अनुनाद

अनुनाद

रुलाई

चित्र गूगल से साभार

मुझे नहीं पता मैं पहली बार
कब रोया था
हालांकि मुझे बताया गया कि पैदा होने के बाद भी
मैं खुद नहीं रोया
बल्कि नर्स द्वारा च्यूंटी काटकर रुलाया गया था
ताकि भरपूर जा सके ऑक्सीजन पहली बार हवा का स्वाद चख रहे
मेरे फेफड़ों तक

मुझे अकसर लगता है कि मैं शायद पहली बार रोया होऊंगा
मां के गर्भ के भीतर ही
जैसे समुद्रों में मछलियां रोती हैं
चुपचाप
उनके अथाह पानी में अपने आंसुओं का
थोड़ा-सा नमक मिलाती हुई

हो सकता है
उनके और दूसरे तमाम जलचरों के रोने से ही
खारे हो गए हों समुद्र

मैं भी ज़रूर ऐसे ही रोया होऊंगा
क्षण भर को अपने अजन्मे हाथ-पांव हिलाकर
बाहर की दुनिया की तलाश में
और मेरे रोने से कुछ तो खारा हो ही गया होगा
मेरे चारों ओर का जीवन-द्रव

मुझे नहीं मालूम कि मां ने कैसा अनुभव किया होगा और इस अतिरिक्त खारेपन से
उसे क्या नुकसान हुआ होगा ?

उस वक्त
वह भी शायद रोयी हो नींद में अनायास ही
बिसूरती हुई
सपना देख रही है कोई दुख भरा – शायद सोचा हो पिता ने
सोते में उसका इस तरह रोना सुनकर

जहां तक मुझे याद है
मैं कभी नहीं रोता था खुद-ब-खुद फूटती
कोई अपनी
निहायत ही निजी रुलाई
मुझे तो रुलाया जाता था
हर बार
कचोट-कचोट कर

बचपन में मैं रोता था चोट लगने या किसी के पीटने पर
और चार साल की उम्र में एक बार तो मैं रोते-रोते बुखार का शिकार भी हुआ
जीवन में अपनी किसी आसन्न हार से घबराए
पिता द्वारा पीटे जाने पर
तब भी मां बहुत रोयी थी
रोती ही रही कई दिन मेरे सिरहाने बैठी
पीटने वाले पिता भी रोये होंगे ज़रूर
बाद में काम की मेज़ पर बैठ
पछताते
दिखाते खुद को
झूटमूट के
किसी काम में व्यस्त

मेरे बड़े होने साथ-साथ ही बदलते गए
मेरे रोने के कारण
महज शारीरिक से नितान्त मानसिक होते हुए

हाई स्कूल में रोया एक बार
जब किसी निजी खुन्नस के कारण
आन गांव के
चार लड़कों ने पकड़ा मुझे ज़बरदस्ती
और फिर उनमें से एक ने तो मूत ही दिया मेरे ऊपर धार बांधकर
गालियां बकते हुए

क्रोध और प्रतिहिंसा में जलता हुआ धरा गया मैं भी अगले ही दिन
लात मार कर उसके अंडकोष फोड़ देने के
जघन्यतम अपराध में
मुरगा बन दंडित हुआ स्कूल छूटते समय की प्रार्थना-सभा के दौरान
और फिर उसी हालत में
मेरे पिछवाड़े पर
जमाई हीरा सिंह मास्साब ने
अपनी कुख्यात छड़ी
गिनकर
दस बार
दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में
महीनों चलता रहा
उस लड़के का इलाज

इस घटना के एक अजीब-से एहसास में
आने वाली कितनी ही रातों तक रोया मैं एक नहीं कई-कई बार
घरवालों से अकारण ही छुपता हुआ
रजाई के भीतर घुट कर रह गई मेरी वह पहली बदली हुई रुलाई
जीवन में ये मेरे अपने आप रोने की
पहली घटना थी
जितनी अप्रत्याशित लगभग उतनी ही तय भी

मैंने देखा था अकसर ही विदा होते समय रोती थीं घरों की औरतें भी
लेकिन किसी बहुत खुली चीख या फिर किसी गूढ़ गीत जैसा होता था उनका यह रोना
और मैंने इसे हमेशा ही रुलाई मानने से
इनकार किया

कुछ और बड़ा हुआ मैं तो
आया एक और एहसास जीवन में लाया खुशियां अनदेखी कई-कई
जिनमें बहुत आगे कहीं एक अजन्मा शिशु भी था
और जिस दिन उस लड़की ने स्वीकार किया मेरा प्यार
तो मैंने देखा हंसते हुए चेहरे के साथ वह रो भी रही थी
धार-धार
उन आंसुओं को पोंछने के लिए बढ़ाया हाथ तो उसने भी मेरे गालों से
कुछ पोंछा
मैं थोड़ा शर्मिन्दा हुआ खुद भी इस तरह खुलेआम रो पड़ने पर
बाद में जाना कि दरअसल वह तो तरल था
मेरे हृदय का
इस दुनिया में मेरे होने का सबसे पुख्ता सबूत
जो निकल पड़ा बाहर
उसे भी एक सही राह की तलाश थी मुद्दत से
जब उसने मेरी आंखों का रुख लिया

फिर आए – फिर फिर आए दु:ख अपार
कई लोग विदा हो गए मेरे संसार से बहुत चुपचाप
कईयों ने छोड़ दिया साथ
कईयों ने किए षड़यंत्र भी
मेरे खिलाफ
मैं कई-कई बार हारा
तब जाकर जीता कभी-कभार
लेकिन बजाए हार के
अपनी जीत पर ही रोया मैं हर बार

बहुत समय नहीं गुज़रा है
अभी हाल तक मैं रो लेता था प्रेयसी से पत्नी बनी उस लड़की के आगे भी खुलकर
बिना शर्माए
पर अब निकलते नहीं आंसू
उन्हें झुलसा चुकी शायद समय की सैकड़ों डिग्री फारेनहाइट आग
होने को तो
विलाप ही विलाप है जीवन
पर वो तरल – हृदय का खो गया है कहीं
डरता हूं
कहीं हमेशा के लिए तो नहीं ?

रात-रात भर अंधेरे में आंखें गड़ाए खोजता हूं उसी को
भीतर ही भीतर भटकता दर-ब-दर
अपने हिस्से की पूरी दुनिया में
उन बहुत सारी चीज़ों के साथ
जो अब नहीं रही

चाहता हूं
वैसी ही हो मेरी अन्तिम रुलाई भी
जैसे रोया था मां के गर्भ में पहली बार
मुझे एक बार फिर ढेर सारे अंधेरे और एक गुमनाम तलघर से बाहर
किसी बहुत जीवन्त
और रोशन दुनिया की तलाश है

अब तो मेरे भीतर नमक भी है ढेर सारा
मेहनत-मशक्कत से कमाया
लेकिन कोई हिलता-डुलता जीवन-द्रव नहीं मेरे आसपास
कर सकूं जिसे खारा
रो-रोकर

और इस लम्बी और अटपटी एक कोशिश के बाद तो
स्वीकार करूंगा यह भी
कि मेरी रुलाई कोई कविता भी नहीं
आखिर तक
लिखता रह सकूं जिसे मैं महज
कवि होकर।


0 thoughts on “रुलाई”

  1. जियो मेरे दोस्त !
    और बचाओ अपने इस "तरल" को किसी तरह ; अखीर तक ……… अभी बहुत काम आएगा . बहुत ज़रूरत पड़ेगी !

  2. क्या बात है, बहुत उम्दा कविता है। यही तरल तो सबसे जरूरी है। यह सूख गया तो सब कुछ गया। उसके खोने का तुम्हे वहम है। वह तो तुम्हारी आंखों में साफ चमक रहा है। रुलाई बहुत जरूरी है चाहे नर्स को च्यूंटी क्यो न काटना पड़े, नर्स बहुत खूबसूरत रही होगी। तभी तो उसकी च्यूंटी से जागे तुम दुनिया का यह सौंदर्य देख पा रहे हो। बहुत दिनों बाद इस कविता ने मुझे लगभग भिगो ही दिया। बधाई और प्यार

  3. शुक्रिया दोस्‍तो।
    @ narendra mourya – शुक्रिया चाचा । आपका ध्‍यान गया। इधर काफी दिनों से हम बतियाये भी नहीं, मैं 22 को कवितापाठ के सिलसिले में उधर हूं, बस चला तो रात आपके पास ही आऊंगा।

  4. काफी दिनों बाद आ पाई इधर,…पर आना कई गुना ज्यादा सार्थक हुआ …न आ पाने से । रो पाना ही आदमी हो पाने की तमीज़ है शायद …और आँख का पानी ही बचा पाता है दुनिया में हमारा होना ।
    हार्दिक बधाई …एक अच्छी कविता हेतु !!!

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top