Thursday, November 17, 2011

यतीन्‍द्र मिश्र की कविता


इधर नवभारत टाइम्‍स का दीपावली अंक आया है। उसमें सम्मिलित यतीन्‍द्र की एक कविता और उनके कविकर्म पर दो आलोचकीय टिप्‍पणियां अनुनाद के पाठकों के लिए।


एक ख़ास किस्‍म का संयम

यतीन्‍द्र मिश्र की कविताएं अयोध्‍या के भू-दृश्‍यों, सांस्‍कृतिक विशिष्‍टताओं और उसके लगातार छीजते जाने के दुखद प्रसंगों, संगीत, फि़ल्‍म, निर्गुनियों की बानी - और इन सबसे वर्तमान की निरन्‍तरता को तलाशने की संवेदनशील आकांक्षाओं से निर्मित हुई हैं। कला और संगीत पर लगातार लिखते रहने के कारण उनका कविरूप कुछ ढंक सा ज़रूर गया लेकिन उन्‍होंने कला की भिन्‍न भिन्‍न छवियों बहुत सलीके से अपनी कविता के भीतर आने दिया और उनके लिए कविता में जगह बनाई। यतीन्‍द्र की भाषा में एक ख़ास तरह का संयम है लेकिन यही बात उनके भावबोध के लिए नहीं कही जा सकती। दरअसल उनकी संयत भाषा उनके भावबोध की छटपटाहट को छुपा जाती है। 
-बसन्‍त कुमार त्रिपाठी  


गंगा-जमुनी विरासत का संधान

यतीन्‍द्र मिश्र ने भारतीयता की गंगा-जमुनी विरासत का संधान करनेवाली कुछ महत्‍वपूर्ण कविताएं लिखी हैं। ये कविताएं भारतीय कला की समावेशी प्रकृति को समझने और परखने का ज़रिया बनती हैं। बाबरी विध्‍वंस, गुजरात दंगों और भारतीय समाज में नव-फासीवाद के उभार के दौर में जन्‍मी अ‍सहिष्‍णुता की संस्‍कृति का प्रतिकार करने में भारतीय कला और परम्‍परा की भूमिका को समकालीन परिवेश में प्रतिष्ठित करती यह कविताएं मानव-प्रकृति की संश्लिष्‍टता का भी परिष्‍कार करती हैं। 
-प्रियम अंकित

चिड़ियों के घरों में बसन्‍त

ठंड से सिकुड़ी हुई जाड़े की सुबह
अचानक निगाह गई एक हरी पत्‍ती कर तरफ़
रात की कोख ने जन्‍म दे दिया था वहां
ओस की खनकती हुई कुछ स्‍फटिक बूंदों को एक घुमन्‍तू चिड़िया के उत्‍साह की लय
कोहरे की घनी चादर को चिढ़ा रही थी मुंह
और इस आयोजन के दौरान तितलियों की कतार
दिनभर का ज़रूरी सामान बांधकर
सूर्य की टोह लेने बाहर निकल पड़ी थी
कुछ गिलहरियां और कुछ तोते उत्‍साहित थे
उन पके और गदराए हुए अमरूदों को देखकर
जो कभी भी गिर सकते थे उनकी क्षुधा के परिसर में

इन सबसे अलग कुछ अक्‍लमंद सी लगती
रंग-बिरंगी अनजान चिड़ियों की बतकही
लगातार बहस में तब्‍दील हो रही थी
ऐसे बुक्‍काफाड़ जाड़े को चीरकर वे सब
कैसे उतार सकती थीं अपने घरों में बसन्‍त

सबकी गतिविधियों को विभोर सा निहारता मैं
दुविधा में पड़ा था कि जैसे दुनिया के गोरखधंधे में
दिनभर के लिए अब मुझे घिर जाना था
क्‍या उसमें इन लोगों की आत्‍मीय दुनिया भी
शामिल नहीं हो रही थी ?

Wednesday, November 9, 2011

यादवेंद्र की कविता


यादवेंद्र जी अनुनाद के सबसे सक्रिय सदस्‍य हैं। इधर मेरे कुछ निष्क्रिय होने पर उनके अनुवादों ने ही अनुनाद को सहारा दिया है। वे कविता के क्षेत्र में हर तरह से हस्‍तक्षेप करते रहे हैं। उनकी ख़ुद की कविताएं बहुत समर्थ कविताएं हैं, जिन्‍हें पता नहीं किस संकोच में वे छिपाए रखते हैं। कभी-कभी ही ऐसा होता है कि वे अपनी कविता पढ़ने को भेजें। उनकी एक कविता पहले अनुनाद पर छपी है और इस बार मुझे फिर सौभाग्‍य प्राप्‍त हुआ है कि उनकी एक कविता आपके सामने रख पाऊं। 
 

कहीं कुछ तो होगा

इस भरेपूरे जहान में कहीं कुछ तो ऐसा होगा
जो काल की धुरी से छिटक कर लट्टू सा दूर जा गिरा होगा
और अपनी धुन में न्यूटन का सेब बनने से बचने पर इतरा रहा होगा
यह परिव्राजकों और कोलंबस की खोजी निगाहों में आने से रह गया होगा
जिन्हें धुरंधर खगोलवेत्ताओं की ऑंखें और उपकरण नहीं देख पाए होंगे
दुनिया में धर्मों का परचम लहराने वाले तमाम पैगम्बरों की बानियों में
कोई तो पृष्ठ ऐसा होगा जो अबतक शामिल होने से रह गया होगा
जो इस अवधारणा को धता बता कर चमत्कृत हो रहा होगा
कि एक एक रजकण का हिसाब है ऊपर वाले की पोथी में दर्ज...

ऐसी कहीं कुछ अनगढ़ दरारें मुँह बाए साँस ले रही होंगी
मानव जाति की कालजनित ढलानों और गह्वरों में
जो सब कुछ हजम करके भी संतुष्ट और अनुकूल नहीं हो पाई होंगी
और उनके अंदर फलफूल रही होंगी कुछ अबूझ जीवात्माएं और संस्कृतियाँ
कुछ जरुर ऐसा बावला भाव अंदर ही अंदर करवटें ले रहा होगा
जो छूटा रह गया होगा शिकारी के जाल में हिफाजत से दबोच लिए जाने से
वेदों और ओल्ड टेस्टामेंट में दर्ज किये जाते समय
जरुर कुछ बातें बांधे जाने से पहले हवा में छितर गयी होंगी
नोस्त्रादेमस की तमाम भविष्यवाणियों से छिप छिप कर भी
जरुर कुछ सार्थक घटित हो रहा होगा यहाँ वहाँ....

इस धरती पर डोलती होंगी जरुर कुछ ऐसी भ्रांतियां और नादानियाँ
जिनका अतापता लाख सावधानियों के बावजूद
न तो संयुक्त राष्ट्र के डिजिटल डेटाबेस में शामिल हो पाया होगा
और न ही ये अपने अनगढ़ रूप को सजाने संवारने के लिए पकड़ में आयी होंगी.
इन अरूप सत्यों का आभास आर्यभट को नहीं मिल पाया होगा
न ही गणेश के वाचन से संपन्न हुई किताबों में उनका जिक्र आया होगा
जो आइन्स्टीन की परिशुद्ध गणनाओं की परिधि से बाहर ही बाहर
असमय आवारा और उद्धत डोल रही होंगी अतृप्त आत्माओं की तरह...

कुछ ऐसा नहीं है दृढनिश्चय के साथ कौन लिखेगा
कहीं कुछ तो ऐसा होगा
थोड़ा कुरेदो तो ऐसा कहने वाले जाने कितने मिल जायेंगे.....
***

Saturday, November 5, 2011

भूपेन हजारिका की याद


आज प्रख्‍यात गीतकार-संगीतकार भूपेन हजारिका का देहान्‍त हो गया।  उनके अब तक आ चुके कई जनगीत अतीत की कहानी आप कहते हैं। यू ट्यूब से ऐसे ही एक गीत को यहां साभार प्रस्‍तुत करते हुए अनुनाद उनको याद करता है।

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