Tuesday, August 30, 2011

फकुन्दो कब्राल - अनुवाद तथा प्रस्‍तुति - यादवेन्‍द्र

पूरे लैटिन अमेरिका में बेहद सम्मानित 74 वर्षीय लोक गायक और लेखक फकुन्दो कब्राल की पिछले महीने बन्दूकधारी अपराधियों ने दिन दहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी...अपनी आँखें लगभग गँवा चुके कब्राल औपचारिक शिक्षा से महरूम एक यायावर लोकगायक थे , जो राजनैतिक अस्थिरता और सैनिक तानाशाहियों के लिए जाने जाने वाले उपमहाद्वीप में अपने विद्रोही गीतों के कारण बहुत ख्याति अर्जित कर चुके थे.सैलानियों के लिए कुछ पैसों के लिए गाने से शुरू करके इस प्रतिभाशाली और राजनैतिक रूप में सजग कलाकार ने तानाशाहियों के विरुद्ध जनता की आवाज बुलंद करने तक का सफ़र तय किया.बचपन में गरीबी और जलालत का कडवा अनुभव कर चुके कब्राल सत्तर के दशक में अंतर राष्ट्रीय पटल पर उभरे.1976 में अर्जेंटीना में सैनिक तानाशाही के सत्ता में आने के बाद उन्हें जान बचाने के लिए कुछ वर्षों के लिए मैक्सिको जाना पड़ा...दो वर्ष बाद उनकी पत्नी और नन्ही सी बेटी एक हवाई दुर्घटना में मारे गए. उनके प्रभाव को देखते हुए यूनेस्को ने उन्हें 1996 में शांति का अंतरराष्ट्रीय सन्देशवाहक घोषित किया था.उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि मृत्यु पर अनेक देशों के राष्ट्रपतियों ने उन्हें व्यक्तिगत स्तर पर श्रद्धांजलियां दीं. यहाँ प्रस्तुत है उनकी एक बेहद चर्चित लघु कथा और कविता.


मोची ने ईश्वर की पेशकश ठुकराई


एक दिन ईश्वर ने सोचा क्यों न किसी छोटे शहर में फिर से जन्म लिया जाये और वो भी किसी बेघर गरीब आदमी के परिवार में. सो,चलते चलते वे शहर के एक मोची के ठिये पर पहुँच गए .
उसके सामने खड़े होकर ईश्वर ने बात शुरू की: मैं बहुत गरीब आदमी हूँ और मेरी जेब में एक पाई भी नहीं है.मेरी ये घिसी पिटी पुरानी चप्पल है,इसमें सिलाई मार दोगे भाई?
मोची ने सिर उठा कर देखा और बोला: दिन भर में जाने ऐसे कितने कंगाल आते हैं ...किसी की जेब में तुम्हारी तरह ही कुछ नहीं होता..मैं इनसे आजिज आ चुका हूँ अब तो.
ईश्वर: पर भाई,मैं तुम्हें ऐसा कुछ दे सकता हूँ जिसकी दरकार तुम्हें पड़ेगी.
मोची: क्या तुम मुझे दस लाख रु. दे सकते हो जिनसे मेरा ढंग से जीवन यापन हो सके?
ईश्वर: हां,दे तो मैं तुम्हें इसका दस गुणा भी हूँ पर इसके लिए तुम्हें कुछ त्याग करना पड़ेगा...अपनी टांगें दे सकते हो मुझे?
मोची: पर मैं करोड़ रु.लेकर ही क्या करूँगा जब मेरे लिए चलना फिरना मुमकिन नहीं रहेगा.
ईश्वर: छोड़ो इसको,मैं तुम्हें इसका भी दस गुणा दे रहा हूँ पर बदले में तुम मुझे अपनी दोनों बाँहें दे दो.
मोची: बाँहें दे दूंगा तो मैं खुद अपना खाना कैसे खा पाउँगा ?...अपने पैसे अपने पास ही रखो भाई.
ईश्वर: चलो एक मौका और देता हूँ...तुम अपनी दोनों आँखें मुझे दे दो तो मैं सौ गुणा दौलत देने को तैयार हूँ...सोच लो.
मोची: नहीं चाहिए मुझे कितनी भी दौलत.. जिसको ले के मैं अपनी बीबी,बच्चों और दोस्तों को न देख पाऊं वैसी दौलत मेरे किस काम की...ना मंजूर.
ईश्वर: वाह मेरे भाई, तुम्हें मालूम भी नहीं कि तुम कितने खुश किस्मत हो...धन्य हो.
***


न मैं यहाँ का हूँ, न वहाँ का


मुझे पसंद हैं वे लोग जो अनर्गल नहीं बोलते
मुझे पसंद हैं वे लोग जो गाते हैं गीत
मैं खुद को अपने साथ लिए घूम रहा हूँ
मुझे पसंद है जो हो रहा है मेरे साथ
ऐसी बातें मेरे साथ होती रहती हैं
हाँलाकि यह जरुरी नहीं कि ऐसी हर बात
मैं दूसरों को बताने ही जाऊँ
पर कोई अदद इंसान अकेला नहीं होता
जो उसके साथ होता है वो दुनिया के साथ भी होता है
वजह और कारण अलग हों भले ही
क्योंकि हर चीज मुकम्मल होती है
जैसे मुकम्मल है ईश्वर
जो जब एक फूल तोड़ता है तो
खिसका देता है एक सितारा अपनी जगह से
मानो...जैसे एक...वैसे ही दो....
जिस रात मैंने एक भूखे आदमी को कुछ खाने को नहीं दिया
उस पूरी रात मुझे शैतान का डर सताता रहा
और उसी दिन मुझे एहसास हुआ
कि शैतान तो ईश्वर का ही बेटा है.

मैं जीवन भर एकाकी घूमता रहा
सिर्फ धुनों और तालों को साथ लिए
मामूली सा गायक अपने में मगन
इस मुगालते में नहीं रहा कि
सिखा सकने का माद्दा है मुझमें
यदि दुनिया गोल है
तो मालूम नहीं इसके बाद क्या आएगा
चलना और निरंतर चलते रहना
चलते रहने के लिए चलते रहना
मैं दुनिया को सिखाने के लिए नहीं आया
अपना काम करने आया हूँ बस
मैं लोगों के बारे में फैसले करने नहीं
लोगों से साझा करने आया हूँ अपने अनुभव
मेरा संकल्प है जीवन...मेरा रास्ता है गाने का...गाना...
जीवन के गीत..
यही मेरा जीने का अंदाज है.

मैं थिरकता हूँ खुद अपने गीतों पर
दूसरा कोई क्यों मेरे लिए बनाये धुनें
मैं अपने आप आजादी तो नहीं हूँ
पर इसका बुलंद आह्वान जरुर हूँ
जब मुझे पता है मेरा रास्ता
तो क्यों इधर उधर की पगडंडियों पर भटकूँ
जब मुझे प्रिय है आजादी तो क्यों करूँ गुलामी?

मैंने माँगा..हरदम मैंने माँगा
खुद के लिए अपने भाई से ज्यादा
और यदि मैंने ईश्वर से माँगा होता
कि बना दे मुझे चील
तो वो इस लिए कि मुझे प्रिय है कीड़े मकोड़ों का निवाला.
मुझे पसंद है पैदल चलना
बजाय इसके कि चिरौरी करूँ किसी की
कि थोड़ी देर को दे दे अपनी बग्घी
सेब की ताक में रहने वाले लोग
हमेशा चलते हैं किनारे किनारे.

जो अपने कन्धों पर रखता है सबसे कम बोझ
वही गंतव्य पर पहुँचता है सबसे पहले
जिस दिन मैं मरूँगा
नहीं होगी दरकार ताबूत के लिए किसी नाप की...
एक गायक के लिए तो नृत्य ही काफी होगा.

मैं दुश्मनों का मुकाबला करता हूँ
पर प्रशंसा पर मुँह फेर लेता हूँ
मीठी प्रशंसा से फूल कर कुप्पा होने का मतलब होता है
कबूल कर लेना अधीनता और गुलामी..
आदमी घोड़े की पीठ पर फेरता है हाथ
उसपर सवारी करने की खातिर...
यदि मैं अपनी हदें पार कर रहा होऊं
या आपको लग रहा होऊं नैतिकतावादी
तो मुझे माफ़ कर दें...
इस दुनिया में कोई मशविरा देने का अधिकारी नहीं
कोई भी इतना सयाना नहीं बना अभी...

मैं जब सूरज को साध लेता हूँ अपनी पीठ पर
तो पूरी दुनिया प्रकाशमान हो जाती है
मुझे पसंद है पैदल दूरियां नापना
पर मैं सीधी सड़क नहीं पकड़ता
क्योंकि तय रास्तों में अनुपस्थित रहता है अनजानेपन का कुतूहल
गर्मियों में मैं दूर निकाल जाना पसंद करता हूँ
पर सर्दियाँ आते ही लौट आना चाहता हूँ माँ के पास...
उन कुत्तों से मिलना चाहता हूँ
जो भूलते नहीं मेरी छुअन
उन घोड़ों को भी...
भाई का प्रगाढ़ आलिंगन...
मुझे ये सब पसंद है...
मुझे ये सब पसंद है...

मुझे पसंद है सूरज,एलिसिया और बतख
अच्छी सी सिगार...स्पैनिश गिटार
जब कोई स्त्री दुःख से रोने लगे तो
चाहता हूँ दीवारों को लांघना
खिडकियों को खोल देना...

मुझे जितनी पसंद है शराब उतने ही हैं फूल भी
फुदकते खरगोश...पर ट्रैक्टर बिलकुल नहीं
घर पर बनाई हुई ब्रेड और गाना बजाना
और मेरे पैरों को बार बार
धो डालने वाला सागर.

न मैं यहाँ का हूँ न वहाँ का
मेरी कोई उमर नहीं न ही है भविष्य
बस खुश रहना चिर परिचित रंग है
मेरी पहचान का.

मुझे हमेशा से पसंद रहा है रेत पर लेटना
या साईकिल पर बिटिया का पीछा करना
या तारों को निहारते रहना मारिया के साथ साथ
खेतों की हरी गद्दी से.

न मैं यहाँ का हूँ न वहाँ का
मेरी कोई उमर नहीं न ही है भविष्य
बस खुश रहना चिर परिचित रंग है
मेरी पहचान का.
***
अनुनाद पूरी तरह कविता की पत्रिका है पर आज इसमें यादवेन्‍द्र जी के सौजन्‍य से एक लघुकथा छप रही है। आगे शायद ये पत्रिका इस तरह की सामग्री के लिए और भी खुले।

Saturday, August 27, 2011

रुलाई

चित्र गूगल से साभार

मुझे नहीं पता मैं पहली बार
कब रोया था
हालांकि मुझे बताया गया कि पैदा होने के बाद भी
मैं खुद नहीं रोया
बल्कि नर्स द्वारा च्यूंटी काटकर रुलाया गया था
ताकि भरपूर जा सके ऑक्सीजन पहली बार हवा का स्वाद चख रहे
मेरे फेफड़ों तक

मुझे अकसर लगता है कि मैं शायद पहली बार रोया होऊंगा
मां के गर्भ के भीतर ही
जैसे समुद्रों में मछलियां रोती हैं
चुपचाप
उनके अथाह पानी में अपने आंसुओं का
थोड़ा-सा नमक मिलाती हुई

हो सकता है
उनके और दूसरे तमाम जलचरों के रोने से ही
खारे हो गए हों समुद्र

मैं भी ज़रूर ऐसे ही रोया होऊंगा
क्षण भर को अपने अजन्मे हाथ-पांव हिलाकर
बाहर की दुनिया की तलाश में
और मेरे रोने से कुछ तो खारा हो ही गया होगा
मेरे चारों ओर का जीवन-द्रव

मुझे नहीं मालूम कि मां ने कैसा अनुभव किया होगा और इस अतिरिक्त खारेपन से
उसे क्या नुकसान हुआ होगा ?

उस वक्त
वह भी शायद रोयी हो नींद में अनायास ही
बिसूरती हुई
सपना देख रही है कोई दुख भरा - शायद सोचा हो पिता ने
सोते में उसका इस तरह रोना सुनकर

जहां तक मुझे याद है
मैं कभी नहीं रोता था खुद-ब-खुद फूटती
कोई अपनी
निहायत ही निजी रुलाई
मुझे तो रुलाया जाता था
हर बार
कचोट-कचोट कर

बचपन में मैं रोता था चोट लगने या किसी के पीटने पर
और चार साल की उम्र में एक बार तो मैं रोते-रोते बुखार का शिकार भी हुआ
जीवन में अपनी किसी आसन्न हार से घबराए
पिता द्वारा पीटे जाने पर
तब भी मां बहुत रोयी थी
रोती ही रही कई दिन मेरे सिरहाने बैठी
पीटने वाले पिता भी रोये होंगे ज़रूर
बाद में काम की मेज़ पर बैठ
पछताते
दिखाते खुद को
झूटमूट के
किसी काम में व्यस्त

मेरे बड़े होने साथ-साथ ही बदलते गए
मेरे रोने के कारण
महज शारीरिक से नितान्त मानसिक होते हुए

हाई स्कूल में रोया एक बार
जब किसी निजी खुन्नस के कारण
आन गांव के
चार लड़कों ने पकड़ा मुझे ज़बरदस्ती
और फिर उनमें से एक ने तो मूत ही दिया मेरे ऊपर धार बांधकर
गालियां बकते हुए

क्रोध और प्रतिहिंसा में जलता हुआ धरा गया मैं भी अगले ही दिन
लात मार कर उसके अंडकोष फोड़ देने के
जघन्यतम अपराध में
मुरगा बन दंडित हुआ स्कूल छूटते समय की प्रार्थना-सभा के दौरान
और फिर उसी हालत में
मेरे पिछवाड़े पर
जमाई हीरा सिंह मास्साब ने
अपनी कुख्यात छड़ी
गिनकर
दस बार
दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में
महीनों चलता रहा
उस लड़के का इलाज

इस घटना के एक अजीब-से एहसास में
आने वाली कितनी ही रातों तक रोया मैं एक नहीं कई-कई बार
घरवालों से अकारण ही छुपता हुआ
रजाई के भीतर घुट कर रह गई मेरी वह पहली बदली हुई रुलाई
जीवन में ये मेरे अपने आप रोने की
पहली घटना थी
जितनी अप्रत्याशित लगभग उतनी ही तय भी

मैंने देखा था अकसर ही विदा होते समय रोती थीं घरों की औरतें भी
लेकिन किसी बहुत खुली चीख या फिर किसी गूढ़ गीत जैसा होता था उनका यह रोना
और मैंने इसे हमेशा ही रुलाई मानने से
इनकार किया

कुछ और बड़ा हुआ मैं तो
आया एक और एहसास जीवन में लाया खुशियां अनदेखी कई-कई
जिनमें बहुत आगे कहीं एक अजन्मा शिशु भी था
और जिस दिन उस लड़की ने स्वीकार किया मेरा प्यार
तो मैंने देखा हंसते हुए चेहरे के साथ वह रो भी रही थी
धार-धार
उन आंसुओं को पोंछने के लिए बढ़ाया हाथ तो उसने भी मेरे गालों से
कुछ पोंछा
मैं थोड़ा शर्मिन्दा हुआ खुद भी इस तरह खुलेआम रो पड़ने पर
बाद में जाना कि दरअसल वह तो तरल था
मेरे हृदय का
इस दुनिया में मेरे होने का सबसे पुख्ता सबूत
जो निकल पड़ा बाहर
उसे भी एक सही राह की तलाश थी मुद्दत से
जब उसने मेरी आंखों का रुख लिया

फिर आए - फिर फिर आए दु:ख अपार
कई लोग विदा हो गए मेरे संसार से बहुत चुपचाप
कईयों ने छोड़ दिया साथ
कईयों ने किए षड़यंत्र भी
मेरे खिलाफ
मैं कई-कई बार हारा
तब जाकर जीता कभी-कभार
लेकिन बजाए हार के
अपनी जीत पर ही रोया मैं हर बार

बहुत समय नहीं गुज़रा है
अभी हाल तक मैं रो लेता था प्रेयसी से पत्नी बनी उस लड़की के आगे भी खुलकर
बिना शर्माए
पर अब निकलते नहीं आंसू
उन्हें झुलसा चुकी शायद समय की सैकड़ों डिग्री फारेनहाइट आग
होने को तो
विलाप ही विलाप है जीवन
पर वो तरल - हृदय का खो गया है कहीं
डरता हूं
कहीं हमेशा के लिए तो नहीं ?

रात-रात भर अंधेरे में आंखें गड़ाए खोजता हूं उसी को
भीतर ही भीतर भटकता दर-ब-दर
अपने हिस्से की पूरी दुनिया में
उन बहुत सारी चीज़ों के साथ
जो अब नहीं रही

चाहता हूं
वैसी ही हो मेरी अन्तिम रुलाई भी
जैसे रोया था मां के गर्भ में पहली बार
मुझे एक बार फिर ढेर सारे अंधेरे और एक गुमनाम तलघर से बाहर
किसी बहुत जीवन्त
और रोशन दुनिया की तलाश है

अब तो मेरे भीतर नमक भी है ढेर सारा
मेहनत-मशक्कत से कमाया
लेकिन कोई हिलता-डुलता जीवन-द्रव नहीं मेरे आसपास
कर सकूं जिसे खारा
रो-रोकर

और इस लम्बी और अटपटी एक कोशिश के बाद तो
स्वीकार करूंगा यह भी
कि मेरी रुलाई कोई कविता भी नहीं
आखिर तक
लिखता रह सकूं जिसे मैं महज
कवि होकर।


Thursday, August 18, 2011

दो नेपाली कविताएं - विक्रम सुब्‍बा - अनुवाद तथा प्रस्‍तुति- अनिल कुमार



ओख्कर (अखरोट)


छूकर देखा तुम्हा‍रा दिल
अखरोट के आकार का है
जिसे चूमने के बाद पता चला कि अखरोट के
नर्म गूदे की तरह
सुस्वादु है तुम्हारा प्रेम

यदि यह ऊपर से अखरोट की तरह कठोर न होता    
कहां सुरक्षित रह पाता यह स्वाद

छाती के भीतर यदि दिल न होता
तो जीवनसंगीत कहां धड़कता
यदि नारी और पुरुष न होते प्रेम के गीत कौन गाता

कौन करता अंत्येष्टि अगर हमारी संतानें न होती
कौन घर हमें अपनाता
घर न होता तो फिर देश क्यों आवश्यक होता

ओह,
यहां घरवालों का देश नहीं है
देशवालों के पास घर नहीं है
इसलिए मैं इस समय
इतिहास में चार नए खम्भे गाड़ना चाहता हूं
एक ही बार में घर और देश खोजने के लिए
आंदोलित होकर
लहू से देश की सीमाओं को लिख रहा हूं

मैंने फिर छूकर देखा
तुम्हारा दिल अखरोट के आकार का है
उसे चूमने के बाद मुझे पता चला
कि अखरोट के गूदे जैसा ही
सुस्वादु है
अपने देश का प्रेम।
***


परेवा र चील (कबूतर और चील)



जिस किसी भी देश के
ऊंचे से ऊंचे पर्वत से
जितने भी सफ़ेद कबूतर उड़ाओ
खुले आकाश में

दिन में
चील कबूतर का शिकार कर ही लेगी
और यह चील
अमेरिका का राष्ट्रीय पक्षी है
***
इन कविताओं को मूल से हिंदी अनुवाद में मेरे शोधछात्र अनिल कुमार लाए हैं। वे पिथौरागढ़ के वासी हैं और उनका नेपाल के सीमान्‍त इलाक़ों और नेपाली भाषा से गहरा नाता है। आगे अनुनाद पर उनके और अनुवाद प्रस्‍तुत किए जायेंगे।
***
अन्‍तर्जाल पर मौजूद कवि का परिचय

नाम : विक्रम सुब्बा
औपचारिक नाम : डिल्ली विक्रम इङ्वाबा

जन्म मिति : वि.सं. २००९, पौष २० गते (January 3, 1953)

जन्मस्थान : पाँचथर फिदीम – ६, ओदिन

स्थाई ठेगाना : ८६/१५ शंखमूल, काठमाण्डौ

फोन : ४७८३५०१(घर), ९८५१०-७२९६५ (मोवाइल)

ईमेल : ingwaba2005@gmail.com

सम्प्रति : निर्देशक, हर्डेक-नेपाल

प्रकाशन

१. शन्तिको खोजमा (खण्डकाव्य)– २०३४ – Nepal

२. कविको आँखा कविताको भाखा (कविता संग्रह) – २०३९ – Nepali

३. सगरमाथा नाङ्गै देखिन्छ (कविता संग्रह) – २०४१ – Nepali

४. Concise Limbu Grammar and Dictionary – 1985 (२०४२) – English (Joint research and co-authored with late Dr. Alfons Wiedert, Kiel University/Germany

५. सुम्निमा पारुहाङ (मुन्धुम काव्य)– २०४५ – Nepali

६. विक्रम सुब्बाका कविता र गीतहरू – २०६०, प्रकाशक: लक्ष्मीसुन्दर निङलेखु , शंखमुल काठमाण्डौ – Nepal

Wednesday, August 10, 2011

मृत्‍युजंय के पद - विपद

1.
साधो, भ्रष्टन के कंह लाज !
चाल चरित्र चित्र सब चकचक, चौचक चपल समाज
कर्नाटक की कुञ्ज गलिन में, किलकत हैं बेल्लारी, येदुरप्पा के पदचिन्हन पर सदानंद की बारी
अडवानी के परम दुलरुवा, सुषमा दीन्हा राज, बरन-बरन के खनिज मंगाए, बांह गाहे की लाज
लूटत, खात, अघात परसपर साधत हैं सब काज, देशभक्ति के नव परिभाषा संघ गढ़त है आज
कलि कराल में भ्रष्ट महासुख, भ्रस्टन ही कै राज, साखामृग इतराय फिरें सब, यही बात कै नाज़

2.
साधो, रामदेव बलिहारी !
जनता पिटी, भागि गै बबवा, करमन की गति न्यारी
झूठहिं खाय झूठ ही भाखै झूठहिं करि असनान, हरिद्वार में काटै बंधू जन-गण-मन कै कान
पूछे कोऊ जो कहं से बाबा पायो धन की खान, बाबा के धुकधुकी बढे औ मंद परतु है प्रान
मन्त्रिन संग कै साठ-गाँठ भै प्रायोजित मोमेंट, मंत्री रूठा, बाबा भागा छोड़-छाडि के टेंट
शीर्षासन कै अनत महासुख नीरोगी ह्वै काया, मस्तक कै उपचार करो कोई बाबा बिलहिं लुकाया

3.
साधो , दिल्ली का दरबार !
कामन जन का वेल्थ लूटि कै हत्या कै ब्योपार
चारो धाम चतुर्दिक हल्ला जग्य भया भरभंड, कलमाडी बौराया घूमै काहे दीन्हा दंड
किया धरा जा के कहिबे पर, शाल ओढि कश्मीरी, मुस्काती वही घूमि टहरि अब छांटि रही है पीरी
दस जनपथ जै जै राहुल जै सोनिया माता जै जै, हमहीं नाहिं चोराया मुरगा, ऊहो था, ऊहो है
खसी शाल, मूरति मुसुकाई आशीष देती माई, कछु दिन धीरज धरहु तात फिर लैहों बैंड बजाई

4.
साधो, सही निशाना साधो !
काले धन की उजली है मति, अबिगत की गति जानो !
कौन कौन पैसेवाला है कौन बैंक में खाता, कौन कौन है इसके पीछे पाग खोल बिछ जाता
वही बनावै लोकपाल, वहि है विपक्ष वहि नेता, वहि है सत्ता, शासन वहि है, वहि मंत्री अभिनेता
नई आर्थिक नीति बतावै वही सजावै सेज, संसद बहस बीच वहि तोरै माइक कुर्सी मेज
सौ फन सौ जबान से बोलै इ है तक्षक नाग, चहुँ दिस से लुक्कारा थामो चलो जराएं आग

5.
साधो, अन्ना को समझाते !
वृक्ष पुरातन जड़ नहिं काटत, पत्ता तोरत जाते
लोकपाल पे भूखे बैठे, बहुत दिनन से संत, देखो भईया यहि कनून कै अब नियराया अंत
मनमोहन अति चतुर मदारी सिब्बल डमरूधारी, श्याम रंग अति चतुर बंदरिया संसद फंसद सारी
लोकपाल से क्या होगा, जब कूपहि में है भांग, गले गले सब डूब रहे हैं, देशभक्ति का स्वांग
अन्ना बाबा, आओ दिल्ली 100 घंटा घेराव, नई आर्थिक नीति उखाड़ो, यहि भवसागर नाव

Monday, August 8, 2011

यादवेन्द्र की कविता - कुहासा

एक सुखद आश्चर्य की तरह आज याद्वेन्द्र जी का मेल मिला और साथ मे यह कविता..अनुनाद के पाठक ज़रूर इसे पसन्द करेंगे...
____________________________________________
***


शिरीष,
आपके यहाँ जब पिछले दिनों आया था तो हलकी बरसात और कुहासे के अंदर तैरते हुए हम आपके घर तक आए थे.तब से यह एहसास मेरे अंदर बसा हुआ था.उसको संजोने की एक कोशिश:

--- यादवेन्द्र


कुहासा

कई बार हम देखने पर ज्यादा जोर देते हैं
कई बार महसूस करने पर...
कचहरियों की तरह प्रमाण को जरुरी मानते हैं कुछ लोग
और पिटी हुई स्त्री की आँखों में दुबके डर की बजाय
शरीर पर दर्ज चोट के निशान ढूँढते हैं लेंस ले कर....
छूना, सुनना,सूँघना, चखना बीच बीच में पड़ने वाले पड़ाव हैं.

बड़ी शिद्दत से ऐसे भी लोग हैं जो चाहते हैं
कभी कभी कुछ देखें न...ऑंखें बंद किये रहें
और ठोस छुअन के साथ नंगे पाँव बिना गिरे पड़े
स्मृतियों की तंग गलियों में लम्बा चक्कर लगा कर
बिना किसी से पूछे समझ जाएँ कौन कौन गाँव छोड़ गया.

आँखें खुली रखने का देखने से दरअसल कोई सम्बन्ध नहीं है
देखते हम वही हैं जो शिकारी ड्रोन सा सचमुच देखना चाहते हैं
गर्दन घूमे न घूमे,निगाह दसों दिशाओं में घूम जाती है
फिर भी कइयों को तो शरीर से चिपके जोंक तक नहीं दिखते
हाँ,सामने बैठा शख्स तिरछी नजर पलभर में ही जरुर भांप लेता है.

प्रेम दिखाई नहीं देता सिवा आँखों की तरलता के
क्रूरता होने से पहले सिर्फ आँखों की धधक में तैरती है
अवसाद को तिरछी नजर की तरह साथ के लोग देखते हैं मारते हुए कुंडली.
उसी तरह महकता है तभी दिखता है
कुहासा
जब सौंप देता है अपनी सारी तरलता
रुखी सूखी पथरीली धरती को.
***

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