Saturday, September 29, 2012

मोनिका कुमार की नई कविताएं


मोनिका कुमार: फोटो जानकीपुल से
मोनिका कुमार हिंदी के लिए बहुत नई कवि हैं। मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं में अभी उनकी कविताएं शायद नहीं छपी हैं। उन्‍हें नेट पर ही कुछ जगह मैंने देखा है। पहली बार सम्‍भवत: आपका साथ साथ फूलों का पर, कर्मनाशा पर, फिर प्रतिलिपि ब्‍लाग, जानकीपुल और समालोचन पर। मैंने प्रतिलिपि ब्‍लाग पर पहली बार उनकी कविता का नोटिस लिया था। उस पोस्‍ट पर एक लम्‍बी बहस फेसबुक पर चली, जिसमें मुझे कविता के हित में हुआ संवाद नज़र आया – पूरी बहस को प्‍यारे दोस्‍त गिरिराज ने एक पोस्‍ट के रूप में संयोजित किया, जिसे पाठक अनुनाद पर देख सकते हैं। 


इस तरह मोनिका कुमार की कविता ने हिंदी में आते ही कुछ खलबली पैदा की, वैचारिकी को झकझोरा है। मैं अकसर इधर-उधर चल रही अनावश्‍यक बहसों से दूर रहता हूं पर अब पीछे छूट चुके फेसबुक पर इस बहस को गिरिराज की परिचयात्‍मक टिप्‍पणी के विखंडन सम्‍बन्‍धी वक्‍तव्‍य का विरोध करते हुए मैंने ख़ुद आरम्‍भ किया था – बाद में गिरिराज किराड़ू, अशोक कुमार पांडे, आशुतोष कुमार, मृत्‍युंजय आदि हिंदी के सुपरिचित नामों सहित ख़ुद मोनिका कुमार ने भी उसमें बहुत महत्‍वपूर्ण भागीदारी की। यदि मोनिका कुमार की एक कविता इसका निमित्‍त बनी तो इससे उसके महत्‍व को समझा जा सकता है।

यहां मोनिका की तीन कविताएं दी जा रही हैं। वे अपनी कविताओं को शीर्षक नहीं देतीं और मैंने पाया है कि इससे कोई अधूरापन नहीं उपजता बल्कि पाठकों के समक्ष अपना एक स्‍पेस निर्मित होता है। पिछले दिनों जानकीपुल, समालोचन और अब अनुनाद पर उनकी कविताएं बहुत शुरूआती कविताओं से इस अर्थ में भी भिन्‍न हैं कि इनमें अनुभव संसार का एक अनिवार्य विस्‍तार मौजूद है। मेरे लिए ये देखना सुखद है कि मोनिका अब कविताओं के आइडिया-बेस्‍ड शिल्‍प से निकल कर एक थाट-प्रोसेस में प्रवेश कर रही हैं। वे कुछ परिचित और कुछ अब तक लगभग अपरिचित रहे स्‍थानों और प्रसंगों की बेचैनी और इत्‍मीनान के विरुद्धों में कविता खोज रही हैं। प्रकृति से आए उनके प्रतीक और बिम्‍ब पहली बार हिंदी कविता में एक अलग समझ के साथ सम्‍भव हुए हैं। दिख रहा है कि उनकी कविता की खोज बहुत अलग शिल्‍प में व्‍यक्‍त हो रही है। आश्‍चर्य है कि पहली बार पर छपने के बाद यह सब कुछ बहुत जल्‍द प्रकट हुआ है। यह भी सोचना होगा कि मोनिका कुमार की शुरूआत को किन अर्थों में शुरूआत कहा जाए। उनमें यात्रा के आरम्‍भ का ज़रूरी उत्‍साह तो है ही लेकिन अब तक नए कवियों में कम देखी गई एक सजगता भी उसी सन्‍तुलन में है। मोनिका भाषा से जैसा आत्‍मीय व्‍यवहार रखती हैं, वह भी एक आश्‍वस्‍त करने वाला दृश्‍य है। बिखराव-अलगाव की ओर धकेली जा रही हमारी दुनिया में मोनिका की ये कविताएं अपनी विशिष्‍ट भाषा, स्‍मृतियों और समकालीन अवसाद के साथ विरल मानवीय व्‍यवहारों और ज़रूरी विचारों की एक समग्र और एकाग्र उपस्थिति हैं। 

संक्षेप में कहूं तो मैं उनकी इस यात्रा में आगे के कुछ बहुत अहम पड़ाव देख पा रहा हूं, बाक़ी अनुनाद के सुधी पाठक बताएंगे। मैं अनुनाद की ओर से इन कविताओं के लिए कवि को शुक्रिया कहता हूं।
***      
नए मनुष्‍य का जन्‍म - सल्‍वाडोर डाली: गूगल इमेज से साभार

1
खड़ी हुई ट्रेन देख कर 
अनायास दिल करता है इस में चढ़ जाएँ
बसेरे की तमाम योजनाओं के मध्य
गमन का सारस
आँख झपकता है

मैं हैरान हूँ
लोग मुंह नीचा किए सड़क पर
चुपचाप चल रहे हैं
कलेजे जबकि मचल रहे हैं विस्फोट के लिए
क्या यह महान संयम है ?
हर सुबह विस्फोट को स्थगित कर
तस्मे बांधकर पहुँच जाते हैं दफ़्तर
दराज़ में रखते हैं फोन
और जेब से चश्मा निकालते हैं 

पलायन विकल्प है
ट्रेन में चढ़ने से पूर्व
मैं कहती हूँ तुमसे

मेरे पास थे दो ही हथियार ज़िन्दा रहने के लिए
एक था व्‍यंग्‍य
दूसरा भी व्‍यंग्‍य ही था
अतिशयोक्ति से ढांपना पड़ता था मुझे
मरियल ख़यालों को

व्‍यंग्‍य सहना भी अब अच्छा नहीं लगता
यह लगने लगी है हिंसा
जैसे कोई ठूस रहा है मुंह में जबरन
पुरानी मैली नाइलोन की कतरनें
या ताला लगा रहा है मुंह पर
बंदूक जैसी इक चाभी से

मैं अभी किसी स्टेशन पर नहीं खड़ी हूँ
मैं भी दफ़्तर में हूँ
चौरस कमरा है
कुर्सी पर लटकता कोट चमगादड़ लग रहा है
व्‍यंग्‍यरहित गर कहूँ

तो बेतरतीब यहाँ सिर्फ़ मैं हूँ
जो 
दफ़्तर में बैठे हुए
रेलवे स्टेशन को ताक रही हूँ
बाकी सब उपस्थित वस्तुएं
इशारा कर रही हैं
किसी महान संभावना की ओर

मैंने अभी देखा
कोई बता रहा था किस तरह आसमानी ताक़तें
नियंत्रित करती हैं हमारा जीवन धरती पर
वह बांच रहा था एक जन्म पत्री
बता रहा था एहतियात और सावधानी
ही बची सकती है हमें
अकाल संकट और
असामयिक विरह से
इस वाक्य को सुनते ही

सभी लोग उसको उत्सुकता से सुनने लगे थे
उन्हें नहीं आशा थी वह करेगा ऐसी गहन बातें
वक्ता असहज हो गया
उसे लगा वह सम्बोधन कर रहा था
हजूम को, अफीम खाई जनता को
धुंध उमड़ आई थी कमरे में

उसके शब्दों पर असामयिक दबाव आ गया था
वह भी शायद अब इस हजूम से विदा चाहता था

अखब़ार में देखती हूँ
आज रस्म उठाला है एक बूढ़े का
साईकल बनाने की फैक्ट्री चालू की थी उसने
चालीस बरस पहले
जिस तरह निर्धन करते हैं इक दिन शुरुआत
किसी स्वप्न से सम्मोहित  
उसके पुत्र ने संस्मरण लिखा था
जिसमें मैंने ख़ुद जोड़ लिया है - 
वह अंगूठा छाप था
वह ऐसे  ही अंगूठा छापता था काग़ज़ पर
जिस तरह लोग साईकल की घंटी अंगूठे से बजाते  थे
पुत्र ने केवल यह लिखा था -
उसकी नीली आँखों में चमक रहती थी
कोई भी लोहा जो साईकल बन सकता था
उसके पिता की नज़रों से बचता नहीं था
मैं बची हूँ
बचे रहने के लिए नहीं
मेरे पास सौ के नोट पर लिखा पत्र है
मैंने इसे लिखा था अपनी पहली तनख्‍़वाह से
अनाम शिशु के नाम
उसके लिए लिखा था मैंने प्रेम
और कुछ सीख 
सीख घिस गई है
प्रेम के बारे में इस क्षण कोई विचार नहीं आ रहा  

आज छुट्टी होने पर घर न जाकर
ट्रेन पकड़ ही ली जाए
दो ट्रेनें जब तेज़ी से गुज़रेंगी उलट दिशा में
उस बीच में जोर से चीख़ूंगी
रेल यात्रा का यह क्षण
रेल को सबसे आकर्षक सवारी बनाता है
मैं टीटी से करूंगी निवेदन

वह मुझे ऐसे शहर उतार दे
जहाँ चिड़ियाघर हो
मेरे अंदर एक हाथी है
जो लगातार पीट रहा है मुझे
पिछली बार देखा था मैंने चिड़िया घर में
एक हाथी जोर जोर से पटक रहा था पाँव अपने बाड़े में
यह हाथी उसी का कोई बिछड़ा है
मैं इस हाथी को वहां छोड़ आऊँगी
***

2
बरसाती दिनों में
भीग चुके बिजली के बोर्ड पर
लापरवाही से पड़ जाता है हाथ
लगता है एक झटका
और मैं झनझना जाती हूँ
ऐसे लगता है
जैसे जिस्म के भीतर कोई चिड़िया जग गई है
मैं डर जाने का अभिनय भी करती हूँ
जैसे निकल ही गई थी जान मेरी
शाम तक होती है सिरहन
चिड़िया के फड़फड़ाने से

उम्र-क़ैदी की दाढ़ी माफ़िक़ बढ़ गई है घास
बारिशजने मकौड़े कुलबुला रहे हैं
उनके चमकते जिस्म से झुनझुनी छूटती है
यह क्या हो रहा है मेरी शाकाहारी इच्छाओं को ?

गली के लैम्प कुछ मद्धम है
बरसात के बाद
ग़ैरज़रूरी है इनका जलना जैसे
एक लंबी बहस की तरह चली है यह बरसात
इसके बाद सभी का थकना और चुप हो जाना बनता है
सिवा उन ज़िद्दी पतंगों के
जो सर्द लैम्पों को छेड़ेंगे रात भर
सुबह मोहब्बत के मारे कहलाएंगे

खिड़की के कांच पर जमी बूँदें
रिस रही है
रेंग रही हैं
मेरी बाजू पर
नहीं नहीं चिड़िया के परों पर
***

3
तुम्हें देखकर मैं अक्सर सोचती थी
असामान्य होगा तुम्हारा घर
कैसी होगी खाने की मेज़
तुम्हारी माँ के लम्बे होंगे बाल
लगाती होगी वह खुशबूदार तेल
जिसकी ख़ुशबू तुम्हारे बस्ते से आती है
हर रात सोने से पहले
थोड़ा और हौसला बढ़ाकर
सोचती थी तुम्हारे घर के बारे में
सिर्फ़ तुम्हारे बारे में सोचने में डर लगता था
तुम्हारी आस पास के चीज़ों को सोचते सोचते
एक क्षण सिर्फ़ तुम्हारे बारे में सोचना
मेरी चतुराई का प्रथम पाठ था

मुझे यक़ीन था
आठवीं तक आते मैंने देख लिया होगा तुम्हारा घर
तुम्हारी माँ का ड्रेसिंग टेबल
चुपके-चालाकी से रख दूँगी वहां अपनी कोई चीज़

मुझे पूछना था तुमसे अगले ही दिन
बातों बातों में
तुम्हारी माँ से करते हुए चुहल
टिफिन लिए
तुम्हारे पिता जी बैग उठा कर कहाँ जाते हैं

अगले ही दिन तुम मिले
यह कहते हुए टीचर से
कि तुम नहीं अब से आओगे इस स्कूल
तुम्हारे पिता जी का तबादला हो गया है
सुनाई नहीं दिया कि यह कौन सा शहर होगा
पर मैंने समझ लिया ज़रुर यह कानपुर होगा

कानपुर मेरे लिए दूरस्थ शहर था
कोई ट्रेन सीधी नहीं जाती वहां तक इस शहर से

यहाँ सब कुशल मंगल है
ख़ुशबूदार तेल लगाती हूँ अब मैं भी
कानपुर तक सीधी ट्रेन अभी शुरू नहीं हुई है
चातुर्य अभ्यास पड़ा हुआ है
उपेक्षित जैसे कोई वस्तु घर में
नौकरीशुदा लोगों से पहला प्रश्न पूछती हूँ
क्या उनकी नौकरी मैं है तबादले का विधान


और तबादला लगा है मुझे खुरदरा सरकारी शब्द
जिसका निजी अर्थ है
कानपुर की असह्य शीतलहर
***
11 सितम्‍बर 1977 को नकोदर, जालंधर(पंजाब) में जन्‍मीं मोनिका कुमार चंडीगढ़ के एक राजकीय महाविद्यालय में अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं। वे कुशल अनुवादक भी हैं। उनसे इस ई-मेल पर सम्‍पर्क किया जा सकता है- turtle.walks@gmail.com   
***
यह अनुनाद की 575वीं पोस्‍ट है। 

Wednesday, September 26, 2012

मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको

मैंने यह पोस्‍ट बहुत पहले कबाड़खाना पर लगाई थी। इधर 'कल के लिए' का अदम विशेषांक पढ़ते हुए मुझे इस कविता की याद आई...सो अनुनाद के पाठकों के लिए इसे यहां फिर लगा रहा हूं। अदम ग़ज़लों-नज्‍़मों के जनवादी कार्यकर्ता ताउम्र रहे। हम अब उन्‍हें बहुत आदर से याद कर रहे हैं...अधिक सार्थक होगा कि हम उनके लिखे को भी उतनी ही शिद्दत से याद करें, जनता में तो ख़ैर अब ये एक स्‍थायी याद है....      

*** 
मंगलेश डबराल की लिखी भूमिका का एक अंश 

कोई छह साल पहले लखनऊ के अख़बार अमृत प्रभात के साप्ताहिक संस्करण में अदम गोंडवी उर्फ़ रामनाथ सिंह की एक बहुत लम्बी कविता छपी थी : `मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको´ उस कविता की पहली पंक्ति भी यही थी। एक सच्ची घटना पर आधारित यह कविता जमींदारी उत्पीड़न और आतंक की एक भीषण तस्वीर बनाती थी और उसमें बलात्कार की शिकार हरिजन युवती को `नई मोनालिसा´ कहा गया था। एक रचनात्मक गुस्से और आवेग से भरी इस कविता को पढ़ते हुए लगता था जैसे कोई कहानी या उपन्यास पढ़ रहे हों। कहानी में पद्य या कविता अकसर मिलती है - और अकसर वही कहानियां प्रभावशाली कही जाती रही हैं जिनमें कविता की सी सघनता हो - लेकिन कविता में एक सीधी-सच्ची गैरआधुनिकतावादी ढंग की कहानी शायद पहली बार इस तरह प्रकट हुई थी। यह अदम की पहली प्रकाशित कविता थी। अदम के कस्बे गोंडा में जबरदस्त खलबली हुई और जमींदार और स्थानीय हुक्मरान बौखलाकर अदम को सबक सिखाने की तजवीव करने लगे - मंगलेश डबराल, १९८८- "धरती की सतह पर " की भूमिका से )
अदम गोंडवी
***

आइए महसूस करिए जिन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी की कुएं में डूब कर


है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेखबर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा -काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आखिर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पांव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे जिन्दा उनको छोडेंगे नहीं


कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करें
बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गंवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गांव की गलियों में क्या इज्जत रहे्गी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूंछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हां मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर जोर था
भोर होते ही वहां का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर- माल वो चोरी का तूने क्या किया

कैसी चोरी माल कैसा -उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

मेरा मुंह क्या देखते हो ! इसके मुंह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूंक दो

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहां चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहां खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूं कोई कहीं जाए नहीं

यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े - इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा'
इक सिपाही ने कहा- साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें

बोला थानेदार -मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है


पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल-
कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल'

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूं आएं मेरे गांव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छांव में

गांव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
***  

Sunday, September 23, 2012

अपने जनपद का पक्षी विश्‍व गगन को तोल रहा है (केशव तिवारी की कविता) -शिरीष कुमार मौर्य

आसान नहीं विदा कहना - केशव तिवारी 


गद्य के इलाक़े में मेरी यात्रा अभी शुरू ही हुई और इस शुरूआत में मैंने कुछ समीक्षात्‍मक - संस्‍मरणात्‍मक लेख लिखे हैं, जिनका एक संग्रह उपलब्‍ध है। अब तक मैंने जिन भी कवियों पर लिखा, उनके कविकर्म को देखूं तो तुरत अहसास होता है कि केशव तिवारी पर लिखना निश्चित रूप से अलग होगा। ऐसा अहसास मुझे इससे पहले सिर्फ़ हरीशचन्‍द्र पांडे की कविता पर लिखते हुए हुआ है। केशव तिवारी की कविता में उपस्थिति, कुछ अपनी शान्‍त गति और इधर हिंदी में हो रही आलोचना की कुछ दुर्गति के कारण उस स्‍तर पर रेखांकित नहीं हो पायी है। ऐसा नहीं है कि केशव तिवारी पर बिलकुल ही लिखा नहीं गया... लिखा गया है पर उसमें लोक, गांव-जवार, खांटी देशजता आदि के उल्‍लेख इतने अधिक हैं कि आधुनिकता और उस पर आसन्‍न सामाजिक-राजनीतिक संकटों का सामना करने की कसौटी पर केशव के लिखे का मूल्‍यांकन हो ही नहीं पाया। इस सत्‍य को स्‍वीकारने का समय आ गया है कि गांव पर लिखी कविता भी जितना नागरिक जीवन में पढ़ी जाती है, उतना ग्रामीण जीवन में नहीं। ग्रामीण जीवन का असली साहित्‍य तो अपनी ही कुछ परम्‍पराओं और बोली-बानियों में है। फिर देखना होगा कि गांव भी वही नहीं रहे जो कुछ बरस पहले तक थे। लोक की गरिमा गिरी है और उसे महज कुछ पेड़ों, फूलों, ऋतुओं, गंवई शब्‍दों के इस्‍तेमाल, भूगोल-विशेष के बनावटी चित्रण आदि से नहीं बचाया जा सकता।
***
मार्मिकता एक मूल्‍य होता था लोकधर्मी कविता का... वह खोता-सा गया है। बदलाव के नाम पर फूहड़पन पसरने लगा है। गांव-गांव में मोबाइल फोन है... और उस पर गीत-संगीत का विकट वीभत्‍स भंडार है। पहले हम कविता में आ रहे लोकदृश्‍यों में बिंध कर रह जाते थे... अब उसे एक विवरण की तरह पढ़ते हैं। लोकधर्मिता के नाम पर दरअसल अब कुछ पुरास्‍मृति के बिम्‍ब वास्‍तव में घटित होते दिखाए जा रहे हैं कविता में। जो नष्‍ट हो रहा है, उसके वास्‍तविक प्रमाण नहीं मिल पा रहे। ऐसे में केशव तिवारी की कविताएं बहुत हद तक वर्तमान का सामना करती हैं। वे नष्‍ट होते हुए को कोशिश भर सहेजती हैं, उसके दस्‍तावेज़ बनाती हैं और नष्‍ट करने वाली ताक़तों की शिनाख्‍़त भी करती हैं।
***
लोकजीवन में जो कुछ भी नष्‍ट हुआ या हो रहा है, उसमें सभी कुछ अच्‍छा नहीं था। लोकजीवन में विकट सामन्‍ती तत्‍व थे, धार्मिक आडम्‍बर थे, छुआछूत और तमाम तरह के भेदभाव थे...आधुनिक भावबोध ने उन्‍हें नष्‍ट किया है तो यह सार्थकता है उसकी। लेकिन लोक में जीवट है, सताए हुओं की बद्दुआ है, मनुष्‍यता के लिए लड़ने के उदाहरण है, धरती और पर्यावरण को इस्‍तेमाल करने का एक सलीका है... यह सब किसी भी क़ीमत पर बचाया जाना चाहिए। इधर मैं देख रहा हूं कि लोकधर्मी कहलाए जाने वाले कुछ युवा कवियों में लोक तो बहुत लदा हुआ है पर उसे व्‍यक्‍त करने की सही राजनीति और विचारधारा से उनकी कोई निकटता धरातल पर नहीं दिखती। ऐसे कवियों से विनम्र स्‍वर में कहना चाहूंगा कि केशव तिवारी का नाम और काम एक अनूठा उदाहरण है, राजनीति और विचारधारा के इस सन्‍दर्भ में। उनकी बहुत खुलकर सांस लेती वामपंथी राजनीति और वैचारिकी है, जिससे उनकी कविता को ज़रूरी औज़ार मिलते हैं – इस अर्थ में यह कवि एक प्रेरणा हो सकता है।    
***
केशव तिवारी का पहला संग्रह मैं नहीं देख पाया हूं पर उनका पतला-सा दूसरा संग्रह ‘आसान नहीं विदा कहना’ मेरे सामने है, जिसमें कविताओं की संख्‍या भले कम हो पर प्रगतिशील वैचारिकी को विस्‍तार देता अनुभव संसार भरपूर है। मैंने इस लेख को जो शीर्षक दिया है, वो ‘तिरलोचन’ के लिए लिखी कवि की इन पंक्तियों से लिया है –

अपने जनपद का पक्षी वह
विश्‍व गगन को तोल रहा है

केशव तिवारी की कविताओं से गुज़रते हुए भी ये अहसास बना रहता है। वे वैश्विक संकटों के प्रति सजग कवि हैं और कविता में अपने हथियारों के साथ उनका सामना करते हैं। नई अवधारणाओं ने समस्‍याओं के हल निकालने के नाम पर बहुत चतुराई से पूंजी के वर्चस्‍व और नवसाम्राज्‍यवाद के हित में नए खेल किए हैं। केशव तिवारी की मर्मबेधी दृष्टि उन पर बनी हुई है –

यह वक्‍़त ही
एक अजीब अजनबीपन में जीने
पहचान खोने का है
पर ऐसा भी हुआ है
जब-जब अपनी पहचान को खड़ी हुई हैं कौमें
दुनिया को बदलना पड़ा है
अपना खेल

ध्‍यान देना होगा कि केशव तिवारी की कविता में आने वाली यह कौमें, नस्‍लें और क़बीले नहीं हैं ... अपने-अपने भूगोल और संस्‍कृति में आबाद एकजुट मनुष्‍य हैं। जिसे दुनिया कहा गया, वो हमारे वक्‍़त की अकादमियां हैं...जहां से ज्ञान के साथ-साथ षड़यंत्रों और दुश्‍चक्रों का भी फैलाव होता रहा है.. और यह होना जारी है, साथ ही जारी है उनकी शिनाख्‍़त भी।
***
केशव तिवारी की कविताओं में लोक क्‍या है .... वह दरअसल बंधन से अधिक एक अतिक्रमण है। लोक की बात करते हुए उसे अपने साथ लिए बाहर की दुनिया में उसका हित-अहित दिखाने का हुनर इस कवि में है। उदाहरण के लिए एक कविता है यहां ‘डिठवन एकादशी’ नाम से। यह एक लोक-परम्‍परा के बारे में है, जिसमें इस ख़ास दिन गांव की ग़रीब मेहनतकश औरतें मुंह अंधेरे उठकर गन्‍ने के टुकड़े से सूप पीट-पीट का अपने चौतरफ़ा फैले दरिद्दर को गांव के बाहर खदेड़ने का उपक्रम करती हैं, लेकिन –

यह एक रस्‍म बन गई है धीरे-धीरे
ये जान चुकी हैं
कि इस तरह नहीं भागेगा दलिद्दर
लेकिन उसे भगाने की इच्‍छा
अभी बची है इनमें

ये स्त्रियां उसी ‘जन’ की प्रतिनिधि चरित्र हैं, जिसे हमने नागार्जुन, त्रिलोचन और केदार की कविता में लगातार लड़ते-भिड़ते देखा है – जिसमें जीवन को बदलने की इच्‍छा बची है अभी और कई कड़ी मारों के बावजूद जीवट भी। इसके बाद कविता उस दिशा में मुड़ती है, जिसे मैंने अभी अतिक्रमण कहा -    

ये जान नहीं पा रही हैं
आखिर दलिद्दर टरता क्‍यों नहीं
ये नहीं समझ पा रही हैं
कि कुछ लोग इसी के बल जिन्‍दा हैं
उनका वजूद
इनकी भूख पर टिका है
जिसे गन्‍ने से सूप बजाकर
खदेड़ा नहीं जा सकता

जिस दिन इस रस्‍म में
छिपे राज को ये समझ जाएंगी
इस दिन से इनके जीने की
सूरत भी बदल जाएगी।

यहां केशव लोक से आई एक रस्‍म का जिक्र करते हुए उस लोक और उसमें रहनेवाली उन स्त्रियों का दैन्‍य भर नहीं दिखाते, उस रस्‍म–विशेष के राज़ को समझते हुए ‘कुछ लोगों’ की निशानदेही करते हैं। समझ पाना मुश्किल नहीं कि ये उंगली कवि के अपने इलाक़े बुन्‍देलखंड में अब भी व्‍याप्‍त उस अलक्षित-सी सामंतशाही की ओर उठी है, जो ख़ुद परम्‍परा में लोक का एक अंग रही है। केशव, केदार के जनपद के कवि हैं। उन्‍होंने केदार से धरती ही नहीं, विचार भी साझा किया है.... इस कविता में वे इसी साझी विचारधारा के साथ यह अतिक्रमण इसलिए करते हैं कि लोक में किसी तरह वर्ग की समझ जागे। केदारनाथ अग्रवाल ने जीवन भर यह प्रयास किया और अब कितनी ख़ुशी की बात है कि इस विरासत को समझने-सम्‍भालने वाला एक और कवि उसी धरती पर कर्मरत है, उसी विचार के साथ। इस बात को स्‍वीकारने में कोई उलझन नहीं होनी चाहिए कि वर्ग और वर्ग-संघर्ष की समझ के बिना लोक और लोक-संघर्ष की हमारी समझ न सिर्फ़ अधूरी है, बल्कि आत्‍मघाती भी। 
***
इधर की कविता के सामने एक चुनौती यह भी दिखाई दे रही है मुझे कि उसमें भावुकता का लोप हो रहा है, निष्‍ठुर प्रसंग बढ़ रहे हैं जीवन में तो जाहिर है कि कविता में भी बढ़ेंगे ही पर मेरे लिए एक न्‍यूनतम भावुकता कविता का मानवीय मूल्‍य है। मैं ख़ुद आजकल अपनी कविता में इससे वंचित हो जाता हूं तो लगता है कि बिना रिखब का कोई राग गा रहा हूं – हालांकि वह राग है पर उसमें कोमलता लगभग नहीं है। लगता है सब कुछ गांधार और धैवत की गम्‍भीरता और चमत्‍कारों में खो-सा रहा है। किंचित विषयान्‍तर होगा यह कहना पर प्रसिद्ध गायिका अश्विनी भिड़े देशपांडे ने एक  साक्षात्‍कार में इंगित किया है कि 'अगर किसी राग में ऋषभ कोमल है तो धैवत को भी कोमल होना चाहिए।'  एक कोमल सुर दूसरे को भी कोमल बना देता है ताकि दूसरे सुरों में संवाद कायम रह सके। हम इतने क्रूर नहीं हो सकते कि जीवन के रागों में कहीं भी एक कोमल ऋषभ न बचा पाएं। इसे बचाने से कुछ मनुष्‍यता बचती है। मुझे ख़ुशी होती है देखकर कि केशव तिवारी की कविताओं में यह तत्‍व बचा हुआ है। पूरे संग्रह में ऐसे कई प्रसंग हैं। कम बात नहीं है कि केशव तिवारी वैचारिक चुनौतियों का प्रतिबद्ध सामना करते हुए भावों का एक पूरा लोक अपने भीतर बसाए हुए हैं।
केशव तिवारी के संग्रह पर ये मेरा द्रुत पाठ है, कई सुरों को छूकर आगे बढ़ना नियति है ऐसी पढ़त की। ऐसे ही एक छुए हुए सुर पर फिर लौटते हुए इतना और निवेदन है मेरा कि केशव तिवारी की कविता के सन्‍दर्भ में लोक के  बरअक्‍स हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा प्रयुक्‍त शब्‍द ‘जन’ मुझे अधिक प्रासंगिक लगता है। इस ‘जन’ के जनवाद में बदल जाने की कथा सब जानते हैं और जाहिर है कि केशव तिवारी की कविता भी कोरी लोकवादी कविता न होकर व्‍यापक अर्थों में जनवादी कविता है।
***

कवि का संक्षिप्‍त परिचय      
             
जन्‍म 4 नवम्‍बर 1963 को अवध के जिला प्रतापगढ़ के एक छोटे से गांव जोखू का पुरवा में। वाणिज्‍य से स्‍नातक केशव तिवारी बांदा में हिंदुस्‍तान यूनीलीवर के विक्रय विभाग में काम करते हैं। इस संग्रह से पूर्व रामकृष्‍ण प्रकाशन, विदिशा, म.प्र. से एक संग्रह 'इस मिट्टी से बना' नाम से 2005 में आया। जनवादी-प्रगतिशील सांस्‍कृतिक तथा सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय। 2009 में 'सूत्र सम्‍मान' से सम्‍मानित। यह दूसरा संग्रह रायल पब्लिकेशन, जोधपुर(राजस्‍थान) से 2010 में छपा है। कवि से द्वारा पांडेय जनरल स्‍टोर, कचहरी रोड, बांदा (उ.प्र.) पर पत्राचार किया जा सकता है। फोन नम्‍बर 9918128631 तथा ई मेल पता keshav_bnd@yahoo.co.in  है।     
-  शिरीष कुमार मौर्य 

Wednesday, September 19, 2012

प्रेमचंद गांधी की प्रेम कविताएं


प्रेमचंद गांधी
जयपुर में 26 मार्च, 1967 को जन्‍मे सुपरिचित कवि प्रेमचंद गांधी का एक कविता संग्रह ‘इस सिंफनी में’ और एक निबंध संग्रह ‘संस्‍कृति का समकाल’ प्रकाशित है। कवि ने कविता के बाहर भी समसामयिक  कला और संस्‍कृति के सवालों पर निरंतर लेखन किया है। कई नियमित स्‍तंभ लिखे। सभी महत्‍वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में इनकी उपस्थिति रही है। कविता के लिए लक्ष्‍मण प्रसाद मण्‍डलोई और राजेंद्र बोहरा सम्‍मान मिला।  विभिन्‍न सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की। कुछ नाटक भी लिखे, साथ ही टीवी और सिनेमा के लिए भी काम किया। दो बार पाकिस्‍तान की सांस्‍कृतिक यात्रा की, जिसका विवरण छपा और चर्चित हुआ है।

प्रेमचंद गांधी ने इधर काफ़ी प्रेम कविताएं लिखीं हैं और इन कविताओं का संग्रह जल्‍द छप रहा है। इधर के समय में प्रेम कविताओं के कुछ संग्रह आए हैं - मुझे हरि मृदुल, दुश्‍यन्‍त और जितेन्‍द्र श्रीवास्‍तव के नाम तुरत याद आ रहे हैं। हमारे युवा कवियों ने लगातार प्रेम कविताएं लिखीं, जिनमें गीत चतुर्वेदी और व्‍योमश शुक्‍ल का लिखा मेरी स्‍मृति में है। प्रेमचंद गांधी की प्रेम कविताएं भी इधर लगातार छप रही हैं। 

प्रेमचंद गांधी की प्रेम कविताएं एक ख़ास उम्र में सामने आ रही हैं, जिसे हम एक हद तक तपी और पकी हुई उम्र कह सकते हैं ... वरना तो एक प्रचलित धारणा रही है कि प्रेम कविताएं नई उम्र में लिखीं जातीं हैं और बाक़ी की उम्रों में स्‍मृति की तरह पढ़ी जातीं हैं। समकालीन हिंदी के कविता के हमारे अग्रजों में चन्‍द्रकांत देवताले और वीरेन डंगवाल ने हर नई-पुरानी उम्र में प्रेम कविता सम्‍भव की है और मुझे ख़ुशी है कि प्रेमचंद गांधी का नाम लगभग इसी सिलसिले को आगे बढ़ा रहा है। प्रचलित रूढ़ियों से परे इन कविताओं में प्रेम कई जानी-अनजानी दिशाओं में सम्‍भव हुआ है। अपनी बाक़ी बातें आनेवाले इस संग्रह के लिए सहेजकर अनुनाद पर इन कविताओं पर टिप्‍पणी करने का काम मैं अपने सुधी पाठकों पर छोड़ता हूं और इस पोस्‍ट के लिए अग्रज-मित्र कवि प्रेमचंद गांधी को शुक्रिया कहता हूं।    
***
सल्‍वाडोर डाली का प्रख्‍यात चित्र : तितली का भूदृश्‍य (गुगल इमेज से साभार)

संभावना की तरह मिलना

यह भी तो बसंत ही है
जिसमें हम मिले हैं
तमाम दूरियों के बावजूद
मैंने सिर्फ नाम से पहचाना तुम्‍हें कि
वही हो तुम
जिसकी तलाश थी मुझे
क्‍योंकि तुम्‍हारे नाम में ही छिपा था
वह अद्भुत तत्‍व
जो मैं पाना चाहता था बरसों से
तुम आईं मेरे जीवन में ऐसे
रेगिस्‍तान में आती है बारिश जैसे
पहला परिचय था नाम से हमारा
तुमने भी कैसे जाना होगा कि
सृष्टि में हमारा होना
सृष्टि की जरूरत है
जब सब तरफ खत्‍म हो रही थीं उम्‍मीदें
हम मिले
एक संभावना की तरह
यह मिलन महज संयोग नहीं है।
*** 

तुम्‍हारा आना

जैसे कोई नया बिंब
कविता में चला आये खुद-ब-खुद
शब्‍दों को नये अर्थ देता हुआ

जैसे कोई अकल्‍पनीय शब्‍द आये और
लयबद्ध कर दे पूरी कविता को
आंसू में नमक की तरह

असंख्‍य शब्‍दों की मधुमक्खियां
रचती हैं मेरी कविता
पता नहीं जीवन के कितने फूलों से
चुन कर लाती हैं वे रस
तुम्‍हारे आने और होने से ही
व्‍यापती है इसमें मिठास

मेरे मन के सुंदरवन में
नदी-सी बहती हो तुम
कामनाओं का अभयारण्‍य
तुम्‍हारे ही वजूद से कायम है

तुम्‍हारा होना
जैसे कविता में बिंब और शब्‍द
आंसू में नमक
शहद में मिठास
जंगल में नदी
जीवन में प्रेम।
*** 

प्रेम के दिन

कुछ तो अलग होते ही हैं
जब आसमान धरती के
इतना नजदीक आ जाता है कि
आप मनचाहा सितारा तोड़कर
प्रिय के बालों में लगा सकते हैं
फूल की तरह
और फूल तो खुद-ब-खुद
रास्‍तों में बिछे चले जाते हैं
चुंबनों की तरह

उन दिनों संकरी-तंग गलियों में भी
खिलने लगते हैं खुश्‍बू के बगीचे
लगातार चौड़ी होती सड़क के
बचे-खुचे पेड़ों पर परिंदे
बना लेते हैं घोंसले

बिना हील-हुज्‍जत के
खाकी वर्दी वाले कारिंदे
मामूली आदमी को बना लेने देते हैं
चौराहे पर कमाई का ठीया

एक मालिन बेचती है
नेता और देवताओं के लिए फूलमालाएं
प्रेमियों के लिए गुलाब मुफ्त देती है

अखबारों में न खबरें होती हैं
न ही विज्ञापन
ताजमहल, निशातबाग और
बेबीलोन के झूलते हुए बगीचों के साथ
संसार के सर्वाधिक सुंदर उद्यानों की तस्‍वीरें होती हैं वहां
टीवी के तमाम चैनल
खामोशी के साथ दिखाते हैं
प्रेम कथाएं और प्रेमगीत

सरकारें कूकती कोयल की तरह
चुपचाप पास कर देती हैं
प्रेम के समर्थन में सारे कानून
कहीं कोई विरोध नहीं होता

ऐसे दिन
इस पृथ्‍वी पर
नहीं हैं अभी
लेकिन कामना करने में क्‍या हर्ज है।
*** 

तुम्‍हारे बिना एक दिन

उदास राग में बजती सारंगी की तरह
गुजर जाता है एक दिन
जिसे अकेला सारंगीनवाज
किसी कब्रिस्‍तान में एक सूनी मजार पर बजाता है
बिना किसी साजिंदे के

कोई नहीं आता जैसे उजाड़ कब्रिस्‍तान में
न फातेहा पढ़ने ना फूल चढ़ाने
ऐसा भी होता है कोई एक दिन

यह तन्‍हाई का उर्स है
आंसुओं के आब-ए-जमजम से सराबोर
दिल की हर धड़कन गाती है
किसी की शान में नात
दर्द का रेला है जायरीनों जैसा
ज़ख्‍म हैं मेरे कि
फकीरों की लूटी हुई देग

किसके लिए गाते हो प्रेम
दीवानों की तरह
सुना है कोई मूरत ही नहीं
इस सनमखाने में।
*** 

टंगी हुई चीजों के बीच

एक ही खूंटी पर गुत्‍मगुत्‍था हैं
जींस और सलवार
बोसीदा कमरे में यह इकलौती खूंटी
राधाकृष्‍ण की तस्‍वीर और
सरकारी कैलेंडर की तारीखों में
दूध का हिसाब समेटे
लरजती है गुरुत्‍वाकर्षण में

टांगे जा सकने वाला
बहुत-सा सामान है
इस छोटे-से कमरे में
मसलन कुरता और कमीज
जो फर्श के बिस्‍तर पर
सिमटे हैं पूरी जल्‍दबाजी में
सिरहाने के पास
खादी का एक झोला
खिड़की के पास फर्श पर रखे
स्‍टोव पर टिका है अखबार बिछाकर और
थाम रखा है हिफाजत से
लेडीज पर्स को उसने

यूं तो उस तस्‍वीर को भी
दीवार पर टंगा होना चाहिए
जो खिड़की के नीचे बने ताक में
मसालों और रसोई के सामान के बीच
एक युवा दंपति की मुस्‍कान बिखेर रही है

छोटे-से बिस्‍तर पर बिछी
इस चादर को धुलने के बाद
अलगनी पर टंगा होना चाहिए था
जिसे एक बार उल्‍टा कर
फिर से बिछा दिया गया है

एक सूटकेस पर दो बैग
उन पर एक कंबल और रजाई
फिर उन पर कपड़ों की एक ढेरी
यानी बहुत-सी ऐसी चीजें
जिन्‍हें दीवार पर टंगा होना चाहिए

यूं हर दीवार पर ढेरों निशान हैं
जीवन में बहुत गहरा धंसने की इच्‍छा के साथ
खूंटी ठोकने की कोशिशों के, लेकिन
दुनिया की दीवारें कहां पैबस्‍त होने देती हैं
एक सामान्‍य आदमी को
इसलिए वह कीलों को मोड़ देती है
मुड़ी हुई कीलों की तरह
अपने ही भीतर धंसते दो प्राणी
सिमटे हुए हैं इस बिस्‍तर पर
एक ही चादर के भीतर
कमरे में जिस तरह सामान
एक के ऊपर एक रखा है
यूं लगता है जगह सिर्फ दीवार पर बची है
क्‍या इन दो युवाओं को भी
दीवार पर नहीं होना चाहिए
अपना एक निजी स्‍पेस बनाते हुए।
***

एक सरल वाक्‍य

एक सरल वाक्‍य के सहारे
न जाने कितने बीहड़ों में चला जाता हूं
भाषा की दुरुह पगडंडियों पर चलते हुए
एक सरल वाक्‍य तक आता हूं
इस जोखिम भरे समय में
जब साफ-साफ कुछ भी कहना
खतरे से खाली नहीं
हर बात के हजार मतलब हैं
कोई भी वक्‍तव्‍य गैर-राजनैतिक नहीं
मैं मनुष्‍य के मन की
सबसे गहरी राजनैतिक बात कहता हूं
मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूं
यानी एक सीधा-सरल वाक्‍य लिखता हूं।
***

तुम्‍हारी अनुपस्थिति में

रोज़ सुबह निकलता हूं घूमने के लिये
मैं हवा की हथेलियों पर
लिखता हूं तुम्‍हारा नाम और
गहरी सांस लेता हूं
हवा मुझे दुलराती है
थपकियां देती है
तुम्‍हारे नाम के अंतरिक्ष में
बांहें फैलाता हूं मैं और
खुद को भूल जाता हूं
तुम्‍हारे नाम की पृथ्‍वी पर घूमता हूं मैं
और लिपट-लिपट जाती है पृथ्‍वी मुझसे
एक दिन मैं इसी में विलीन हो जाउंगा
मेरा नाम तुम्‍हारे नाम में घुलता चला जायेगा
जिंदगी का एक नया सफहा खुलता चला जायेगा।
*** 

आंसुओं की लिपि में डूबी प्रार्थनाएं

सूख न जायें कंठ इस कदर कि
रेत के अनंत विस्‍तार में बहती हवा
देह पर अंकित कर दे अपने हस्‍ताक्षर
सांस चलती रहे इतनी भर कि
सूखी धरती के पपड़ाये होठों पर बची रहे
बारिश और ओस से मिलने की कामना
आंखों में बची रहे चमक इतनी कि
हंसता हुआ चंद्रमा इनमें
देख सके अपना प्रतिबिंब कभी-भी

देह में बची रहे शक्ति इतनी कि
कहीं की भी यात्रा के लिये
कभी भी निकलने का हौसला बना रहे
होठों पर बची रहे इतनी-सी नमी कि
प्रिय के अधरों से मिलने पर बह निकले
प्रेम का सुसुप्‍त निर्झर।
***

तुम्‍हारे जन्‍मदिन पर

फूलों की घाटी में
प्रकृति ने आज ही खिलाये होंगे
सबसे सुंदर-सुगंधित फूल
आसमान के आईने में
पृथ्‍वी ने देखा होगा
अपना अद्भुत रूप

पक्षियों ने गाये होंगे
सबसे मीठे गीत
तुम्‍हारी पहली किलकारी में
कोयल ने जोड़ी होगी अपनी तान
सृष्टि ने उंडेल दिया होगा
अपना सर्वोत्‍तम रूप
तुम्‍हारे भीतर
आज ही के दिन
कवियों ने लिखी होंगी
अपनी सर्वश्रेष्‍ठ कविताएं
संगीतकारों ने रची होंगी
अपनी सर्वोत्‍तम रचनाएं
आज ही के दिन
शिव मुग्‍ध हुए होंगे
पार्वती के रूप पर
बुद्ध को मिला होगा ज्ञान
फिर से जी उठे होंगे ईसा मसीह
हज़रत मुहम्‍मद ने दिया होगा
पहला उपदेश।
***

बारिश में प्रेम

भंवरे को कमल में क़ैद होते
मैंने नहीं देखा
एक अद्भुत लय और ताल में बरसती बारिश
और धरती के बीच
तुम्‍हारा-मेरा होना
जैसे समूचे ब्रह्माण्‍ड के
इस अलौकिक उत्‍सव में शामिल होना

हमारी तमाम इंद्रियों को झंकृत करता
यह बरखा-संगीत
गुनगुना रही है वनस्‍पति
हवा के होठों पर
बूंदों की ताल पर
रच रहा है क़ुदरत की हर शै में
हमारे सिर पर आसमान
पैरों में पहाड़
बरसता जल हमारे रोम-रोम से गुज़रता
पहाड़ से नदी, नदी से सागर जायेगा
अगले बरस हमें फिर नहलायेगा
आओ
अब सम पर आ चुकी है बारिश
हम कामना करें
अगले बरस जब बरसे पानी तो
उसमें आंसुओं का खारापन न हो
और न हो ऐसी बारिश
जो आंखों से भी बहती देखी जा सके
लो अब रवींद्र संगीत में
डूबती जा रही है बारिश

ध्‍वनिल आह्वान मधुर गम्‍भीर प्रभात-अम्‍बर माझे
दिके दिगन्‍तरे भुवनमन्दिरे शांति-संगीत बाजे। *
* कविगुरु रवींद्र नाथ टैगोर की काव्‍य-पंक्तियां
***  

आवाज़

वह आई और कानों के रास्‍ते
रोम-रोम में व्‍याप गयी
उसे अपने भीतर मैं महसूस करता हूं
सांस और लहू की तरह

उसके आने का कोई तय वक्‍त नहीं
कभी वह मरुस्‍थल में भटके मेघ-सी आती है
तो कभी चूजों को दाना-पानी देती
चिडि़या की तरह बार-बार
वह जब भी आती है
नये रूप में आती है
एक पुराने दोस्‍त के यक़ीन जैसी
खिलखिलाती हुई अल्‍हड़ हंसी जैसी
उसका कोई मुकम्मिल चेहरा नहीं
बच्‍चे के स्‍वप्‍न में उड़ती
सफ़ेद परी-सी है वह
या चांद-सितारों की मनभावन
रोशनी जैसी कुछ-कुछ या
फूलों के खिलने पर मुस्‍कुराती क़ुदरत जैसी
मैं उस आवाज़ का चेहरा
कभी नहीं बना सकूंगा
ऐसा लगता है जैसे वह
किसी और की नहीं
मेरी ही आवाज़ है
कहीं और से आती हुई।
***

दर्द बांटता हूं

तुम्‍हें चोट लगी है
मैं दुखी हूं बहुत
मुझे होना चाहिये था वहां
तुम्‍हारे साथ
तुम्‍हें संभालने के लिए
ग़र हम साथ होते तो
तुम इस तरह बेध्‍यान नहीं होती
मेरे ख़यालों में
सुनो
जहां लगी है चोट तुम्‍हें
वहीं मुझे भी दर्द होता है
मैं दर्द बांटता हूं
तुम प्‍यार बांटते रहना।
***

प्‍यार की पीली धूप में

कोहरे में लिपटी हुई सुबह
जैसे तुम्‍हारे चेहरे पर गेसू
यह सिंदूरी सूरज
तुम्‍हारे माथे की बिंदिया-सा
ये उड़ान भरते परिन्‍दे
तुम्‍हारी आंखों में तैरते शरारे जैसे
सर्दियों की यह कंपकंपाती हवा
जैसे तुमने बुदबुदाया हो
नींदों में मेरा नाम
कांपते होठों से बेआवाज़

हमारे प्‍यार की पीली धूप है यह
हम दोनों को गरमाती हुई
तुम बैठो यहां
सूरज की सुनहली किरणों के शामियाने में
मैं तुम्‍हारे लिए चाय लाता हूं।
***

तुम्‍हें भूलता हूं

सब कुछ याद करके
तुम्‍हें भूलता हूं मैं
जैसे चन्‍द्रमा भूलता है
अमावस के दिन धरती को
सूर्यग्रहण के दिन जैसे
परिन्‍दे भूल जाते हैं
समय की चाल को
तुम्‍हारी खिलखिलाहट को याद कर
तुम्‍हें भूलता हूं मैं
जैसे पूनम की रात समन्‍दर भूल जाता है
शान्‍त रहने का सलीका
तुम्‍हारे तोहफों को खोलता हूं मैं
स्‍मृतियों को आंसुओं में घोलता हूं मैं
इस तरह भूलता हूं मैं तुम्‍हें जैसे
दिगम्‍बर होने की प्रक्रिया में
महावीर भूल गये होंगे वसन
समय का चाकू छीलता है मेरा वजूद
तुम्‍हारी बतकहियों के तारों में झूलता हूं मैं
तुम्‍हें इस तरह भूलता हूं मैं
जैसे सुबह का तारा भूल जाता है
बाकी तारों के साथ घर जाना
जैसे झुण्‍ड का आखिरी पशु
भूल जाता है सबके साथ जाना
मेरी आदतों में शुमार हो तुम
इसलिये चाहता हूं भूल जाना तुम्‍हें
सिगरेट की तलब की तरह
पुश्‍तैनी आस्‍था में
थाली का पहला कौर
अलग रखने की तरह
सत्‍तू में चीनी घोल कर
नमक के पुराने स्‍वाद की तरह
तुम्‍हें भूलता हूं मैं

कुछ नहीं बोलता हूं मैं
नहीं कुछ सोचता हूं मैं
तुम्‍हारे बारे में
ख़ुदी को मुल्जिम और मुंसिफ़ मान कर
तौलता हूं मैं
यादों की बामशक्‍कत क़ैद की सज़ा देकर
तुम्‍हें भूलता हूं
मत कहना अब किसी से कि
तुम्‍हारी आंखों में
डबडबा आये आंसू की तरह
झूलता हूं मैं।
***

कुछ देर के लिए

कुछ देर तो कोहरा भी
सूरज को छुपा देता है
बादल भी चांद-सूरज को
अपने आगोश में लेते हैं
तूफानी हवाएं समन्‍दरों को
मथ डालती हैं
आंधियां उड़ा ले जाती हैं
बड़ी से बड़ी चीजों को अपने साथ

कुछ देर के लिए तो
चींटियां भी लिये जाती हैं
अपने से ज्‍यादा वज़नी
कीट-पतंगों की लाश को

ज़रा देर के लिए तो 
मज़बूत से मज़बूत इन्‍सान भी रो देता है
किसी मज़बूरी या मुसीबत में
कुछ देर तो कमज़ोर से कमज़ोर
आदमी के पास भी आ ही जाती है
महाबली जैसी शक्ति
अपने साथ घोर अन्‍याय के खिलाफ़

कुछ वक्‍त के लिए तो
विदूषक भी हो जाते हैं
महान राष्‍ट्रनायक और नायक विदूषक
कुछ देर तो बारिश में उड़ते कीट-पतंगे भी
जीना मुहाल कर देते हैं हमारा

कुछ समय के लिए तो
निरीह स्‍त्री भी बन जाती है शेरनी
दुष्‍कर्मी पुरुष के आगे
मासूम बच्चियां भी ताड़ लेती हैं
लोलुप निग़ाहों की दाहक वासना को
समय की अनन्‍त आकाशगंगा में
कुछ देर नाम का सितारा
तैरता रहता है अहर्निश
किसी परिन्‍दे के टूटे पंख की तरह

आओ प्रिये,
जहां ज़रूरी हो वहां
इस कुछ देर को स्‍थायी कर दें
और जहां ग़ैर-ज़रूरी हो
वहां से हटा दें
आखिर काल का प‍हिया
हमारे ही हाथों में है
तुम हांको रथ काल का
मैं इस पहिये को निकालता हूं
जो नियति के गड्ढ़े में धंस गया है
कुछ देर के लिए। 
*** 

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