Tuesday, June 21, 2011

विमलेश त्रिपाठी की कवितायेँ


बिहार के बक्सर में १९७७ में जन्मे विमलेश त्रिपाठी को हाल ही में 2010 का युवा ज्ञान पीठ पुरुस्कार मिला है. उनकी कवितायेँ, कहानियां, समीक्षायें देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. कविता संग्रह 'हम बचे रहेंगे' जल्दी जी प्रकाशित होने को है. आज अनुनाद पर विमलेश की कुछ कवितायेँ- 

राजघाट पर घूमते हुए
दूर-दूर तक फैली इस परती में
बेचैन आत्मा तुम्हारी
पोसुए हरिनों की तरह नहीं भटकती?
कर्मठ चमड़ी से चिपटी तुम्हारी सफेद इच्छाएं
मुक्ति की राह खोजते
जलकर राख हो गईं
चंदन की लकड़ी और श्री ब्रांड घी में
और किसी सफेदपोश काले आदमी के हाथों
पत्थरों की तह में गाड़ दी गईं
मंत्रों की गुंजार के साथ
...पाक रूह तुम्हारी कांपी नहीं??
अच्छा, एक बात तो बताओ पिता-
विदेशी कैमरों के फ्लैश से
चौंधिया गई तुम्हारी आंखें
क्या देख पा रही हैं
मेरे या मेरे जैसे
ढठियाए हुए करोड़ो चेहरे???
तुम्हारी पृथ्वी के नक्शे को नंगा कर
सजा दिया गया
तुम्हारी नंगी तस्वीरों के साथ
सजा दी गई
तुम्हे डगमग चलाने वाली कमर घड़ी
(तुम्हारी चुनौती)
रूक गई वह
और रूक गया सुबह का चार बजना??
और पिता
तुम्हारे सीने से निकले लोहे से नहीं
मुंह से निकले 'राम' से
बने लाखों हथियार
जिबह हुए कितने निर्दोष
क्या दुख नहीं हुआ तुम्हे?
शहर में हुए
हर हत्याकाण्ड के बाद
पूरे ग्लैमर के साथ गाया गया-
रघुपति राघव राजा राम
माथे पर तुम्हारे
चढ़ाया गया
लाल-सफेद फूलों का चूरन
बताओं तुम्हीं लाखों-करोड़ों के जायज पिता
आंख से रिसते आंसू
पोंछे किसी लायक पुत्र ने??
तुम्हारे चरखे की खादी
और तुम्हारे नाम की टोपी
पहन ली सैकड़ों -लाखों ने
कितने चले
तुम्हारे टायर छाप चप्पलों के पीछे...??
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पीली साड़ी पहनी औरत

सिंदूर की डिबिया में बंद किये 
एक पुरूष के सारे अनाचार
माथे की लाली
दफ्तर की घूरती आँखों को
काजल में छुपाया
एक खींची कमान
कमरे की घुटन को
परफ्यूम से धोया
एक भूल-भूलैया महक
नवजात शिशु की कुंहकी को
ब्लाऊज में छुपाया
एक खामोश सिसकी
देह को करीने से लपेटा
एक पीली साड़ी में
एक सुरक्षित कवच
खड़ी हो गई पति के सामने
अच्छा, देर हो रही है-
एक याचना
.. और घर से बाहर निकल ...
लोहा और आदमी
वह पिघलता है और ढलता है चाकू में
तलवार में बंदूक में सुई में
और छेनी-हथौड़े में भी
उसी के सहारे कुछ लोग लड़ते हैं भूख से
भूखे लोगों के खिलाफ
खूनी लड़ाइयां भी उसी से लड़ी जाती हैं
कई बार फर्क करना मुश्किल होता है
लोहे और आदमी में।।
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सपना
गाँव से चिट्ठी आई है
और सपने में गिरवी पड़े खेतों की
फिरौती लौटा रहा हूँ
पथराये कंधे पर हल लादे पिता
खेतों की तरफ जा रहे हैं
और मेरे सपने में बैलों के गले की घंटियाँ
घुंघरू की तान की तरह लयबद्ध बज रही हैं
समूची धरती सिर से पांव तक
हरियाली पहने मेरे तकिए के पास खड़ी है
गाँव से चिट्ठी आई है
और मैं हरनाथपुर जाने वाली
पहली गाड़ी के इंतजार में
स्टेशन पर अकेला खड़ा हूँ
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Friday, June 17, 2011

मृत्युंजय की कविता - कीमोथेरेपी

कीमोथेरेपी*

मेरा शरीर एक देश है
सागर से अम्बर तक, पानी से पृथ्वी तक
अनुभव जठराग्नि के खेत में झुकी हुई गेहूं की बाली

मेरे हाथ, मेरा दिल, मेरी जुबान
मेरी आँखें, त्वचा और जांघें सब
अब इतनी हसरत से ताकते हैं मेरी ओर
क़ि जी भर आता है
इन्हीं में तुम्हारे निशान हैं सर्द-सख्त
इसी ठौर दिल है
लदा-फंदा दुःख और इच्छा से मोह से बिछोह से

सिर्फ साधन नहीं है मेरी देह,
न सिर्फ ओढ़ने की चादर
मुझे इससे बहुत, बहुत इश्क है

इसी घर के साये में
कोई बैठा है चुपचाप
अपना ही, लगाए घात
छोटा सा,
बामुलाहिजा अदब के साथ,
इंतज़ार करता हुआ वाजिब वक्त का
यहां सज सकती हैं अक्षौहिणी सेनायें
निरापद इश्क का यह अड्डा कब समरभूमि में बदल जाएगा
यह सिर्फ दुश्मन ही जानता है
दुश्मन ही जानता है
हमारे इस तंत्र की सबसे कमजोर कड़ी
और ठीक इसीलिये हमले का वक्त

यह एक समरभूमि है
यहां लाख नियम एक साथ चलते हैं
व्यूह भेद की लाख कलाएं
लाखों मोर्चे एक ही वक्त में एक ही जगह पर खुले रहते हैं
एक दूसरे से गुंथे
संगति में

असंगति के समय
दाहिने हाथ की बात नहीं सुनता बायां हाथ
पैर और सर आपस में जूझ जाते हैं
साँसें कलेजे से
आँखें अंदर ही उतरती चली जाती हैं
मांसपेशियां शिराओं से अलग हो जाती हैं
रात का शरीर एक विशाल कमल कोष है
जिससे छूट पड़ना चाहता है भौंरा

युद्धभूमि में सामने खड़े हो गए हैं लड़ाके
प्रतिशोध की आग धधक कर निर्धूम हो चुकी
साम-दाम और दंड-भेद से
जीते जा रहे हैं गढ़ एक के बाद एक
समर्पण हो रहे हैं
अंदर ही होती जाती है भारी उथल-पुथल

ईश्वर की स्मृति से लेकर समाधि तक के सारे
उपाय सब घिस कर
चमकाए जा चुके
आजमाए जा चुके

भरे हुए हाथों में थाम मुट्ठी भर दवाएं
बाहरी इमदाद के भरोसे
हूं हूं हूं
बजती हुई रणभेरी
देरी नहीं है अब
आते ही होंगे वे सर्ज़क/सर्जन

सोडियम क्लोराइड के द्रव और
आक्सीजन गैस का दबाव बढाते
विशेषज्ञ आये
मलबे के बोझ से सिहर रहा है विचार तंत्र
लम्बी सिरिंजों पर लाभ का निशान चटख
डालीं गयीं लम्बी और पतली नलिकाएं
दुश्मनों के गढ़ तक पहुंचने की खातिर
घर में आहूत हुए भस्मासुर
नज़र तनिक फिरी नहीं क़ि गोली चली नहीं
मेरे भीतर मेरी ही लाशें भरी हैं
बावन अंगुल की बावन लाशें

इतने सब के बाद भी
फिर फिर पलट पड़ता है हत्यारा खेल
शरीर के भीतर ही बर्बर नरसंहार
दुश्मन से लड़ने के
आदिम सलीके से
पूरा-पूरा नगर ज़ला दिया
वानरों ने
पूरा वन-प्रांतर, गिरि-खोह सब कुछ उजाड़ दिया
अंकुवाई धरती भी वृक्षों संग जल मरी

लाख बेगुनाहों की कीमत पर
पकड़ा गया है संभावित गुनाहगार
तंत्रों से, यंत्रों से, अधुनातम मंत्रों से

आँखें मुंदी मुंदी ही हैं
फेफड़े तक कोई सांस, टूट-टूट आती है
छूट-छूट जाती है हर लम्हा एक बात
त्वचा में भर रही है, गाढ़ी और गहरी रात
बहुत बहुत धीरे धीरे बढ़ रहा हूं मैं
इस निर्मम जंगल से निकाल मुझे घर ले चलो मां !

कीमोथेरेपी की इस समर गाथा में
कटे-फटे टुकड़े मनुष्यता के
पूंजी की भव्य-दिव्य निर्ज़ल चट्टानों पर
यही कथा
रोज़ रोज़ दुहराई जाती है
साक्षी हूं मैं...
- - -
*(कीमोथेरेपी कैंसर के इलाज़ की एक विधि है. इसमें कैंसरग्रस्त कोशिकाओं को वाह्य दवाओं के जरिये मारा जाता है. इलाज़ की इस प्रक्रिया से शरीर पर काफी बुरे असर पड़ते हैं क्योंकि इससे प्रभावित कोशिकाओं के साथ सामान्य कोशिकाओं को भी क्षति पहुंचती है.)

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