बिहार के बक्सर में १९७७ में जन्मे विमलेश त्रिपाठी को हाल ही में 2010 का युवा ज्ञान पीठ पुरुस्कार मिला है. उनकी कवितायेँ, कहानियां, समीक्षायें देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. कविता संग्रह 'हम बचे रहेंगे' जल्दी जी प्रकाशित होने को है. आज अनुनाद पर विमलेश की कुछ कवितायेँ-
राजघाट पर घूमते हुए
दूर-दूर तक फैली इस परती में
बेचैन आत्मा तुम्हारीपोसुए हरिनों की तरह नहीं भटकती?
कर्मठ चमड़ी से चिपटी तुम्हारी सफेद इच्छाएं
मुक्ति की राह खोजते
जलकर राख हो गईं
चंदन की लकड़ी और श्री ब्रांड घी में
और किसी सफेदपोश काले आदमी के हाथों
पत्थरों की तह में गाड़ दी गईं
मंत्रों की गुंजार के साथ
...पाक रूह तुम्हारी कांपी नहीं??
अच्छा, एक बात तो बताओ पिता-
विदेशी कैमरों के फ्लैश से
चौंधिया गई तुम्हारी आंखें
क्या देख पा रही हैं
मेरे या मेरे जैसे
ढठियाए हुए करोड़ो चेहरे???
तुम्हारी पृथ्वी के नक्शे को नंगा कर
सजा दिया गया
तुम्हारी नंगी तस्वीरों के साथ
सजा दी गई
तुम्हे डगमग चलाने वाली कमर घड़ी
(तुम्हारी चुनौती)
रूक गई वह
और रूक गया सुबह का चार बजना??
और पिता
तुम्हारे सीने से निकले लोहे से नहीं
मुंह से निकले 'राम' से
बने लाखों हथियार
जिबह हुए कितने निर्दोष
क्या दुख नहीं हुआ तुम्हे?
शहर में हुए
हर हत्याकाण्ड के बाद
पूरे ग्लैमर के साथ गाया गया-
रघुपति राघव राजा राम
माथे पर तुम्हारे
चढ़ाया गया
लाल-सफेद फूलों का चूरन
बताओं तुम्हीं लाखों-करोड़ों के जायज पिता
आंख से रिसते आंसू
पोंछे किसी लायक पुत्र ने??
तुम्हारे चरखे की खादीऔर तुम्हारे नाम की टोपी
पहन ली सैकड़ों -लाखों ने
कितने चले
तुम्हारे टायर छाप चप्पलों के पीछे...??
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पीली साड़ी पहनी औरत
एक पुरूष के सारे अनाचार
माथे की लाली
दफ्तर की घूरती आँखों को
काजल में छुपाया
एक खींची कमान
कमरे की घुटन को
परफ्यूम से धोया
एक भूल-भूलैया महक
नवजात शिशु की कुंहकी को
ब्लाऊज में छुपाया
एक खामोश सिसकी
देह को करीने से लपेटा
एक पीली साड़ी में
एक सुरक्षित कवच
खड़ी हो गई पति के सामने
अच्छा, देर हो रही है-
एक याचना
.. और घर से बाहर निकल ...
लोहा और आदमी
वह पिघलता है और ढलता है चाकू में
तलवार में बंदूक में सुई में
और छेनी-हथौड़े में भी
उसी के सहारे कुछ लोग लड़ते हैं भूख सेभूखे लोगों के खिलाफ
खूनी लड़ाइयां भी उसी से लड़ी जाती हैं
कई बार फर्क करना मुश्किल होता हैलोहे और आदमी में।।
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सपना
गाँव से चिट्ठी आई हैऔर सपने में गिरवी पड़े खेतों की
फिरौती लौटा रहा हूँ
पथराये कंधे पर हल लादे पिताखेतों की तरफ जा रहे हैं
और मेरे सपने में बैलों के गले की घंटियाँ
घुंघरू की तान की तरह लयबद्ध बज रही हैं
समूची धरती सिर से पांव तकहरियाली पहने मेरे तकिए के पास खड़ी है
गाँव से चिट्ठी आई हैऔर मैं हरनाथपुर जाने वाली
पहली गाड़ी के इंतजार में
स्टेशन पर अकेला खड़ा हूँ
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