अग्रज और वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल के प्यारे-से नए कविता
संग्रह ‘कभी के बाद अभी’ का शीर्षक बहुत आभार और विश्वास के साथ उधार लेते
हुए अनुनाद का यह एक नया स्तम्भ शुरू हो रहा है, जिससे मैंने बहुत उम्मीद लगा रक्खी है। योजना बहुत सरल है - अनुनाद कवियों
से उनके अब तक छपे संग्रहों से उनकी पसन्द की दो-दो कविताएं भेजने का आग्रह कर
रहा है...और हो सके तो दो बिलकुल नई कविताओं का भी। इस तरह कवि की यात्रा में उन
पड़ावों को पहचानने की कोशिश की जा सकेगी, जिन्हें ख़ुद कवि
ने इस रूप में देखा और चुना है। इस तरह की दस पोस्ट आने के बाद यह पूरी सामग्री
पुस्तक रूप में संकलित की जाएगी, जो अनुनाद पत्रिका का
दूसरा मुद्रित अंक भी होगा।
इस स्तम्भ के तहत मैंने पहला अनुरोध अग्रज कवि कुमार अम्बुज से
किया, जिसका बहुत स्नेहिल जवाब मिला और साथ में ये
कविताएं भी। इस स्नेह और जुड़ाव के लिए अनुनाद उन्हें शुक्रिया कहता है।
‘वह’ संधिकाल जहाँ एक उम्मीद मिल रही है
पिता की गहरी साहित्यिक रुचियों और उनकी कुछेक सफल-असफल सक्रियताओं
के चलते मेरे जीवन में कविता बहुत शुरू से मौजूद रही। प्रगतिशील कवियों को पढ़ते
लड़कपन गुज़रा। जवान हुआ तो नई चीज़ों की ओर उत्सुकता का बढ़ते चले जाना लाज़िमी
था। आज के सभी बड़े कवियों को पढ़ते हुए अट्ठारह की बिलकुल तनी हुई उम्र में मुझे
हिंदी कविता के देश में कुछ बिलकुल नए बाशिन्दे मिले, जिनमें कुमार अम्बुज का नाम सबसे पहले आएगा। हिंदी के बड़े कवि तब बहुत
सम्भावनाशील युवा कवि के रूप में उनकी शिनाख़्त कर रहे थे और उन्हें भारतभूषण अगवाल
पुरस्कार मिल चुका था...इन्तज़ार पहले संग्रह का था, जो आधार से आया –किवाड़। मैंने
यहां सिर्फ़ कवियों का उल्लेख किया है, आलोचकों का नहीं –
हिंदी की अपनी उम्रों की आलोचना पर से तो मेरा यक़ीन अब उठता जा रहा है।
एक संतुलित और सधे अन्तराल पर कुमार अम्बुज के संग्रह आते गए और
मैं भी अपनी दूसरी उम्रों में दाखिल होता गया। आज बतौर कवि कुमार अम्बुज और बतौर
पाठक मेरी यात्रा कुछ महत्वपूर्ण पड़ावों तक पहुंची है और मैं उनकी कविता के साथ अपनी
पढ़त के इस संयोजन को सम्भव करने बैठा हूं। कुमार अम्बुज की कविता-पंक्ति के
सहारे कहूं तो यह कई उम्रों का संधिकाल है, जहां
वाकई एक उम्मीद मिल रही है। स्पष्ट करना चाहूंगा कि मेरे लिए ‘उम्मीद’ जीतते जाने के दर्प का नहीं, हारते रहने के क्षणों का मूल्यवान शब्द है .... और सच भी।
***
नींद और नींद से बाहर - किवाड़
से कवि की पहली चयनित कविता है । इस कविता की शुरूआत में कवि की अपनी धरती आती है, जहां बचपन के फूल, अनाज के दाने और भूख के सपने, नींद के चमकदार सूप से झर रहे हैं। उन्हें फटके जाने के स्वर से समूचा
ब्रह्मांड गूंज रहा है। जाहिर है कि यहां कुमार अम्बुज आलोचना की भाषा में ताज़े-टटके
बिम्बों के कवि हैं लेकिन मेरे लिए यह बिम्बों की खोज का नहीं, जीवन
और उस पर आयद संकटों का मसला है। इसमें बिम्बों को सम्भव करने की उत्तेजना अथवा
उल्लास बहुत कम और उन्हें जी पाने की पीड़ा अधिक है। यह कविता बहुत जल्द नींद
से बाहर निकल आती है और एक कठिन सपने में बदल जाती है। यह अनभिज्ञताओं से भिज्ञताओं
तक की एक त्वरित यात्रा है, जिसमें रक्त की आवाज़ के अलावा कोई आवाज़ नहीं। यह दरअसल प्रतिबद्धताओं
से जुड़ाव और जीवन को एक मज़बूत विचार की धरती पर खड़े होकर देखने का सबसे ज़रूरी
दृश्य है। इसी संग्रह से कवि का दूसरा चयन है – प्रेम। हालांकि हर दौर में
प्रेम पर ढेरों कविताएं लिखीं गईं पर यही कविता के लिए सबसे कठिन विषय साबित हुआ
है। कुमार अम्बुज ने प्रेम को विषय बनाकर लिखी गई इस कविता में शीर्षक के अलावा
प्रेम शब्द का प्रयोग कहीं नहीं किया है – यानी अनकहनी ही तो कहनी है।
किवाड़ के कवि का दूसरा संग्रह क्रूरता आया - अनुमान लगाया जा सकता है कि कैसी
विकट समकालीन राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक जीवन-स्थितियों में कवि को अपनी कविता और
कविता संग्रह के नाम के तौर ऐसे शब्द का चयन करना पड़ा होगा। पहली कविता परिचय
में, जहां कहा गया है कि सुन्दरता की हिंसा में मारा गया एक
सरल मनुष्य ही अंतत: शाश्वस्त मनुष्य भी है, इतिहास और
और मिथकों का जाहिर प्रयोग किए बग़ैर भी मानवजाति का एक समूचा यात्रावृत्त मौजूद है।
इसी संग्रह से कवि की दूसरी पसन्द अड़तालीस साल का आदमी है, जो अपनी सोयी हुई पत्नी से अपने तमाम
किए-अनकिए के लिए क्षमा मांग रहा है – इस उम्र में जीवन अब ठीक बीचोंबीच है और
उससे जुड़े रिश्ते भी। यह वो बिंदु है, जहां से पीछे भी
देखना होता है और आगे भी। यह रेखागणित में काम आने वाले प्रकार की नुकीली धुरी के
जैसी उम्र वाली कविता है।
अनन्तिम कवि का लगभग चार वर्ष
के अन्तराल पर आया तीसरा संग्रह है। इसमें कवि की पहली पसन्द जब दोस्त के
पिता मरे शीर्षक वाली कविता है। उम्र में आगे बढ़ने पर वे दृश्य और घटनाएं अचानक
अधिक संवेद उत्पन्न करने लगती हैं, जिनका पिछली उम्रों में उतना प्रभाव नहीं
पड़ता था, जो बहुत दूर स्थित सामान्य सत्य की तरह होती थीं लेकिन एक उम्र के बाद
वे वर्तमान में बहुत नज़दीक खिसक आती हैं – मृत्यु ऐसी ही घटना और सत्य है,
जिसके बारे में समझ नहीं आता कि किससे कहें और क्या कहें। दूसरी कविता ज़रा-सी
ऊंचाई से जीवन को निरपेक्ष होकर देखने की कोशिश में बीच के कुछ निजी ब्यौरों किंवा
आत्मावलोकन के बाद दुबारा फिर उसी में घुलमिल जाने की कविता है।
अतिक्रमण चौथा संग्रह है.....अनन्तिम
में अंत का जो निषेध था, वह अतिक्रमण द्वारा ही सम्भव है। मैंने किसी भी कवि के
संग्रहों के नामों के बीच ऐसा संवाद बहुत कम देखा है। इस पुस्तक से कवि का चयन एक
और शाम और मानकीकरण है। यहां तक आते-आते कवि अपने वक्तव्यों में बहुत
आश्वस्त दिखाई देने लगता है, इतना कि बिम्ब भी बयान में बदल जाते हैं। बदले हुए
वक़्त में बिम्ब के बरअक्स बयान अधिक प्रभावी हो उठते हैं। संकेतों की जगह बहस
का होना ज़रूरी हो जाता है। इस बहस में कुमार अम्बुज अपने अब तक बने पूरे कवि-व्यक्तित्व
और वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ सामने आते हैं, जिसके प्रमाण अभी हाल में आए उनके पांचवे
संग्रह अमीरी रेखा से इसी नाम वाली कविता में भी बख़ूबी मिलते हैं, लेकिन
इसी संग्रह से उनकी दूसरी पसन्द यहाँ पानी चाँदनी की तरह चमकता है में
मानो क्रूरता, अतिक्रमण और अनन्तिम के दिन भी दुबारा लौटते हैं, जिसे
देखना पाठक के तौर पर एक सुखद अनुभव है, यहां बयान बिम्ब का रूप धरते हैं। ऐसा ही
कुछ अलग कहन में यहां प्रस्तुत दो असंकलित कविताओं में भी है। दरअसल यहां आकर मैं
जान पाता हूं कि हमारे समय में कुमार अम्बुज की कविता बिम्ब और बयान के बीच एक
मुश्किल संतुलन की कविता है और इस ख़ास अर्थ में इसके आसपास फिलहाल तो किसी दूसरे
कवि की कविता दिखाई नहीं देती। यह कुमार अम्बुज के कविकर्म की विशिष्टता है,
जिसे सहज ही देखा जाना चाहिए। अंत में इस पोस्ट को सम्भव बना पाने के लिए मैं अपने
प्रिय अग्रज कवि कुमार अम्बुज का फिर आभार मानता हूं।
-शिरीष कुमार मौर्य
***
नींद और नींद से बाहर
मेरी अपनी एक गहरी नींद है
जिसकी उम्र में शेष है पूरी रात
का समय
एक धरती है मेरी अपनी
जहाँ बचपन के फूल अनवरत झर रहे
हैं
झर रहे हैं अनाज के दाने
भूख का सपना नींद के चमकदार सूप
में झर रहा है
और दानों के फटके जाने की आवाज
पूरे ब्रह्माण्ड में गूँज रही है
नदी एक आँसू है
पृथ्वी के गाल पर बहता हुआ
मेरी नींद से बाहर की धरती पर
मेरे पूरे जीवन का समय शेष है
झर रहे हैं जहाँ मेरे सलोने जवान
दिन
भूख झर रही है सूखी पत्ती की तरह
नदी की गहराई बढ़ाते हुए
पिचक गए हैं पृथ्वी के सलोने गाल
नींद से बाहर नींद एक कठिन सपना
है
जहाँ
रक्त की आवाज के अलावा
नहीं है कहीं कोई आवाज।
(1988-किवाड़ में
संकलित)
***
प्रेम
यमुना का जल था एक आँसू
एक जगह थी
जो बार-बार रास्ते में आती थी
एक यथार्थ था
बार-बार सपनों में फैलता हुआ
एक चेहरा था
हर बार धुंध में खोता हुआ
एक प्रायश्चित था
जो हँस-हँसकर पूरा करना था
तीखी ढलान पर ठहरी हुई थी
हँसी!
(1990- किवाड़ में
संकलित)
***
परिचय
सुंदरता की हिंसा में मारा गया
मैं एक सरल मनुष्य हूँ
पक्षियों की बोली से मोहित
देह के वसंत में मूच्र्छित हुआ
झरी हुई पत्तियों पर
किसी के चलने की ध्वनि से भरा
मैं एक प्राचीन मनुष्य हूँ
पृथ्वी को हल की फाल से उर्वर बनाता
लकड़ी के लट्ठे से पार करता हुआ
सागर
और अपने नाद से भरता हुआ यह आकाश
मैं एक अपराजित वंश की आदिम पहचान
हूँ
काम-क्रोध-मद के लोभ में डूबा
ईष्र्या और प्रेम की अग्नि से
गुजरता हुआ
हर सुंदरता के मोह से ग्रसित
मैं एक सरल लालसा का
कठिन जीवन हूँ
समय की इस प्रेत योनि में
चिलचिलाती रेत में पोखर ढूँढ़ता
हुआ
बहुत पहले सुंदरता की हिंसा में
मारा गया
मैं एक शाश्वत मनुष्य हूँ।
(1991-क्रूरता में
संकलित)
***
अड़तालीस साल का आदमी
अपनी सबसे छोटी लड़की के हाथ से
पानी का गिलास लेते हुए
वह उसका बढ़ता कद देखता है
और अपनी सबसे बड़ी लड़की की चिंता
में डूब जाता है
नाईट लैम्प की नीली रोशनी में
वह देखता है सोयी हुई चवालीस की
पत्नी की तरफ
जैसे तमाम किये-अनकिये की क्षमा
माँगता है
नौकरी के शेष दस-बारह साल
उसे चिड़चिड़ा और जल्दबाज बनाते
हैं
किसी अदृश्य की प्रत्यक्ष घबराहट
में घिरा हुआ वह
भूल जाता है अपने विवाह की
पच्चीसवीं वर्षगाँठ
अड़तालीस का आदमी
घूम-फिरकर घुसता है नाते-बिरादरी
में
मिलता है उन्हीं कंदराओं में
उन्हीं सुरंगों में
जिनमें से एक लंबे युद्ध के बाद
वह बमुश्किल आया था बाहर
इस तरह अड़तालीस का न होना चुनौती
है एक
जिसे बार-बार भूल जाता है
अड़तालीस साल का आदमी।
(1991-क्रूरता में
संकलित)
***
 |
दूसरा संस्करण |
जब दोस्त के पिता मरे
बारिश हो रही थी जब दोस्त के पिता
मरे
भीगते हुए निकली शवयात्रा
बारिश की वजह से नहीं आये ज्यादा
लोग
जो कंधा दे रहे थे वे एक तरफ से
भीग रहे थे कम
सबसे पहले बारिश होती थी दोस्त के
पिता के शव पर
दोस्त चल रहा था आगे-आगे
निरीह बेहोशी से भरी डगमगाती हुई
थी उसकी चाल
श्मशान में पहुँचकर लगा बारिश में
बुझ जाएगी आग
कई पुराने लोग थे वहाँ जो कह रहे
थे कि नहीं बुझेगी चिता
हम सबने देखा बारिश में दहक रही
थी चिता
लौटने में तितर-बितर हुए लोग
दोस्त के कंधे पर हाथ रखे हुए
लौटा मैं
मुझे नहीं आया समझ कि क्या कहूँ
मैं उससे
मुझे तो यह नहीं पता कि कैसा लगता
है जब मरते हैं पिता
अब जब मर गये दोस्त के पिता तो
क्या कहूँ उससे
कि बारिश में हिचकी लेता उसका
गीला शरीर न काँपे
कौन-सा एक शब्द कहूँ उससे
सांत्वना का आखिर
यही सोचता रहा देर तक
रात को जब घर लौटकर आया
बारिश हो रही थी उसी तरह लगातार।
(1996-अनंतिम में
संकलित)
***
जरा-सी ऊँचाई से
वक्त नहीं है,
वक्त नहीं है कहता हुआ
सोचता हूँ मैंने बनना चाहा था
क्या यही जो कुछ बन बैठा हूँ
बोल रहा हूँ क्या अपनी ही भाषा चल
रहा हूँ क्या अपनी ही चाल
हँसता हुआ धीरे-धीरे उस शिल्प में
जिसमें कभी सोचा नहीं था कि
हँसूगा इस तरह
फिर-फिर छिपाते हुए अपना रोना
वासना की आड़ में
क्रोध में या दिन के कोने में
अपनी ही काया के विस्मृत उजाड़
में
देखता हूँ अपना ही जीवन जरा-सी
ऊँचाई से
बरसों पहलेवाले ‘मैं’ को मिलाते हुए आज से
ढ़ँूढ़ता हूँ खुद को
मगर मिलती ही नहीं वह तस्वीर
पुरानी
पड़ी होगी कहीं जो स्मृतियों के
अटाले में
छींकता हुआ इस जमाने की धूल में
बार-बार
आईने में क्या मैं अपना ही
प्रतिबिम्ब हूँ पूछता हुआ चुपचाप
जरा-सी ऊँचाई से
नीचे झाँकने पर दिखाई देता यह
कौन-सा प्रेत
दिन-रात बड़ा होता क्षण-क्षण होता
भयानक
यह बेचैन करती कामनाओं का अतीत या
एक भविष्य जो होना नहीं था
अब भाग रहा हूँ उससे बचने या उसे
बेहतर रूप में पाने
या इस दहशत से कि नहीं पाया जा
सकता उसे जो गुजर गया
इस तरह इतना शोकाकुल हूँ इतना थका
हुआ
कि खड़ा हूँ हाँफता हुआ यहाँ कमीज
की बाँह से पोंछता पसीना
देखता हुआ अपना ही भय अपना ही
रुदन
बस, जरा-सी ऊँचाई से।
(1996-अनंतिम में
संकलित)
***
एक और शाम
रोशनियों की कतारें अब मेरे भीतर हैं
कुछ उजाले बाहर छितरे हुए इधर-उधर
दिख रहे हैं
बिखरे हुए फूलों की तरह
फीकी पड़ रही दिन की चादर में
एक नए रंग का पैटर्न
यह संधिकाल जहाँ एक उम्मीद मिल
रही है
आर्द्रता में लिपटी हुई दूसरी
उम्मीद से
एक ढलती हुई निराशा
एक युवा होती निराशा से
ऋतुओं की अंतरिम सूचनाएँ बाहर आ
रही हैं
अभी-अभी दर्ज़ हुई है एक नयी ऋतु
जिसे कोई कीड़ा अपने अपूर्व राग
में गा रहा है
थकान के आगे अब
रात की लंबाई का निश्चिन्त
भविष्य है
रात एक विशाल खाली पात्र की तरह आ
रही है सामने
भरा जा सकेगा जिसमें आसन्न
दिवसातीत
हँसी की वह लपट,
लपलपाती इच्छा
और वह करुण ऊर्ध्व हूक जो उठती
ही जाती थी
यह शाम घट रही है किसी भी समय के
बाहर
बीत रहा है समय नश्वर
ठहरी हुई है अमर शाम की यह बेला
उदासी की बर्फ़ से टकराती हुई
परावर्तित होती हुई उत्सुकता के
जल से
चमकती हुई आकांक्षा की आँख में
अब इसमें संगीत की जगह निकल आई है
यहाँ बजाया जा सकता है संतूर
बल्कि बजने ही लगा है वायलिन
यह जलतरंग है
जो शाम की नसों में व्याप्त हो
रहा है
मुझे खेद है कि इस संगीत के
साक्षी हैं
भागती हुई उमस दिन भर का धुआँ
और जल्दबाज़ी के बीच मचलती हुई एक
टीस
और यह शाम है कि जिसे छुआ भी नहीं
जा सकता
जिसकी तसवीर खींचना नामुमकिन
इसमें रहते हुए सिर्फ़ इसे महसूस
किया जा सकता है
यह शाम है एक शरण
एक उल्लास एक घर
एक वास्तविक जगह
जिसकी तरफ़ लौटा जा सकता है
जैसे एक पक्षी घर की तरफ़ नहीं
लौटता है
इसी शाम की तरफ़ लौटता है।
(1999-अतिक्रमण में
संकलित)
***
मानकीकरण
कुछ ही दिन पहले तक आँखें बंद
करते हुए
शोर या चुप्पी की प्रकृति से भी
बताया जा सकता था
कि मैं अपने शहर में किस जगह पर
हूँ
अब तो शहर में सब तरफ़ से आती हैं
एक जैसी ही आवाज़ें
एक सरीखी दिखती हैं परछाइंयाँ
जिनके कद गड्ड-मड्ड
लेकिन बदहवासी में एकरूप
एक-से गाने उत्तेजना के एकल
संस्करण से उपजे
जिनसे बहुत मुश्किल है तय कर पाना
कि इस वक़्त आख़िर कहाँ हूँ मैं!
पेड़ों पर जानवरों पर
इमारतों पर
मनुष्यों और विचारों पर फैलता हुआ
यह कोई धुआँ है जो सब कुछ को
अजीब तरह से एक जैसा कर रहा है
गलियों के हर चैराहे पर एक सरीखी
रोशनियाँ हैं
एक जैसी निराशा
यह चमचमाती दुकान जिसके भीतर खड़ा
हूँ हतप्रभ
और ये वस्तुएँ जिनकी अभूतपूर्व
चकाचौंध से लथपथ
यह नया बनता हुआ लकदक पेट्रोल पंप
भी
मेरी सहायता करने में असमर्थ
यह सड़क जिसके किसी भी तरफ़ से
चंद्रमा या तारे देखना मुश्किल
लोगों को अपने दुःख की बागड़
लाँघने की कोशिश में
उलझ कर एक जैसा गिरते देखते हुए
या देखते हुए यह जलसा और यह भीड़
हत्याकांड की यह तसवीर
और ये चार उदास आदमी एक सरीखे
अब मदद करने में असफल कि आख़िर मैं
अपने संसार के किस अक्षांश पर
खड़ा हूँ?
एक सरीखा धोखा है,
एक जैसा अश्वमेध
एक-सा आनंद,
एक-सी सुरंग
विज्ञापन एक ही लालच से लसलस
कैमरे के पीछे एक जैसी आँख
आत्मसमर्पण का एक जैसा समारोह है
जलती बस्तियों के बीच आग पर नचाती
हुई एक-सी सम्मोहक धुन
टेलीविजन,
सिनेमा और अखबार भी
रोज़ एक-सी ही दुश्वारी में डालते
हैं
टूथपेस्टों,
ब्लेडों, साबुनों और जूतों ने भी मुसीबत में
इजाफा किया है
तब मुश्किल होती है अपनी जगह को
पहचानने में
जब एक दिन की मज़दूरी में ढाई डालर
दिए जाते हैं
तब तो और भी ज़्यादा जब अगले दिन
मिलते हैं दस हज़ार येन
एक जैसी पूँजी है,
एक जैसी दास प्रथा
एक सरीखा आदेश आता है लोकतंत्र और
तानाशाही में
जिसे अमल में लाने के लिए सक्रिय
होता है
पुलिस का दल हू-ब-हू एक जैसा
एक जैसी यातना के दौर से गुज़रता
है आदमी
सीलन,
बदबू, कामना और आशा के गलियारे में
घिसटते हुए मुश्किल है पहचान पाना
कि वह
किस विकसित या अविकसित सभ्यता में
मारा जा रहा है
या रखा जा रहा है जीवित
ऐसे ही किसी अगले गलियारे में
मरने के लिए
एक-सी निर्जनता है,
एक जैसी लाचारी
एक-सा सर्कस,
एक जैसी छलाँग !
चारों तरफ़ हैं एक-सी तसवीरें,
एक-सी दिशाएँ
ऊब और आशंकाओं की आहट से भरी हुईं
एक-सी सूचनाओं और एक-से ज्ञान के
बीच
यूकेलिप्टस के पेड़ हिलते हैं
जिनके पत्ते वसंत में भी गिर सकते
हैं
और हेमंत में भी
समतल होता जा रहा है धीरे-धीरे
जीवन का ऊबड़-खाबड़
जिसमें रह रहा हूँ मैं भी तो
चुपचाप, सिर झुकाये अरबों मनुष्यों की तरह
एक जैसा अचंभित एक जैसा निष्क्रिय
और एक जैसा ही अपराधी।
(2000-अतिक्रमण में
संकलित)
***
अमीरी रेखा
मनुष्य होने की परंपरा है कि वह
किसी कंधे पर सिर रख देता है
और अपनी पीठ पर टिकने देता है कोई
दूसरी पीठ
ऐसा होता आया है,
बावजूद इसके
कि कई चीजें इस बात को हमेशा कठिन
बनाती रही हैं
और कई बार आदमी होने की शुरुआत
एक आधी-अधूरी दीवार हो जाने से,
पतंगा, ग्वारपाठा
या एक पोखर बन जाने से भी होती है
या जब सब रफ्तार में हों तब पीछे
छूट जाना भी एक शुरुआत है
बशर्ते मनुष्यता में तुम्हारा
विश्वास बाकी रह गया हो
नमस्कार,
हाथ मिलाना, मुसकराना, कहना
कि मैं आपके
क्या काम आ सकता हूँ-
ये अभिनय की सहज भंगिमाएँ हैं और
इनसे अब
किसी को कोई खुशी नहीं मिलती
शब्दों के मानी इस तरह भी खत्म
किये जाते हैं
तब अपने को और अपनी भाषा को बचाने
के लिये
हो सकता है तुम्हें उस आदमी के
पास जाना पड़े
जो इस वक्त नमक भी नहीं खरीद पा
रहा है
या घर की ही उस स्त्री के पास
जो दिन-रात काम करती है
और जिसे आज भी मजदूरी नहीं मिलती
बाजार में तो तुम्हारी छाया भी
नजर नहीं आ सकती
उसे दूसरी तरफ से आती रोशनी दबोच
लेती है
वसंत में तुम्हारी पत्तियाँ नहीं
झरतीं
एक दिन तुम्हारी मुश्किल यह हो
सकती है
कि तुम नश्वर नहीं रहे
तुम्हें यह देखने के लिये जीवित
रहना पड़ सकता है
कि सिर्फ अपनी जान बचाने की खातिर
तुम कितनी तरह का जीवन जी सकते हो
जब लोगों को रोटी भी नसीब नहीं
और इसी वजह से साठ-सत्तर रुपये
रोज पर तुम एक आदमी को
और सौ-डेढ़ सौ रुपये रोज पर एक पूरे
परिवार को गुलाम बनाते हो
और फिर रात की अगवानी में कुछ
मदहोशी में सोचते हो,
कभी-कभी घोषणा भी करते हो-
मैं अपनी मेहनत और काबलियत से ही
यहाँ तक पहुँचा हूँ।
(2008-अमीरी रेखा में
संकलित)
***
यहाँ पानी चाँदनी की तरह चमकता है
मेरे पास प्रेमजन्य यह शरीर है
इसीमें रोज खिलते हैं फूल और यहीं
झर जाते हैं
बहती हैं नीली नदियाँ और वाष्पित
होती हैं
जो मिलती हैं समुद्रों में फिर
गिरती हैं बारिश के साथ
यहीं है उतना निर्जन जो जरूरी है
सृष्टि के लिए
इसीमें कोलाहल है,
संगीत है और बिजलियाँ
पुकार है और चुप्पियाँ
यहीं हैं वे पत्थर जिन पर काई जमा
होती है
यहीं घेर लेती हैं खुशियाँ
और एक दिन बदल जाती हैं बुखार में
आँधियाँ चलती हैं और मेरी रेत के
ढूह
उड़कर मीलों दूर फिर से बन जाते
हैं
यह मेरी अनश्वरता है
यह दिन की चट्टान है जिस पर मैं
बैठता हूँ
प्रतीक्षा और अंधकार। उम्मीद और
पश्चाताप।
वासना और सड़क। वसंत और धुआँ।
मैं हर एक के साथ कुछ देर रहता
हूँ
तारों की तरह टूटते हैं
प्रतिज्ञाओं के शब्द
अंतरिक्ष में गुम होते हुए उनकी
चमक भर दिखती है
चंद्रमा को मैं प्रकट करता हूँ
किसी ब्लैकहोल में से
और इस तरह अपने को संसार में से
गुजारता हूँ
यह सूर्यास्त की तसवीर है
देखनेवाला इसे सूर्योदय की भी समझ
सकता है
प्रेम के वर्तुल हैं सब तरफ
इनका कोई पहला और आखिरी सिरा नहीं
जहाँ से थाम लो वही शुरूआत
जहाँ छोड़ दो वही अंत
रेत की रात के अछोर आकाश में ये
तारे
चुंबनों की तरह टिमटिमाते हैं
और आकाशगंगा मादक मद्धिम चीख की
तरह
इस छोर से उस छोर तक फैली है
रात के अंतिम पहर में यह किस
पक्षी की व्याकुलता है
किस कीड़े की किर्र किर्र चीं चिट
हर कोई इसी जनम में अपना प्रेम
चाहता है
कई बार तो बिल्कुल अभी,
ठीक इसी क्षण
आविष्कृत हैं इसीलिए सारी चेष्टाएँ,
संकेत
और भाषाएँ
चारों तरफ चंचल हवा है वानस्पतिक
गंध से भरी
प्रेम की स्मृति में ठहरा पानी
चाँदनी की तरह चमकता है
और प्यास का वर्तमान पसरा है
क्षितिज तक
तारों को देखते हुए आता है याद कि
जो छूट गया
जो दूर है,
अलभ्य है जो
वह भी प्रेम है
दूरी चीजों को पलकें झपकाते
नक्षत्रों में बदल देती है।।
(2007-अमीरी रेखा में
संकलित)
***
दो असंकलित- अप्रकाशित कविताएं
जुगनुओं पर फिल्म
मैं जुगनुओं पर एक फिल्म बनाना
चाहता हूँ
कि इधर तमाम भागमभाग में लगी
दुनिया को एक दिन
आखिर फुरसत होगी और थकान तो वह
पूछेगी ही कि जुगनू कहाँ हैं
और नयी सदी के नये बच्चे पूछेंगेः
अरे,
आखिर जुगनू होते कैसे हैं!
तो बेहतर है कि मैं एक फिल्म ही
बना लूँ
लेकिन मुझे मिल नहीं रहे हैं
जुगनू
यों तो इस शहर में ही था जुगनुओं
का तालाब
मगर अब देखो तो वहाँ कीचड़ है और
नगर निगम की रौशनियाँ
(अवांतरः और दो बेंच जिन पर शोहदे और पुलिस
प्रेमियों को बैठने नहीं देते)
तो खोजता हूँ मैं अपने आसपास ऐसे
आदमियों को जो जुगनू हों
और जुगनू न भी हों तो कम से कम
जुगनुओं का अभिनय ही कर दें
प्रजातियों को यदि जीवन में जगह न
मिल रही हो
तो उन्हें कला में कहीं रख देना
चाहिए
इस तरह वे किसी न किसी ज्ञात
अज्ञात भाषा में
और किसी रंग और दृश्य में भी
गुजार लेती हैं अपना जीवन
लेकिन मुझे मिल नहीं रहे हैं
जुगनू
और न ऐसे लोग जिनमें हो जुगनुओं
के अभिनय का सामर्थ्य और इच्छा
मुझे भटका रही है
यह भूख,
यह प्यास, यही मरीचिका।
(2012-असंकलित)
***
इस सदी में जीवन अब विशाल शहरों
में ही संभव है
कभी जो मेरा गाँव था अब वह है
मेरे शहर का उपनगर
और यह अनंत संसार है एक ग्यारह
बाई दस का यह कमरा
अपने जीवित रहने की मुश्किल और
गंध से भरा
खिड़की से दिखती एक रेल गुजरती है,
भागती हैं जिसकी रोशनियाँ
उजाला नहीं करतीं,
भागती हैं मानो पीछा छुड़ाती हैं अॅंधेरे से
उसकी आवाज थरथराहट भरती है लेकिन
वह लोहे की आवाज है
उसकी सीटी की आवाज बाकी सबको
ध्वस्त करती
आबादी में से रेल गुजरती है
रेगिस्तान पार करने के लिए
लोग जीवन में से गुजरते हैं
प्रेमविहीन आयु पार करने के लिए
आखिर एक दिन प्रेम के बिना भी लोग
जिंदा रहने लगते हैं
बल्कि खुश रहकर,
नाचते-गाते जिंदा रहने लगते हैं
प्रेम की कोई प्रागैतिहासिक
तस्वीर टंगी रहती है दीवार पर
तस्वीर पर गिरती है बारिश,
धूल और शीत गिरता है,
रात और दिन गिरते हैं,
उसे ढंक लेता है कुहासा
उसके पीछे मकड़ियाँ,
छिपकलियाँ रहने लगती हैं
फिर चिकित्सक कहता है इन दिनों
आँसुओं का सूखना आम बात है
इसके लिए तो कोई डाक्टर दवा भी
नहीं लिखता
एक दिन सब जान ही लेते हैं: प्रेम
के बिना कोई मर नहीं जाता
खिड़की से गुजरती रेल दिखती है और
देर तक के लिए उसकी आवाज
इस बारीक,
मटमैली रेत में फिर अपना आधिपत्य जमा लेती है।
(2012-असंकलित)
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