
यहां मेरे पास सिद्धान्त मोहन तिवारी की तीन कविताएं हैं। बनारस से व्योमेश शुक्ल के बाद एक और प्रतिभा युवा कविता में दखल के लिए एकदम तैयार है। एक अलग रंग, अलग तबीयत पर तरबीयत कुछ व्योमेश जैसी। दोनों की कविता में कुछ साम्य भी भाषा-शिल्प को लेकर दिखेगा पर मेरे ख़याल से ये सिर्फ़ शुरूआती प्रभाव है। इन कविताओं में एक अलग मुहावरा है। ये मुहावरा अपने समय और स्थानीय और निजी संघटनाओं से उपजा मुहावरा है। इन तीनों कविताओं में वह दिखेगा। इनके सामाजिक-राजनीतिक आशय भी स्पष्ट हैं, जिसकी मैं किसी भी कविता से उम्मीद करता हूं। एकाध अपवाद को छोड़ दें तो ये कविताएं भाषा में छुपाकर किसी रहस्य या मुश्किल का निर्माण नहीं करतीं, बल्कि उसे और खोलती हैं। यहां आकर सिद्धान्त की कविताएं
कठिनाई के कवि* व्योमेश से कुछ अलग राह पकड़ती है। इनमें एक बौद्धिकता तो है पर उसे पार कर जानेवाली अनिवार्य बेबाकी भी। इन कविताओं की पठनीयता में कोई अवरोध नहीं। पाठक इन्हें और इनमें छुपे ज़रूरी सामाजिक सूत्रों को बिना किसी आलोचकीय व्याख्या के पकड़ सकता है। कवि को मेरी शुभकामनाएं और अनुनाद पर स्वागत। हमारे दोस्त अनुराग ने सिद्धांत को सबद पर पहली बार प्रकाशित किया था, इस पोस्ट को
इस लिंक पर देखिये.
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* इधर व्योमेश की कविता को दिया जाने वाला एक फतवा.
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रंग
मुझे प्रेम नहीं हुआ, कभी
मेरा प्रेम एक अलग निकाय था
जिसकी सारी ऊष्मा उसी में रहती थी
मुझे रंग चाहिए थे
ढेर सारे
एक बड़े पुलिंदे में
क्योंकि मेरे प्रेम की अनुभूति रंग से ही निर्धारित हुई थी
वहाँ काला रंग कहीं नहीं था
सफ़ेद, यदि था तो वह सफ़ेद नहीं हो रहा था
उसे हो जाना था कुछ और
लाल
मेरे सामने एक लाल नंगा युवक था
हाथ में था उसके एक ब्रश
उस ब्रश को एक लाल फूल को और ज़्यादा लाल करना था
मेरे लिए
जिस तरह एक हरी औरत थी
बाँस के तने को और ज़्यादा हरा कर रही थी
उसके लिए
एक पीला बच्चा भी तो था
वह किसी सूरजमुखी पर नहीं था
वह घास के पीले फूलों पर बैठा था
लगा था
पूरे मन से
अपनी ऊंगली से पोता-पाती में व्यस्त
एक नीला हिजड़ा था
एक सफ़ेदपोश को नारंगी रंग में रंगते हुए
चटख नारंगी
यह सारा खेल अनुभूति की सड़क की
क्यारियों में हो रहा था
वह सड़क अब प्रेम की सड़क है
नहीं, रंग की सड़क
सड़क का रंग 'बदरंग' था
वह 'बदरंग' मटमैला था
मेरा आईना था
थी
है
तुम अभी भी गुलाबी हो
सुर्ख़ गुलाबी, जैसे ज़ोर से मरोड़े गए गाल
मैं लंपट
बैंगनी.
***
हवा
कल की हवा, हवा नहीं थी
वह राख थी
जैसे परसों की हवा समय थी
आज कोई हवा नहीं है
आज सिर्फ़ खून है
बनारस की हवा मृत्यु से ख़त्म हो चुका भय है
यहाँ पानी नहीं है
यहाँ संत-साधु-घाट नहीं हैं
यहाँ की हवा मैं भी हूँ
सोनभद्र की हवा अलग है
उसकी हवा में क्रशर का चूरा नहीं है
आन्दोलन की चीखें भी नहीं हैं
पलाश और तेंदू पत्ते हैं
यहाँ की हवा
हमेशा
से
जैसे
दिल्ली में हवा ही नहीं है
बची-खुची तरावट है
या वहाँ की हवा
हवा ही है
हवा दरअस्ल हवा नहीं होती है
वह बू होती है.
***
उसके लिए जो कभी गाली नहीं दे पाया...
वह नहीं था
अपने वजूद में कहीं नहीं था
उसे डर था अपने मार खा जाने का
या पहले से ज़्यादा मज़ाक़ उड़ जाने का
जिसमें उसे सब अपना साला बुलाते थे
डर इतना था
माँ भी उसे डराती थी
बहनें भी
बाप भी
बेटी भी
पत्नी भी
बेटी और पत्नी अभी छूटे हुए थे ही
उसका हाथ नहीं उठा हर बार
जब उसके मुँह पर माँ और बहन
को
ले लिया गया
हाथ छोड़िये जनाब
मुँह तक नहीं फट पाया
गांड फटी सो अलग
यहाँ कोई दुःख नहीं था
ख़ुशी ही थी
अपने बाप की तरह होने का
बाप भी गाली नहीं देता था
बाप मर गया
माँ पाँच पुरुषों का बोझ नहीं सम्हाल पाई
मर गई
छोटी बहन तो कपडा फटते ही चली गई
दो बड़ी बहनें लिए जाने के बाद
लिए जाने के अर्थ कई हो सकते हैं, इसका अर्थ आपके मुताबिक़ न हो, तो मुझे दोषी न बनायें
गाली गन्दी थी - इसके लिए भी मुझे दोषी नहीं.
बलात्कार को बताने के लिए भी नहीं, दोषी
क्या वो मजदूर था
या कोई गुजराती कट्टू
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