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जितेन्द्र श्रीवास्तव |
जीवन के हड़कम्प में कई ज़रूरी काम छूट जाते हैं...कोई दो महीने पहले प्यारा दोस्त जितेन्द्र नैनीताल आया तो भेंट में दो ख़ूबसूरत किताबें मेरे नाम छोड़कर कर गया। मेरे अबूझ हठों और कभी अप्रिय लग सकने वाली मुद्राओं के बावजूद जिनसे दोस्ती सलामत और साबुत है, उनमें जितेन्द्र ख़ास है मेरे लिए। हम नौकरियों के लिए साक्षात्कारों में भटकते हुए एक-दूसरे से मिले थे और हमारा कविता में होना इस मिलने को मित्रता में बदलता गया। हमारी आपसी असहमतियों ने भी हमारी मित्रता को मज़बूती दी है , ऐसा जितेन्द्र से मिलते हुए हमेशा लगा। कई बार तो लगता है कि ये मेरी उद्दंडताओं और जितेन्द्र की शालीनता की दोस्ती है.. ख़ैर इन निजी प्रसंगों के बाहर ये जितेन्द्र के दो नए कविता संकलन हैं...पहला ज्ञानपीठ से 2011 में आया बिल्कुल तुम्हारी तरह दूसरा 2012 में किताबघर से आया कायान्तरण।
सबसे पहले तो शुक्रिया दोस्त जो तुमने इन्हें मुझे सौंपा पूरे विश्वास और प्यार के साथ। आगे इन दो संकलनों पर बारी-बारी कुछ बात....
बिल्कुल तुम्हारी तरह
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ज्ञानपीठ |
यह प्रेम कविताओं का संग्रह है। श्यामली के नाम इस किताब का समर्पण ही समूचे संग्रह की थीमलाइन है, इसी को पढ़ने भर से मैं समझ जाता हूं...ये सम्भाल कर पांव धरने की ज़मीन है...कोमल किंतु साहसी रिश्तों के बारे में कही गई बातों को उसी संसार में जाकर टोहना होगा, जहां ये जन्म लेती हैं...और जिन्हें संभव करने में ख़ुद जितेन्द्र के ही शब्दों में - हिल रहा है वही मन-पात ऐसे/ जैसे डोलता है शिशु कोई धरती पर क़दम धरते ...
मेरा मानना है कि प्रेमकविताएं लिखना भी उतनी ही जिम्मेदारी का काम है, जितना विचार की कविता लिखना. ...राजनीति की कविता लिखना। जितेन्द्र ने ये जिम्मेदारी बख़ूबी निभाई है। कहीं कोई अतिरिक्त बखान नहीं...बयान नहीं....धीरज कहीं नहीं टूटता...और प्रेम में होने का समर्पण इतना कि -
तब हम सुन सकेंगे शिकायतें एक दूसरे की पूरी निष्ठा से
हंस भी सकेंगे अपनी मूर्खताओं पर
और आज़मा सकेंगे अपना प्रेम दैहिक आवेग से परे
कविताओं में प्रेम आता है तो एक अनिवार्य-सी अद्भुत रागात्मकता लाता है। इस संग्रह की कविता उजास - कुछ कविताएं में नौंवी कविता इसका सबसे सही उदाहरण हो सकती है -
तुम्हें फूल होना था
तुम पत्ती हुई
मुझे रंग होना था
मैं पानी हुआ
पानी-पानी जवानी-जिन्दगानी हुई
कोई हैरानी नहीं कि इस संग्रह को पढ़ते हुए केदार याद आएं....उनकी हे मेरी तुम की तरह जितेन्द्र की टेक ओ प्राण मेरी। दरअसल इस टेक को पकड़ लेने से ही प्रेम अभिव्यक्त नहीं हो जाता....इस टेक को पूरी उत्कटता के साथ कविताओं में विस्तार देना होता है...जो जितेन्द्र ने किया है। देखिए कि यह कैसा प्रेम है, जहां -
प्रेम करते हुए हमने
नहीं पढ़ीं प्रेम कविताएं ....
प्रेम करते हुए हमने जाना
प्रेम करते हुए लोग
रचते हैं कविताएं एक-दूसरे में
एक-दूसरे का होना
उनकी कविता का पूरा होना है
इसी अनोखे अन्दाज़ में पूरी होतीं इस संग्रह की सभी कविताएं संग-साथ होने -रहने और रचने-बसने की कविताएं हैं। इनमें एक राग है, जो आलाप से लेकर ख़याल की विलम्बित, मध्य और द्रुत लय के साथ तराने तक का विस्तार पाता है। यहां टुकड़ों-टुकड़ों बंटा नहीं, समूचा प्रेमपगा जीवन और उसकी छोटी-बड़ी गतिविधियां मौजूद है। मैं सहज ही देख पा रहा हूं कि टूटन और उस टूटन को सैद्धान्तिक मान्यता दे देने के इस दौर में जुड़ने की थाह और राह पानी हो तो यह संग्रह एक अनिवार्य पढ़त बन जाता है।
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कायान्तरण
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किताबघर |
आज नेटवर्क जाम है
न फोन आता है
न जाता है
ख़बरों के मामले में
तुरंता हो चुकी इस दुनिया में
इस समय
निजी ख़बरों का टोटा है
लेकिन यही वे पल हैं
वे घंटे
जब आप निश्चिन्त हो सकते हैं
सो सकते हैं
जी सकते हैं
अपने लिए
प्रिया के लिए
दरअसल यह सैद्धान्तिक बहस है, जो जितेन्द्र के यहां कुछ ब्यौरों की सहजता का रूप धर लेती है किंतु उसके उत्स तक जाती है, जहां सुकून देते इस जाम में -
कुछ और लोग हैं
जो सही ठहराते हैं
ग़लत-सही
हर बदलाव को
और अमेरिका की ओर मुंह करके
झुकते हैं कमर तक
इस शिनाख़्त के बाद जितेन्द्र की कविता हिंदी में छीज रही उस प्रगतिशील परम्परा तक आती है, जिसमें -
..अभी सूखी नहीं है उम्मीद की नदी
अभी बाक़ी हैं बहुत से लोगों में प्रतिरोध जैसी आदतें
अभी लोग इतने विवेकशून्य नहीं हुए हैं
कि जान न सकें
कि तमाम शक्ति के बावजूद
अंतिम सत्य नहीं है अमेरिका
अमेरिका पर भारी पड़ेगी
मनुष्यता की जिजीविषा
संग्रह में एक लम्बी कविता जे.एन.यू. के बारे में है। शिथिल ब्यौरों से भरी लगने वाली ये कविता अपने अंडरकरेंट के साथ धीरे-धीरे तेज़ बहाव में बदलती है। कवि तेरह वर्ष बाद जे.एन.यू. पहुंचा है। सुखद है यह देखना कि वह किसी कवि की भंगिमा में नहीं, छात्र होने के अहसास के साथ वहां विचरता है। जे.एन.यू. जिस तरह वाम छात्र-आन्दोलनों का केन्द्र रहा है, वहां जाना महज एक जगह पर जाना नहीं है बल्कि एक समूचे समय में जाना है, उसके तीनों कालों के साथ। जितेन्द्र की इस कविता में जे.एन.यू. और उन आन्दोलनों की याद बसी है, जिसे वर्तमान के बरअक्स खड़ा करने पर कवि पाता है कि
यह हमारे समय की विडम्बना है
कि हमारे बीच तेज़ी से कम हो रहे हैं
चंद्रशेखर जैसे ओजस्वी, तेजस्वी और निष्कवच लोग
यहां से कवि की राजनीति का पता चलता है और आज की युवा हिंदी कविता में राजनीति का पता चलना मेरे लेखे एक बड़ी बात है। इस संग्रह में सत्ता से सीधा और बेहद तीखा संवाद है - सरकार की नज़र, लोकतंत्र में लोक कलाकार, प्रधानमंत्री का दुख ऐसी ही कुछ कविताएं हैं।
इस संग्रह में मुझे अपनी कोई एक पसन्द छांटनी हो तो मैं कायान्तरण को चुनूंगा, जो किताब का नाम भी है और जिसे मैं यहां पूरा उद्धृत कर रहा हूं...
दिल्ली के पत्रहीन जंगल में
छांह ढूंढता
भटक रहा है एक चरवाहा
विकल अवश
उसके साथ डगर रहा है
झाग छोड़ता उसका कुत्ता
कहीं पानी भी नहीं
कि धुल सके वह मुंह
कि पी सके उसका साथी थोड़ा-सा जल
तमाम चमचम में
उसके हिस्से
पानी भी नहीं
वैसे सुनते हैं दिल्ली में सब कुछ है
सपनों के समुच्य का नाम है दिल्ली
बहुत से लोग कहते हैं
उन्हें पता है
कहां क़ैद हैं सपने
लेकिन निकाल नहीं पाते उन्हें वहां से
हमारे बीच से ही
चलते हैं कुछ लोग
देश और समाज को बदलने वाले सपनों को क़ैदमुक्त कर
उन्हें उनकी सही जगह पहुंचाने के लिए
लोग वर्षों ताकते रहते हैं उनकी राह
ताकते-ताकते कुछ नए लोग तैयार हो जाते हैं
इसी काम के लिए
फिर करते हैं लोग
इन नयों का इन्तज़ार
प्छिले दिनों आया है एक आदमी
जिसका चेहरा-मोहरा मिलता है
सपनों को मुक्त कराने दिल्ली गए आदमी से
वह बात-बात में वादे करता है
सबको जनता कहता है
और जिन्हें जनता कहता है
उन तक पहुंची है एक ख़बर
कि दिल्ली में एक और दिल्ली है - लुटियन की दिल्ली
जहां पहुंचते ही आत्मा अपना वस्त्र बदल लेती है
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मैंने यहां जो कुछ नितान्त अपर्याप्त-सा लिखा है, मुझे पूरा यक़ीन है कि इतना भी पर्याप्त होगा इन किताबों का परिचय देने के लिए...क्योंकि मेरा मानना है कि कवि और कविता की ताक़त, समीक्षक और समीक्षा की ताक़त से कहीं आगे होती है..उसके पाठकों के बीच। जितेन्द्र अपने पाठकों के बीच अपनी कविताओं के साथ उपस्थित है.. और उसे ख़ुशआमदीद कहती आवाज़ें मैं ख़ूब अच्छे-से सुन पा रहा हूं। एक बार फिर इन किताबों के लिए और इन्हें पढ़ लेने के बाद कहूंगा कि इन कविताओं के लिए भी शुक्रिया दोस्त।
-शिरीष
यह "थोड़ा सा" जितेन्द्र की कविताओं तक पहुँचने की एक रौशन राह खोलता है. एक कवि की नजर से दुसरे कवि को देखना...
ReplyDeleteदोनों मित्रों को सलाम