
एक क़स्बे में
बिग बाज़ार की भव्यतम उपस्थिति के बावजूद वह अब तक बची आटे की एक चक्की चलाता है
बारह सौ रुपए तनख्वाह पर
लगातार उड़ते हुए आटे से ढँकी उसकी शक्ल पहचान में नहीं आती
इस तरह
बिना किसी विशिष्ट शक्लो-सूरत के वह चक्की चलाता है अपने फेफड़ों में ग़र्म आटे की गंध लिए
उसे बीच-बीच में खांसी आती है
छाती में जमा बलगम थूकने वह बाहर जाता है साफ़ हवा में
वहां उसके लायक कुछ भी नहीं है
कुछ लफंगे बीड़ी पीते और ससुराल से पहले प्रसव के लिए घर आयी उसकी बेटी के बारे में पूछते हैं
कुछ न कहता हुआ वह वापस
अपनी धड़धड़ाती हुई दुनिया में लौट जाता है
उसे जागते-सोते सपने आते हैं – वो पुरखों की बेची दो बीघा ज़मीन ख़रीद रहा होता है वापस
गेंहू की फसलें उगाता है उन असम्भव छोटे-छोटे खेतों में
गल्लामंडी में बोली लगाता गुटके से काले पड़े होंटों से मुस्कुराता है
तो बुरा मान जाती है
गेंहू पिसाने आयी काछेंदार धोती पहनी साँवली औरतें
उन्हें पता ही नही चलता कि वह दरअसल दूसरी दुनिया में मुस्कुराता और रहता है
सिर्फ़ बलगम थूकने आता है इस दुनिया में थूकते ही वापस चला जाता है
वह दबी आवाज़ में गाली देती है उसे –
“तेरी ठठरी बंधे…”
उसका इलाज चल रहा है बताती है उसकी घरवाली
उसके सपनों और उम्मीदों को दिमाग़ी बीमारी करार दे चुका है नागपुर के बड़े अस्पताल का एक डॉक्टर और इसी क्रम में
उसे काम से निकाल देना भी तय कर चुका है चक्की का मालिक
बिग बाज़ार की भव्यतम उपस्थिति के बावजूद वह अब तक बची आटे की एक चक्की चलाता है
बारह सौ रुपए तनख्वाह पर
लगातार उड़ते हुए आटे से ढँकी उसकी शक्ल पहचान में नहीं आती
इस तरह
बिना किसी विशिष्ट शक्लो-सूरत के वह चक्की चलाता है अपने फेफड़ों में ग़र्म आटे की गंध लिए
उसे बीच-बीच में खांसी आती है
छाती में जमा बलगम थूकने वह बाहर जाता है साफ़ हवा में
वहां उसके लायक कुछ भी नहीं है
कुछ लफंगे बीड़ी पीते और ससुराल से पहले प्रसव के लिए घर आयी उसकी बेटी के बारे में पूछते हैं
कुछ न कहता हुआ वह वापस
अपनी धड़धड़ाती हुई दुनिया में लौट जाता है
उसे जागते-सोते सपने आते हैं – वो पुरखों की बेची दो बीघा ज़मीन ख़रीद रहा होता है वापस
गेंहू की फसलें उगाता है उन असम्भव छोटे-छोटे खेतों में
गल्लामंडी में बोली लगाता गुटके से काले पड़े होंटों से मुस्कुराता है
तो बुरा मान जाती है
गेंहू पिसाने आयी काछेंदार धोती पहनी साँवली औरतें
उन्हें पता ही नही चलता कि वह दरअसल दूसरी दुनिया में मुस्कुराता और रहता है
सिर्फ़ बलगम थूकने आता है इस दुनिया में थूकते ही वापस चला जाता है
वह दबी आवाज़ में गाली देती है उसे –
“तेरी ठठरी बंधे…”
उसका इलाज चल रहा है बताती है उसकी घरवाली
उसके सपनों और उम्मीदों को दिमाग़ी बीमारी करार दे चुका है नागपुर के बड़े अस्पताल का एक डॉक्टर और इसी क्रम में
उसे काम से निकाल देना भी तय कर चुका है चक्की का मालिक
पीसते-पीसते वह आटा जला देता है
आटाचक्की के काम में उसकी लापता ज़मीनों और खेतों के हस्तक्षेप से ऐसा होना सम्भव है
पर आटे का जलना और पाटों का ख़राब होना
अक्षम्य अपराध है
बेटा इंटर में है अभी और उसके आगे बढ़ने की अच्छी सम्भावनाएं हैं
पर अपने पिता की इज्ज़त नहीं करता वह उन्हें अधपगला ही समझता है दूसरे दुनियादारों की तरह
अकसर डाँट और झिड़क देता है बात बेबात ही
और उसकी आँसू भरी आंखों से विमुख याद करता है एक पुरानी और अमूमन उपेक्षा से पढ़ी जाने वाली किताब में
अपना सबसे ऊबाऊ सबक
किंचित लापरवाही से
- “अगन बिम्ब जल भीतर निपजै”
अपनी तरह का अकेला आदमी नहीं है वह दुनिया में और भी हैं कई लाख उस जैसे अपनी अधूरी इच्छाओं से लड़ते
गहरी हरी उम्मीदों में भूरे पत्तों से झरते
सात सौ साल पुरानी आवाज़ में पुकारती होंगी उन सबकी भी सुलगती – गीली आँखें
और मैं
हिंदी का एक अध्यापक
सोचता हूँ कवि का नाम तक पढ़ना नहीं आता जिन्हें
उन्हीं में क्यों समाता है कवि?
इस तरह अपने होने को बार-बार क्यों समझाता है कवि?
***
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
ReplyDeleteBahut achchhee kavitaa...
ReplyDeletenamaskaar !man ko tatolti ek vistrit kavta , sunder !
ReplyDeletemagar kavi moday kaa naam likha nahi ?
phir bhi badhai .
sadhuwad.
शानदार कविता भाई...इसकी बेचैनी मेरे भीतर बहुत देर तक गूंजेगी...
ReplyDeleteshaandaar....jaandaar....bemisaal....adwitiya....apoorva.... padhte padhte jaise mar jayaa main... saahitya ke sukh se...kathya ke dudh se....bahut bahut saadhuwaad bhai shhireesh...
ReplyDeletejhanjhanaa dene vali kavita....kavita basati kahan hai aur padhayi kahan jati hai....ya yon kahen padhayi kinko jati hai.
ReplyDeletebahut hi sundar kavita...apne andar ek bechaini bhar deti hai aur anayas hi man udhar ki or chala jaata hai jaha hamne kitno ko aise hi dekha hai or dekh kar bhool gaye...wo saari smritiya waapas aa jati hai...dhanyawad
ReplyDeleteवाकई,दिल में घर करने वाली कविता.कविता के कुछ अनुच्छेद तो भावाभियक्ति में जबरदस्त हैं. कविता जिस तरह से शुरुआत लेती है और आगे साढ़े कदम बढ़ाते चलती है उस हिसाब से मंजिल तक उस का पहुंचना किंचित कम वजनी जरूर है पर अपनी समग्र प्रस्तुति में बेहद दमदार.
ReplyDeleteवाकई,दिल में घर करने वाली कविता.कविता के कुछ अनुच्छेद तो भावाभियक्ति में जबरदस्त हैं. कविता जिस तरह से शुरुआत लेती है और आगे साढ़े कदम बढ़ाते चलती है उस हिसाब से मंजिल तक उस का पहुंचना किंचित कम वजनी जरूर है पर अपनी समग्र प्रस्तुति में बेहद दमदार.
ReplyDeleteसचमुच! बेचैन करने वाली कविता.
ReplyDeleteएक और अच्छी कविता. अभी की हिंदी कविता के परिदृश्य में पारिवारिक आत्मीयताओं की बदलती हुयी स्थितियों के आमने सामने अपने समय को बरतने की खूबी आम नहीं है , इस लिए जहां कहीं वह दिखती है , रोमांचित करती है .
ReplyDeleteसुंदर व अर्थ-गंभीर कविता। बधाई हो शिरीश जी!
ReplyDeleteहा है बहूत सरे लोग
ReplyDeleteजो पीसते है जिंदिगी
चाकी में पीसते आटे
के साथ
पछीट ते हर साँस
धुलते धोबी घाट के
पत्थर पर पटके जाकर
यहा हर कोई
हँसता है पूछता है
उससे
क्या हाल है भाई
हंस हंस कर
कोई नहीं बांटता उसके भीतर
का दर्द तभी तो गाता
है कबीर
चलती चाकी
देख कर
अपने भीतर के दर्द के साथ
बेहतरीन कविता ,बूढ़े और कवि की विवशता ,,,
ReplyDeleteदर असल वह दूसरी दुनिया मे मुस्कराता और रहता है/ सिर्फ बलगम थूकने आता है इस दुनिया मे / थूकते ही वापस चला जाता है .....
ReplyDeleteअद्भुत पंक्तियाँ , शिरीष, प्रभावशाली बिम्ब. बधाई. ऐसी ही कविताओं का इंतज़ार रहता है इन दिनों.....ताज़ा लिखी रचना है क्या ?
वाकई बेचैन कर डालने वाली कविता.
ReplyDeleteएक सशक्त और अच्छी रचना ....धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत ही कटु यथार्थ की मार्मिक गहरी संवेदना से ओतप्रोत अनुभूति
ReplyDeleteरोमांचकारी कविता है मौर्य जी की ! ऐसे करोड़ों लोगों के मन के हाहाकार को उतने ही वेग से हम तक सफलता से पहुंचाती है यह कविता !
ReplyDeletebahut achchhi kavita.
ReplyDeleteबहुत बढिया
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