अनुनाद

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यतीन्‍द्र मिश्र की कविता

इधर नवभारत टाइम्‍स का दीपावली अंक आया है। उसमें सम्मिलित यतीन्‍द्र की एक कविता और उनके कविकर्म पर दो आलोचकीय टिप्‍पणियां अनुनाद के पाठकों के लिए।

एक ख़ास किस्‍म का संयम
यतीन्‍द्र मिश्र की कविताएं अयोध्‍या के भू-दृश्‍यों, सांस्‍कृतिक विशिष्‍टताओं और उसके लगातार छीजते जाने के दुखद प्रसंगों, संगीत, फि़ल्‍म, निर्गुनियों की बानी – और इन सबसे वर्तमान की निरन्‍तरता को तलाशने की संवेदनशील आकांक्षाओं से निर्मित हुई हैं। कला और संगीत पर लगातार लिखते रहने के कारण उनका कविरूप कुछ ढंक सा ज़रूर गया लेकिन उन्‍होंने कला की भिन्‍न भिन्‍न छवियों बहुत सलीके से अपनी कविता के भीतर आने दिया और उनके लिए कविता में जगह बनाई। यतीन्‍द्र की भाषा में एक ख़ास तरह का संयम है लेकिन यही बात उनके भावबोध के लिए नहीं कही जा सकती। दरअसल उनकी संयत भाषा उनके भावबोध की छटपटाहट को छुपा जाती है। 
-बसन्‍त कुमार त्रिपाठी  
गंगा-जमुनी विरासत का संधान
यतीन्‍द्र मिश्र ने भारतीयता की गंगा-जमुनी विरासत का संधान करनेवाली कुछ महत्‍वपूर्ण कविताएं लिखी हैं। ये कविताएं भारतीय कला की समावेशी प्रकृति को समझने और परखने का ज़रिया बनती हैं। बाबरी विध्‍वंस, गुजरात दंगों और भारतीय समाज में नव-फासीवाद के उभार के दौर में जन्‍मी अ‍सहिष्‍णुता की संस्‍कृति का प्रतिकार करने में भारतीय कला और परम्‍परा की भूमिका को समकालीन परिवेश में प्रतिष्ठित करती यह कविताएं मानव-प्रकृति की संश्लिष्‍टता का भी परिष्‍कार करती हैं। 
-प्रियम अंकित
चिड़ियों के घरों में बसन्‍त
ठंड से सिकुड़ी हुई जाड़े की सुबह
अचानक निगाह गई एक हरी पत्‍ती कर तरफ़
रात की कोख ने जन्‍म दे दिया था वहां
ओस की खनकती हुई कुछ स्‍फटिक बूंदों को एक घुमन्‍तू चिड़िया के उत्‍साह की लय
कोहरे की घनी चादर को चिढ़ा रही थी मुंह
और इस आयोजन के दौरान तितलियों की कतार
दिनभर का ज़रूरी सामान बांधकर
सूर्य की टोह लेने बाहर निकल पड़ी थी
कुछ गिलहरियां और कुछ तोते उत्‍साहित थे
उन पके और गदराए हुए अमरूदों को देखकर
जो कभी भी गिर सकते थे उनकी क्षुधा के परिसर में
इन सबसे अलग कुछ अक्‍लमंद सी लगती
रंग-बिरंगी अनजान चिड़ियों की बतकही
लगातार बहस में तब्‍दील हो रही थी
ऐसे बुक्‍काफाड़ जाड़े को चीरकर वे सब
कैसे उतार सकती थीं अपने घरों में बसन्‍त
सबकी गतिविधियों को विभोर सा निहारता मैं
दुविधा में पड़ा था कि जैसे दुनिया के गोरखधंधे में
दिनभर के लिए अब मुझे घिर जाना था
क्‍या उसमें इन लोगों की आत्‍मीय दुनिया भी
शामिल नहीं हो रही थी ?

0 thoughts on “यतीन्‍द्र मिश्र की कविता”

  1. संवेदनशील हो हृदय तो आसपास की कितनी ही गतिविधियां अनुभूति का हिस्सा बन जाती हैं!
    सुंदर प्रकृति चित्रण!

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