अनुनाद

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थोड़ी-सी निजता से बाहर ढेर सारी जगह (सुषमा नैथानी की कविताएं) – शिरीष कुमार मौर्य



सुषमा नैथानी मूलत: जीन-विज्ञानी हैं। नैनीताल में उसी विश्‍वविद्यालय में पढ़ी हैं, जिसमें मैं भी पढ़ा हूं और अब पढ़ाने की जिम्‍मेदारी निभा रहा हूं। वे मेरी सीनियर हैं और अब दूर अमरीका में अध्‍यापन और शोध कर रही हैं। जगह का भी एक रिश्‍ता जुड़ता है और सुषमा से जुड़ा भी है। मेरा उनसे परिचय ब्‍लागिंग की शुरूआत करते हुआ। नैनीताल की अपनी स्‍मृतियों को समेटते हुए उन्‍होंने नैनीताली नाम से एक ब्‍लाग शुरू किया…जिसमें नैनीताल से रिश्‍ता रखने वाले कई लोग सहलेखक के रूप में जुड़े। नैनीताली से पहले से सुषमा स्‍वप्‍नदर्शी नाम का ब्‍लाग लिखती आ रही हैं…जिसका मैं नियमित पाठक रहा हूं। वहां उनकी लिखी टीपों और लेखों में  मेरे लिए उनका  लेखकीय व्‍यक्तित्‍व उभरने लगा था…..फिर उनकी कुछ कविताएं वहां देखीं और लगा कि कुछ तो है, जो अलग हो रहा है। ये कविताएं निजी अनुभवों से शुरू होकर एक विस्‍तार में स्‍थापित होती दीख रही थीं। इनमें स्‍त्रीकविता का चालू हिंदी मुहावरा कहीं भी मौजूद नहीं था…कुछ भी सायास नहीं था….सब कुछ जैसे घट रहा था और अपने लिए जगह बना रहा था। मैंने सुषमा की कविता में समय और स्‍थान के समीकरणों को पहचानना शुरू किया और आज की हिंदी कविता में उनका एक मुकाम भी देखने लगा। अब सुषमा नैथानी का कविता संग्रह उड़ते हैं अबाबीलछपकर आया है तो ये मुकाम और भी स्‍पष्‍ट होने लगा है।
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सुषमा की स्‍मृतियां किसी ख़ास अवधि की नहीं, उनतीस लाख वर्ष पहले तक की स्‍मृतियां है….यह जीन-विज्ञानी की स्‍मृतियां हैं, जो मनुष्‍यता के अस्तित्‍व के हर सम्‍भव और सम्‍भावित में निवास करती हैं…करती रहेंगी।
उनींदे रात भर पूछती
उनतीस लाख वर्ष पीछे छूटी किसी पुरखन से
किस दोशीजा ने रेशे-रेशे बुनी मन के करघे चादर
कैसे बने बिम्‍ब, बनी बोली, भाषा कोई
कब-कब भूले
कितनी-कितनी बार गढ़े आखर….
यह शुरूआती दृश्‍य हो सकता है सुषमा की कविता और उसमें आनेवाली स्‍मृतियों का। किताब के ब्‍लर्ब पर कवि मंगलेश डबराल ने स्‍मृति के इस विधान को रेखांकित किया है…पर वे उसे कल्‍पना में बदलते देखते हैं, जो समय और भूगोल में नहीं आगे किसी और कल्‍पना में चली जाती हैं। मैं इसे अलग तरह से देखता हूं…मेरे लिए सुषमा की कविताओं को पढ़ते हुए समय और भूगोल महत्‍वपूर्ण हो जाते हैं । पूर्वी अफ्रीका की रिफ्ट वैली और वहां से मिली उनतीस लाख साल पुरानी, मनुष्‍य और मनुष्‍यता की पुरखन, जिसे शायद लूसी नाम दिया वैज्ञानिकों ने….फिर एक लम्‍बी और संघर्षवान विकासयात्रा…सिर्फ़ मनुष्‍य की नहीं,  मनुष्‍यता की भी। भाषा की कितनी अद्भुत समझ है सुषमा को कि वह पहले बिम्‍बों का बनना देखती हैं…फिर बोली का…और फिर भाषा का….उसमें भी विस्‍मृतियां का होना और फिर कई-कई बार आखरों का गढ़ा जाना होता रहता है।  सुषमा की कविता  को समझते हुए हमें उस यात्रा पर एक अनिवार्य निगाह रखनी चाहिए जो अफ्रीका के छोर तक जा पहुंचती है और जिसके क़दम लआटोली के पदचिह्न नाप आते हैं। मनुष्‍यता के संधान के लिए पुरखों की पहली याद की अनिवार्यता सुषमा की कविता में भरपूर स्‍थापित है। पहले-पहल सीधे चलने वाले हमारे होमिनिड पूर्वज दरअसल हमें क्‍या सिखाते हैं…एक आदिम जीव के दो पांव पर खड़े हो जाने की घटना ने मस्तिष्‍क को उसके विकास का भरपूर स्‍पेस दिया….वही स्‍पेस, जिसमें अब हम अपने इतिहास, विज्ञान, दार्शनिक संरचनाओं, कलाओं, स्‍वप्‍न और सम्‍भावनाओं को अनन्‍त छोरों तक सम्‍भव कर पाए हैं। 
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कभी बद्रीनारायण हिंदी कविता में अपना चर्चित भारतभूषण पुरस्‍कृत ‘प्रेमपत्र’ लाए थे… उसके बरअक्‍स सुषमा नैथानी की भी एक कविता है – प्रेमपत्र
पत्र जो तुमने लिखा
फिर चिंदी चिंदी किया
स्‍मृति में अब भी क़ैद हैं
हवाओं में तैरते टुकड़े
तुम्‍हें ख़याल भी न होगा कि
जोड़े थे मैंने सारे
तुम्‍हारे मन के आइने में
देखी अपनी ही छवि
बस हारी उम्‍मीदों का एक बिम्‍ब था
मैं एक सिरे से ग़ायब थी
एक सिरे से खारिज़
कहां थी सहूलियत मुझे मेरे जैसे होने की…
बद्री की कविता में प्रेमपत्र को बचाने की कोशिश थी और सुषमा की कविता में उसके नष्‍ट हो जाने की स्‍थापना है। बद्री का पत्र पुरुष के रूमान से भरा था …. और सुषमा की कविता में आनेवाला पत्र अपनी नश्‍वरता में यथार्थ के धरातल पर शोकपूर्ण किन्‍तु साहसी स्‍त्री पक्ष की गवाही भी दे जाता है, जहां साफ़ तौर पर दर्ज़ है कि कहां थी सहूलियत मुझे मेरे जैसे होने की…  मूल और बुनियादी सवाल और मांग … स्‍त्री वैसी न हो पाई, जैसी पुरुष चाहता था – लिहाजा पत्र ही चिंदी चिंदी नहीं हुआ सम्‍बन्‍ध और उसमें स्‍त्री का अधिकार भी तबाह हो गया। रेखांकित यह भी करना है कि बद्री के पत्र की तरह यह पत्र भी पुरुष ने ही लिखा है। हारी उम्‍मीदों  के बिम्‍ब और खारिज़  किए जाने के कड़वे अहसास वाली यह कविता छोटी-सी है लेकिन पुरुषों की दंभपूर्ण कार्रवाइयों का प्रत्‍याख्‍यान हो जाती है। यह दु:ख से अधिक प्रतिरोध की कविता है।  प्रतिरोध सुषमा की कविताओं में ऐसे ही आता – लगता कुछ और है….कुछ और हो जाता है। उदाहरण के लिए एक और कविता ‘संगत’ की ये पंक्तियां –
धप्‍प से टूटकर चिडिया नहीं गिरेगी
पलटकर कहूंगी नहीं चाहिए फांस
प्‍यार, कतई नहीं है प्‍यार …
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सुषमा ने अपनी कविता का शिल्‍प साधिकार चुना है… उन्‍हें शायद हिंदी कविता की परम्‍परा से अनायास ही हो गई दूरियों का फ़ायदा भी मिला है। उनका संकल्‍प साफ़ है – ्‍त्री   एक बिम्‍ब गब ग़ायब था
शब्‍द तुम
मेरे पास आना तो कौतुक छोड़े आना
न आना बुझव्‍वल की तरह
आना कभी मेरी गली तो
आज़माए जुमलों की शक्‍ल में न आना
न गुज़रना नारों की तरह
सुषमा को करतबों, पहेलियों, आजमाए जुमलों और नारों से परहेज़ है… लग सकता है कि कौतुक और पहेलियों का विरोध कर वे सरलीकरण की ओर जा रही हैं और नारों से दूरी राजनीति से दूरी है। जटिलता और राजनीतिक प्रतिबद्धता का परित्‍याग सुषमा भले घोषित कर रही हैं लेकिन नारों से दूरी हमेशा ही राजनीति से दूरी नहीं है।  प्रयोग हिंदी में बहुत हुए …एक पूरा वाद उनके नाम हुआ… बहुत सारे ख़र्च हो गए…अपना अंत ख़ुद देखकर गए ….पर जिन प्रयोगों में राजनीतिक चेतना का विस्‍तार था…वे बने रहे…दूर तक आए…अब भी हैं। कोई ज़रूरी नहीं कि मैं यहां नामगणना आरम्‍भ कर दूं… परिदृश्‍य बहुत साफ़ है। सुषमा को नारों से परहेज़ तो है पर पता नहीं वे जानती हैं या नहीं, उनकी कविताओं में राजनीति के कई दृश्‍य हैं…. प्रतिरोध अपने आप में राजनीति है…मनुष्‍यता के बचे रहने की चिंता भी राजनीति है… जब वे कहती हैं – ‘इक्‍कीसवीं सदी के नए-पुराने लोकतंत्रों के बीचोंबीच/ स्‍थगित है जीवन/ स्‍थगित नागरिकता …’   तो यह राजनीतिक वक्‍तव्‍य ही है….इस स्‍थगन को पहचान लेना और आंक देना कविता को राजनीतिक अर्थ देता है … वह अर्थ जिस पर लेखक का भी उतना ही अधिकार है, जितना पाठक का। यह सब कुछ नारा भले न हो…रातों में चुपचाप इंसानियत के हक़ में दीवारें रंग देना तो है ही….मुझे ख़ुशी है कि सुषमा इसे इस तरह और इस क़दर सम्‍भव कर रही हैं। अधिक कुछ कहने की ज़रूरत नहीं, इसी राजनीति की एक और कविता मैं यहां पूरी ही उद्धृत कर रहा हूं –
लकड़ी पहाड़ की
लन्‍दन-पेरिस
सीरिया-मिस्‍त्र
अमरीका पहुंची
रेल बनी
खेल बनी
अटारी बनी
महल बनी
होटल बनी
काग़ज़ बनी
क्रिकेट बनी
बन्‍दूक़ बनी
सन्‍दूक बनी
सेज बनी
साज़ बनी
दो विश्‍वयुद्धों में बड़े जहाज़ बनी…
हमारे वक्‍़त की नई धोखेबाज़ इबारतों में जीवन के बारे में  टिप्‍पणी करते हुए सुषमा की यह राजनीतिक समझ बख़ूबी दृश्‍यमान है  –
इकहरी इबारत इसी तरह फैली हैं
गांव-घर के धूल सने ओसारों में
शिक्षा संस्‍थानों, ग्‍लोबल मंडी के गलियारों में
जहां दो भाषाओं में संवाद होता है
एक जो निहायत व्‍यापार की भाषा है
दूसरी नितान्‍त लाचारी की
समझाने वाले अपनी कलाकारी से
उसे संगी-साहित्‍य-संस्‍कृति
और अकसर प्रगति की उभरती तस्‍वीर में बदल देते हैं…
और आगे…. बहुत निकट से गुज़रे शाइनिंग इंडिया के कुहासे के पार इसी देश और प्रदेश की याद में सुषमा का यह कहना –
लकड़ी प्रदेश
नदी प्रदेश
बिजली प्रदेश ये
मूलभूत सुविधाओं से वंचित
नागरिकता से बहिष्‍कृत
शाइनिंग इंडिया का कोना है
नखलिस्‍तान नहीं
मेरा अपना ही घर है
***
सुषमा नैथानी का यह पहला संग्रह है… मैं निजी रूप से भी जानता हूं कि कितनी उधेड़बुन और संकोच के बाद यह अस्तित्‍व में आया है।  ख़ुद सुषमा के शब्‍दों में – ‘लिखना मेरे लिए ख़ुद से बातचीत करने की तरह है, मन की कीमियागिरी है, और इस लिहाज से बेहद निजी, अंतरंग जगह। लिखना फिर अपनी निजता के इस माइक्रोस्‍कोपिक फ्रेम के बाहर एक बड़े स्‍पेस में…अपने परिवेश, अपने समय के संदर्भ को समझना, अपनी बनीबुनी समझ को खंगालना भी है और संवाद की कोशिश भी। हिंदुस्‍तानी में लिखते रहना अपनी भाषा, समाज और ज़मीन में सांस लेते रहने का सुक़ूं है, जुड़े रहने का एक पुल है।‘ यह आत्‍मकथ्‍य हमें बताता है कि निजता से बाहर की जगहों में कवि की उपस्थिति और हस्‍तक्षेप ख़ुद कवि के लिए कितने महत्‍वपूर्ण हैं और कविता के लिए भी। यह संग्रह भी इसी तरह सम्‍भव हुआ है … मनुष्‍य और ज़रूरी मनुष्‍यता के बीच हर मुमकिन संवाद के साथ।  
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कविता संग्रह- उड़ते हैं अबाबील
सुषमा नैथानी
मूल्‍य– 200
पहला संस्‍करण 2011, अंतिका प्रकाशन
शिरीष कुमार मौर्य

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  1. वे शब्द और भाव प्रगटन की कुशल शिल्पी है .मैं खुद एक जीव विज्ञानी हूँ -कई जगहं उनसे भाव तादाम्य होता है तो आनंद आता है -वे एक उस विशिष्ट विधा -संकर प्रजाति का प्रतिनिधित्व करती है जिसका एक छोर विज्ञान से आया है तो दूसरा साहित्य और संवेदना से -अब तो दोनों मिलकर एक सुन्दर सा समिश्र बनाते हैं -प्रस्तित पुस्तक उड़ाते हैं अबाबील इसी का परिचायक है -आपकी प्रस्तुति आनन्ददायक है !

  2. आपकी नायाब पोस्ट और लेखनी ने हिंदी अंतर्जाल को समृद्ध किया और हमने उसे सहेज़ कर , अपने बुलेटिन के पन्ने का मान बढाया उद्देश्य सिर्फ़ इतना कि पाठक मित्रों तक ज्यादा से ज्यादा पोस्टों का विस्तार हो सके और एक पोस्ट दूसरी पोस्ट से हाथ मिला सके । रविवार का साप्ताहिक महाबुलेटिन लिंक शतक एक्सप्रेस के रूप में आपके बीच आ गया है । टिप्पणी को क्लिक करके आप सीधे बुलेटिन तक पहुंच सकते हैं और अन्य सभी खूबसूरत पोस्टों के सूत्रों तक भी । बहुत बहुत शुभकामनाएं और आभार । शुक्रिया

  3. शुक्रिया शिरीष, बद्रीनारायण जी की "प्रेमपत्र" मैंने नहीं पढ़ी, हालाँकि बहुत वर्ष पहले जब ये कविता लिखी थी, तो अनायास ही लिखी थी. पर अपनी कविता "प्रेमपत्र" का साम्य मुझे अल्बर्टो मोराविया की "The fetish" और कामू के "अजनबी" वाले भाव के नज़दीक या फिर कुछ "चेखव" के "डल्सीनिया" प्रयोग के भी नज़दीक दिखता है. इसमें स्त्री- बनाम पुरुष का भाव नहीं हैं, अपने अनुरूप पुरुष को ढालने की इच्छा स्त्री की भी हो सकती है. परन्तु किसी भी रचना के कई स्वतंत्र पाठ हो सकते हैं. किताब में कई जगह कुछ वर्तनी और मात्राओं की गलती भी रह गयी है, जिनका सुधार नहीं हुआ. उसके लिए दुःख और खेद दोनों है. सिर्फ इतना ही हासिल कि फिर से हिन्दी लिखने-पढने की शुरुआत हुयी.

    सादर
    सुषमा

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