अमित उपमन्यु ने अभी हाल में ही कविताएँ लिखना शुरू किया है. कुछ कविताएँ परिकथा के नवलेखन अंक में आई हैं और कुछ अन्य पत्रिकाओं में आनी हैं. अनुनाद पर पहली बार प्रकाशित उनकी इन कविताओं में उनका नवाचार देखा जा सकता है. उनकी कुछ और कविताएँ यहाँ पढ़ी जा सकती हैं.
मौत के बाद क्या?
ईश्वर एक असामान्य घटना है!
इंसान होना मूलतः सामान्य हो जाना है
अवतार असाधारण रूप से असामान्य होकर भी अंततः इंसान ही रह जाते हैं
देवता और राक्षस अमृत के लिए युद्धरत हैं
अमृत के लिए लड़ने वाले अमर नहीं होते
ईश्वर नश्वर है!
मर जाना इंसान होना है
सब जगह होकर आखिरकार हम कहीं के नहीं रहते!
मैं ईश्वर से प्रेम करता हूँ क्यूंकि वो मेरे जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता
मैं ईश्वर नहीं हो पाया क्यूंकि मैं सब जगह होना चाहता हूँ
सारी आत्माएं मौत के पार जाने वाली ट्रेन में खिड़की वाली सीट चाहती हैं
पर उस ट्रेन में खिडकी-दरवाज़े नहीं होते;
रोशनी मुर्दों की आँखें खोल देती है!
जीते जी इंसान कई जगह होने की कोशिश करता है
मौत के बाद वह सबके सपनों में आता है
इंसान मर कर ईश्वर हो जाता है!
मौत का स्टेशन गुजर चुका है
पूरी ट्रेन में इकलौती जीवंत दिखती चीज़ बची है एक सवाल:
“मौत के बाद क्या?”
अखबार
मैंने सरसरी निगाह से ही देखना चाहा
लेकिन बदकिस्मती से उनसे नज़रें टकराईं
और वे सब अखबार से कूद-कूद कर बाहर आने लगे!
हत्याएं चीटियों की तरह पंक्ति लगाकर शक्कर के डिब्बों की तरफ चल पड़ीं
बलात्कार उछलकर दीवार पर टंगे स्वर्ण-पदकों पर झूलने लगे
चोरी और डकैतीयां “कौन बनेगा करोड़पति” देखने में मशगूल हो गईं
भ्रष्टाचार ने कमोड में छलांग मार कर खुद को फ्लश कर दिया|
लाशें, और घटना-स्थल अब तक अखबार में ही पड़े हुए थे
मुलजिम पहले पेज पर मुस्कुरा रहे थे
गवाह खेल-पृष्ठ पर पॉपकॉर्न खा रहे थे
वकीलों के ठहाके और “योर ऑनर” के हथौड़े की आवाज़ बाहर सड़क से आ रही थी
कानून मूसलाधार बरस रहा था
घड़ी के अलार्म से पुलिस के सायरन की आवाज़ आने लगी-
“सबको न्याय मिलेगा!”
फिर सूरज सर पर चढ़ आया
अखबार ऊंघने लगा
बाकी सब सो गए!
लाशें और घटना-स्थल अब भी अखबार में ही पड़े हुए थे|
जन्मदिन
धरती अपनी एड़ी पर घूमर नाचती हुयी समय को जन्म देती है
समय के सापेक्ष सारे नृत्य जीवन को जन्म देते हैं
और जीवन के सापेक्ष सारी गतिहीनताएं मृत्यु को
सारे लौकिक सत्य सापेक्षता की डांवांडोल नैया में सहमे बैठे यात्री हैं
समय ही समुद्र है समय ही आकाश
लहरें बादलों का प्रतिरूप हैं
स्पष्ट आकाश और लहरें निस्पंद हों जिस रोज़ -
सत्य का निरपेक्ष मान होता है “शून्य”!
समय एक लम्पट सम्राट है
सबका बलात् प्रेमी
हर जीवित कोख है मौत के अण्डों का शीतनिद्रा-नगर
रक्त की गतिज ऊष्मा से हम उन्हें पोषित करते हैं
अनिश्चित प्रजनन काल तक
अमावस की रात;
एक हाथ में धुंआ उगलती मटकी और दूसरे में लालटेन लिए
समय सबसे आगे चल रहा है
रास्ते के दोनों ओर झाड़ियों में सैंकड़ों आँखें चमक रही हैं
एक ज़िन्दगी का जनाज़ा मौत के सैकड़ों अण्डों की “मास ड्रिल” है
बच्चे पूछते हैं सब चुप क्यूँ हैं?
पुजारी कहते हैं यहाँ शोर करना मना है;
सबसे पीछे मौत ज़ोर-ज़ोर से तालीयां बजाती हुई आ रही है
श्मशान बूढ़ी जादूगरनीयों की “क्रिस्टल बॉल” हैं
सबको अपना भविष्य स्पष्ट दिख रहा है
पुजारियों की खुरदुरी, गंभीर आवाज़ में मंत्रोच्चार से
सारे अंडे चटकने लगे हैं
बच्चे पूछते हैं यह सब क्या हो रहा है?
पुजारी कहते हैं-
आज हम सब यहाँ जन्मदिन मनाने एकत्रित हुए हैं;
समय की हृदयविदारक चीत्कार आकाश गुंजा रही है|
सारे अंडे वापस लौट रहे हैं शहर की ओर,
लालटेन बुझी हुई,
कोई आँख नहीं चमक रही
बच्चे पूछते हैं लाशों की उम्र इतनी कम क्यूँ होती है?
पुजारी कहते हैं मौत की बू जानलेवा होती है;
मौत बस उनकी बातें सुन कर मुस्कुरा रही है |
रास्ता अभी लंबा है शहर बहुत दूर
शब्द अदृश्य हैं और आवाज़ें गूंगी
हर तरफ एक अमावसी चुप्पी ...
मौत की भाषा बस उसके अंडे समझ रहे हैं|