अनुनाद

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फकुन्दो कब्राल – अनुवाद तथा प्रस्‍तुति – यादवेन्‍द्र

पूरे लैटिन अमेरिका में बेहद सम्मानित 74 वर्षीय लोक गायक और लेखक फकुन्दो कब्राल की पिछले महीने बन्दूकधारी अपराधियों ने दिन दहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी…अपनी आँखें लगभग गँवा चुके कब्राल औपचारिक शिक्षा से महरूम एक यायावर लोकगायक थे , जो राजनैतिक अस्थिरता और सैनिक तानाशाहियों के लिए जाने जाने वाले उपमहाद्वीप में अपने विद्रोही गीतों के कारण बहुत ख्याति अर्जित कर चुके थे.सैलानियों के लिए कुछ पैसों के लिए गाने से शुरू करके इस प्रतिभाशाली और राजनैतिक रूप में सजग कलाकार ने तानाशाहियों के विरुद्ध जनता की आवाज बुलंद करने तक का सफ़र तय किया.बचपन में गरीबी और जलालत का कडवा अनुभव कर चुके कब्राल सत्तर के दशक में अंतर राष्ट्रीय पटल पर उभरे.1976 में अर्जेंटीना में सैनिक तानाशाही के सत्ता में आने के बाद उन्हें जान बचाने के लिए कुछ वर्षों के लिए मैक्सिको जाना पड़ा…दो वर्ष बाद उनकी पत्नी और नन्ही सी बेटी एक हवाई दुर्घटना में मारे गए. उनके प्रभाव को देखते हुए यूनेस्को ने उन्हें 1996 में शांति का अंतरराष्ट्रीय सन्देशवाहक घोषित किया था.उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि मृत्यु पर अनेक देशों के राष्ट्रपतियों ने उन्हें व्यक्तिगत स्तर पर श्रद्धांजलियां दीं. यहाँ प्रस्तुत है उनकी एक बेहद चर्चित लघु कथा और कविता.

मोची ने ईश्वर की पेशकश ठुकराई

एक दिन ईश्वर ने सोचा क्यों न किसी छोटे शहर में फिर से जन्म लिया जाये और वो भी किसी बेघर गरीब आदमी के परिवार में. सो,चलते चलते वे शहर के एक मोची के ठिये पर पहुँच गए .
उसके सामने खड़े होकर ईश्वर ने बात शुरू की: मैं बहुत गरीब आदमी हूँ और मेरी जेब में एक पाई भी नहीं है.मेरी ये घिसी पिटी पुरानी चप्पल है,इसमें सिलाई मार दोगे भाई?
मोची ने सिर उठा कर देखा और बोला: दिन भर में जाने ऐसे कितने कंगाल आते हैं …किसी की जेब में तुम्हारी तरह ही कुछ नहीं होता..मैं इनसे आजिज आ चुका हूँ अब तो.
ईश्वर: पर भाई,मैं तुम्हें ऐसा कुछ दे सकता हूँ जिसकी दरकार तुम्हें पड़ेगी.
मोची: क्या तुम मुझे दस लाख रु. दे सकते हो जिनसे मेरा ढंग से जीवन यापन हो सके?
ईश्वर: हां,दे तो मैं तुम्हें इसका दस गुणा भी हूँ पर इसके लिए तुम्हें कुछ त्याग करना पड़ेगा…अपनी टांगें दे सकते हो मुझे?
मोची: पर मैं करोड़ रु.लेकर ही क्या करूँगा जब मेरे लिए चलना फिरना मुमकिन नहीं रहेगा.
ईश्वर: छोड़ो इसको,मैं तुम्हें इसका भी दस गुणा दे रहा हूँ पर बदले में तुम मुझे अपनी दोनों बाँहें दे दो.
मोची: बाँहें दे दूंगा तो मैं खुद अपना खाना कैसे खा पाउँगा ?…अपने पैसे अपने पास ही रखो भाई.
ईश्वर: चलो एक मौका और देता हूँ…तुम अपनी दोनों आँखें मुझे दे दो तो मैं सौ गुणा दौलत देने को तैयार हूँ…सोच लो.
मोची: नहीं चाहिए मुझे कितनी भी दौलत.. जिसको ले के मैं अपनी बीबी,बच्चों और दोस्तों को न देख पाऊं वैसी दौलत मेरे किस काम की…ना मंजूर.
ईश्वर: वाह मेरे भाई, तुम्हें मालूम भी नहीं कि तुम कितने खुश किस्मत हो…धन्य हो.
***

न मैं यहाँ का हूँ, न वहाँ का

मुझे पसंद हैं वे लोग जो अनर्गल नहीं बोलते
मुझे पसंद हैं वे लोग जो गाते हैं गीत
मैं खुद को अपने साथ लिए घूम रहा हूँ
मुझे पसंद है जो हो रहा है मेरे साथ
ऐसी बातें मेरे साथ होती रहती हैं
हाँलाकि यह जरुरी नहीं कि ऐसी हर बात
मैं दूसरों को बताने ही जाऊँ
पर कोई अदद इंसान अकेला नहीं होता
जो उसके साथ होता है वो दुनिया के साथ भी होता है
वजह और कारण अलग हों भले ही
क्योंकि हर चीज मुकम्मल होती है
जैसे मुकम्मल है ईश्वर
जो जब एक फूल तोड़ता है तो
खिसका देता है एक सितारा अपनी जगह से
मानो…जैसे एक…वैसे ही दो….
जिस रात मैंने एक भूखे आदमी को कुछ खाने को नहीं दिया
उस पूरी रात मुझे शैतान का डर सताता रहा
और उसी दिन मुझे एहसास हुआ
कि शैतान तो ईश्वर का ही बेटा है.

मैं जीवन भर एकाकी घूमता रहा
सिर्फ धुनों और तालों को साथ लिए
मामूली सा गायक अपने में मगन
इस मुगालते में नहीं रहा कि
सिखा सकने का माद्दा है मुझमें
यदि दुनिया गोल है
तो मालूम नहीं इसके बाद क्या आएगा
चलना और निरंतर चलते रहना
चलते रहने के लिए चलते रहना
मैं दुनिया को सिखाने के लिए नहीं आया
अपना काम करने आया हूँ बस
मैं लोगों के बारे में फैसले करने नहीं
लोगों से साझा करने आया हूँ अपने अनुभव
मेरा संकल्प है जीवन…मेरा रास्ता है गाने का…गाना…
जीवन के गीत..
यही मेरा जीने का अंदाज है.

मैं थिरकता हूँ खुद अपने गीतों पर
दूसरा कोई क्यों मेरे लिए बनाये धुनें
मैं अपने आप आजादी तो नहीं हूँ
पर इसका बुलंद आह्वान जरुर हूँ
जब मुझे पता है मेरा रास्ता
तो क्यों इधर उधर की पगडंडियों पर भटकूँ
जब मुझे प्रिय है आजादी तो क्यों करूँ गुलामी?

मैंने माँगा..हरदम मैंने माँगा
खुद के लिए अपने भाई से ज्यादा
और यदि मैंने ईश्वर से माँगा होता
कि बना दे मुझे चील
तो वो इस लिए कि मुझे प्रिय है कीड़े मकोड़ों का निवाला.
मुझे पसंद है पैदल चलना
बजाय इसके कि चिरौरी करूँ किसी की
कि थोड़ी देर को दे दे अपनी बग्घी
सेब की ताक में रहने वाले लोग
हमेशा चलते हैं किनारे किनारे.

जो अपने कन्धों पर रखता है सबसे कम बोझ
वही गंतव्य पर पहुँचता है सबसे पहले
जिस दिन मैं मरूँगा
नहीं होगी दरकार ताबूत के लिए किसी नाप की…
एक गायक के लिए तो नृत्य ही काफी होगा.

मैं दुश्मनों का मुकाबला करता हूँ
पर प्रशंसा पर मुँह फेर लेता हूँ
मीठी प्रशंसा से फूल कर कुप्पा होने का मतलब होता है
कबूल कर लेना अधीनता और गुलामी..
आदमी घोड़े की पीठ पर फेरता है हाथ
उसपर सवारी करने की खातिर…
यदि मैं अपनी हदें पार कर रहा होऊं
या आपको लग रहा होऊं नैतिकतावादी
तो मुझे माफ़ कर दें…
इस दुनिया में कोई मशविरा देने का अधिकारी नहीं
कोई भी इतना सयाना नहीं बना अभी…

मैं जब सूरज को साध लेता हूँ अपनी पीठ पर
तो पूरी दुनिया प्रकाशमान हो जाती है
मुझे पसंद है पैदल दूरियां नापना
पर मैं सीधी सड़क नहीं पकड़ता
क्योंकि तय रास्तों में अनुपस्थित रहता है अनजानेपन का कुतूहल
गर्मियों में मैं दूर निकाल जाना पसंद करता हूँ
पर सर्दियाँ आते ही लौट आना चाहता हूँ माँ के पास…
उन कुत्तों से मिलना चाहता हूँ
जो भूलते नहीं मेरी छुअन
उन घोड़ों को भी…
भाई का प्रगाढ़ आलिंगन…
मुझे ये सब पसंद है…
मुझे ये सब पसंद है…

मुझे पसंद है सूरज,एलिसिया और बतख
अच्छी सी सिगार…स्पैनिश गिटार
जब कोई स्त्री दुःख से रोने लगे तो
चाहता हूँ दीवारों को लांघना
खिडकियों को खोल देना…

मुझे जितनी पसंद है शराब उतने ही हैं फूल भी
फुदकते खरगोश…पर ट्रैक्टर बिलकुल नहीं
घर पर बनाई हुई ब्रेड और गाना बजाना
और मेरे पैरों को बार बार
धो डालने वाला सागर.

न मैं यहाँ का हूँ न वहाँ का
मेरी कोई उमर नहीं न ही है भविष्य
बस खुश रहना चिर परिचित रंग है
मेरी पहचान का.

मुझे हमेशा से पसंद रहा है रेत पर लेटना
या साईकिल पर बिटिया का पीछा करना
या तारों को निहारते रहना मारिया के साथ साथ
खेतों की हरी गद्दी से.

न मैं यहाँ का हूँ न वहाँ का
मेरी कोई उमर नहीं न ही है भविष्य
बस खुश रहना चिर परिचित रंग है

मेरी पहचान का.
***
अनुनाद पूरी तरह कविता की पत्रिका है पर आज इसमें यादवेन्‍द्र जी के सौजन्‍य से एक लघुकथा छप रही है। आगे शायद ये पत्रिका इस तरह की सामग्री के लिए और भी खुले।

0 thoughts on “फकुन्दो कब्राल – अनुवाद तथा प्रस्‍तुति – यादवेन्‍द्र”

  1. तीनों ही चीजें बहुत अच्छी…फकुंदो कब्राल को जानकर बहुत अच्छा लगा, कविता पढ़ लगा, हम भी तो यूं भी ख़ुश रह सकते हैं, बिना तमाम ख़्वाहिशों के…ये चीजें प्रेरणा देती हैं।

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