Friday, July 27, 2012

नीलोत्‍पल की कविताएं

नीलोत्‍पल 
नीलोत्‍पल की कविता का अनुनाद को इंतज़ार था। तीन साल पहले मेरा ध्‍यान उनकी कविता की ओर गया। ये कविताएं बहुत चौंकाती नहीं थीं और न ही अपनी विषयवस्‍तु को किसी अतिरेक से चमकाती थीं। 

इधर नीलोत्‍पल से सम्‍पर्क हुआ...कविता की मांग रखी गई तो दोस्‍ताना अन्‍दाज़ में उन्‍होंने पूरी दस कविताएं उपलब्‍ध कराईं। ये सभी कविताएं बहुत सारे आत्‍म और उससे जुड़े समाजी  और राजनीतिक अभिप्रायों का एक लम्‍बा सिलसिला बनाती हैं। कवि का कविता में अपने भीतर को खंगालने का ये तरीका इधर की कविता में मुझे कम दिखाई  दिया है। यह कवि अपने ढहे हुए के रचाव में हाथ उठाने और उस ढहे हुए के भार को ख़ुद उठाने की इच्‍छा व्‍यक्‍त करते हुए मनुष्‍यता को नए बिम्‍ब देता है। इन कविताओं को पढ़ते हुए अग्रज कवि मंगलेश डबराल का यह वाक्‍य साकार हो उठता है - मुझे दिखा एक मनुष्‍य .. मनुष्‍य का दिखना आज के संकेत और अर्थभंडार में कितने महत्‍व की बात है....इसे विस्‍तार से कहना ज़रूरी नहीं ... यह वही मनुष्‍य है, जिसे पराजित नहीं किया जा सकता। यदि यह कवि आवाज़ें नहीं, धड़कनें सुनना चाहता है तो उसका साफ़ मतलब है कि उसे स्‍थूल दिखती संरचनाओं में वैचारिकता जटिलता की उपस्थिति की पूरी क़द्र है। नीलोत्‍पल का यह पूरा कविता संसार हमारी छीजती मनुष्‍यता के बेहद अर्थपूर्ण और मार्मिक सन्‍दर्भों से बिंधा हुआ है। मैंने सहमति-असहमति के लिए नहीं लिखा  कहते हुए नीलोत्‍पल ख़ुद सहमतियों-असहमतियों का पूरा विधान रच देते हैं। देखना होगा कि ताज़े ख़ून से लिखी जा रही नर्क की आग ढोने वाली  इन कविताओं में आनेवाले इच्‍छा-अनिच्‍छा, स्‍थगन, विस्‍थापन, उदासी, क्षरण, ख़ामोशी, विलाप, विरोध, आपत्ति, संघर्ष, उम्‍मीद, कल्‍पना, द्वन्‍द्व जैसे शब्‍द कितनी सहजता से समूचे दृश्‍य में बदल जाते हैं। अधिक कुछ न कहते हुए प्रस्‍तुत हैं ये कविताएं अनुनाद के पाठ‍कों के लिए.....
***



मैं अपने ही ख़तरे में हूं

मैं नेतृत्व की बात नहीं करता।
मैंने शुरूआत से देखा कि
कुछ लोग बड़ी आसानी से
हजारों की भीड़ को सम्बोधित करते हैं
और उन्हें कुछ करने की प्रेरणा कह लो,
दिशा या अन्य तरह की सलाह देते है
मैं समझ नहीं पाता
ऐसा कैसे संभव है
कि लोगों को एक चाबी वाले खिलौने की तरह
चलने को अपनी तरह से घुमाएं
जबकि मैं सुन पाता हूं

जब मैं इसे अपनी कमज़ोरी कहता हूं तो,
मुझे देने होते है जवाब ख़ुद को
मैं घिरता हूं
सोचता हूं कोई बात तो ऐसी हो जो
मुझे बनाए रखे किसी तरह अपनी स्थिति में

मैं नहीं घिरने की बात कहता हूं
मैं अपने गीतों के बारे में सोचता हूं
इस तरह मैं होता हूं अपने ही ख़तरे में

मैं अपने ही ख़तरे में हूं
एक तरह से सब कुछ अवास्तविक
और असम्बद्ध चीज़ों से घिरा हुआ

मेरे लौटने की कोई शर्त नहीं
मैं क्षरण की ओर जाता हूं
यहां कोई नहीं है
न सुना जाता, न कहा जाता
न दबाव, न वादे
न छिछली मानसिकताएं
न शिक्षा, न जनतंत्र को लुभाते ग़ैरज़रूरी शब्द

यहां होने की कोई सीमा नहीं है
अपने ढहे हुए रचाव में हाथ उठाने हैं
अपने ढहने का भार ख़ुद लेना है

मैं नेतृत्व की बात नहीं करता
अपने आने की तरह आना चाहता हूं

मरते वक्त इन्हीं क़दमों से
लौटना चाहता हूं अपनी क़ब्र पर
और इतना ही कि उस पर पैर रखकर
चलने का अहसास बना रहें

मैं आवाजें नहीं धड़कने सुनना चाहता हूं
***

मुझे पराजित नहीं किया गया

बस, यहीं तक थी मेरी हद
मैं यहीं तक लड़ सकता था।

मेरे आगे देवताओं की लम्बी फौज़ थीं
मैंने उनसे कुछ कहा नहीं
वे मुझे देख सकते थे, इस तरह मेरी हार पर

वे मुस्करा नहीं सकते थे
वे सभी चुप थे

मैं घुटनों के बल ज़मीन पर था, लेकिन
वहां कितनी शांति थी
मिट्टी बदन को छू रही थी
हवा मेरे साथ थी
और हम बिखर रहे थे
अपने-अपने कोनों में

यक़ीन से,
इस वक्‍़त मेरे पास कुछ नहीं हैं

चीज़ों और देवताओं के जंगल में
मैंने महसूस किया
मुझे पराजित नहीं किया गया
मैं देख सकता था उन आँखों में
जो पत्थर से ज्यादा चमकदार और नुकीली थी

मैंने कहा- मुझे मत दो अपनी पत्थर आवाज़
मुझे नहीं चाहिए पत्थरों का पारस

मैं यहां हूं इस भीड़ के सामने
इस हालात में ज़ख़्मी कि बोल सकता हूं
बोल सकता हूं अपना टूटना-गिरना
मैं गिरा हूं मंदिर की घंटियों से टूटकर
इस तरह बचा अपमानित होने से

मुझे वहां मत खोजो
इतिहास के धुंधले पन्नों में,
परम्परा की डोंडी से, जहां मुनादी अब बंद कर दी गई,
देवताओं के मुखों में
आख़िरकार जिनके वरदान अभिशाप की तरह थे


मैं मुक्त हूं प्राचीन वैभवों
और उन उत्सवों से जो खमा दिए जाएंगे नदी में,
वासनाओं के बवंडर से जो उड़ा ले जाना चाहते थे मुझे

यक़ीन से,
इस वक्‍़त मेरे पास कुछ नहीं है

यही है मेरी हद कि
मुझे पराजित नहीं किया गया
***

नरक में आग ढोने वाली कविताएं

1

मैं जिस उम्मीद के साथ
आता हूं तुम्हारी ओर
वह बची हुई नहीं लगती

मैं जिन हाथों के खुरदुरेपन को
चूमना चाहता हूं
वे साथ नहीं देते

वे औरतें
जो शताब्दियों से गा नहीं पाई
अपनी उदासी के गीत
मैं उनकी ख़ामोशी
छू नहीं पाता

ऐसा नहीं कि हमारे बीच
संवादहीनता हो
या परस्पर कोई आधार न हो
कुछ संकोच या झिझक है
कह नहीं पाता

मैं लिखता हूं
लेकिन अचकचाता चला जाता हूं
मेरा स्वर भारी लगता है

मैं झुंझलाता हूं
शब्द और हमारे बीच इतना
धुंधलापन क्यों है

हम आख़िरी बार कब मिले थे ?
क्या कविता का वह घर हमें याद हैं
जहां हम जड़ों की गहराई तक उतरे थे
और खंगाला था एक-दूसरे को

हम अपरिचित रहे
हमनें एक अलग दुनिया में थे
जिसका मतलब शब्दों और अर्थों से नहीं
था हमारी संवेदनाओं से

हमने अच्छा वक्‍़त साथ बिताया
इस यक़ीन के साथ जुड़े रहे
हम तय नहीं करेंगे अपनी सीमाएं
हम खेद नहीं मनाएंगे अपनी नाकामियों के

हमारे चुने रास्ते
भले चमचमाती सीढि़यों की ओर न जाते
लेकिन उनमें मृत्यु का अनंत स्वाद
जीवन की फूटती कोंपले
हमारे बीच नयी सरगमें लेकर आती
हम उत्साह और अपनी उदासी से
भरपूर रहे

वक़्त बीत रहा है
हम नहीं हैं आसपास
हम दूर तक एक लहर लेकर आए
लेकिन हमनें अलविदा नहीं कहा

यात्राएं थमी हुई हैं
और हम विश्वास करने के बजाए
देख रहे हैं अपनी आँखों में
स्थगन और विस्थापन के दंश

2

उम्मीदें टूट रही हैं
लेकिन मुझे प्यार है तुमसे

मैं आकाश के लिए नहीं
धरती के लिए चाहता हूं
तुम्हारी जड़ों का विस्तार

कविताएं भले न गाई जाएं
लेकिन उनकी आंच
देती रहेगी ताप
हमारे ठंडे शरीर को

मैं जिसके लिए लिखता हूं
वह ठंडी रोशनी,
छुटे बंदरगाह पर प्रतीक्षाएं,
नावों का खोना,
चिड़ियाओं की ख़ामोशी,
बारिश का अनंत विलाप

क्या तुम सुन रहे हो
हमारा चुप रह जाना

क्या तुम आ रहे हो
दरवाजों से बाहर

मैं कहीं आता हूं, जाता हूं
इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता
मेरी आवाज़ सुनकर मत आना
वे गीत जो गुनगुनाएं जा रहे हैं
जरा अपनी खिड़कियां खोलना

बाहर, ताज़े ख़ून से लिखी जा रही हैं
तुम्हारे लिए
नरक में आग ढोने वाली कविताएं
***




मैंने कभी सहमति-असहमति के लिए नहीं लिखा

एक इंसान की यात्रा, उसके पड़ाव
उसके उठने और गिरने को जाना
उसकी ताक़त और कमज़ोरी को देखा
भोगा शानदार कपड़ों और भोजन को
भूखे मरने और लड़ते रहने को सहा

मैं अगर अपनी कविता से गिराया गया हूं
और संभला हूं तो
वही किया जो मुझे संघर्ष में मिला

मैंने कभी परवाह नहीं की युद्धों की
क्योंकि मैं जानता था
लड़ना ख़ुद से होता है

ना ही मैं दल चाहता हूं
ना सभाएं, भूखण्ड, नारे,
आज़ादी ना हथियार
मैंने लिखा.....बस
मैं चाहता था शांति
मैं चाहता था दरों से निकलती चींटिया
जो आवाज़ों को तोडे़ बिना
पार करती है मुझे
जुटी अपने कामों में

मैं पार कर जाता वे गलियां
जो विरोधों से भरी पड़ी थीं
मैंने कभी दिल में बसने के लिए नहीं लिखा
उसके लिए थे दूसरी तरह के लोग
मैंने हर आपत्ति को दर्ज़ किया

मैं और करीब पंहुच सका
सच, निष्पक्षता और जीवन के
मैंने लोगों को चेताने या जगाने के लिए नहीं कहा
वह सब तो उनके भीतर था
अगर नहीं था तो सिर्फ़ यक़ीन
जो मुझे मिला तुम्हारी असहमतियों में
***


मैं उनकी परछाईयां चीन्‍हता हूं

मैंने सारी नैतिकताएं ढोयीं, सारे आवरण हटाए
तोड़ी पत्थरों की ख़ामोशी 
सारी जड़ों को दी रोशनियां
आकाश और नमक को जगह दी भीतर
मैं दरिया लिए चलता रहा 

मैं उन सारे नर्कों में गिरा
जो आवाज़ों और रोटी के टुकड़े
गंदे कपड़ों और ठसाठस भरे थे लोगों की अनिच्छाओं से

उन्हें आवाज़ देना मुमकिन नहीं
वे सच नहीं थे
सच का आभास या कुछ और

उनकी इच्छाएं शून्य में गिरती बिजलियां थीं

वे सिर्फ़ भरे जा रहे थे
कभी चूने की डिब्बियों में,
कभी चादरों में रेशम का टांका जड़ते अंधेरों के घरों में
कभी बोल्टों में नटों की तरह लपटे और उतारे जाते
ढीले और कसे जाते,

तंग बदबूदार गलियों में
लटके तारों की झूलती परछाईयों की तरह
उन्हें सुलाया नहीं जा सकता

मैं उनकी परछाईयां चीन्‍हता हूं
एक ख़बर, एक रिपोर्ट
अगले दिन मेज़ पर कतरन की तरह पड़ी होती है

संभव नहीं है
काग़ज़ का टुकड़ा सहलाता हो
उनकी आत्मा में धंसे हुए तीरों को
जो वे जन्म से लेकर आए थे
और कुछ उन्हें दिये गए उपहार स्वरूप

यह वास्तविकता का भ्रम नहीं
मैं उन सारे नर्को में हूं
जिन्हें बदला नहीं जा सकता
***

हम नागरिक नहीं शरणार्थी हैं

हम कुछ नहीं रहते

यह धरती इतने सुंदर कवियों से भरी पड़ी हैं
कि उनमें हमारी जगह
कवियों के अहसासों में डूबती-चढ़ती रहती है

जब मैं अपने भीतर झांकता हूं तो
अपना दर अपना नहीं लगता
वह तो प्यार और विस्थापन के
संघर्ष और पराजय के
कल्पना और द्वंद के
विचित्र संयोजन से बना है

लोग अपनी-अपनी स्थितियों में हैं
उन्हें पसंद नहीं है बाहर होना
कवि ही है जो घेरता है, मुक्त करता है
वह बाहर जाता है
वह हमारी सीमाओं में अतिक्रमण है

दूर रोशनी है लेकिन दिखती नहीं
सभी खड़े है कतार में
कवि डूबा हुआ है
इतने कवि हैं
जिन्होंने कतार को ही भंग किया है

कोई नहीं देखता
वे कितने दिनों से पहाड़ से लौटे नहीं है
ऐसा उनकी कविताओं के साथ भी
हो सकता है

उन्हें पढ़ते हुए
एक पंक्ति, दो पंक्ति या कुछ और पंक्तियां
भुला देती है कि
हम नागरिक नहीं शरणार्थी हैं
उनकी कविताओं के

मुझे पसंद है शरणार्थी होना
होना एक ऐसे मुल्क में
जहां बाडे़ं नहीं लगायी गयी है
बल्कि विस्तार के लिए अपने ही क़द को
पराजित करना है हरबार
***

ज्‍़यादा अलग किताबें होती हैं

एक-न-एक दिन  हम मकान बनाते हैं
लेकिन यह मकान ढहाएं जाने से  ज्‍़यादा अलग नहीं

ज्‍़यादा अलग सिर्फ़ प्रेम होता है
ज्‍़यादा अलग भूख भी होती है
अंधकार  ज्‍़यादा अलग नहीं होता

विकल्पों की कमी नहीं
फिर भी विकल्प, विकल्प ही है
टूटे दांत की जगह खाली रह ही जाती है

हम मिट्टी से ज्यादा अलग नहीं
आग से, पानी से
उन हवादार कमरों से
जिनमें हमारी आवाजें टकराती हैं
विस्फुरण के लिए

हम अलग नहीं रोटी से
नमक और मृत्यु से भी अलग नहीं
शब्द और तस्वीरें भी स्मृति़यां हैं हमारी

ज्‍़यादा अलग वह बांस है जो अपनी
स्मृतिहीनता में
कभी बांसु़री तो कभी मृत्यु शय्या के लिए
तैयार है चुपचाप

ज्‍़यादा अलग किताबें होती हैं
न चाहने के बावजूद दखल देती है
नींद भरी रातों में
एक सपना जो चित्रपट पर बिखर जाता है
हम ज्यादा उसके बाहर नहीं
***

मूकदर्शक

इतनी छोटी-छोटी बातें
जिनसे मैं लड़ भी नहीं पाता
रोज होता हूं परास्त

समझता हूं एक घिसे दिन को
मच्छरों और चीत्कारों ने घेर लिया है मेरा कमरा
मैं केवल परछाईयों में व्यक्त होता हूं

दिखना जिन चीज़ों का है
वे तुम्हारी है
मैं क्रास लगाता हूं अपनी पसंद पर
सोचता हूं अधिकारों की बात
जो दिए नहीं गए

मेरी अभिव्यक्ति इतनी बौनी रह गई है कि
उनसे बाथरूम का एक कीड़ा भी
सरक नहीं पाता

मुझे जिनसे प्यार था
वे बातें ज्यादातर हल्की और सतही फिल्मों में ही थी
वह तो भला हो उस कैमरे का
जिसने मुझे बचा लिया
वर्ना मैं भी तुम्हें लुभाता हुआ नज़र आता
और तुम मुझे समझने के बजाए
घेरने लगते

कितना आसान है इस तरह समझना
कि मैं एक मूकदर्शक हूं
***

नहीं कहे को आवाज देना

1
     
बहुत मुश्किल है अपने नहीं कहे को आवाज़ दे पाना

परिंदे भले होते हैं
वे उन अज्ञात रास्तों को आवाज़ देते हैं
जो छिपे होते हैं
घरों, जंगलों और भीतर

हम “....कीऔर बढते हैं
उन बताई जगहों की सूचना
मिलती है अप्रमाणित युद्धों में
उन बिखरावों में जो हमारे टूटे अनुभवों की
दास्तानों में भरी पड़ी

लेकिन यह प्रेम को आवाज़ देने जैसा नहीं है
अंतहीन खोहों से भरा है प्रेम
अनगिनत बांबियों और घोंसलों से
इसका व्यक्त भी अव्यक्त है
और अव्यक्त भी व्यक्त

बहुत मुश्किल है मैं अपने नहीं कहे को जानूं
मैं एक विपरीत दिशा वाला व्यक्ति
कहूं कि मेरी वह छिपी आवाज का प्रस्फुटन
कविता की तरह है तो
यह आवाज़ की तरह नहीं
उस दबी पहचान की तरह है

जो नहीं कहे से बाहर है
याने परिंदों की तरह के रास्ते असंभव नहीं

2

जब मैं अपनी आवाज़ दोहराता हूं
खासकर चीज़ों के रेशों, कोमल घासों,
प्रेम की अंतहीन सांसों और पत्तों पर बिछी बूंदों के साथ
या उन्हें लिए तो हर बार एक समुद्र का अंधेरा
छंट जाता है

एक मूर्ति अपने तराशे शिल्प से झांकती
खो जाती है पुनः नहीं रचे एक नए शिल्प की ओर

नहीं लिखी पंक्तियां लिख ली जाती है

जीवन के संकेत दोहराए जाने से
जिन्हें शायद कभी पहचान मिल सकेगी

जितनी अस्पष्ट स्मृतियां है
उनकी धुंधलायी चमक से
रगड़ खाती आवाज़ें
जैसे किसी वाद्य के तार लटके हो
पेड़ों पर
हवा उनसे बार-बार टकराती हैं
हम सुनते ये आकस्मिक संगीत
लौटते हैं रोज़मर्रा की गलियों में

दोहराता हूं ख़ुद को
संगीत, प्रेम और तुम्हें
ताकि गुम होने से पहले
लिपट सकूं भरसक
***

असंभव छवि की तरह

सारी घाटियां, उड़ रही है पतंगों की तरह ...

तुम्हारी गर्म हथेलियां चिपकी है
एक ठंडे पहाड़ से

भाप की तरह है
तुम्हारा नदी की सतह से उठना
जिसने स्थगित कर दिया सुबह को

मैं गीले कोहरे में
तुम्हारी छाती में दबी इच्छाओं की ओर जाता हूं

जैसे कि मैं नहीं जानता
बर्फ़ के एक टुकड़े में
जमा है कितनी बूंदें

कुछ तितलियां
जिन्हें मुश्किल हैं छूना
तुम वहां हो
तुम्हारी आंखों में दिखते हैं तैरते लैण्डस्केप
एक-एक कर मैं उनमें उतरता हूं

जैसे सारी तितलियां बन गई हैं लहरें
और तुम एक अनजान नदी

जहां घाट की कुछ सीढि़यां डूबी हुई हैं
फिर भी दिखते हैं तुम्हारे पैरों के निशान

लहरों की सम्पूर्ण गोलाईयों में
उभारा है तुमने चित्र मेरा
असंभव छवि की तरह
***

नीलोत्पल
173/1 अलखधाम नगर
उज्जैन
मोबाइल - 9826732121
***
दोनों चित्र यहां और यहां से साभार 
*** 

5 comments:

  1. प्रिय शिरीष, मैंने काफी पहले नीलोत्‍पल की कविताएं पढ़ी थीं और अब पढ़ी हैं। यहॉं ठंडी लेकिन ठोस भाषा, वास्‍तविकता की मुश्किलों और असहायता के बीच एक कवि की व्‍यग्रता, इन कविताओं में अलग तरह की दिलचस्‍पी जगाती है और इस तरह यह अपने समय में औचक तरह से सर्जनात्‍मक हस्‍तक्षेप है। कितने दिनों बाद नए कवियों में से ऐसी कविता देखने को मिली है जिसमें फुसफुसाहटों से भरे, आत्‍मसंलापी वाक्‍य हैं, जो दरअसल एक बड़ी परिधि को घेरते हैं। अब नीलोत्‍पल को इस सबका विकास करना होगा, संयम और धीरज के साथ। क्‍योंकि बेहतर सर्जनात्‍मकता अपने साथ दायित्‍व लेकर आती है।
    मैं खु
    श हूं। और शुभकामनाएं संलग्‍न कर रहा हूं। तुम्‍हें और कवि को बधाई भी।

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  2. शुक्रिया अनुनाद, शुक्रिया अम्बुज जी, शुक्रिया दोस्तों.

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  3. नीलोत्पल की कविताओं के लिए अनुनाद का शुक्रिया . हमारे समय के गंभीर कवि हैं नीलोत्पल .

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  4. नीलोत्पल की कविताएँ एक अलग आकर्षण में बाँधती हैं। बार-बार पढ़े जाने की हूक उठाती हैं। उत्तम गद्य पढ़वाने के लिए शुक्रिया...

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यहां तक आए हैं तो कृपया इस पृष्ठ पर अपनी राय से अवश्‍य अवगत करायें !

जो जी को लगती हो कहें, बस भाषा के न्‍यूनतम आदर्श का ख़याल रखें। अनुनाद की बेहतरी के लिए सुझाव भी दें और कुछ ग़लत लग रहा हो तो टिप्‍पणी के स्‍थान को शिकायत-पेटिका के रूप में इस्‍तेमाल करने से कभी न हिचकें। हमने टिप्‍पणी के लिए सभी विकल्‍प खुले रखे हैं, कोई एकाउंट न होने की स्थिति में अनाम में नीचे अपना नाम और स्‍थान अवश्‍य अंकित कर दें।

आपकी प्रतिक्रियाएं हमेशा ही अनुनाद को प्रेरित करती हैं, हम उनके लिए आभारी रहेगे।

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