अनुनाद

अनुनाद

मणिपुर की अद्वितीय मुक्केबाज कोम को संबोधित दो कविताएं – यादवेन्‍द्र

अपने रचनात्‍मक सहयोग के साथ यादवेन्‍द्र अनुनाद के सबसे निकट के साथी हैं।  वे हमारी अनुनाद मंडली के सबसे वरिष्‍ठ साथी भी हैं, उन्‍हें मैं हमेशा से अनुनाद के अभिवावक की तरह देखता हूं। वे कामकाज की घोर व्‍यस्‍ततओं के बावजूद विज्ञान, समाज, राजनीति और साहित्‍य की दिशाओं में अपनी निरन्‍तर बेचैन उपस्थिति बनाए रखते हैं। उनकी ये बेचैनियां मुझ जैसे व्‍यक्ति के लिए प्रेरणा बनती हैं। यहां दी जा रही उनकी दो नई कविताएं ऐसी ही बेचैनियों से निसृत हैं, जिनमें उनकी सभी दिशाएं एक साथ मौजूद हैं। 

मेरी कोम

गनीमत 
ग़नीमत है तुम उस समय
लंदन में मुक्केबाजी की रिंग के अन्दर थीं
मणिपुर की काल को मात देनेवाली बेटी मेरी कोम
जब बंगलुरुमुंबई और पुणे में
धमकी और घृणा के बाहुबली बदसूरत मुक्के
गोल मटोल सुकुमार कामगार चेहरों को
शक्ति या कौशल के बल पर नहीं
बल्कि खेल के नियमों को ठेंगा
दिखाते हुए
कोतवाल सैंया का मुंह देख देख कर
लहू लुहान करते हुए रिंग से बाहर फेंक रहे थे
और रेफरी खड़ा होकर टुकुर टुकुर ताक रहा था
तुम भारत के लिए बच्चों के जन्मदिन पर मुक्के खा रही थीं 
और इधर भारत तुम्हारे भाइयों और बच्चों को मुक्के मार रहा था
ग़नीमत रही तुम्हारी अनुपस्थिति से 
खेल भावना की लाज बची रही 
यह राज राज ही बना रह गया  
कि खेल के मुक्के ज़ोरदार हैं 
या
नफ़रत और ओछेपन के।   
*** 

डगमगाना 
भारत की धरती पर पाँव रखते ही 
तुम्हारे सीने पर चमकता मेडल देख
कर
 
माँ को बहके हुए बेटों को पीछे धकियाता हुआ 
मंहगा-सा सूट डाले बाज़ार
सबसे
 पहले
तुमसे हाथ मिलाने पहुँचा 
अचानक छोटी आँखों और चिपटी सी नाक वाली 
पैंसठ सालों से दिल्ली के थानों में छेड़छाड़ की रपटें लिखवाती शकल
भारतीय सौंदर्य का पैमाना बनने लगी
धरती पर मजबूती से पाँव टिका
कर
 
रिंग में उतरने की अभ्यस्त तुम 
हज़ार रोशनियों की बौछार में 
चेहरे से सारे मानवीय भाव निचोड़
कर
 
बिल्ली की तरह सध कर चलने को हुईं 
तो डगमगाने लगी काया…..
ये तुम्हारे क़दम डगमगाए
या डगमगाया हमारा भरोसा   
तने और उठे हाथों वाली चिर परिचित मेरी कोम ?
***
यह अननाद की 580वीं पोस्‍ट है

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top