Saturday, October 29, 2011

श्रीलाल शुक्ल नहीं रहे

 श्रीलाल शुक्ल नहीं रहे. राग दरबारी रहेगा. उनके न रहने की सूचना एक आघात है लेकिन उनका रचा हुआ एक विरासत. कितने दिन ऐसे गुज़रते हैं जब राग दरबारी के दृश्य एक एक कर आँखों के आगे खड़े हो जाते हैं. कभी सामान्य ज़िन्दगी जीते हुए और कभी किसी भंवर में फंसे हुए. कभी समकालीन समाज और राजनीति से अपने अपने हिस्से का संवाद करते हुए. और कभी अपने ही कुछ टूटे हुए हिस्से जोड़ते हुए. साहित्य के दिनों दिन सीमित होते जाते घेरे के बाहर भी वे उतने ही लोकप्रिय हैं. मेरे विश्वविद्यालय में इतिहास के  अग्रज  प्रोफ़ेसर अनिल जोशी के बैग में राग दरबारी ज़रूर होता है. वे कुछ भी भूल जाएँ पर रोज़ इस किताब को अपने साथ रखना नहीं भूलते और जीवन और नौकरी की जटिलताओं में अक्सर उसका कोई प्रसंग छेड़ बैठते हैं.

कथा के इस कालजयी चितेरे का कविता से प्रेम भी किसी से छुपा नहीं है. लिहाजा कविता की यह पत्रिका अनुनाद अपने इस अद्भुत बुज़ुर्ग को अपना सलाम पेश करती है. जब तक हममें सही साहित्य पढने की बुद्धि सलामत रहेगी तब वे हमेशा हमारे साथ रहेंगे...हमारे सिरहाने उनका हाथ रहेगा.   

फोटो hindini.com से साभार

Thursday, October 27, 2011

प्रो. रामदयाल मुंडा की स्‍मृति और रीता जो की कविता - यादवेन्‍द्र

प्रो रामदयाल मुंडा
पिछले दिनों देश की आदिवासी संस्कृति के बड़े विद्वान और पैरोकार 72 वर्षीय प्रो. रामदयाल मुंडा का निधन हो गया पर बड़े समाचार माध्यमों में इस घटना की कहीं कोई गूंज नहीं सुनाई दी.झारखण्ड प्रदेश की परिकल्पना को व्यवहारिक रूप देने वाले विचारकों में प्रो.मुंडा अग्रणी थे, रांची विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर भी रहे. कहा जाता है कि प्रो. मुंडा का कमरा झारखण्ड के युवा नेतृत्व का उदगम और प्रशिक्षण स्थल रहा.आदिवासी समाज,संस्कृति और भाषाओं पर उनका काम देश में काम और विदेशों में ज्यादा समादृत था इसी लिए अमेरिका सहित अनेक देशों में वे अध्यापन कार्य करते रहे. वे एक स्वतः स्फूर्त गायक के रूप में भी जाने जाते थे.उनकी इन्ही विशेषज्ञताओं की बदौलत उन्हें पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी की सस्यता से सम्मानित किया गया.कुछ समय पहले उन्हें राज्य सभा के सदस्य के रूप में नामित किया गया था.अपने विचारों के प्रचार प्रसार के लिए पहले उन्होंने खुद अपना एक दल बनाया पर संगठन का अनुभव न होने के कारण उसको उन्हें शिबू सोरेन के दल झारखण्ड मुक्ति मोर्चा में शामिल करना पड़ा.वहाँ भी उनको जब कोई सार्थक काम होता हुआ नहीं दिखा तो कांग्रेस में शामिल हो गए.

उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि आदिवासी समाज के दस करोड़ सदस्यों को जबरन हिन्दू या ईसाई समुदाय के अंदर समाहित करने की साजिश आजादी के बाद से की जाती रही है.उनकी आराधना पद्धति प्रकृति पूजा की है और उन्हें देश के छह धार्मिक समुदायों से अलग मान्यता मिलनी चाहिए...उनकी धार्मिक मान्यता को नयी पहचान प्रदान करने के लिए उन्होंने आदि धर्म का आन्दोलन शुरू किया था...इसी नाम से उन्होंने आदिवासियों की प्रचलित आराधना पद्धतियों को संकलित करते हुए एक किताब भी लिखी थी. यहाँ प्रो. राम दयाल मुंडा को स्मरण करते हुए मुझे कनाडा के आदिवासी समुदाय की प्रमुख कवियित्री रीता जो की एक प्रसिद्ध कविता याद आ रही है:



मुझे भूल गया बोलना बतियाना

रीता जो


मुझे भूल गया बोलना बतियाना
जब मैं छोटी बच्ची थी
और स्कूल में पढ़ती थी
तब तुम जाने कब इसको उठा ले गए थे.

तुम मेरे बोलने बतियाने को मुझसे छीन कर भाग गए थे
अब मैं तुम्हारी तरह बोलती हूँ
अब मैं तुम्हारी तरह सोचती हूँ
अब मैं तुम्हारी तरह कामधाम करती हूँ
अपनी दुनिया के बारे में ही नृत्य करते हुए
कई बार डांवाडोल और लड़खड़ा जाती हूँ.

अब मैं दो तरीकों से बतियाती हूँ
पर दोनों तरीकों में कहती एक ही बात हूँ
कि तुम्हारा ढब ढंग मुझसे कहीं ज्यादा बेहतर है.

अब मैं हौले से बढाती हूँ अपना हाथ
और कहती हूँ तुमसे
मुझे वापिस ढूंढ़ने दो अपना बोलना बतियाना
जिस से मैं समझा सकूँ
तुम्हें कि आखिर मैं हूँ कौन.


प्रस्तुति: यादवेन्द्र

Wednesday, October 26, 2011

नैनीताल में दीवाली - वीरेन डंगवाल

( अनुनाद के सभी पाठकों को दीपावली की शुभकामनाएं )

ताल के ह्रदय बले
दीप के प्रतिबिम्ब अतिशीतल
जैसे भाषा में दिपते हैं अर्थ और अभिप्राय और आशय
जैसे राग का मोह

तड़ तडाक तड़ पड़ तड़ तिनक भूम
छूटती है लड़ी एक सामने पहाड़ पर
बच्चों का सुखद शोर

फिंकती हुई चिनगियाँ
बगल के घर की नवेली बहू को
माँ से छिपकर फूलझड़ी थमाता उसका पति
जो छुट्टी पर घर आया है बौडर से
***

Wednesday, October 5, 2011

सिद्धान्त मोहन तिवारी की तीन कविताएं

यहां मेरे पास सिद्धान्त मोहन तिवारी की तीन कविताएं हैं। बनारस से व्योमेश शुक्ल के बाद एक और प्रतिभा युवा कविता में दखल के लिए एकदम तैयार है। एक अलग रंग, अलग तबीयत पर तरबीयत कुछ व्योमेश जैसी। दोनों की कविता में कुछ साम्य भी भाषा-शिल्प को लेकर दिखेगा पर मेरे ख़याल से ये सिर्फ़ शुरूआती प्रभाव है। इन कविताओं में एक अलग मुहावरा है। ये मुहावरा अपने समय और स्थानीय और निजी संघटनाओं से उपजा मुहावरा है। इन तीनों कविताओं में वह दिखेगा। इनके सामाजिक-राजनीतिक आशय भी स्पष्ट हैं, जिसकी मैं किसी भी कविता से उम्मीद करता हूं। एकाध अपवाद को छोड़ दें तो ये कविताएं भाषा में छुपाकर किसी रहस्य या मुश्किल का निर्माण नहीं करतीं, बल्कि उसे और खोलती हैं। यहां आकर सिद्धान्त की कविताएं कठिनाई के कवि* व्योमेश से कुछ अलग राह पकड़ती है। इनमें एक बौद्धिकता तो है पर उसे पार कर जानेवाली अनिवार्य बेबाकी भी। इन कविताओं की पठनीयता में कोई अवरोध नहीं। पाठक इन्हें और इनमें छुपे ज़रूरी सामाजिक सूत्रों को बिना किसी आलोचकीय व्याख्या के पकड़ सकता है।  कवि को मेरी शुभकामनाएं और अनुनाद पर स्वागत। हमारे दोस्त अनुराग ने सिद्धांत को सबद पर पहली बार प्रकाशित किया था, इस पोस्ट को इस लिंक पर देखिये.
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* इधर व्योमेश की कविता को दिया जाने वाला एक फतवा.
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रंग

मुझे प्रेम नहीं हुआ, कभी
मेरा प्रेम एक अलग निकाय था

जिसकी सारी ऊष्मा उसी में रहती थी

मुझे रंग चाहिए थे
ढेर सारे
एक बड़े पुलिंदे में

क्योंकि मेरे प्रेम की अनुभूति रंग से ही निर्धारित हुई थी

वहाँ काला रंग कहीं नहीं था
सफ़ेद, यदि था तो वह सफ़ेद नहीं हो रहा था
उसे हो जाना था कुछ और
लाल
मेरे सामने एक लाल नंगा युवक था
हाथ में था उसके एक ब्रश
उस ब्रश को एक लाल फूल को और ज़्यादा लाल करना था

मेरे लिए
जिस तरह एक हरी औरत थी
बाँस के तने को और ज़्यादा हरा कर रही थी

उसके लिए
एक पीला बच्चा भी तो था
वह किसी सूरजमुखी पर नहीं था
वह घास के पीले फूलों पर बैठा था
लगा था
पूरे मन से
अपनी ऊंगली से पोता-पाती में व्यस्त

एक नीला हिजड़ा था
एक सफ़ेदपोश को नारंगी रंग में रंगते हुए
चटख नारंगी

यह सारा खेल अनुभूति की सड़क की
क्यारियों में हो रहा था

वह सड़क अब प्रेम की सड़क है
नहीं, रंग की सड़क
सड़क का रंग 'बदरंग' था
वह 'बदरंग' मटमैला था

मेरा आईना था
थी
है

तुम अभी भी गुलाबी हो
सुर्ख़ गुलाबी, जैसे ज़ोर से मरोड़े गए गाल

मैं लंपट
बैंगनी.
***

हवा

कल की हवा, हवा नहीं थी
वह राख थी
जैसे परसों की हवा समय थी
आज कोई हवा नहीं है
आज सिर्फ़ खून है

बनारस की हवा मृत्यु से ख़त्म हो चुका भय है
यहाँ पानी नहीं है
यहाँ संत-साधु-घाट नहीं हैं
यहाँ की हवा मैं भी हूँ

सोनभद्र की हवा अलग है
उसकी हवा में क्रशर का चूरा नहीं है
आन्दोलन की चीखें भी नहीं हैं
पलाश और तेंदू पत्ते हैं

यहाँ की हवा
हमेशा
से
जैसे

दिल्ली में हवा ही नहीं है
बची-खुची तरावट है
या वहाँ की हवा
हवा ही है

हवा दरअस्ल हवा नहीं होती है
वह बू होती है.
***

उसके लिए जो कभी गाली नहीं दे पाया...

वह नहीं था
अपने वजूद में कहीं नहीं था
उसे डर था अपने मार खा जाने का
या पहले से ज़्यादा मज़ाक़ उड़ जाने का
जिसमें उसे सब अपना साला बुलाते थे

डर इतना था
माँ भी उसे डराती थी
बहनें भी
बाप भी
बेटी भी
पत्नी भी
बेटी और पत्नी अभी छूटे हुए थे ही

उसका हाथ नहीं उठा हर बार
जब उसके मुँह पर माँ और बहन
को
ले लिया गया

हाथ छोड़िये जनाब
मुँह तक नहीं फट पाया
गांड फटी सो अलग

यहाँ कोई दुःख नहीं था
ख़ुशी ही थी
अपने बाप की तरह होने का
बाप भी गाली नहीं देता था

बाप मर गया

माँ पाँच पुरुषों का बोझ नहीं सम्हाल पाई
मर गई

छोटी बहन तो कपडा फटते ही चली गई

दो बड़ी बहनें लिए जाने के बाद
लिए जाने के अर्थ कई हो सकते हैं, इसका अर्थ आपके मुताबिक़ न हो, तो मुझे दोषी न बनायें
गाली गन्दी थी - इसके लिए भी मुझे दोषी नहीं.
बलात्कार को बताने के लिए भी नहीं, दोषी

क्या वो मजदूर था
या कोई गुजराती कट्टू
***

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