Wednesday, October 24, 2012

कविता जो साथ रहती है / 2 - विनोद कुमार शुक्‍ल की कविता : गिरिराज किराड़ू

कवि की तस्‍वीर रविवार से साभार 
गिरिराज किराड़ू ने अपने स्‍तम्‍भ की दूसरी कविता के रूप में विनोद कुमार शुक्‍ल की कविता का चयन किया है, जो संयोग से मेरी भी प्रिय कविता रही है। गिरिराज की ये टिप्‍पणियां किसी भी औपचारिक अनुशासन के बाहर बहुत भरे दिल की पुकार हैं। 'पहले से अधिक विभाजित और अन्‍यायी ग्रह पर मरने' की त्रासदी हम सबकी है, इसलिए यह पुकार भी उम्र भर के लिए हमारे दिल में घर कर जाएगी। नवीन सागर पर इस स्‍तम्‍भ की पहली टिप्‍पणी हमारे पाठक यहां पढ़ सकते हैं। 
*** 

जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे

मैं उनसे मिलने

उनके पास चला जाऊँगा।

एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर

नदी जैसे लोगों से मिलने

नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा

पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़ खेत
कभी नहीं आयेंगे मेरे घर
खेत खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा।
जो लगातार काम से लगे हैं
मैं फुरसत से नहीं
उनसे एक जरूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा -


इसे मैं अकेली आखिरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा।

***

                          सद्कामना के अरण्य में



1

इस कविता के पहले वाक्य ने जो तीन छोटी काव्य पंक्तियों में फैला है ने पढ़ते ही बाँध लिया था. मैं जिस तरह के समाज में, पड़ोस और मोहल्ले के जिस घेराव में बड़ा हुआ था उसमें वे लोग जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे वे अक्सर 'बाहर' के लोग नहीं थे, वे लोग थे जिनसे कभी प्यार रहा होगा, जिनसे अब रंजिश है (अंतरंग शत्रु, इंटिमेट एनिमी?) और इस लिए वे मेरे घर नहीं आयेंगे मैं उनके घर नहीं जाऊंगा. कुछ ऐसा अपने में गाफिल संसार था छोटा-सा. 'नाली साफ़ करने वाली के हाथ नहीं लगाना है' से 'बाहरी' का अनुभव उस तरह से शुरू नहीं हुआ था;  'आउटसाइडर' की कल्पना के लिए जगह बहुत बाद में बनी जब परकोटे के भीतर के ही 'मुसलमान' और परकोटे के बाहर के "यूपी वाले......" और "..... बिहारी" पान की दुकानों और निठल्ली दोपहरों के किस्सों में आये. 

और उसके बाद तो 'बाहर' बहुत बड़ा होता गया, जितना भूगोल में नहीं उससे ज्यादा अपने भीतर और लगा यह पृथ्वी ऐसे लोगों से भरी है जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे और रंजिश अक्सर कोई वजह नहीं होगी उसकी. बल्कि वे जो मेरे घर आयेंगे वह एक बहुत छोटी-सी, छटांक-भर  जनसँख्या ही रहेगी और अब उसे पूरा संसार समझने जितना गाफिल रहना मुश्किल होता जा रहा है. मैं असंख्य लोगों के घर गये बिना और असंख्य लोग मेरे घर आये बिना मर जायेंगे. यह सब बहुत अस्पष्ट तरीके से मन में चलता रहा था जब यह कविता जीवन में आयी. और तुरंत तो  इसके 'समाधान' ने बाँध लिया. जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे उन लोगों से मिलने जाना ही इस समस्या का समाधान है.

लेकिन तीन छोटी काव्य पंक्तियों से आगे बढते ही कविता मनुष्यों की नहीं उफनती नदी, पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब असंख्य पेड़ खेत  की बात करती है जो इस कविता के वाचक के घर कभी नहीं आयेंगे और अंत में उनकी भी जो लगातार काम से लगे हैं. क्या यह वाचक कभी उन सबके - नदी जैसे लोगों के, खेत खलिहानों जैसे लोगों के - घर जा पायेगा? या यह उसकी सद्कामना  भर है? अकर्मक सद्कामना!  यह पद -  अकर्मक सद्कामना - बाद में बहुत परेशान करने वाला रहा है. कई अरब लोगों से मिल पाना तो किसी भी तरह संभव नहीं फिर यह कविता इतना सटीक लेकिन असंभव समाधान क्यूँ पेश करती है? सद्कामना कर्म की एवजी क्यूँ है? इसलिए नहीं कि वह कर्म-आतुर नहीं बल्कि इसलिए कि उसे इस कर्म की असंभाव्यता का ठीक ठीक अंदाज़ है? वह एक असंभव कर्म की कामना इसीलिये करती है कि केवल कामना में, कविता में ही असंभव को भी इस तरह 'किया' जा सकता है?

2

विनोद कुमार शुक्ल की कविता में प्रकृत और आदिवास अभिलेख नहीं हैं. वे एक खोयी हुई दुनिया नहीं है जिसकी और 'लौटना' होगा - एक पुकार जो कभी योरोपीय रोमेन्टिसिज्म में सुनाई दी थी. और जिसकी परिणति, ऐसा कई अध्ययन कहते हैं, जर्मन नाजीवाद में हुई थी. विनोद कुमार शुक्ल के लेखन  में लौटने की जगह है : घर. प्रकृत और आदिवास नहीं, घर वह जगह जहाँ वह लौटते हैं. बार बार. प्रकृत और आदिवास के पास जाना है , लौटना नहीं है.

3

एक साक्षात्कार में आलोक पुतुल ने विनोदजी को सीधे पूछा है कि क्यूँ बहुत कुछ उनके लेखन में केवल सद्कामना है? इसी कविता में कर्म नहीं कर्म की कामना है. कर्म और कामना के बीच नैतिक हायरार्की में कामना सदैव निम्नतर क्यूँ? कला में सद्कामना एक बनावट से अधिक कैसे बनती है? कला अपने में कर्म है या उसमें से जो झांकता है वही कर्म हो सकता है, और वह भी  हमेशा नहीं, जैसे इस कविता में नहीं?

हर कविता दो बार एक कर्म है : एक बार जब वह लिखी जाती है, दूसरी बार जब वह पढ़ी जाती है. और यह दूसरा कर्म कई कई बार होता है. इतनी बार जो कर्म है उसकी अंतर्वस्तु  सद्कामना है? क्या हर पठन में इसकी अंतर्वस्तु वैसी ही बनी रहती है? क्या हर बार एक सद्कामना ही पाठकर्ता का हासिल होती है? या कविता की सद्कामना एक पाठकर्ता के लिए कर्म या उसकी उत्प्रेरणा बन सकती है? इस कविता का हर पाठक क्या यह कामना भर करेगा कि वह सबके घर जायेगा या वह कुछेक के घर 'सचमुच' जायेगा भी? क्या कुछ गये भी? इन पाठकर्ताओं में स्वयं लेखक भी शामिल है. खुद उसके लिए यह कविता क्या किसी कर्म की उत्प्रेरणा बन पाई?

पर विनोदजी से ऐसा प्रश्न पूछने के लिए आपका नाम आलोक पुतुल होना चाहिए.

4

फुरसत चिढ़ाने वाला शब्द है.
फुरसत समर्थ का विकल्प है.
फुरसत एक जरूरी काम है अगर आपको सबके घर जाना है.

5

अब जबकि दूसरों के घर और मन तक जाने के गोरखधंधे में दिल पर कई खरोंचें भी लग चुकी  हैं (मेरी तो मैं कह ही रहा हूँ, दूसरों के जो मैंने लगाई होंगी वे भी), अब जबकि दूसरों के घर और मन तक जाने का इरादा पहले जितना निश्चय भरा तो कतई नहीं है, अब जबकि सद्कामना और सकर्मकता का भेद अपनी विज्ञापित जटिलता तज कर अपनी सहज सरलता की ओर बढ़ रहा है मेरे लिए, तो यह कविता हर दूसरे दिन याद आती है.

अब जबकि बाहर इतना है कि उसके पहले जो था मेरे पास वह अर्थहीन हो जा रहा है , अब जबकि घर कहने से आने वाली यादों में दश्त की याद भी शामिल हो गयी है, अब जबकि मैं एक दूसरा हूँ यह कविता अपने और पराये, घर और बाहर, सद्कामना और सकर्मकता को एक दोहे-सा बांधती हुई बार बार हर दूसरे आँसू याद आती है - मैं कर्म की अपनी मामूली कोशिशों के साथ सद्कामना के अरण्य में किसी दीदा-ए-तर की अनुकृति होने की कोशिश में पहले से अधिक विभाजित और अन्यायी ग्रह पर ही मरूंगा? न्याय बस का नहीं था, अन्यायी जद में नहीं था लेकिन जितने लोगों के घर जा सकते थे, जितनों को अपने 'यहाँ' बुला सकते थे  उसका एक ज़रा सा हिस्सा भी नहीं किया, और इसे अपनी पहली या अकेली नहीं, बस आखिरी इच्छा की तरह  लेते हुए ही  जायेंगे?
***
यह अनुनाद की 583वीं पोस्‍ट है

Monday, October 22, 2012

प्रशान्‍त की लम्‍बी कविता- आधा रास्‍ता


प्रशान्‍त 
प्रशान्‍त मेरे लिए परिचित कवि नहीं रहे हैं अब तक।  कुछ कविताएं मैंने ब्‍लागपत्रिकाओं में पढ़ी हैं। उनकी यह लम्‍बी कविता मुझे साथी अनुनादी अशोक कुमार पांडेय के सौजन्‍य से प्राप्‍त हुई है। इस कविता की शुरूआत में ही कवि द्वारा व्‍यक्‍त घायल बाघ की तरह अपने घाव का स्‍वाद लेने की इच्‍छा और अपनी जीभ के खुरदरेपन का अजब अहसास एक नई दिशा को इंगित करता है। मेरे लिए ये बहुत अपना अनुभव है, जहां हर कविता एक घाव है और उसे सम्‍भालने की हर कोशिश अपनी ही जीभ का खुरदुरा स्‍पर्श। यहां प्राकृतिक क्रिया-व्‍यापार और संकेत भीतर के वीराने की आवाज़ बन जाते हैं। घास और पत्तियों से आती राहत की सांस, जो भाप छोड़ती रोटियों की याद दिलाती है। कविता में प्रकृति को बरतने के ये दृश्‍य अधिकांशत: नए और मौलिक हैं। इनमें कोई बनावटीपन नहीं, बाहर-भीतर की एक सहज यात्रा भर है। कोई स्‍टेटमेंट देने का हल्‍का-सा भी प्रयास नहीं। इनमें रेत और पानी की नज़दीकी नई अर्थच्‍छवियों में खुलती दिखाई दी है। बहुत जाहिर नहीं पर विस्‍थापन की एक टीस पूरी कविता में समाई दीखती है और आधे रास्‍ते का ये रूपक भरपूर खुलता है। यह एक नए अनुभव संसार की कविता है, जिसे मैं उम्‍मीद की तरह देख रहा हूं। मुझे यक़ीन है कि आगे कविता के इलाक़े में प्रशान्‍त के क़दम और भी सधेंगे, साथ ही उनकी वैचारिकी भी कुछ और खुलेगी। अुननाद इस पोस्‍ट के लिए कवि प्रशान्‍त और अुननाद के सहलेखक अशोक कुमार पांडेय का आभारी है। आशा है आगे भी प्रशान्‍त की कविता की आत्‍मीय आहटें अनुनाद पर बनी रहेंगी। 
***

आधा रास्ता

सूखी पत्तियों पर बैठा
मैं सहला रहा हूँ अपने घाव
जी चाहता है कि
उसका स्वाद लूं
एक घायल बाघ की तरह
पर
डरता हूँ
अपनी जीभ के खुरदुरेपन से.
देखता हूँ
इस हरे-भरे
पुकारते बीहड़ को
किसी अस्पताल का हरा परदा हो जैसे,
आँखों को सुकून  मिलता है
पर
घर लौटने की बेचैनी कम नहीं होती.

नब्ज़ टटोल कर गिन रहा हूँ
अपनी धडकनें
सौ से कम क्या होंगी ?
वक्त..
थोडा और गुजरने दूँ.
अभी तो बाकी है
कितना ही फासला......
कपड़ों में उलझे कांटे निकालूं
और
जूतों में घुसी रेत
जो पता नहीं कहाँ से साथ चलती आई है मेरे.

एक सांत्वना खुद को---
कुहनियों का छिलना,
घुटनों के फूटने  से तो बेहतर है,
जब आप एक लम्बी
यात्रा पर निकले हों (वो भी पता नहीं कितनी?)

हिम्मते-मर्दां,
उठा एक कदम
और दूसरा...
और तीसरा,
और ...
चल.....
खुद बनाते अपनी पगडंडियाँ

पत्तियों,
टहनियों की चरमराहट,
चेहरे में  उलझते जाले,
कैसी-कैसी आवाजें कीड़ों की,
और
चिड़ियों की चहचहाहट,
सुनसान - इतना सूना भी नहीं होता......
और
न ही
हर चिड़िया की आवाज एक कूक.
साथ मेरा डर,
ढेर सारा वहम भी....

सामने
एक खुला विस्तार,
निर्जन नहीं पर दुर्गम (आह! जंगल कितना सुखद था).
हाथ की ओट से,
बस
एक निगाह ऊपर,
रेगिस्तान की दोपहर जैसा,
झुलसता
पिघलता सूरज,
गर्म मोम-सी टपकती किरणें,
और
घास
बस
सुलगने को तैयार सी.

नहीं,,,
रुकना मतलब आधे(?)सफ़र में रात.
हिम्मते-मर्दा...
फिर एक कदम,
और दूसरा,..
और तीसरा....
चीखते सूरज को कर अनसुना
भर कर आँख में अँधेरा
शरद की एक ठंडी रात से बात
रात को ऊबाती
एक लम्बी बातचीत,
(अगली आड़ तक तो कम से कम).

बबूल की ही छाँव सही
कांटे दो-एक और सही
एक पत्थर का तकिया
पसीने से भीगी शर्ट की चादर..
क्या खूब मजे हैं !!
पपड़ाये होंठ अब याद आये.
धीमे चढ़ता जहर-सा दर्द
हाथ टटोलते हैं डंक का निशान.
नहीं,
कोई नहीं 
फिर ये दर्द!!

ज़बान होंठों पर फेरता,
बस एक घूँट पानी का......
मैं देखता हूँ
रात से मेरी बात को छुप-छुप के सुनती
शाम चली आई है
पीछे-पीछे
छुपी बैठी है
मिला है उसे भी एक दरख़्त,
बैठने के लिए.

जरा सी आँखें मूंदीं
और दिखने लगी
मेरे सामने बैठी तुम
नीले लहराते पानी पर लहराती बोट
पानी पर
दूर-दूर नजरें घुमाता हमारा नाविक.
झुक कर पानी को छूता हमारा बेटा
और बार-बार उसका पूछना
डॉल्फिन कहाँ है?

और
तभी दिखता है
वह अकेला लड़का
कुछ ही दूर
उस पथरीले मगर हरे-भरे टापू पर,
किनारे की चट्टानों पर चलता
और वो भी
हाफ-पैंट और चप्पलों में !
चौबीस-पच्चीस  का होगा दुस्साहसी....

ऊँचे पत्थरों पर चलता
उस ऊँचाई से ऊपर
कि जहाँ तक
पत्थरों पर चिपकी हैं
सीपियाँ
जिन्हें खुरच कर निकालती हैं
मछुवारों की बीवियां और बच्चे
अपनी छोटी-छोटी डोंगियों में बैठ कर...

वह चल रहा है
हर पत्थर के टीले के किनारे पर ठिठकता है,
जांचता है..
भांपता है...
तय करता है
अपना अगला कदम
और
पलट कर कभीदूसरा रास्ता भी लेता है
मगर मंजिल तय है उसकी
उसे पूरा व्यास तय करना है
उस पथरीले मगर हरे-भरे टापू का
किनारे-किनारे
सागर का संगीत सुनते.

डॉल्फिन को भूल
उसे देखते
आज अचानक ये सोच कर धडकनें बढ़ गयी-
कैसा होगा वो सुख
अगर
आधा रास्ता तय करते ही
मैं दिखता उसे
किसी पत्थर पर बैठा
सुस्ताता,
कैसा चौंकता मुझे देख कर!

और चौंक जाता हूँ मैं भी!!!
आँखें खुल जाती हैं
भक्क से!
हाथ अपना ही है सीने पर
एक स्मित मुस्कान तैर जाती है मेरे होठों पर
एक अंगडाई.......
और
पैरों को करता हूँ सीधा...

चाँद निकल आया है
शाम चली गयी
मुझसे बिन बात किये.
छोड़ गयी है कुछ तारे,
शायद मेरी निगरानी को.....

दर्द गायब है
रात ठंडी है
झींगुरो को सुनता
ब्रेड चबाता
निहारता हूँ सब ओर....
जुगनुओं का एक झुण्ड
बैठा है पास ही
एक और बबूल पर-
काँटों में जैसे तारे खिल आये हों
जगमगाता है पेड़
क्रिसमस ट्री जैसा..
छोटी-छोटी झाड़ियाँ झूम रही हैं,
जैसे
कोई बेशब्द ग़ज़ल सुनती हों......
धूप से झुलसी
घास और पत्तियां
राहत की सांस लेती हैं
खुशबू बिखेरती है
जैसे
भाप छोडती रोटियाँ....

बस अब एक नींद...
गहरी.....लम्बी.....
और
निकल जाऊंगा भोर होते ही,
तरोताजा.....
उसी सागर की ओर...
उसी टापू की ओर.....
जहाँ बीच रास्ते बैठना है मुझे
वैसे ही
किसी को चौंकाने के लिए
कि
शायद खिलखिला उठें हम
ऐसे अचानक मिल के........

मेरी मंजिल बस एक आधा रास्ता है अब......
***
16 फरवरी 1975 को जन्‍मे प्रशान्‍त आजीविका से इंजीनियर हैं। हाल ही में उनकी कविताएं असुविधा, जानकीपुल, कथादेश और परिकथा में छपी हैं।  
यह अनुनाद की 582 वीं पोस्‍ट है 

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