवसाद और विरक्ति के बीच कवि का संघर्ष सघन तरीके से पैबस्त होता है.
ReplyDeleteकुछ नयेपन की आकांक्षा, आग्रह और व्यग्रता यहॉं समवेत है।
ReplyDeleteबधाई।
Ashok kumar pandey ki kavitaon me shilp, bhashaa aur tevar teeno hain..., ve hindi aur urdu ke beech jis tarah aate- jaate hain vah, achchha lagta hai..,
ReplyDeleteइधर की कविताओं में अशोक कुमार पाण्डेय ने जो प्रयोग किये हैं वे एक कवि के रूप में उनके वैविध्य और क्षमताओं को बताते हैं. एक कवि जो प्रोपेगेंडा की कवितायें भी उतनी ही सहजता से लिख सकता है जिस सहजता से कश्मीर के आख्यान और इस कविता जैसे अवसाद और आशा के बीच आवाजाही करते जटिल वितान बुन सकता है. ऐसी विविधता मुझे किसी और युवा कवि में नहीं दिखती.
ReplyDeleteआलोक सिंह, लखनऊ
अशोक भाई की कविता हमेशा ही गज़ब की होती है एक नया प्रयोग देखने को मिला है इस कविता में और रही बात नैराश्य की तो ये शख्सियत नैराश्य नहीं जानती हर कदम बढ़ना ही आता है इन्हें, बहुत सारे नए लोगों को अपनी कविता से और जीवन से प्रेरित करने वाला व्यक्तित्व है इनका |
ReplyDeleteसुंदर कविता के अनुनाद को साधुवाद !
तुषारधवल की कविता के बाद एक और बेचैन कर देने वाली कविता। मैं सोचती हूं कभी पी.एच-डी. करूंगी तो कुछ ऐसा विषय चुनूं जिसमें सिर्फ उन कविताओं को लूं जो ब्लाग्स में छपी हैं। यह कविता अपनी भाषा से भी बांधती है और कंटेट से भी। अशोक जी दूसरी कविताएं अब खोज कर पढूंगी। इधर एक गैप के बाद लौटी हूं तो बहुत कुछ नया मिल रहा है।
ReplyDeleteashok ke paas aisi kaav-bhasha hai jo hmare same ki bechainio ko byaan kar paati hai, varna ti kavita bejaan si kagz par gir padti hai...real poetry of our times
ReplyDeleteaap kavi aur alochak achchhe ho.... yah kai bar siddh kar chuke ho.... yah bhi ek achchhi kavita hai..par par lagata hai ek aanch kee kasar rah gayi.. thode dair ki zarurt thi pyare...par badhai..bharosa hai ek bar dhairy se khud bhi padhoge....
ReplyDeleteशुक्रिया भाई...पर इशारे की जगह थोड़ा विस्तार में बताते तो मेरी बड़ी मदद होती
Deleteख़्वाब पिन्हाँ हैं इस कदर मेरी नफ़स में कि/ अपने साए के कफस से निकल आया हूँ..
ReplyDeleteक्या कहने क्या कहने....भाई ये अंदाज़े बयां ...सर चढ़के बोलने वाला है !
जिन्दा आदमी हमेशा अपने आप से बातचीत करता रहता है ..यह जरूरी संवाद बंद नहीं होता ...तो क्या हुआ कि सच और सपने के बीच की दीवार ढह गयी लेकिन मलबे में दब तो नहीं गए
ReplyDeleteतो क्या हुआ कि तमाम वजहें हैं अवसाद की , जुबान जो तीसरी कसम खाना चाहती है क्यों चुप लगा जाती है .....जो फितरतन मुखालिफ होते हैं वो तीसरी कसम नहीं खाते , सिर्फ एक बार सोने जाते हैं गहरी नींद वो जो एक कसम कभी खाई थी उसकी याद कभी माशूक के बहाने पुराने दिनों में पहुंचा ही देती है देह भी थकती है कभी जिंदगी थकाती है पर ये जो छोटा दिमाग है ये सोने नहीं देता रोने नहीं देता .........जिंदगी में इतने स्टेशन आते है कि कई बार आदमी गलत ट्रेन पकड लेता है लेकिन सजग मुसाफिर पहले स्टेशन पर ही उतर जाता है वापसी के ट्रेन का नम्बर पूछते ..........
साया न हो तो मुक़ाबिल हो कैसे / हम अपने फराईज़ से गाफिल हों तो हो कैसे ..........
आखिर की पाँच लाइनें मुझे बहुत अच्छी लगीं, पूरी कविता को एक अलग रूप देती हुयी.
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteअशोक भाइ आपने अच्छा लिखा लिखा है उर्दु के शब्दों का चयन उम्दा है बहुत अच्छा लगा आपको पढकर शुक्रिया ।
ReplyDeleteबेशक ’सपने में होना भी होना है होने जैसा’...सपने अवचेतन के सैरगाह हैं...सपनों में होना जिंदा होना भी है..भले ही ’होना’ अब दर्द की भाषा से विस्थापित हो...
ReplyDeleteनये मिजाज में अशोक कुमार पाण्डेय..शुक्रिया अनुनाद..बधाई भी.
कविता जो है वो बहुत `मानीखेज' है लेकिन जिन संभावनाओं की तलाश ये कविता कर रही है वो ज्यादा महत्वपूर्ण है मेरे लिए| मेरा इशारा भाषा और शिल्प दोनों की तरफ है|लंबे सघन वाक्यों के साथ छोटे वाक्य और इकाई के शब्द जिस तरह से फिजिकल सीक्वेंस में हैं वो कहीं हद तक कविता के इमोशल सीक्वेंस को टूटने नहीं देते| इस तरह की सरंचना कविता का आनेवाला कल निर्धारित करेगी| अशोक जी और शिरीष सर (??) को बहुत धन्यवाद|
ReplyDeleteउनका किस्सा कुछ और है जिनका हारना, किस्मत है और मुखालिफत फितरत्.. जिन कपडों में.. देह.. अशोकजी यह कविता नहीं सपनों का देह परिवर्तन है सपनें जो विचारों से बनें हैं प्रयोग की दृष्टि से एकदम नई, और बेहतरीन कविता, अपने समय के भीतर सपनें में सो रहे यथार्थ को झकझोरती हुई. कल से अब तक तीन बार पढ चुका हूं उफ आपका सपनों में होना हमारा एक सपने से जागने जैसा है. आप सपने में नहीं हो आप ही यहां जागृत हो बाकी शेष सब स्वप्न, आभासीय है... एक बेहद बेहद शानदर कविता के लिए आपको ढेर बधाइयां..
ReplyDeleteयह कविता दुःख को स्थगित करने की कोशिश जैसी लगती है.कवि अपनी अलग सोच और प्रतिक्रियावादी रवैय्ये की वजह से खुद को माहौल में मिसफिट पाता है. मानसिक उलझनों से बचने के लिए कल्पनालोक का सहारा लेना चाहता है क्योंकि जिन्दा होना दुखी होने का पर्याय है.अनेक अंतर्विरोधों और तकलीफों से भरे समय में खुद को बचाए रखने की जद्दोजहद इस कविता में साफ नजर आती है.
ReplyDeleteप्रतिरोध की कविता. प्रतिरोध से भी बाद, उसके आगे की कविता. अपने कफस से छूटने, उसे तोड़ कर निकल जाने की कविता. ख्वाब जिसे ज़िंदा रखते हैं, जिलाए रखते हैं उस संघर्षशील जीवन की कविता. मेरी राय में कलाओं का, समस्त ज्ञान, समस्त विमर्शों का अंतिम पड़ाव मानवता ही है, सम्पूर्ण मानवता. हमारी दुनिया के तमाम महान विचार वे ही हैं जिन्होंने मानव को उसकी पूर्णता में पाया और स्थापित किया है. कवितायें और कलाएं भी वे ही सुन्दर होती हैं जिन में उस पूरे मानव को पाने और उसे स्थापित करने की साध होती है, जो उस मानव के पूरी तरह बनने में आते अवरोधों की मुखालिफ़त करती हैं . अक्सर ऐसे अवरोध समर्थ जनों के स्वार्थ से प्रेरित होते हैं और इसीलिए कविता जन के पक्ष में खड़ी हो जाती है. इन समर्थ जनों द्वारा प्रचालित अर्थ और मानदंड अक्सर कविता और कला को नकारने की कोशिश करते हैं. अशोक के शब्दों में " .....मुखालिफत ....वैसे इन दिनों एक यह भी तरीका है कि इसकी जगह लिखा जाए खिलाफत और और चुपचाप किसी खलीफा के दरबार में कब्जा कर ली जाए कोई जगह " महज चंद शब्दों में सामर्थ्य के आगे स्वार्थवश झुकते शब्द , सिद्धांत और दर्शन की वास्तविकता को अनावृत कर दिया अशोक ने ! इसी 'अनावरण ' में प्रतिरोध है. जैसे वह कह रहा हो, तुम शब्द बदलोगे, झूठ बोलोगे तो तुम्हारे मुँह पर कालिख मलूँगा ही ! खैर.
ReplyDeleteशिल्प में भी एक सुन्दर प्रयास इस कविता में नज़र आता है. गद्य काव्य के शिल्प के बीचों बीच और रह रह कर उर्दू के शायराना अंदाज़ में एक कहन गूँज जाती है और चौंका देती है . अंत भी ऐसी ही पंक्ति से होता है जो इस पूरे confusion को, इस पूरे self alienation को एक साथ समेटते हुए अचानक एक लम्बी 'नफ़स' के साथ 'पिन्हाँ' 'ख़्वाबों' के दम पर अपनी 'कफस' अपने पिंजड़े से निकल आता है, पूर्णता की तरफ. यह शायद द्वंद्व का शमन भी है जो अंत में मार्क्स और भारतीय आध्यात्मिक चिंतन में भी अलग अलग ढंग से आता है.
एक बात और, शुरू में 'वजूहात' के साथ 'अवसाद' शब्द खटक रहा है. नहीं, इसमें शब्द संस्कार की बात नहीं कर रहा हूँ. सिर्फ इतना कि एक उठती ध्वनि इस शब्द से टूट रही है. अशोक को कोई ऐसा शब्द ढूँढ़ना चाहिए जो 'वजूहात' से उठती ध्वनि का विस्तार तो करे ही, अवसाद वाले अर्थ को भी संप्रेषित करे. यह ध्वनि उस भाव का विस्तार करेगी. यह सिर्फ मेरी राय है. कवि स्वतंत्र है.
बहरहाल, एक ला-जवाब कविता के लिए अनुनाद वाले शिरीष (शिरीष से अब तक मुलाक़ात नहीं हुई है, पर जाने क्यों वह मुझे कई जन्मों का मित्र लगता है ! शिरीष, तुम शायद ना मानो, लेकिन मैं गीता के दर्शन को रोज रोज महसूस करता हूँ) और अशोक के कवि रूप को सलाम !
तुषार धवल
हाँ तुषार..अवसाद मुझे भी खटक रहा है...पर उर्दू में हाथ बहुत तंग है...तलाश में लगा हूँ...अगले संकलन तक कोई माकूल लफ़्ज मिल ही जाएगा..दोस्त सुझा दें तो क्या बात है!
Deleteप्रिय तुषार हम ऐसे ही मित्र हैं.....रहेंगे भी....
Deleteक्या यह सचमुच हकीकत है कि वह दीवार जमींदोज हो चुकी है जिसके पार स्वप्न थे और इस पार हकीकत ? स्वपनों को हकीकत की दीवार भी रोक नहीं सकती। स्वप्न नींद का स्थानापन नहीं है हकीकत के जलजले में उनका होना होता है। गलत ट्रेन में बैठने की स्थिति का भान भी हकीकत के करीब जाना है। और यह वक्त उस गलत ट्रेन का चक्का जाम कर देने का है जो स्वपनों की पटरियों को भी उखाड़ देने की गति पकड़ती जा रही है।
ReplyDeletekavita ke baare me maine Facebook par Anunad ki link par likha hai. dhund kar koshish karta hu mil jaaye to yaha chhapta hu. Agar Ashok ji ko comment kahi mile to nivedan hai yahan chhap den kripaya.
ReplyDeleteमष्तिष्क की नसों को बिखरते हुए रेशा-रेशा...
ReplyDeleteAmit ने लिखा था -
ReplyDeleteBahut khoob! Your first abstract poem as far as I can remember in the light of remembrance. Seems as a mixture of prose, verse and free verse. And what to say about the music! symphony is the word! I could not think of a prosaic poem dealing with sorrow so beautifully where as singing careless chants in intervals equally authoritatively concerned. Kudos!
अवसाद की इस विस्थापित भाषा में जैसे कई दर्पण सामने खड़े हो गए ..समानांतर जीवन दिखाते, जैसे कई सारी नावें तूफ़ान में डूबती उतरती चली गईं..अशोक कविता का असर देर तक बना रहेगा..फिर जिसकी फितरत ही हुजून में डूबे रहने की हो.उसके लिए यह कविता ग़ालिब हो गई..
Deleteजी उस वक़्त अपने कम्प्यूटर पर न होने की वजह से जल्दी-जल्दी में ब्लॉग पर कमेन्ट नहीं कर पाया था. अभी यहाँ कमेन्ट करने आया तो देखा आपने यहाँ कॉपी कर दिया है. शुक्रिया! पिछली ५-६ कविताओं से जिस तरह का भाषा, शैली और कथ्य में खुशनुमा परिवर्तन (मैं इस बदलाव को अपने नज़रिए से कवि में काव्य के विकास का दौर कहना पसंद करूँगा) आपकी कविताओं में दिख रहा है मैं उससे बेहद आश्चर्यचकित हूँ. साथ ही तारीफ़ यह है आपकी विचारधारा से आपके इस परिवर्तित संस्करण में भी कोई समझौता नहीं दिखता. बहुत पसंद आयी यह कविता!
Deleteवाह! अद्भुत भाषा और गजब का शिल्प! दूर तक जाने वाली बात भी!
ReplyDeleteमनोज रंजन
ज्यादा कुछ तो नहीं कह सकता। 'मस्तिष्क के नसों के बिखरे रेसा-रेसा'को कुछ यूं छू गई कविता कि अंत तक आते-आते आंखों में अश्रु था जो अवसाद के क्षणों में बिन-बुलाए मित्र की तरह चला ही आता है। कविता में अवसाद की प्रामाणिकता सिद्ध है। हार अगर प्रामाणिक हो तो जैसे वह जीतने को फिर उठ खड़ा करती है,अंत तक पहुचने के बाद यह कविता फिर से बुलाती है। तो फिर पाता हूं कि हां, यह हार नींद में डूब जाने की हार नहीं है। यह प्रामाणिक होने के जद्दोजहद की थकान है, प्रामाणिकता और संघर्ष जिसकी बदौलत 'स्वपन'और'सच'के बीच की 'दीवार 'जमींदोज' हो गई। यह वह हार नहीं है जो भयवह इसपार या उसपार होने की सुविधा ढुंढती है। यह वह दर्द है जो उठकर इसपार या उसपार,ख्वाब और हकीकत दोनों में फर्क करने की दृष्टि में अलकेमी करती है। यह खून को जमा डालने वाला दर्द नहीं है। यह अंतत: खून के ताजा धार और उसके बह चलने की कविता है। डूब जाने पर अवसाद पतन, देख पाने पर अवसाद सृजन है।
ReplyDeleteयह कविता जब शिरीष भाई को भेजी तो इस अपील के साथ 'कि अभी पढ़िए..और मुमकिन हो तो खारिज़ कर दीजिये'...पर उन्होंने...
ReplyDeleteआप सबने जिस तरह से इसे ग्रहण किया...सच में भरोसा और मज़बूत हुआ. शिरीष को तो कुछ कह पाने की हिम्मत नहीं है...आप सबका बहुत-बहुत आभार.
अशोक की कविताई पर विस्तार से लिख चुका हूँ , अभी सप्ताह भर पहले ही . पर प्रेम कविताओं को स्किप सा कर गया . अनजाने ही . आज भी इसे चुपचाप पढ़ गया हूँ . प्रेम कविताओं पर कुछ कहना मेरे लिए अम्बेरेसिंग है. मेरी तय्यारी नही है . एक दिन कहूँगा . लेकिन हाँ --"आज मै एक शराबी शायर का पाजामा पहने ऊची आवाज़ मे गाते हुए तुम्हारी गली से गुज़रना चाहता हूँ " ..... क्या बात है ! 11वीं सदी के तिब्बती संत कवि मिलारेपा की आत्मकथा से एक बिम्ब याद हो आया . वह शायद उस संत का आखिरी प्रणय निवेदन था ! अद्भुत अशोक .
ReplyDeleteअच्छी कविता
ReplyDeleteआज मैं किसी ऐसे दोस्त के फोन के इंतज़ार में हूँ जिसे अपनी उस पुरानी प्रेमिका की याद आ रही हो अचानक जिसे मैं जानता था. आज मैं एक शराबी शायर का पाजामा पहनकर ऊंची आवाज़ में गाते हुए गुज़रना चाहता हूँ तुम्हारी गली से और किसी दोस्त की छत पर देखना चाहता हूँ अपने मष्तिष्क की नसों को बिखरते हुए रेशा-रेशा.
ReplyDeleteमैं किसी गलत ट्रेन में चढ़ गया हूँ शायद. या फिर जिस सीट पर बैठा हूँ वह नहीं है मेरी. जिन कपड़ों में है इन दिनों मेरी देह वह किसी लाश की देह से उतारे हुए हैं शायद और उनकी गंध ने हर ली है मेरी देहगंध. मैं जिस घर में हूँ उसमें कोई कमरा मेरा नहीं. जो कुछ सबका था वह सब अब हुआ समाप्त. ले दे के सड़क ही बची है अंतिम शरणगाह, जहाँ बहुत भीड़ है और एक भयावह खालीपन.
आज इस शब हो जाए वह सब जो होना है /शब-ए-क़यामत है कमबख्त किसे सोना है
उम्दा कविता
लाजवाब
ये कविता उन कविताओं में से एक है जिसे पढ़कर ना चाहते हुए मुस्कुराना पडा सोचना पडा....
शुक्रिया मित्रों..
ReplyDeleteअशोक जी को लगातार पढ़ रहा हूँ और हर बार ये अचंभित ही करते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि अशोक जी कविता को जबरदस्ती की सोच से उत्पन्न करते नहीं दीखते (और सच कहिये तो फिर कविता का सत्व भी नहीं रह जाता), बल्कि उसे जीते हैं और यह उनके अन्दर सृजित होते हुए कागजों पर आती है, यह कविता भी कुछ वैसे ही ख़याल जगती है और स्वप्नों के पार यथार्थ पर जब पटकती है तब भी आंकें स्वप्न में ही यथार्थ को ढूंढ़ रही होती हैं।
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