Friday, July 13, 2012

यादवेन्‍द्र की तीन कविताएं

यादवेन्‍द्र जी अनुनाद के सच्‍चे संगी-साथी हैं। उन्‍होंने विश्‍वकविता से कुछ बहुत शानदार अुनुवाद अनुनाद को दिए हैं। वे अनुनाद के सहलेखक हैं पर ख़ुद पोस्‍ट नहीं कर पाते....वजह शायद इस काम का न आना हो या फिर उनकी अतिशय विनम्रता....मैं दोनों पर बलिहारी हूं। हमारे अनेक अनुरोधों के बावजूद वे अपनी कविता सामने लाने से बचते रहे हैं। यहां प्रस्‍तुत हैं उनकी तीन नई कविताएं, जो मेरे लिए उपलब्धि हैं। इस बार पड़ी भीषण गर्मी को समर्पित ये कविताएं बहुत धीमे लेकिन सधे सुरों में अर्थ की परतें खोलती हैं। अनुनाद इनके लिए कवि का आभारी है। 



बेमौसम झड़ गये आम इस बार
झंझा की कौन कहे आज का समय इतना बलवान
कि इसके अंदर कहीं कोई जगह और गुंजाइश नहीं
पराक्रम और जूझ से भरी असफलता की
कुदरत के कोप से धराशायी आमों की फ़ौज
हमें यह एहसास करा देती है
कि फल कर पकना ही
मोल देता है जीवन को
वरना झाड़ झंखाड़ जैसे बौर देख कर
इतराने वाला कोमल ह्रदय
क्यों नहीं जाता अब पेड़ तले  
सूनी कोख  का दर्द  बाँटने .....

*
धूल
इस मौसम में उठने वाली आँधी में
कस कर खिड़की का दरवाज़ा बंद करने
और बीच में कपडा ठूँस कर रखने के बावजूद
घर के अन्दर घुसी चली आती ही है ढीठ धूल
और धीरे धीरे  पसर जाती है प्रौढ़ प्रेमिका की मानिंद  
नाप तोल कर एक सी मोटाई की परत दर परत  
पूरे घर में कभी यहाँ तो कभी वहाँ
कुछ भी नहीं छोडती जो रह जाये उसकी शरारती छुअन से परे
इस प्रेम में कहीं नहीं दिखता है
तो वो है अनगढ़ उद्दाम छिछोरापन
रेगिस्तान के  आवारा थपेड़ों  से बने हुए आरोह अवरोह  तो कहीं भी नहीं
बस दिखती है तो परम बारीकी से अपना घर मान कर
फर्श पर सम भाव से इत्मीनान से बिछ गयी  बारीक धूल
चौकस और नकचढ़ी इतनी कि ऊँगली लगाते ही
दर्ज कर लेती है पूरी नफासत के साथ छेड़छाड़ का एफ.आई.आर. ...
हक़ के साथ घुस आती धूल ही
रौशनी की तरह इस घर का स्थायी भाव है
 बाकी सब तो आनी जानी... 

** 
छाया
सर्दियों में धूप रोकने का दोष लगा के
सरकारी तौर पर वन संरक्षक की इजाज़त से
कतर और बाद में जमींदोज कर दिए गये गूंगे पेड़
इस गर्मी कुछ चैतन्य हुए तो भदभदाकर
लद गये पीले और लाल बैंगनी फूलों से पत्ती विहीन  
जैसे भूल जाये कोई नींद से उठने की हड़बड़ी में
दरवाज़ा खोलते वक्त लपेटना तौलिया
परम उदार भाव से मुस्कुरा मुस्कुरा कर
फूल फेर रहे हैं रंगों की कूंचियाँ लॉन में
लम्बे समय से दिखी नहीं  
इस मौसम बालम संग चली गयी छाया जाने कौन से देस
जमाना ख़राब है...सौभाग्यवती  
लौटे तो आँखों के साथ साथ मन भी जुड़ाए........................
    *** 
   यादवेन्द्र / ए-24 , शांति नगर , रूडकी,उत्‍तराखंड   

1 comment:

  1. अाम की कविता खासकर पसंद अायी..
    अनुनाद को धन्यवााद!

    ReplyDelete

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