Thursday, April 28, 2011

आतो रीनी कास्तिलो : अनुवाद एवं प्रस्तुति -यादवेन्द्र

आतो रीनी कास्तिलो(1934 -1967) दक्षिण अमेरिका के देश गुआटेमाला के महत्वपूर्ण क्रांतिकारी और कवि हैं. अपने स्कूली जीवन में ही राजनीति में उनकी गहरी रूचि थी जो बाद में मृत्युपर्यन्त देश की तानाशाही विरोधी सशस्त्र संघर्ष में सीधी भागीदारी तक जारी रही.1954 में अपने देश के निर्वाचित राष्ट्रपति के तख्तापलट के बाद वे एल सल्वाडोर चले गए.वहाँ के लोकप्रिय कवि रोक डेल्टन के साथ मिल कर उन्होंने एक साहित्यिक आन्दोलन शुरू किया.थोड़े समय के लिए कास्तिलो अपने देश लौटे पर फिर पढाई के लिए जर्मनी(पूर्व) चले गए.उन्होंने एक प्रयोगात्मक थियेटर शुरू किया और एक साहित्यिक पत्रिका भी निकाली.निरंकुश तानाशाही के विरोध में कास्तिलो ने न सिर्फ लिखा बल्कि खुद हाथ में बन्दूक थाम कर सरकार विरोधी छापामार संघर्ष में सम्मिलित हुए.1967 में पकड़े जाने पर उन्हें भयंकर यातना देकर जिन्दा जला कर मार डाला गया.अपने जीवन कल में उनके दो काव्य संकलन प्रकाशित हुए,बाद में एक और.उनकी कुछ कवितायेँ अंग्रेजी में उपलब्ध हैं,जिनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं.

राजनीति से परहेज करनेवाले बुद्धिजीवी

एक दिन हमारे देश के
राजनीति से परहेज करनेवाले
तमाम बुद्धिजीवियों से सवाल करेंगे
हमारे देश के
मामूली से मामूली लोग..
उनसे पूछा जायेगा:
क्या कर रहे थे वे
जब मर रहा था उनका देश
तिल तिल कर
शातिर ख़ामोशी से
सब कुछ ख़ाक करती जाती
छोटी और मामूली आग से?
कोई नहीं पूछेगा उनके कपड़े लत्तों के बारे में
या दोपहर के खाने के बाद
कितनी देर तक लेते रहते हैं वे खर्राटे
किसी की दिलचस्पी नहीं
कि क्या है उनकी शून्यता की बाँझ अवधारणा...
किसी को फर्क नहीं पड़ता
कितना ऊँचा है उनका अर्थशास्त्र का ज्ञान.
उनसे कोई नहीं पूछेगा
ग्रीक मिथकों के बारे में ताबड़तोड़ सवाल
और न ही उनकी आत्मग्लानि के बारे में किसी को पड़ी है
कि कैसे मरा उनका ही कोई बिरादर
किसी भगोड़े कायर की मौत...
किसी को नहीं फिकर
कि जीवनभर घने पेड़ की छाया तलाश कर
इत्मीनान की साँस लेने वाले सुकुमार
किस शैली में प्रस्तुत करते हैं
अपने जीने के ढब के अजीबोगरीब तर्क.
उस दिन पलक झपकते
आस पास से आ जुटेंगे
तमाम मामूली लोग
जिनके बारे में न तो लिखी किताब
और न ही कोई कविता
राजनीति से परहेज करने वाले
इन बुद्धिजीवियों ने लम्बे भरेपूरे जीवन में कभी...
इनके लिए तो यही मामूली लोग
बाजार से लाते रहे रोज रोज ब्रेड और दूध
दिनभर का राशन पानी
सड़कों गलियों में दौड़ते रहे उनकी गाड़ियाँ
पालते रहे उनके कुत्ते और बाग़ बगीचे...
जो इन्ही के लिए खटते रहे जीवन भर
अब वही पलट कर करेंगे सवाल:
आप लोग क्या कर रहे थे
जब गरीबों का जीवन होता जा रहा था दूभर
जब उनके अंदर से कोमलता
और जीवन रस सूखता जा रहा था?
मेरे प्यारे देश के
राजनीति से परहेज करने वाले बुद्धिजीवी
आप इन सब सवालों का जवाब दे पाएंगे?
कितनी भी हिम्मत दिखला दें
नोंच नोंच कर खा जायेगा
आपको चुप्पी का खूंखार गिद्ध..
आपकी बेचारगी बार बार
धिक्कारती रहेगी आपकी आत्मा को
आपको नहीं सूझेगा तब कोई रास्ता
नहीं बचेगा कोई चारा
और चुपचाप सिर झुकाकर
टुकुर टुकर ताकते खड़े रहेंगे आप.
***


संतुष्टि

जीवन भर संघर्ष करते रहने वालों के लिए
सबसे सुन्दर चीज है
सफ़र के अंत में खड़े होकर स्वीकार करना:
हमारा अटूट भरोसा था लोगों में...और जीवन में..
और न जीवन ने...और न ही लोगों ने..
कभी हमें निराश किया...नीचा दिखाया.

यही एक ढंग है जिससे
मर्द बनते हैं मर्द
और औरतें बनती हैं औरतें
लड़ते हुए दिन और रात अनथक
लोगों की..और जीवन की खातिर.
जब पूरी कर लेती हैं
यात्रा ये जिंदगियाँ
तो लोगबाग धीरे से खोलते हैं द्वार
और उतर जाते हैं
नदी की अतल गहराइयों में
एक एक सीढ़ी नापते नापते
सदा सदा के लिए.
पर इस प्रकार वे तिरोहित नहीं होते
बल्कि दूर से दिखती रहने वाली लौ जैसा
नया रूप धर लेते हैं
और जीवित रहते हैं सदा सर्वदा
लोगों के दिलों में
नजीर बन कर.

जीवन भर संघर्ष करते रहने वालों के लिए
सबसे सुन्दर चीज है
सफ़र के अंत में खड़े होकर स्वीकार करना:
हमारा अटूट भरोसा था लोगों में...और जीवन में..
और न जीवन ने...और न ही लोगों ने..
कभी हमें निराश किया...नीचा दिखाया.
***


प्रेम करने वाले

दो अदद प्रेमी
जो अभी एक दूसरे को चूम रहे हैं
जानते नहीं
कि उन्हें बिछुड़ना पड़ेगा
पल भर में...
दो अदद प्रेमी
जिन्होंने अभी एक दूसरे को
ढंग से जाना भी नहीं है
जानते नहीं कि जल्दी ही
उनको लगने लगेगा कि वे तो
जानते पहचानते रहे हैं एक दूसरे को
मुद्दतों से...
अफ़सोस
जिन्होंने पा लिया एक दूसरे को
उन्हें अभी ही होना पड़ेगा जुदा...
अफ़सोस
जिन्हें आस है एक दूसरे से मिलने की
अभी भी
उनको ही अब करनी पड़ेगी प्रतीक्षा
हमेशा हमेशा के लिए..
***

Monday, April 25, 2011

घर में अकेली औरत के लिए - चंद्रकांत देवताले की कविता


तुम्हें भूल जाना होगा समुद्र की मित्रता और जाड़े के
दिनों को
जिन्हें छल्ले की तरह अँगुली में पहनकर
तुमने हवा और आकाश में उछाला था
पंखों में बसन्त को बाँधकर
उड़ने वाली चिडि़या को पहचानने से
मुकर जाना ही अच्छा होगा...
तुम्हारा पति अभी बाहर है तुम नहाओ जी भर कर
आइने के सामने कपड़े उतारो
आइने के सामने पहनो
फिर आइने को देखो इतना कि वह तड़कने को हो जाए
पर तड़कने के पहले अपनी परछाई हटा लो
घर की शान्ति के लिए यह ज़रूरी है
क्योंकि वह हमेशा के लिए नहीं
सिर्फ़ शाम तक के लिए बाहर है
फिर याद करते हुए सो जाओ या चाहो तो अपनी पेटी को
उलट दो बीचोंबीच फ़र्श पर
फिर एक-एक चीज़ को देखते हुए सोचो
और उन्हें जमाओ अपनी-अपनी जगह पर
अब वह आएगा
तुम्हें कुछ बना लेना चाहिए
खाने के लिए और ठीक से
हो जाना होगा...सुथरे घर की तरह
तुम्हारा पति
एक पालतू आदमी है या नहीं
यह बात बेमानी है
पर वह शक्की हो सकता है
इसलिए उसकी प्रतीक्षा करो
पर छज्जे पर खड़े होकर नहीं
कमरे के भीतर वक़्त का ठीक हिसाब रखते हुए
उसके आने के पहले
प्याज मत काटो
प्याज काटने से शक की सुरसुराहट हो सकती है
बिस्तर पर अच्छी किताबें पटक दो
जिन्हें पढ़ना कतई आवश्यक नहीं होगा
पर यह विचार पैदा करना अच्छा है
कि अकेले में तुम इन्हें पढ़ती हो ...
***
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डी एस नेगी
प्रबन्धक शाइनिंग स्टार, हाथीडगर, भगोतपुर पडि़याल, पीरूमदारा
तहसील - रामनगर, जि़ला- नैनीताल (उत्‍तराखंड)
पिन- 244 715


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ई-मेल - shiningstar.anunaad@gmail.com
***

Friday, April 22, 2011

मृत्युंजय की कविता

दस साल

संसद चलती रही दस साल
दस साल चलती रही विधानसभा
कंपनियों ने नए किस्म के पिज्जे तैयार किये
पेप्सी और कोक ने मरोड़ दी गर्दन
आये नए सुवाद भरे चमकीले
केंटुकी चिकन और बेहूदा बर्गर
स्वाद सब बंद हुए पाउच में.

दस साल का वक्त आजकल बहुत वक्त होता है
किसी ग्लोबल गाँव में !

प्यारी इरोम
तुमने कुछ खाया नहीं
तुम्हारी जीभ को जंग लग गया होगा
सिर्फ नारे लगा-लगा थक चुकी होगी जुबान
सो गयी होंगीं आंत
शांत मत रहो ऐसे
मेरी प्यारी
ज़रा हंसो, मुस्कुराओ तो सही

मणिपुर एक तिरछी गड़ी वर्णमाला है राष्ट्र के कलेजे में
तिर्यक आखेटकों के भेजे में
फंसी हुई हूक
नेजे की तरह चुभती.
मैं अपनी पलकें
तुम्हारी सपनीली आँखों के रास्ते में बिछा कर
थोड़ा रोना चाहता था
तुम्हें मंज़ूर है ये ?

तुम्हारे घर में कौन-कौन है?
भाई? बहन? अम्मी? अब्बू?
चाय के झुरमुटों बीच सीधी रेखाओं में निहाँ कोरस?
तुम्हारे पड़ोस में कौन रहता है?
कितने हत्यारे हैं तुम्हारे मोहल्ले में
जिन्हें आजकल 'ज़वान' कहते हैं लोग.
उनकी गश्त का वक्त क्या है?
कितने बजे नहीं रहते वे?
हम कब मिल सकते हैं?

सौ सालों बाद तुम हो कि वही हो
सौ जनम बाद, शायद सौ शताब्दियों बाद
तुम हो बिना नली लगाए
अपनी उस नाक के साथ
जिसका सुघरापन मुझे बेहद पसंद है.

इरोम
तुम्हारे घर के चारो तरफ लाशें बिखरी पड़ी हैं आईनों की तरह
तुम्हारी सखी मनोरमा सात पुरुषों के नीचे से चीख रही है इरोम
इरोम
दिल्ली बहरे कातिलों और पागल हत्यारों और दोगले कवियों और नीच बाबाओं और गोरे बलात्कारियों से भरी हुई है
तुम किससे जिरह कर रही हो!

हज़ार फुट की गहराई वाले वाले अपने घर से निकल
लाख फुट निचाई वाले इस रौरव नरक में
तुम आई क्यों?
तुम पागल
बेवकूफ तुम

दस साल में कोई दस दिन ऐसे नहीं थे
कि दुनिया का कुछ बिगड़ पाता, बन पाता
आमरण अनशन की दो पंचवर्षीय योजनायें
बाबा साहेब को हाज़िर-नाज़िर जानकर
पंडित नेहरू को श्रद्धांजलि स्वरुप

शैतानी कानूनों की इजाज़त बख्शते इस
संविधान का क्या करूं मैं?
अब इन संवलाए खेतों में कोई धान नहीं है जिसे इसके वरक पर सुनहरे अक्षरों की जगह चिपका सकूं मैं
इरोम, कहाँ गयीं तुम?

सात जन आये
सात ए के सैंतालीस से लैस
शासन में बैठे सत्तर फीसदी
सैंतालीस के नुमाइंदे
सो जाओ संभ्रांत बुज़ुर्ग संतों-कवियों
सत्य की कब्र में
ज़ब्र का हाथ थाम
सात जन आये
लांग बूट, फेल्ट कैप
लोहे का छल्लेदार नोकदार ट्रैप था पंजों में
होठों से नीचे सीधे चीरते चले गए
सात नौज़वान स्त्रियों की लाश है मणिपुर
चीथी गयी रौंदी गयी
भूखी
सूखी हड्डियों वाली
सीधे बालों और नन्हें मज़बूत हाथों वाली लाश
जिनके दफ़न के लिए एक गज ज़मीन पूरे हिन्दुस्तान में नहीं बची है.

दस थीं महिलाएं
और एक तुम थीं, ग्यारह
दिगंबर. बेख़ौफ़. करुणा से सीझी हुई.
जिस्म की सारी हरकतें सिमट आयीं
पगलाई गहरी उन आँखों में.
नंगे थे हुक्मरान फौजी क्रूर,
लम्पट पुंसत्व का गलीज ठाठ-बाट
घाट-घाट ह्त्या
मस्तक को छेदता भीषण अपमान

हत्यारे
सखि मनोरमा के घर पहुंचे थे
क्या था वध-उत्सव
सब कोई मारे गए
ज़िंदा धमनियों में नश्तर उतारे गए
संगीनों कतरी गयी
चाय की नन्ही सी छोटी
मासूम शाख
भाई जो भाग रहा, पीठ पर लगी गोली
भहराकर गिर गया

दस साल सलवा जुडूम
किरकेट की बूम-बूम
खून-खून दस साल
दस साल झील डल
लोहू से भल्ल- भल्ल
दस साल सोपिया
दस साल मनोरमा
दस साल लंबा हत्या-अभियान
सत्ता के दशानन का यह रण संधान
दस साल, अनशन के दस साल

दिल्ली के जंगल में कहाँ गयी मेरी प्रिय
सात बहनों में सबसे छोटी इरोम!
जिद्दी, बातूनी और हडबड़ सी पुतली
तुम्हारे पहाड़ तुम्हारे लिए चीख रहे हैं मस्तक झुकाकर
बांस के लम्बे दरख्त सर पटक रहे है एक-दूसरे के कन्धों पर

मैं तुमसे प्यार करता हूँ इरोम
जितना कर सकता हूँ मैं
तुम्हारे दोनों होठों को चूम लेना चाहता हूँ मैं
जब तुम अपनी अनंत भूख हड़ताल से उठो तो
पपडियाये होठों के नीचे दफ़्न मुस्कराहट
का सुकून

आ...मी...न
***
सौजन्य : आशुतोष कुमार

Tuesday, April 19, 2011

युगलों का हिसाब किताब - अदेले ग्राफ

अपने शीर्षकों में ही अनोखी नज़र आने वाली इन कविताओं का चयन, अनुवाद और प्रस्तुति यादवेन्द्र की है।


1 +1 =1

स्त्री के पास नहीं थे मोज़े

सो उसके उठाये और पहन लिए

अब कम पड़ गए उसके मोज़े.....

तो स्त्री गयी बाजार

और खरीद लायी उसके लिए नए मोज़े।

***

1 +(1 +1 -1 )=2

नौजवान स्त्री ने

प्रेमजाल में फाँस लिया बूढी स्त्री का बरसों पुराना प्रेमी

तिरस्कृत प्रेमिका ने खुद को दिलासा दिया

हम दोनों एक समान ही हैं...

बस, मौसम बदल गए।

***


1 +1 >2


स्त्री बोली मैं तुम्हें प्यार करती हूँ

चाहे तुम बांधे रहो अपनी टाई

उसने कहा मै भी तुम्हें प्यार करता हूँ

हाँलाकि जानता हूँ

तुम्हें बिलकुल नहीं पसंद मेरी टाई।

***

कनाडा की राजधानी ओट्टावा में रहने वाली अदेले ग्राफ की अनेक कवितायेँ प्रकाशित हैं। यह कविता कनाडा की साहित्यिक पत्रिका रूम मैगजीन से साभार ली गयी है-

यादवेन्द्र

Friday, April 15, 2011

इरोम शर्मिला की एक कविता


( इरोम शर्मिला…यानि ग्यारह साल से एक काले क़ानून के ख़िलाफ़ अनशन पर बैठी आयरन लेडी…यानि अण्णा हजारे के बरक्स गांधीवाद का एक और आख्यान रचती सामाजिक कार्यकर्ता…यानि पूर्वोत्तर की ऐतिहासिक व्यथा का मूर्त रूप…यानि एक कवि की संवेदना की जीती-जागती तस्वीर…यानि…हम सब 'कवियों' के सामने एक धधकती हुई बड़ी लक़ीर! उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद कर रहा हूँ…उनमें से एक - अशोक कुमार पाण्डेय) 
  
मुक्त करो मेरे पैरों को
कंटीली चूड़ियों सी इन बेड़ियों से
मैं क़ैद हूं इस संकरी सी कोठरी में
क़सूर यह कि
चिड़िया के रूप में हुआ है मेरा जन्म

जेल की इस अंधेरी कोठरी में
सुनाई देती हैं तमाम शब्दों की प्रतिध्वनियाँ
चिड़ियों के शब्दों की तरह नहीं हैं ये शब्द
न ख़ुशी से फूटने वाली हंसी के
किसी लोरी के भी नहीं हैं ये शब्द

माँ की गोद से छीन लिया गया कोई बच्चा
और मां का करुण विलाप
एक औरत जिससे छीन लिया गया है पति
और उस विधवा का व्यथित विलाप
सिपाही के हाथों से झरता हुआ रुदन

अग्निपिण्ड दिखता है एक
आने ही वाला है प्रलय
जुबानी प्रयोगों के लिये
विज्ञान के उपकरणों से
धधकाया गया है वह अग्निपिण्ड

इन्द्रियों के वश में
हर कोई है अचेत
नशा – सोच का दुश्मन
ख़त्म कर दिया गया है सोचने का कौशल
सोचने के बारे में अब कोई प्रयोग नहीं

पहाड़ की घाटियों के उस पार से आते यात्रियों की
मुस्कराते चेहरे वाली हँसी में
कुछ नहीं बचा मेरे विलाप के सिवा
कुछ नहीं बचाया जा सका देखती हुई आंखों से
ख़ुद ब ख़ुद नहीं दिखाई जा सकती ताक़त

क़ीमती है इंसानी ज़िंदगी 
इससे पहले कि खत्म हो जाय जीवन 
मुझे अंधेरों की रौशनी होने दो 
यहाँ अंमृत बोया जायेगा 
रोपा जायेगा सच्ची अमरता का वृक्ष 

नकली पंख लगाकर पहुंचेंगे 
हम धरती के हर कोने तक 
सुबह के गीत गाये जायेंगे 
दुनिया भर के साथ समवेत स्वर में 
मौत और ज़िंदगी के क्षितिज पर

ख़ुल जाने दो क़ैद की दीवारों को
मैं नहीं जाऊंगी किसी और रास्ते पर
कृपा करके हटा दो काँटों की बेड़ियों को
मत सज़ा दो मुझे इस बात की
कि चिड़ियों के रूप में हुआ है मेरा जन्म

Friday, April 8, 2011

जंतर-मंतर पर धरना है


मृत्‍युंजय की कविता


भ्रष्टाचारी कांगरेस की लीला की बलिहारी

लोकपाल, दिक्पालों के बस में जनता बेचारी

नेता-अफसर सब लीलाधर, सत्ता मद में चूर

मिस्टर राहुल कुछ फरमाओ बोलो तनिक


हुजूर अन्ना अनशन पर , उस का चश्मा हिन्दुस्तानी

संग साथ जन गण मन है , सो बेकल हैं रानी

कांगरेस की बिल्ली को लो याद आयी नानी

एक आँख से दुनिया देखे साधो बौरानी


भाजपाईयों की नौटंकी दसटंकी चालू

कहाँ नहीं भ्रष्टाचारी, है कौन न घोटालू

यह ढांके तो वह खुल जाए वह ढांके तो पोल

राजनीति की चतुर चिकटई, सारी दुनिया गोल


नक्शा झाड़ रहे मंत्रीगण स्विस बैंक के बूते

टाटा, बाटा, अम्बानी के चाट रहे जूते

धूर-मलाई चाभो, चाभो जनता के अरमान

सौ करोड़ की करो तस्करी, ऊंची भरो उड़ान


पान चबाओ, उस में डालो मजदूरों का रक्त

अलबेले बाबाओं के तुम नए नवेले भक्त

नाजायज पैसे के मारे जब अफराये पेट

चूरन फांक दलाली का फिर नया खोल दो रेट


अन्ना बापू याद नहीं क्या यहीं कहीं सुखराम

हर्षद मेहता, तेलगी साहब सब करते विश्राम

शीबू जी सोरेन यहीं ,बाबू परमोद महाज़न

राजा, कलमाडी, मधु कोड़ा, रमलिंगम सत्यम


लालू की यह चरागाह है , माटी है बोफोर्स की

शशि थरूर की, मोदीजी की , तिकड़म-ताले-सोर्स की

अभिनन्दन है पैलागी है पूजा है शैतान की

इस माटी का तिलक लगाओ धरती यह बलिदान की


मनमोहक खूंखार सिंह ने माँगी मांगे तीन

अन्ना बापू समझे रहना ये हैं चतुर प्रवीन

जीते रहना और समझना इनकी मेहीं चाल

चले आ रहे लोग गाँव गंवाई गांठे हुए मशाल


गांधी बाबा की समाधि पर चलो जमायें जग्ग

काले धन को होम करें ऐसी लहरायें अग्ग

लोक क्रांति की गगन घटा घहराए , कांपें दुश्मन।

शुद्ध होय यह भूमि हमारी मुदित होएं जन गण मन


लोकपाल बिल से निकलेगी, आगे और लड़ाई

दम ले , काँधे जोड़, साथियों , भिड़ने की रुत आई

दुश्मन है खूंखार चतुर्दिक पसरी है परछाई

आगे बढ़, तैयारी कर, है लम्बी बहुत चढ़ाई

***

आशुतोष भाई ने मेल से यह कविता भेजी है। नागार्जुन से बहुत सारी बातें जस की तस लेती हुई यह कविता उस महाकवि को सलाम भी पेश करती है।

Wednesday, April 6, 2011

अली अहमद सईद असबार - चयन, अनुवाद और प्रस्तुति: यादवेन्द्र

अपने तखल्लुस अडुनिस (मूल नाम: अली अहमद सईद असबार) से पूरी दुनिया में जाने जाते कवि आधुनिक अरबी कविता के शिखर पुरुष माने जाते हैं जिनके बीस से ज्यादा संकलन प्रकाशित हैं.सीरिया के एक किसान परिवार में 1930 में जन्मे अडुनिस बचपन से पढाई में होशियार थे और एक खुले मुकाबले में तत्कालीन सीरियाई राष्ट्रपति की एक कविता प्रभावशाली ढंग से सुनाने के पुरस्कार स्वरुप एक फ्रेंच स्कूल में दाखिला पा गए.कालेज की पढाई पूरी करते हुए राजनीतिक स्तर पर सक्रिय हुए जिसके कारण उन्हें अपना देश छोड़ना पड़ा और वे लेबनान जा कर बस गए.अपनी कविताओं में विश्व की आधुनिक काव्य धारा का समावेश करने और नए नए प्रयोग करने के कारण वे चर्चा में रहे पर अरबी साहित्य की मुख्य धारा में बहुत सहज स्वीकार्य नहीं रहे.उन्होंने लम्बे समय तक प्रयोगवादी प्रवृत्ति को केंद्र में रखने वाली अरबी की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका का संपादन किया.लेबनान यूनिवर्सिटी में साहित्य के प्रोफ़ेसर रहे लेकिन वहाँ के गृहयुद्ध से तंग आकर पेरिस चले गए और वहाँ की सोरबों यूनिवर्सिटी में अध्यापन किया.आम तौर पर अपनी कविता में सीधे सीधे राजनैतिक प्रतीकों से परहेज करने वाले इस विश्वप्रसिद्ध अरबी कवि को एडवर्ड सईद ने आज का सबसे ज्यादा साहसी और विचारोत्तेजक कवि माना था...हांलाकि सीरिया सहित समूचे अरब जगत की तानाशाही सत्ता का मुखर विरोध करने वाले कवि को साहित्य शास्त्र की किताबों में कविता को भ्रष्ट करने वाला तक बताया गया है.अडुनिस को कई सालों से साहित्य का नोबेल पुरस्कार का हकदार माना जा रहा है और उनका नाम संभावित सूची में होता है. वियतनाम युद्ध के समय उन्होंने अमेरिका का दौरा किया था और कुछ लम्बी कवितायेँ लिखी थीं..इनमें से एक कविता है न्यूयार्क का शवदाह जिसमें वे प्रसिद्ध अमेरिकी कवि वाल्ट व्हिटमैन की रूह से संवाद करते हैं और अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों का बहुत कड़े शब्दों में प्रतिकार करते हैं.इन्ही नीतियों के कारण अमेरिका को एक बड़े अग्निकांड का सामना करना पड़ता है...9 /11 की घटना के समय बार बार इस कविता का हवाला दिया गया और उन्हें पश्चिम विरोधी और अरबी उग्रवाद समर्थक बताने की कोशिश की गयी.हाल में अरब में उठी लोकतंत्र समर्थक आँधी को समर्थन देने के बहाने लीबिया में सैनिक हस्तक्षेप करने की अमेरिकी नीति का विश्व व्यापी विरोध हुआ और दुनिया ने ओबामा के अश्वेत चेहरे के पीछे छिपा हुआ बुश और निक्सन का असली चेहरा पहचान लिया. इस सन्दर्भ में अडुनिस की उस महत्वपूर्ण कविता के कुछ सम्पादित अंश साथी पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं।


न्यूयार्क का शवदाह


धरती को एक नाशपाती की निगाह से देखो
या देखो किसी स्त्री के वक्ष के रूप में॥
इस फल और मृत्यु के बीचों बीच ही पलता रहता है
इंजीनियरिंग का एक अनोखा करतब: न्यूयार्क...
इसको चाहो तो डूबे हुओं को कुछ दूरी पर ही
निर्विकार भाव से कराहते हुए टुकुर टुकुर ताकता हुआ
जिबह के लिए कदम बढ़ाने वाला चार टाँगों पर खड़ा
शहर कह सकते हो। *
**

न्यूयार्क दरअसल एक स्त्री है
जो इतिहास की मानें तो कस कर पकड़े हुए है
एक हाथ से आज़ादी नाम का फटा पुराना चीथड़ा
और साथ साथ उसका दूसरा हाथ व्यस्त है
धरती का गला घोंट कर ठिकाने लगाने में।
***

न्यूयार्क दुनिया के बटुए में एक सूराख है
जिस से उन्माद का आवारा झोंका
वेगवान प्रवाह की मानिंद बाहर निकल जाये।
***

स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी जैसी तमाम मूर्तियाँ जमींदोज हो जाने दो...
लाशों के अब उगने लगे हैं नाख़ून
जैसे उगा करते हैं मौसम आने पर फूल...
***

पूरब दिशा से वेगवती हवाएँ अपने पंख फैलाए आएँगी
और जड़ से उखाड़ फेंकेंगी तम्बू और ऊँची अट्टालिकाएं।
पिट्सबर्ग,बाल्टीमोर,कैम्ब्रिज एन आर्बोर, मेनहट्टन, यूनाइटेड़ नेशंस प्रिंसटन और फिलाडेल्फिया
सब जगह मुझे दिखाई दिए अरब के नक़्शे ही।
देखने में इसकी शक्ल किसी पैंतरेबाज शातिर घोड़ी से मिलती है
जो इतिहास को पीठ पर लादे गिरती पड़ती चली जा रही है...
और अब निकट ही है नरक का घुप्प अँधेरा और उसकी कब्र।
***

हार्लेम... तुम्हारे लोग पलक झपकते बिलकुल उसी तरह गुम हो जाया करते हैं
जैसे गुम हो जाता है मुँह में ब्रेड का निवाला
तुम्हें तो अब अंधड़ बन कर सब कुछ उलट पुलट करना ही होगा
दुर्बल पत्तियों की तरह फूँक मार कर सब को उड़ा दो।
***

जब आग लगी हो आपके पेट में
तो मेघगर्जन ही अंतिम उपाय बचता है।
जब आपको जकड़ दिया जाये जंजीरों से
तो आपके मन में ललक उठती है कि अब विध्वंस ही हो जाये।
ईश्वर और माओ ठीक ही तो कहते थे: युद्ध में फौजों की भूमिका बेहद अहम होती है
पर लड़ाइयाँ सिर्फ उनके बलबूते नहीं जीती जा सकतीं...
सबसे निर्णायक होते है आदमी
फौजें कतई नहीं।
आखिरी विजय या आखिरी पराजय की बात क्यों करते हो
इनमें से किसी का भी वास्तविक वजूद नहीं है।
***

खुद से ही एक अरब होने के नाते
ऐसे जुमले मैं वाल स्ट्रीट पर बार बार दुहराता रहता हूँ
जहाँ बल खाती हुई सोने की नदियाँ जाकर मिल जाती हैं
अपने उदगम से।
***

गर्द और कूड़े के ढेर से निर्मित
इम्पायर स्टेट
गंधा रहा है इतिहास की सड़ांध से ...
***

हम एक कालिख भरे उलटपुलट के दौर में जी रहे हैं
और हमारे फेफड़ों में प्रवाहित हो रही है
इतिहास की गहराईयों से निकल कर आती हुई प्राणवायु।
हम अपनी निगाहें उठाते हैं आकाश की ओर
पर ऑंखें फूटी हुई हैं
और खुद को कब्रों में घुसा कर ओझल हो जाना चाहते हैं
जिस से बच जाये और नाउम्मीदी और हताशा।
***

सुबह सुबह मैं चौंक के जगता हूँ, चीख पड़ता हूँ
निक्सन,आज तुमने कितने बच्चे हलाल किये?
***

पैगम्बर जैसे सवाल पूछने के लिए बड़ा जिगर चाहिए॥
क्या मैं यह भविष्यवाणी कर दूँ
कि अब आँखें नहीं माथा अंधा हुआ करेगा। ॥
कि अब जुबान नहीं बल्कि शब्द निष्प्राण और बाँझ हुआ करेंगे।
***

एक घड़ी घंटी बजा कर बताती है समय
दूसरी तरफ पूरब से आती है एक चिट्ठी
किसी बच्चे के रक्त से लिखी...
मैं इसको तब तक निगाहें गडा कर पढता रहता हूँ
जब तक बच्चे की गुडिया बन नहीं जाती गोला बारूद या रायफल ...
***

व्हीटमैन, अब हमारी बारी आने दो
हम दोनों अपनी समझ से निर्मित करें नयी सीढियाँ
एक साझा बिछौना बुनें अपने कदमों की मार्फ़त...
या हम सबकुछ धीरज धर कर देखते रहें?
आदमी एकदिन मर जाता है
पर बची रहती हैं उसकी धरोहर
अब हमारी बारी आने दो..
आओ हम बन जाते हैं आज कातिल..
और वक्त हमारे साझेपन के दरिया के ऊपर तैरता रहे:
न्यूयार्क से न्यूयार्क जोड़ दो
तो बन जाता है शवदाह
न्यूयार्क में से न्यूयार्क निकाल दो
तो उग आता है सूरज।
***

Saturday, April 2, 2011

अस्तित्व के अधिकार के लिए


कम लोगों को याद रहा कि कल केदार जी का जन्मदिन था...सौवां जन्मदिन...साहित्य के सत्ता वर्ग के लिए वह हमेशा से एक असुविधा रहे हैं और इसी लिए साहित्य के इन ठेकेदारों ने उन्हें अपने आयोजनों से हमेशा बहिष्कृत रखा है. इस साल जब जन्मशताब्दियों का बोलबाला रहा तो भी वह भुला ही दिए गए...लेकिन जिनके पक्ष में उन्होंने आवाज़ बुलंद की उनकी विस्मृति दुखद है...खैर यहाँ उनकी कुछ छोटी कवितायें उनके संकलन 'कहें केदार खरी-खरी' सेध्यान रखना होगा कि इनमें से अधिकांश का रचनाकाल आपातकाल का दौर रहा है



आग




कुछ है
इस जंगल में
सिवाय जंगल के
जो है आग है
सब के लिए
सिवाय सरकार के लिए
जो न बुझी
भभकी
फिर भभकी
प्रतिकार के लिए
अस्तित्व के अधिकार के लिए






न्याय-अन्याय


न्याय
मिले, न मिले
अन्याय तो
अवश्य मिलेगा
उलटफेर से, चलती अदालत में।


पैसा

सिर पर चढ़ा पैसा
सिद्ध और सर्वशक्तिमान है
जमीन पर गिरा आदमी
दीन हीन और परेशान है।


सच-झूठ

सच पर
लदे हैं
झूठ के पोथन्ने
न्याय की मुहिम
सच को नहीं उबारती
संत्रास से

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