Wednesday, May 25, 2011

अरुण आदित्य की दो कवितायेँ


क़ालीन

गर्व की तरह होता है इसका बिछा होना
छुप जाती है बहुत सारी गंदगी इसके नीचे 
आने वाले को दिखती है
सिर्फ आपकी संपन्नता और सुरुचि
इस तरह बहुत कुछ दिखाने 
और उससे ज्यादा छिपाने के काम आता है क़ालीन

आम राय है कि कालीन बनता है ऊन से
पर जहीर अंसारी कहते हैं,
ऊन से नहीं जनाब, खून से

ऊन दिखता है
चर्चा होती है, उसके रंग की
बुनाई के ढंग की
पर उपेक्षित रह जाता है ख़ून
बूंद-बूंद टपकता
अपना रंग खोता, काला होता चुपचाप

आपकी सुरुचि और संपन्नता के बीच
इस तरह खून का आ टपकना
आपको अच्छा तो नहीं लगेगा
पर क्या करूँ, सचमुच वह खून ही था
जो कबीर, अबीर, भल्लू और मल्लू की अंगुलियो से
टपका था बार-बार
इस खूबसूरत कालीन को बुनते हुए



पश्चापात के ताप में इस तरह क्यों झुलसने लगे जनाब?
आप अकेले नहीं हैं
सुरुचि संपन्ना के इस खेल में
साक्षरता अभियान के मुखिया के घर में भी
दीवार पर टंगा है एक खूबसूरत कालीन 
जिसमें लूम के सामने खड़ा है एक बच्चा
और तस्वीर के ऊपर लिखा है...
मुझे पढऩे दो, मुझे बढऩे दो



वैष्णव कवि और क्रांति-कामी आलोचक के
घरों में भी बिछे हैं खूबसूरत कालीन
जिनसे झलकता है उनका सौंदर्य बोध

कवि को मोहित करते हैं
कालीन में कढ़े हुए फूल पत्ते
जिनमें तलाशता है वह वानस्पतिक गंध
और मानुष गंध की तलाश करता हुआ आलोचक
उतरता है कुछ और गहरे
और उछालता है एक वक्तव्यनुमा सवाल
जिस समय बुना जा रहा था यह कालीन
घायल हाथ, कुछ सपने भी बुन रहे थे साथ-साथ
कालीन तो बन-बुन गया
पर सपने जहां के तहां हैं
ऊन-खून और खंडित सपनों के बीच
हम कहां हैं?

आलोचक खुश होता है 
कि उत्तर से दक्षिण तक
दक्षिण से वाम तक 
वाम से अवाम तक 
गूंज रहा है उसका सवाल
अब तो नहीं होना चाहिए
कबीर, अबीर, भल्लू और मल्लू को कोई मलाल...


--------

स्त्री विमर्श में एसएमएस की भूमिका

दिल्ली परिवहन निगम की ठसाठस भरी बस में
असहजता के सहज बिंब सी खड़ी लड़की
चारों ओर से चुभती निगाहें
अनायास का आभास देते सायास-स्पर्श
ढीठ फब्तियां कसने वाले मवाली
और मददगार बनकर प्रकट होने वाले 
कुछ ज्यादा ही उदार लोग.

इन सबके बीच ऐसा कुछ भी तो नहीं है
कि एक लड़की के होठों पर थिरकने की 
हिम्मत कर सके मुस्कान
पर मुस्कुरा रही है वह
कि अभी-अभी आया है एक एसएमएस
और वह भूल गयी है डीटीसी की बस
चुभती निगाहें ढीठ 
और अति उदार लोगों की उपस्थिति

आखिर क्या लिखा होगा उस एसएमएस में
कि तमाम असहज परिस्थितियों को ठेंगा दिखाते हुए 
वह मुस्कुराए जा रही है लगातार

कोई नौकरी मिल गई है उसे
मां-बाप ने ढूंढ लिया है 
सपनों का कोई राजकुमार
किसी सहेली ने कोई चुटकुला फॉरवर्ड किया है
या किसी लड़के ने किया है प्रेम का इजहार
या... या...या...या?
एक एसएमएस में छिपी हैं संभावनाएं अनंत
स्त्री सशक्तीकरण के इतिहास में 
क्या दर्ज होगी इस एसएमएस की भूमिका
कि इसके आते ही एक लड़की के लिए 
किसी भुनगे सी हो गई है जालिम दुनिया....


Saturday, May 21, 2011

आलोक धन्वा की नई कविताएँ

अभी कई दिनों बाद आलोक जी का फोन आया। पिछली कई बातचीतों में मैं उन्हें छूटी हुई कविता की दुहाई दिया करता था। आज उन्होंने बताया कि चार कविताएँ नई लिखी हैं, जो बहुवचन में छपी हैं साथ ही उन्हें हिंदीसमय डाट काम पर भी उपलब्ध कराया गया है....जल्द ही मंगलेश जी पब्लिक एजेंडा में उनका पुनर्प्रकाशन करने जा रहे हैं....इस तरह देखें तो यह हिंदी कविता के लिए लगभग उत्सव का विषय है...मैं भी आलोक जी की स्नेहिल सहमति के साथ हिंदीसमय डाट काम का आभार व्यक्त करते हुए इन कविताओं को अनुनाद पर लगा रहा हूँ।

मुलाक़ातें

अचानक तुम आ जाओ

इतनी रेलें चलती हैं
भारत में
कभी
कहीं से भी आ सकती हो
मेरे पास

कुछ दिन रहना इस घर में
जो उतना ही तुम्हारा भी है
तुम्हें देखने की प्यास है गहरी
तुम्हें सुनने की

कुछ दिन रहना
जैसे तुम गई नहीं कहीं

मेरे पास समय कम
होता जा रहा है
मेरी प्यारी दोस्त

घनी आबादी का देश मेरा
कितनी औरतें लौटती हैं
शाम होते ही
अपने-अपने घर
कई बार सचमुच लगता है
तुम उनमें ही कहीं
आ रही हो
वही दुबली देह
बारीक चारखाने की
सूती साड़ी
कंधे से झूलता
झालर वाला झोला
और पैरों में चप्पलें
मैं कहता जूते पहनो खिलाड़ियों वाले
भाग दौड़ में भरोसे के लायक

तुम्हें भी अपने काम में
ज़्यादा मन लगेगा
मुझसे फिर एक बार मिलकर
लौटने पर

दुख-सुख तो
आते जाते रहेंगे
सब कुछ पार्थिव है यहाँ
लेकिन मुलाक़ातें नहीं हैं
पार्थिव
इनकी ताज़गी
रहेगी यहीं
हवा में !
इनसे बनती हैं नयी जगहें
एक बार और मिलने के बाद भी
एक बार और मिलने की इच्छा
पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी
***

आम के बाग़

आम के फले हुए पेड़ों
के बाग़ में
कब जाऊँगा?

मुझे पता है कि
अवध, दीघा और मालदह में
घने बाग़ हैं आम के
लेकिन अब कितने और
कहाँ कहाँ
अक्सर तो उनके उजड़ने की
ख़बरें आती रहती हैं।

बचपन की रेल यात्रा में
जगह जगह दिखाई देते थे
आम के बाग़
बीसवीं सदी में

भागलपुर से नाथनगर के
बीच रेल उन दिनों जाती थी
आम के बाग़ों के बीच
दिन में गुजरो
तब भी
रेल के डब्बे भर जाते
उनके अँधेरी हरियाली
और ख़ुशबू से

हरा और दूधिया मालदह
दशहरी, सफेदा
बागपत का रटौल
डंटी के पास लाली वाले
कपूर की गंध के बीजू आम

गूदेदार आम अलग
खाने के लिए
और रस से भरे चूसने के लिए
अलग
ठंढे पानी में भिगोकर

आम खाने और चूसने
के स्वाद से भरे हैं
मेरे भी मन प्राण

हरी धरती से अभिन्न होने में
हज़ार हज़ार चीज़ें
हाथ से तोड़कर खाने की सीधे
और आग पर पका कर भी

यह जो धरती है
मिट्टी की
जिसके ज़रा नीचे नमी
शुरू होने लगती है खोदते ही !

यह जो धरती
मेढक और झींगुर
के घर जिसके भीतर
मेढक और झींगुर की
आवाज़ों से रात में गूँजने वाली

यह जो धारण किये हुए है
सुदूर जन्म से ही मुझे
हम ने भी इसे संवारा है !

यह भी उतनी ही असुरक्षित
जितना हम मनुष्य इन दिनों

आम जैसे रसीले फल के लिए
भाषा कम पड़ रही है
मेरे पास

भारतवासी होने का सौभाग्य
तो आम से भी बनता है!
***

गाय और बछड़ा

एक भूरी गाय
अपने बछड़े के साथ
बछड़ा क़रीब एक दिन का होगा
घास के मैदान में
जो धूप से भरा है

बछड़ा भी भूरा ही है
लेकिन उसका नन्हा
गीला मुख
ज़रा सफेद

उसका पूरा शरीर ही गीला है
गाय उसे जीभ से चाट रही है

गाय थकी हुई है ज़रूर
प्रसव की पीड़ा से बाहर आई है
फिर भी
बछड़े को अपनी काली आँखों से
निहारती जाती है
और उसे चाटती जा रही है

बछड़े की आँखें उसकी माँ
से भी ज़्यादा काली हैं
अभी दुनिया की धूल से अछूती

बछड़ा खड़ा होने में लगा है
लेकिन
कमल के नाल जैसी कोमल
उसकी टाँगें
क्यों भला ले पायेंगी उसका भार !
वह आगे के पैरों से ज़ोर लगाता
है
उसके घुटने भी मुड़ रहे हैं
पहली पहली बार
ज़रा-सा उठने में गिरता
है कई बार घास पर
गाय और चरवाहा
दोनों उसे देखते हैं

सृष्टि के सबक हैं अपार
जिन्हें इस बछड़े को भी सीखना होगा
अभी तो वह आया ही है

मेरी शुभकामना
बछड़ा और उसकी माँ
दोनों की उम्र लम्बी हो

चरवाहा बछड़े को
अपनी गोद में लेकर
जा रहा है झोपड़ी में
गाय भी पीछे-पीछे दौड़ती
जा रही है।
***

नन्ही बुलबुल के तराने
एक नन्ही बुलबुल
गा रही है
इन घने गोल पेड़ों में
कहीं छुप छुप कर
गा रही है रह-रह कर

पल दो पल के लिए
अचानक चुप हो जाती है
तब और भी व्याकुलता
जगाती है
तरानों के बीच उसका मौन
कितना सुनाई देता है !

इन घने पेड़ों में वह
भीतर ही भीतर
छोटी छोटी उड़ानें भरती है
घनी टहनियों के
हरे पत्तों से
खूब हरे पत्तों के
झीने अँधेरें में
एक ज़रा कड़े पत्ते पर
वह टिक लेती है

जहाँ जहाँ पत्ते हिलते हैं
तराने उस ओर से आते हैं
वह तबीयत से गा रही है
अपने नये कंठ से
सुर को गीला करते हुए
अपनी चोंच को पूरा खोल कर

जितना हम आदमी उसे
सुनते है
आसपास के पेड़ों के पक्षी
उसे सुनते हैं ज़्यादा

नन्ही बुलबुल जब सुनती है
साथ के पक्षियों को गाते
तब तो और भी मिठास
घोलती है अपने नये सुर में

यह जो हो रहा है
इस विजन में पक्षीगान
मुझ यायावर को
अनायास ही श्रोता बनाते हुए

मैं भी गुनगुनाने को होता हूँ
पुरानी धुनें
वे जो भोर के डूबते तारों
जैसे गीत!
***

Thursday, May 19, 2011

अमित श्रीवास्तव की कविता




आंख के बेहद ज़रूरी अन्दरूनी हिस्से मे
ये एक शहर है
जो कभी कभी एक दर्द भी है
रीढ़ का..
यहां
भयानक काले दिन के बाद
एक हिचकी के साथ खूब चमकीली
रात होती है

यहीं आंख के इसी कोने मे
गोल चारपाई के पैतानो पर
ठस्स दरवाज़ों और लचीली
दीवारों से बना एक मकान है
जो कभी कभी भाषा की एक मज़ार सा लगता है
यूं कि शब्द सोए पड़े हैं हर तरफ
सांस की संत्रास के

हाल फ़िलहाल
एक नुकीली चुप्पी
मुंड़ेर पर बैठा हूं मै
छत के किसी साभिप्राय कोने मे

आर पार का सारा संसार
गोल गोल घूमता
पोशम्पा भई पोशम्पा
घुस रहा है जेब मे मेरी

खूब फैली हथेलियों मे अजीब लिखावट
रेखाचित्रीय पहेलियों सा दर्ज होता जा रहा है
मेरा आखिरी ठहाका
मेरी पहली नौकरी के इग्यारह सौ पैंतीस रुपये
और अपनी साझी मजबूरी के मायने
यानी कि वो शब्द
और मै छला गया..
और मै छला गया..

रात के कई सूरजों से अलग
वो जो मेरे ठीक आगे
पेट और पीठ पर अनोखे वादे की मुहर
वक्त की नुमाइंदगी
के साथ उगा है
इसके उगने का जयघोष होता है
फिर एक इल्तिजा
और एक खतरनाक चुप का उत्सव

फिलहाल
मेरी चुप्पी का उत्सव
कमीज़ के कॉलरों पर बिछा है
कन्धे के सितारों पर

मुंड़ेर की नींव के कुछ पत्थर
आपसी वार्तालाप के बाद
एक खामोश समझौते मे ध्वस्त हैं
झींगुरों की अरदास से अंटे सटे

तीन चीटियां अपने खाने की खोज मे
रात की पाली मे काम मांगने आई हैं
दरअसल ये अस्मत की खोज है
जो इतनी महीन है कि
दिन के अंधेरे और रात के उजाले मे गड्मड है

इन सबके बीच ठीक नाभि के पास
बहुत गहरे चटख रंग वाले अनगिन
पाठों अन्तरपाठों की एक बहुत बड़ी एकीकृत किताब है
जो कि दरअसल असल मुद्दे की बात है

जहां मेरी नींद कभी छिपकर सोती है

जिसके हर पन्ने पर एक दावा लिखा है
और एक धोखे का अन्तर्पाठ है

उकड़ू मुकड़ू बैठे खेल रहे हैं
पाठ पाठान्तर
चाचा भतीजा
चाचा के अभी सगे भाई बन्द
नमक उड़
चिड़िया उड़
पानी उड़

ये लो जी चिड़िया उड़ चली
नमक उड़ चला
पानी उड़ चला
जादूगरों के देस
पकड़ो पकड़ो पकड़ो
मेरी मां को पकड़ो
बंद करो सब खेल तमाशे
बंद करो!
***
अमित की कविताएँ अनुनाद के पाठक पहले भी पढ़ चुके हैं। मेरा अनुरोध है कि इस कविता की एनाटामी पर गौर करें...जो आँख के भीतरी कोने से रीढ़ के दर्द से होती, कमीजों के कालरों और कंधे के सितारों से होती हुई, पोशम्पा के खेल में उलझती हुई कविता के एक अलग भूगोल में प्रवेश कर जाती है।



कवि के निजी परिचय में ये कि वो इक ऐसा पुलिस अधिकारी है जो फ़िलहाल भूमंडलीकरण और समकालीन हिंदी कविता पर उसके प्रभाव विषयक शोध में उलझा हुआ है।


***


चित्र - वाल स्ट्रीट जर्नल से साभार

Saturday, May 14, 2011

अगन बिंब जल भीतर निपजै!




एक क़स्बे में
बिग बाज़ार की भव्यतम उपस्थिति के बावजूद वह अब तक बची आटे की एक चक्की चलाता है
बारह सौ रुपए तनख्वाह पर

लगातार उड़ते हुए आटे से ढँकी उसकी शक्ल पहचान में नहीं आती
इस तरह
बिना किसी विशिष्ट शक्लो-सूरत के वह चक्की चलाता है अपने फेफड़ों में ग़र्म आटे की गंध लिए
उसे बीच-बीच में खांसी आती है
छाती में जमा बलगम थूकने वह बाहर जाता है साफ़ हवा में

वहां उसके लायक कुछ भी नहीं है
कुछ लफंगे बीड़ी पीते और ससुराल से पहले प्रसव के लिए घर आयी उसकी बेटी के बारे में पूछते हैं
कुछ न कहता हुआ वह वापस
अपनी धड़धड़ाती हुई दुनिया में लौट जाता है

उसे जागते-सोते सपने आते हैं – वो पुरखों की बेची दो बीघा ज़मीन ख़रीद रहा होता है वापस
गेंहू की फसलें उगाता है उन असम्भव छोटे-छोटे खेतों में
गल्लामंडी में बोली लगाता गुटके से काले पड़े होंटों से मुस्कुराता है
तो बुरा मान जाती है
गेंहू पिसाने आयी काछेंदार धोती पहनी साँवली औरतें
उन्हें पता ही नही चलता कि वह दरअसल दूसरी दुनिया में मुस्कुराता और रहता है
सिर्फ़ बलगम थूकने आता है इस दुनिया में थूकते ही वापस चला जाता है
वह दबी आवाज़ में गाली देती है उसे –
“तेरी ठठरी बंधे…”

उसका इलाज चल रहा है बताती है उसकी घरवाली
उसके सपनों और उम्मीदों को दिमाग़ी बीमारी करार दे चुका है नागपुर के बड़े अस्पताल का एक डॉक्टर और इसी क्रम में
उसे काम से निकाल देना भी तय कर चुका है चक्की का मालिक



पीसते-पीसते वह आटा जला देता है
आटाचक्की के काम में उसकी लापता ज़मीनों और खेतों के हस्तक्षेप से ऐसा होना सम्भव है
पर आटे का जलना और पाटों का ख़राब होना
अक्षम्य अपराध है

बेटा इंटर में है अभी और उसके आगे बढ़ने की अच्छी सम्भावनाएं हैं
पर अपने पिता की इज्ज़त नहीं करता वह उन्हें अधपगला ही समझता है दूसरे दुनियादारों की तरह
अकसर डाँट और झिड़क देता है बात बेबात ही
और उसकी आँसू भरी आंखों से विमुख याद करता है एक पुरानी और अमूमन उपेक्षा से पढ़ी जाने वाली किताब में
अपना सबसे ऊबाऊ सबक
किंचित लापरवाही से
- “अगन बिम्ब जल भीतर निपजै”

अपनी तरह का अकेला आदमी नहीं है वह दुनिया में और भी हैं कई लाख उस जैसे अपनी अधूरी इच्छाओं से लड़ते
गहरी हरी उम्मीदों में भूरे पत्तों से झरते
सात सौ साल पुरानी आवाज़ में पुकारती होंगी उन सबकी भी सुलगती – गीली आँखें
और मैं
हिंदी का एक अध्यापक
सोचता हूँ कवि का नाम तक पढ़ना नहीं आता जिन्हें
उन्हीं में क्यों समाता है कवि?
इस तरह अपने होने को बार-बार क्यों समझाता है कवि?
***

Tuesday, May 10, 2011

बाबू जी दुखी हैं कि मरने वाले पैसा लेते हैं - मनोज कुमार झा की कविता

पंडिज्जी ने कहा तो कहा मगर रहने दो इस खेत को
पूजापाठ की सूई निकाल नहीं पाती कलेजे का हर कांटा बाढ़ में बह तो गया मगर यहीं तो था जोड़ा मंदिर
किसी तरह बचा लो मेरे मां-बाप के प्रेम की आखिरी निशानी
जल रहे पुल का आखिरी पाया कहते रहे पिताजी मगर बिक ही गया वो भी आखिर और
मोटरसाइकिल दी गई जीजाजी को जो ठीक-ठाक ही चल रही है
कुछ ज़्यादा धुंआ फेंकती कभी-कभार

उस टुकड़े में हल्दी ही लगने दो हर साल
नहीं पाओगे हल्दी के पत्तों का ये हरापन किसी और खेत में
शीशम तो कोई पेड़ ही नहीं कि जब बढ़ जाए तो
बांहों में भरकर मापते हैं मोटाई कि कितने में बिकेंगे कटने पर बार-बार समझाते रहे मगर ब्लाक से लाकर रोप दी गई खूंटियां
फिर वे कभी नहीं गए उधर और हमने भी डाला डेरा शहर में
अब विचारते रहते हैं कि जब और बुढ़ा जायेंगे बाबूजी तो खींच लायेंगे यहीं

एक दिन हांफते आये दूर से ही पानी मांगते दो घूंट पानी पीते चार सांस बोलते जाते कि जब भी जाओ दिसावर
सत्तू ले जाओ गुड़ ले जाओ, न भी ले मगर ज़रूर लेके जाओ घर लौटने की हिम्मत
हालांकि घरमुंहा रास्ते भी रंग बदलते रहते हैं
सच कह रहे थे रहमानी मियां कि सामान कितने भी करने लगे हों जगर-मगर
आज़ादी दादी की नइहर से आई पितरिहा परात की तरह ख़ाली ढन-ढन बजती है
वो लड़का बड़ा अच्छा था बाप से भी बेहतर बजाता था बांसुरी
ताड़ के पत्तो से बनाता था कठपुतली और हर भोज में वही जमाता था दही
पर ये कुछ भी न था काम का उस कोने में जहां उसने गाड़ा खम्भा
एक त्यौहार वाले दिन तोड़ लिया धरती से नाता कमर में बम बांधकर
जब से सुनी यह ख़बर छाती में घूम रहा साइकिल का चक्का
धुकधुकी थमती ही नहीं चार पढ़ चुका हनुमान चालीसा
तब से सोच रहा यही लगातार कि जिन्होने छोड़े घर-दुआर
जिन पर टिकीं इतनी आंखें
उन्हों ने जब किया अपनी ही नाव में छेद तो किनारे बचा क्या, सिर्फ़ पैसा?
तो क्या यही मोल आदमी का कि ज़िन्दा रहे तो पैसा गिनते-भंजाते और मरे तो दो पैसा जोड़कर
***




(इधर मनोज ने अपनी कविताओं से लगातार सिद्ध किया है कि वे समकालीन युवा कविता की लीक से अलग अपनी राह बनायेंगे। बौद्धिकता का कोई अतिरिक्त आग्रह न रखते हुए भी एक अनूठा वैचारिक-सैद्धान्तिक बयान दे जायेंगे। उनकी लगभग हर कविता गांव-जवार, घर-दुआर से शुरू होती हुई अचानक बहुत चुपचाप वैश्विक आशयों में प्रविष्ट कर जाती है। यह मनोज की कला है। उनकी कविता में नागार्जुन-रेणु की धरती बोलती है, न सिर्फ़ बोलती है बल्कि घूमती है। खेत बिकने और ज़मीनी मोह के निजी शुरूआती ब्यौरों से आरम्भ होने वाली यह कविता रहमानी मियां से होते हुए कमर में बम बांध कर मर जाने वाले कमेरे लड़के तक जा पहुंचती है। हिंदी में कितना साहित्य मौजूद है जो उस लड़के की ऐसी शिनाख़्त कर पाता है ? आतंकवाद और पूंजी के अंतर्सम्बन्धों को कौन-सा कवि इस तरह गह सका है ? यह धरती से नाता टूटने और अपनी ही नाव में छेद कर कर लेने का कोई साधारण बयान नहीं, ज़िन्दगी भर जी सकने लायक पैसा गिनने-भंजाने और मरते वक़्त दो पैसा जोड़ जाने की असाधारण कथा है। यहां मुश्किल उस पैसे की है, जो पूंजी की गिरफ़्त में है। समझ पाएं तो पैसे से पूंजी की इस लड़ाई में हम अपने जीवन और उसकी वंचनाओं के कई छोर तलाश सकते हैं। इतना ही कहकर मैं अपने इस अत्यन्त प्रिय कविसाथी को सलाम पेश करते हुए उसकी इस कविता को अनुनाद के पाठकों के हवाले करता हूं।)

Sunday, May 8, 2011

माँ पर नहीं लिख सकता कविता - ८ मई पर विशेष

चन्द्रकांत देवताले की कविता

माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता
अमर चींटियों का एक दस्ता मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहाँ हर रोज़ चुटकी-दो चुटकी आटा डाल देती है

मैं जब भी सोचना शुरू करता हूँ
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज़ मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊंघने लगता हूँ

जब कोई भी माँ छिलके उतार कर
चने, मूंगफली या मटर के दाने नन्ही हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर थरथराने लगते हैं

माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया

मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा
माँ पर नहीं लिख सकता कविता
***
चित्र : शांते यंग / गूगल से साभार

Thursday, May 5, 2011

फ़र्ज़ी कविता - एगुस सर्जोनो : अनुवाद एवं प्रस्तुति - यादवेन्द्र

इंडोनेशिया की नयी पीढ़ी के सबसे चर्चित कवियों में शुमार किये जाते हैं एगुस सर्जोनो.देश की सांस्कृतिक हलचलों के केंद्र बांडुंग नगर में 1962 में जन्मे सर्जोनो कविताओं के अलावा कहानी,नाटक और आलोचनात्मक निबंध भी लिखते हैं.पाँच कविता संकलनों के अतिरिक्त उनकी कई और किताबें प्रकाशित हैं और दुनिया की अनेक भाषाओँ में उनकी कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हुए हैं.एक महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका का संपादन करने के साथ वे इंडोनेशिया की युवा पीढ़ी( छात्र और अध्यापक) के बीच कविता को लोकप्रिय बनाने के लिए कई अन्य कवियों के साथ मिल कर कैम्प लगाते हैं.देश के राष्ट्रीय नाटक संस्थान में अध्यापन करने वाले सर्जोनो अपने देश की राजनैतिक हलचलों के प्रति बेहद मुखर रहे हैं..सुहार्तो के शासन काल में उनकी अनेक रचनाओं पर प्रतिबन्ध लगाया गया था.सैनिक तानाशाही के खिलाफ आवाज बुलंद करने वालों में सर्जोनो अग्रणी रहे हैं.यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी एक महत्वपूर्ण कविता जो देश काल से परे जा कर दुनिया भर के भ्रष्टाचार से जूझते समाजों को गहरी संवेदना के साथ संबोधित करती है.










गुड मार्निंग सर...गुड मार्निंग मैडम...
फर्जी मुस्कराहट मुँह पर चिपका के बच्चे बोले
फर्जी किताबों से पढ़ा उन्होंने
फर्जी इतिहास
पढाई ख़तम कर लेने के बाद
अपने ढेर सारे फर्जी नंबर देख के
वे खुद हतप्रभ अवाक् रह गए.
स्कूल में उनके नंबर अच्छे नहीं आये थे
सो फर्जी तारीफ की चिट्ठियां लिख लिख के
लिफाफे लिए वे गए अपने मास्टरों के घर
फर्जी मुस्कराहट लिए मास्टरों ने
उनके हाथों से लिफाफे यह कहते हुए ग्रहण किये
कि बुरे नंबर बदल कर अच्छे नंबर दे देंगे
पर मुस्कुराहटों की तरह ये आश्वासन भी फर्जी.
वक्त बीता..स्कूल से निकल कर
वही बच्चे बनते गए फर्जी अर्थशास्त्री...
फर्जी वकील...फर्जी किसान..
फर्जी इंजिनियर...
इनमें से कुछ बन गए फर्जी मास्टर..
फर्जी वैज्ञानिक...फर्जी कलाकार भी..
इस तरह बड़े तपाक से वे
फर्जी नेता बन कर फर्जी अर्थव्यवस्था के सहारे
जोर शोर से करते रहे फर्जी विकास.
जाने किन किन फर्जी चीजों का नाम ले ले कर
फर्जी आयात और फर्जी निर्यात करते करते..
वे अंधाधुंध फर्जी व्यापार का डंका पीटते रहे
मजे की बात कि फर्जी बैंक
धूमधाम से मुनाफे दिखा दिखा के
फर्जी बोनस और गिफ्ट बाँटते रहे.
पर इनके आजू बाजू एक और अभियान चलता रहा...
फर्जी परमिट और फर्जी चिट्ठियाँ दिखा दिखा के
वे गुपचुप ढंग से फर्जी अफसरों की मिलीभगत से
राष्ट्रीय बैंक से कर्ज लेने का जुगाड़ करते रहे.
जनता फर्जी धन और फर्जी विदेशी मुद्रा से
कारोबार करती रही
इसीलिए अंत में फर्जी उछाल के बोझ तले
विदेशी मुद्राएँ लड़खड़ा कर गिरने लगीं
चारों ओर अफरा तफरी मची...संकट इतना गहराया
कि फर्जी सरकार संभाल नहीं पाई अपनी फर्जी किस्मत
और औंधे मुँह धराशायी हो गयी.
फर्जी लोग फर्जी जश्न मनाते रहे
फर्जी समारोहों में फर्जी बयानबाजी करते रहे
सार्वजनिक बहसों में ऊँचे स्वर में
आगाज किया जाता रहा लोकतंत्र का
चिल्ला चिल्ला कर
पूरी तरह से फर्जी तौर पर।


***
प्रस्तुति: यादवेन्द्र

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