Wednesday, July 27, 2011

विज्ञान के दरवाज़े पर कविता की दस्तक- दूसरी कड़ी

प्रस्‍तुति - यादवेन्‍द्र


पूरी कविता और इस पर बहस के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें  ...

द पब्लिक एजेंडा के नवम्बर 2010 में प्रकाशित साहित्य विशेषांक में वरिष्ठ कवि राजेश जोशी की एक अनोखी कविता है बिजली का मीटर पढने वाले से बातचीत जो विज्ञान और कविता के बीच की सदियों से लीपपोत कर सुरक्षित खड़ी की गयी विभाजक दीवार का बड़े साहस और अधिकार से अतिक्रमण करती है.जैसा कि शीर्षक से ही जाहिर है यह एक घर में बिजली का मीटर पढने गए एक मुलाजिम और घर के बासिन्दे के बीच एक बातचीत का ब्यौरा देती है.आम तौर पर इस तरह के मुलाजिमों को बातचीत करने लायक नहीं समझा जाता और वे डाकिया ,अख़बार वाले और गैस का सिलिंडर पहुँचाने वाले लड़कों की श्रेणी में आते हैं जिनका काम अदृश्य हवा की तरह चुपचाप बाहर बाहर से ही काम निबटा कर आगे का रास्ता देखने का होता है.मीटर पढने वाला घर में रौशनी पैदा करने के लिए इस्तेमाल की गयी बिजली का हिसाब करता है पर बात इतने से ही नहीं बनती...

"क्या तुम्हारी प्रौद्योगिकी में कोई ऐसी भी हिकमत है
अपनी आवाज को थोड़ा सा मजाकिया बनाते हुए
मैं पूछता हूँ
कि जिससे जाना जा सके कि इस अवधि में
कितना अँधेरा पैदा किया गया हमारे घरों में?
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हमलोग एक ऐसे समय के नागरिक हैं
जिसमें हर दिन मंहगी होती जाती है रौशनी
और बढ़ता जाता है अँधेरे का आयतन लगातार"

सहज बोध की संरचना में न समाने वाले बेधक प्रश्नों से मीटर पढने वाले के चिढने पर कवि सरलता से कहता है:

"मैं अँधेरा शब्द का इस्तेमाल अँधेरे के लिए ही कर रहा हूँ
दूसरे किसी अर्थ में नहीं"
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"ऐसा कोई मीटर नहीं जो अँधेरे का हिसाब किताब रखता हो"

यहाँ मैं अपने पाठकों के साथ साझा करना चाहता हूँ कि अँधेरे को ले कर दुनिया में अलग अलग तरह के वैज्ञानिक अध्ययन किये जा रहे हैं...और जीव विज्ञान और अंधकार के अंतरसम्बन्ध के लिए पिछले दिनों एक नया शब्द भी गढ़ा गया है; स्कोटो बायोलोजी.अब तक के वैज्ञानिक अध्ययन यह बताते हैं कि अन्धकार में लम्बे समय तक रहने से बीमारियाँ (मुख्य रूप में कैंसर और मानसिक बीमारियाँ) ज्यादा होती हैं.नोर्थ कैरोलिना स्टेट यूनिवर्सिटी ने अटलांटिक में जल सतह के आस पास रहने वाली मछलियों पर अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि जब यही मछलियाँ अँधेरी गुफाओं के अंदर जाकर रहने लगती हैं तो उनकी प्रजनन क्षमता पर प्रतिकूल असर पड़ता है.

हाल में प्रकाशित एक बहुचर्चित शोधपत्र में(जिसका शीर्षक है: Good Lamps are the Best Police) बताया गया है कि अंधकार लोगों में बेइमानी और स्वार्थ की भावना को कई गुणा ज्यादा बढ़ा देता है.यहाँ तक कि काला चश्मा पहन कर भी लोगों के मन में खोट आने लगती है,अनेक व्यक्तियों के साथ किये गए वैज्ञानिक प्रयोगों से यह बात सामने आयी है.

इन तथ्यों की पृष्ठभूमि में कवि राजेश जोशी का मीटर रीडर से किया गया प्रश्न सम्पूर्ण मानव जाति के व्यवहार को समझने की एक निर्दोष और सोद्देश्य कोशिश है...उनकी इस सार्वभौम सजगता को सलाम.
********************

Thursday, July 21, 2011

रिक्शे की कविता : प्रस्तुति - यादवेन्द्र

विज्ञान के दरवाज़े पर कविता की दस्तक


स्वर्गीय रघुवीर सहाय ने आज से करीब बीस साल पहले रिक्शे को केंद्र में रख कर एक कविता लिखी थी साईकिल रिक्शा जिसमें रिक्शा चलाने वाले गरीब आदमी और उसपर सवारी करने वाले बेहतर आर्थिक स्थिति वाले आदमी के बीच के फर्क को मानवीय नजरिये से देखने की बात कही थी.उन्होंने घोड़े जैसे पशु का काम इंसान से कराने की प्रवृत्ति का प्रतिकार भी इस कविता में किया था...और साम्यवाद का हवाला देते हुए दोनों इंसानों की हैसियत बराबर करने का आह्वान किया था.सामाजिक गैर बराबरी को समूल नष्ट करने के लिए प्रेरित करने वाली इस छोटी सी कविता में इंजिनियर पुत्र के पिता सहाय जी ने विज्ञान और तकनीक के मानवीय चेहरे को पोषित करने के लिए वैज्ञानिक समुदाय के सामने एक गंभीर चुनौती रखी है जो विज्ञान की सीमाओं को लांघ कर व्यापक मानवीय कल्याण की दिशा में अग्रसर हो.आम तौर पर सृजनात्मक कलाओं और साहित्य को ह्रदय और विज्ञान को मस्तिष्क का व्यवहारिक प्रतिरूप मानने का दृष्टिकोण अपनाने वाले लोगों के लिए यह कविता एक अचरज या चुनौती बन कर सामने खड़ी हो जाती है...खास तौर पर उन लोगों के लिए तो और भी जो हिंदी समाज को मूढ़ मगज माने बैठे हैं. रघुवीर सहाय जी के साथ इस टिप्पणीकार का दिनमान के सक्रिय लेखक होने के नाते बहुत ही घना आत्मीय रिश्ता था और घनघोर वैचारिक मतभेदों के बावजूद उनकी विश्व दृष्टि और सहिष्णु सहकारिता का स्मरण कर के आज भी सिर आदर से झुक जाता है.कविता लिखे जाने से पहले उनसे इस विषय पर लम्बी चर्चा हुई थी और वैज्ञानिक अविष्कारों और उनको व्यवहारिक जमा पहनाने वाली तकनीकों के बारे में उनकी बालसुलभ जिज्ञासा और सरोकार समाज के सयानेपन की अंधी दौड़ में गुम होते गए हैं.कविता की प्रासंगिक पंक्तियों के साथ उनको विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए नए ढंग के रिक्शे का आविष्कार करने के उनके सजग आग्रह को प्रणाम:

"आओ इक्कीसवीं सदी के इंजीनियर
ईजाद साईकिल रिक्शा ऐसी करें
जिस में सवारी और घोड़ा अगल बगल
तफरीहन बैठे हों.
मगर आप पूछेंगे इस से क्या फायदा ?
वह यह कि घोड़े को कोई मतभेद हो
पीछे मुँह मोड़ कर पूछना मत पड़े ."

प्रस्तुति; यादवेन्द्र

Friday, July 15, 2011

रीसम हेले- चयन और प्रस्तुति: यादवेन्द्र

रीसम हेले अफ़्रीकी देश इरीट्रिया के सबसे लोकप्रिय कवि हैं -- उनकी लोकप्रियता कविताओं की विषय वस्तु और लोक संस्कारों में रची बसी शैली के कारण तो है ही..इस लिए सबसे ज्यादा है कि बीस बरस दुनिया के तमाम देशों में घूमने और रहने वाले हेले ने 1994 में नवस्वतन्त्र देश इरीट्रिया लौट कर कवितायेँ लिखने के लिए अंग्रेजी जैसी भाषा नहीं चुनी बल्कि करीब पाँच हजार साल पुरानी और लिखित साहित्य के दायरे में लगभग मृतप्राय टिग्रिन्या भाषा चुनी.पिछले कुछ सालों में प्रकाशित उनके दो  भाषाओँ के कविता संकलन बेहद लोकप्रिय हैं. यहाँ प्रस्तुत हैं हेले की कुछ कवितायेँ

तुम्हारी बहन

बेटी बहन
तुम्हारी अपनी प्यारी सी बेटी
तुम्हारी माँ की बेटी
उसकी बहन की और भाई की बेटी
तुम्हारे पिता की बेटी
उनकी बहन और भाई की बेटी
तुम्हारे भाई और बहन की बेटी
तुम्हारे बुजुर्ग भाई की बेटी
तुम्हारी बुजुर्ग बहन की बेटी
चाहे कोई भी स्त्री हो

इस शहर की बेटी
तुम्हारे पड़ोस की बेटी
तुम्हारे मुल्क की
बेटी और बहन
तुम्हारी खुद की बहन
तुम्हारी खुद की बेटी
तुम्हारी नानी दादी और माँ
तुम्हारी मंगेतर और तुम्हारी पत्नी
एक एक अदद बेटी
अंग और अंश है तुम्हारा

चाहे खुद की प्यारी बेटी हो
बहन की बहन या उसकी भी बहन हो

इज्जत करो
इन सब के
एक एक के हक़ की .

***


विदेशी मदद

माँगो!
मैं दे रहा हूँ!
माँगो!
मैं और ज्यादा दे रहा हूँ!
इतना कुछ देने के बाद भी तुम
मुझे क्यों अपमानित करते हो?
इसलिए कि तुम
मुझे माँगने के लिए उकसाते हो.
***
कुत्ते की दुम

"मैं ज्यादा अच्छे ढंग से नाचता हूँ"
अपनी दुम से कुत्ते ने कहा:
"चलो हम मुकाबला करते हैं".
जब बहुत थक गया तो
कुत्ते ने दुम को कुतर डाला..
पैरों से रौंद कर मिट्टी में
चलता बना वहाँ से
और जाते जाते गुर्राते हुए बोला:
"बदतमीज...ढंग से पेश आया करो ".
***

प्यार से प्यार के लिए

दिन के उजाले में प्यार
मेरे प्यारे
चमकता है जैसे चमके सूरज...
मैं तो इसकी आँच में जलकर
पतीले की तली जैसा कालाकलूटा हो जाऊंगा
या बाल्टी भर पसीना बहाता हुआ
चक्कर खा कर गिर ही पड़ूंगा...
पर फ़िक्र काहे की?

मेरी प्रियतमा
दमक रही है सूरज की मानिंद.
गिरती है और लिपट जाती है मेरे बदन पर
और साँस लेने लगती है मेरी आत्मा की गहराई में पैठ कर
कितना भला लगता है
जब वो हौले हौले सुलगाती है
अपने प्यार की लौ से मेरा प्यार
जैसे तीली छुआ कर धू धू कर जला दे
कोई सूखी लकड़ी.
***

ज्ञान

सबसे पहले धरती, इसके बाद हल:
इस तरह ज्ञान आता है अंदर से
निकल कर ज्ञान से.
हम इस बात को जानते हैं
नहीं भी जानते हैं इसको .
हम ये भी नहीं जानते कि हमें इसका ज्ञान है.
हम यही जानते हैं कि हम इस बाबत कुछ नहीं जानते .
हम सोचा करते हैं
कि एक वस्तु बिलकुल दूसरे जैसी दिख रही है...
यह नींबू ..वह संतरा ..
पर तभी तक जब तक हम
स्वाद नहीं चखते कसैलेपन का .
***

मानो या  न मानो
याद करो कि इटालियन लोगों ने हमपर हमले किये
और हमें सिखाया :
खाना खा लो पर मुँह मत खोलो .

अंग्रेजों के हमलों का स्मरण करो
जिन्होंने सिखाया :
जो बोलना हो बोल लो पर
खाना मत खाना .

अम्हाराओं के हमले याद करो
जिन्होंने बताया ;
ना तो मुँह खोलो ..और
खाना भी मत खाओ .

मेरा कहा मानों या मत मानों ..
ये सब हमें नष्ट करना चाहते थे .
***

अपनी भाषा

तुम टिग्रिन्या के बारे में क्या जानते हो ?
यह इरीट्रिया की बेटी है
और सम्मान चाहती है
जैसे तुम चाहते हो अपने लिए इज्जत
इसको चुनौती दोगे
तो यह भी तुम्हें देगी
उसी तरह ललकार .

इसको बखूबी मालूम है
संकट से सुरक्षा की तरकीब
कि कैसे जीवित रहना और उबरना है
हमलावर भाषाओँ से बच कर;
उनके शब्द ...उनके नाम
करना पड़ेगा इनका एक एक कर संहार ...
***

Thursday, July 14, 2011

अपनी भाषा को समझने के बारे में - यादवेन्द्र



पिछले अक्तूबर में चीन के कुछ इलाकों में तिब्बती भाषा के बोलने लिखने और पढ़ाये जाने पर जब सरकारी पाबन्दी लगा दी गयी तो नौजवानों ने इसके विरोध में उग्र प्रदर्शन किये. इसका विवरण देते हुए इन्ही में से किसी ने www.highpeakspureearth.com वेब साईट पर भाषाओँ को बचाए जाने की वकालत करती हुई एक कविता उद्धृत की :

जब आप साँस लेना बंद कर देते हैं
हवा बचती नहीं,नष्ट हो जाती है.
जब आप चलना फिरना बंद कर देते हैं
तो लुप्त हो जाती है धरती भी.
जब आप बोलना बंद कर देते हैं
तो शेष नहीं बचता एक भी शब्द...
सो, बोलिए बतियाइए जरुर
अपनी अपनी भाषा में.
***
लगभग इसी सन्दर्भ में www.thaiwomantalks.com नामक वेब साईट पर एक थाई कविता का अंग्रेजी तर्जुमा मिला :

यदि आप संगीत का रियाज बंद कर दें सात दिन
तो संगीत आपको छोड़ कर विदा हो जायेगा..
यदि आप अक्षरों को लिखना पढना बंद कर दें सिर्फ पाँच दिन
तो सम्पूर्ण ज्ञान लुप्त हो जायेगा देखते देखते..
यदि आप स्त्री को ध्यान से ओझल किये किये बिसार दें तीन दिन
तो रहेगी नहीं वो वही स्त्री और चली जाएगी मुंह फेर कर आपसे दूर..
यदि आप अपना चेहरा बगैर धोये रह गए एक दिन भी
तो बिनधुला चेहरा आपको बना देगा निहायत कुरूप और लिजलिजा
***

Thursday, July 7, 2011

उत्‍तरा महिला पत्रिका से एक कविता

मेरे विभाग की अत्‍यन्‍त वरिष्‍ठ सहयोगी प्रोफेसर उमा भट्ट की अगुआई में 'उत्‍तरा महिला पत्रिका' काफी सालों से निकल रही है। उसका हर अंक संग्रहणीय होता है। इस बार के अंक में एक अत्‍यल्‍पज्ञात कवि प्रफुल्‍ल सी पंत की एक कविता ने ध्‍यान खींचा। अनुनाद के पाठकों के लिए यहां लगा रहा हूं उत्‍तरा को धन्‍यवाद के साथ





एक बदली जो न बदली





जब वह छोटी थी
रोती थी
दहाड़ कर
कोई डांटता
कोई पुचकारता


फिर-
जवान हुई
तब भी रोई
चुपचाप एक कोने में
कभी आधी रात बिछौने में


अब-
वह बूढ़ी है
रोती अब भी है
शुष्‍क आंखों से
नहीं पता चलता
किसी को
कब वह रोयी
कब शांत हो गई।
***

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