Saturday, March 19, 2011

शामिल

चित्र गूगल से साभार

आजकल न मैं किसी उत्सव में शामिल हूँ
न किसी शोक में
न किसी रैली-जुलूस में
किसी सभा में नहीं
न किसी बाहरी ख़ुलूस में

मैं आग में शामिल हूँ आजकल
लाल-पीली-नीली हुई जाती लपटों में नहीं
भीतरी धुंए में
जलती हुई आँखें मलता मैं सूर्यास्त में शामिल हूँ
जिसके बारे में उम्मीद है
कि कल वह सूर्योदय होगा !
***

Saturday, March 12, 2011

कासिम हद्दाद बहरीन के विद्रोही जनकवि - चयन, अनुवाद और प्रस्तुति: यादवेन्द्र

तैयार हो जाओ,जो सामने दिख रहा है वो इतिहास है
63 वर्षीय कासिम हद्दाद बहरीन के विद्रोही जनकवि माने जाते हैं.स्कूल की औपचारिक शिक्षा भी पूरी ना कर पाने वाले हद्दाद आधुनिक अरबी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर माने जाते हैं.युवावस्था में आर्थिक तंगहाली के कारण उन्होंने निर्माण मजदूर का काम भी किया और राजशाही के देश में रहते हुए विरोधी राजनैतिक धारा का वरण किया.इसके लिए उन्हें सालों जेल की हवा भी खानी पड़ी.उनकी दर्जन भर से ज्यादा कविता और समालोचना पुस्तकें प्रकाशित हैं.उन्होंने देश में पहली बार लेखक संगठन बनाया और बरसों इसकी साहित्यिक पत्रिका के प्रधान संपादक रहे.थिएटर,फोटोग्राफी और पेंटिंग जैसे काला माध्यमों के साथ मिल कर हद्दाद ने अनेक प्रयोग किये.अंग्रेजी में अरबी साहित्य को सर्वसुलभ करने के लिए उन्होंने कुछ मित्रों के साथ मिलकर कुछ साल पहले www.jehat.com नामक वैबसाइट बनाया।


अरब देशों में हो रही वर्तमान सुगबुगाहट पर हद्दाद ने खुल कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है.यहाँ प्रस्तुत है हद्दाद की कुछ बेहद छोटी कवितायेँ जिन में अ-प्रकट तौर पर मुक्ति की छटपटाहट देखी जा सकती है।


1
ऐ बादशाह
हम तुम्हारे रेवड़ झुण्ड हैं
दुनिया को जिन्हें दिखा दिखा कर
सीना चौड़ा करता रहता है तू...
पर अब हमें गंध मारने लगी है
यह शोहरत.

2
मैं आजाद नहीं हूँ कि जी सकूँ अपनी मर्ज़ी से
मेरी आज़ादी है तो सिर्फ बस
मुखालफत के लिए।


3
मैं देख रहा हूँ कि हवा यहाँ
दिल्लगी कर रही है इश्तहारों के साथ
पर लोग घुटे जा रहे हैं
साँसों के बगैर।


4
विचार विमर्श के नाम पर वे मिलते हैं
अपने विचारों का करते हैं आदान प्रदान
जैसे कि एक दूसरे से अदला बदली कर रहे हों
अपने अपने मुखौटे.

5
ख़ामोशी...चुप्पी...
बेवकूफियों को पनाह देने वाला
इत्र से गमकता हुआ दालान.

6
मुझमें दफन हैं कई राज
मैं अपनी कविताओं में उन्हें पिरोता हूँ
और जुबान की बयार में धीरे से उड़ा देता हूँ
उन पर से परत उतारने के लिए...
इस काम के लिए किसी को आना होगा आगे.

7
कहते हैं कि भविष्य
उल्टा होता है अतीत के....
पर हमारा तो वर्तमान ही है
कि नाम नहीं लेता अंत का.

8
क्या फर्क होता है
बिना आँख के अंधे और
सब कुछ घट रहे को भी
न देखने वाले इंसान के बीच?

9
मेरी जंजीरें लेती हैं करवटें
तोड़ती हैं खालीपन का सन्नाटा
इस तरह मैं
उद्घोष करता हूँ आजादी का.

10
ख्वाब असलियत से बहुत दूर ही सही
तो भी बेहतर है
कदम कदम पर पालथी मारे बैठे हुए छलावों से.

11
खिड़की पर पड़ा हुआ पर्दा
उस चपरासी की मानिंद है
जो बादशाह से ज्यादा ताकतवर है.

12
पूरी रात मिल भी जाए
तो नाकाफी है
मेरे स्वप्नों के सैलाब के लिए.

13
वो बिलकुल निज़ाम की तरह है
दिनभर करती रहती है चेहरे पर रंग रोगन
और बतियाती है इसकी बाबत आईने से...
सुनती नहीं खुशफहमी में
अवाम की आवाज.

14
नंग धडंग मैं खड़ा हूँ बर्फीले अंधड़ में
निपट अकेला
वर्णमाला के पहले अक्षर की तरह अडिग
पर मैं कभी सिर नहीं झुकाता...
तमाम बुतों के खिलाफ करता हूँ
खुल के बगावत
पर मैं कभी सिर नहीं झुकाता....
एकबार लपलपाते अंगारों से निकलता हूँ बाहर
और प्रवेश कर जाता हूँ दूसरी आग के अंदर
पर मैं कभी सिर नहीं झुकाता...
***

Thursday, March 10, 2011

कविता समय- एक विमर्श की यादगार यात्रा



- प्रतिभा कटियार 
मिस्र, यमन, बहरीन की सुर्खियां घेरे हुए थीं. सड़कों पर लोगों का हुजूम. महापरिवर्तन का दौर. जनान्दोलन से बड़ी रूमानियत कोई नहीं होती. मैं उसी रूमानियत के असर में थी कि कविता समय से बुलावा आया. कविता समय. सचमुच जब समूचा विश्व जल रहा हो तो कविता का ही तो समय है. कविता समय में शामिल होने के लिए लखनऊ से निकलते समय मेरे मन में एक बात यह भी छुपी थी कि हो सकता है कि ग्वालियर शहर का एक कोना हिंदुस्तान का तहरीर चौक ही बन जाए. मैंने हमेशा महसूस किया है कि जब हम नेक इरादे से कोई काम करते हैं, तो रास्ते अपने आप बनते चले जाते हैं. शायद यही वजह रही होगी कि ग्वालियर की यह यात्रा यादगार खुशनुमा यात्राओं में से एक रही. 
ग्वालियर स्टेशन पर अशोक कुमार पाण्डेय सहित रविकांत, कुमार अनुपम, प्रांजल धर से मुलाकात हुई. ऊर्जा, गति और उत्साह का समन्वय ऐसा कि झटपट हम अपने कमरों में पहुंचे. रात भर के सफ़र की थकान को जब कमरे का सन्नाटा और एक कप गर्म चाय मिली तो सुकून मिला. ऐसे एकान्त बड़ी मुश्किल से मयस्सर होते हैं. उसी एकान्त में खुद से बात की तो जेहन में सवाल उठा कि हमारे देश में कब कोई जनान्दोलन खड़ा होगा? क्या हमारी कविताएं सचमुच ऐसा काम कर रही हैं कि किसी जनान्दोलन की बुनियाद पड़ सके. समय तो सचमुच विकट है. चुंधियाती चमक की नींव के गहरे अंधेरे चीखते हैं. असल हालात जीडीपी ग्रोथ की झूठी चमक के पीछे छुपाये ही तो जा रहे हैं. ऐसा समय कविता का ही तो समय है. ऐसे ही हालात में तो कविताएं उपजती हैं. अन्याय, शोषण, कुंठा, अवसाद के अंधेरे को चीरती ताकतवर कविताएं, जिन्हें पढ़ते हुए महसूस हो कि यह आज के दौर में रोटी से ज्यादा जरूरी हैं. 
खुद से सवाल जवाब का यह दौर आगे बढ़ता, तब तक हमारी बस आ चुकी थी. वो बस जिसमें बैठकर हमें कविता के संकटों का सामना करने जाना था. बस में पहले से कवियों का जमावड़ा था. मजे की बात है कि हम सब एक-दूसरे से खूब वाकिफ थे और उतने ही नावाकिफ भी. चेहरे अनजाने, लेकिन नाम बेहद आत्मीय. जब चेहरे पर नाम की पर्ची चिपकी दिखती तो लोग आपस में लपक कर मिलते. ऐसी आत्मीयताएं सहज ही देखने को नहीं मिलतीं.
ग्वालियर एक सुंदर शहर है. सुना था. अब देख भी रही थी. बस की भी एक लय थी. अंदर कवियों की गाढ़ी आत्मीयता का मौसम था और बाहर बसंत शहर को मोहक बना रहा था. तकरीबन 20 मिनट का सफर तय करने के बाद हम आई टी एम यूनिवर्स के कैम्पस में थे. सुंदर कैम्पस. चारों ओर हरियाली, खूबसूरत स्कल्पचर, स्टूडेंट्स का जमावड़ा और तरतीब से सजाया गया कैम्पस. हालांकि कार्यक्रम में थोड़ा सा विलंब हो चुका था लेकिन अशोक पाण्डे, बोधिसत्व, गिरिराज किराडू के शांत और संतुलित व्यवहार ने सब संभाल रखा था. एक सुंदर सा कॉन्फ्रेंस हॉल हमारे इंतजार में था. सुनने वालों में कुछ स्थानीय लोग और छात्र भी थे. कॉन्फ्रेंस हॉल में पहले से मौजूद कवियों से संक्षिप्त औपचारिक मेल-मुलाकात हुई. और कार्यक्रम की अनौपचारिक शुरुआत हुई. अशोक वाजपेयी, नरेश सक्सेना और मदन कश्यप, आशुतोष मुख्य वक्ता थे. हम सब उन्हें सुनने के लिए थे. गंभीर मुद्दे पर गंभीर बात होनी थी. जिसकी बुनियाद पड़ी बोधिसत्व जी के आरोप पत्र से. आज की कविता पर लगने वाले आरोपों की फेहरिस्त उन्होंने पढ़कर सुनाई. जाहिर है दो दिन तक कविता समय को उन्हीं आरोपों से जूझना, उबरना था. यूं आधार वक्तव्य देना था आशुतोष जी को लेकिन उन्हें आने में होने वाली देरी के चलते यह जिम्मेदारी मदन कश्यप जी को दी गई. मदन कश्यप जी ने बहुत मजबूत ढंग से कविता के यूटोपिया को रेखांकित किया. उन्होंने अपने वक्तव्य में किसान, आदिवासी, जगंल, नौजवानों की रोजगार की समस्याओं की चर्चा करते हुए कहा कि कविता समानता आधारित समाज की संरचना करती है. उसे ऐसा करना चाहिए. इस बीच आशुतोष जी आ चुके थे. और उन्होंने अपने हिस्से का मोर्चा संभाल लिया था. आशुतोष जी ने अपने वक्तव्य में पाठक का पक्ष लिया, कि पाठक अच्छी कविता पढऩा चाहता है लेकिन उसे कविता खुद से दूर खड़ी नजर आती है. हालांकि सवाल यह भी उठा कि कविताओं के सामने पाठकों का यह संकट, चंद संपादकों, प्रकाशकों का खड़ा किया हुआ है. 
नरेश सक्सेना जी ने कविता की मजबूत उपस्थिति के लिए पलायन से बचने को कहा. उन्होंने कहा कि
अच्छी कविता के साथ हमें आगे आना चाहिए न कि मंच छोड़ देना चाहिए. उन्होंने ध्वनि को कविता का अंश बताया कि किस भाषा में हम संवाद कर रहे हैं, किससे कर रहे हैं यह देखना बहुत जरूरी है. हमारी कविता उस संप्रेषणीयता को अपना रही है या नहीं यह देखना, समझना जरूरी है. पाठक और कविता के बीच की दूरी को मिटाने के लिए यह बेहद जरूरी है कि हमारी बात सही ढंग से कम्युनिकेट हो. अशोक वाजपेयी जी का वक्तव्य सुनने की व्यग्रता सभी में थी. उन्होंने कवि और कविता की प्रतिबद्धता को घेरे में लिया. उन्होंने प्रगतिवादियों की चुटकी लेते हुए कलावाद के पक्ष में माहौल तैयार किया. उन्होंने कहा की कविता करना असल में अंतकरण की चौकसी करना है. यह देखना भी ज़रूरी है की कविता परिवर्तन का हथियार बन रही है या नहीं. 
कई सवाल उनके सम्मुख आने को आतुर थे लेकिन घड़ी के कांटे तेजी से भाग रहे थे और पेट में चूहों की पूरी फौज दौड़ लगा रही थी. तो फिलहाल कविता के संकट को समेटा गया और खाने का संकट हल किया गया. यह सचमुच एक बेहतरीन आयोजन था. क्योंकि खाना कमाल का था. खाने का समय हमेशा आत्मीयताओं के लिए अनुकूल समय होता है. कवियों के मेल-मिलाप का समय. हाथ में थालियां, मुंह में स्वादिष्ट गस्से और सामने अपने प्रिय कवियों का तार्रुफ.एक बात इस पूरे आयोजन की एक खासियत रही वो यह कि माहौल इतना अनौपचारिक और सहज था कि लग ही  नहीं रहा था कि हम देश के कोने-कोने से आये लोग हैं और ज्यादातर पहली बार मिल रहे हैं. अपना परिचय देते ही सुनने को मिलता था, हां, आपको देखा है. पढ़ा भी है. जमशेदपुर से सिर्फ़ इस कार्यक्रम को देखने-सुनने आई अर्पिता चिहुंककर बोल पड़ी, अच्छा लगता है न जब कोई अनजाना कहे कि हम आपको जानते हैं, आपकी कविताओं से. हां, अच्छा तो लगता है, मैं मुस्कुरा दी. सब एक-दूसरे को जान-समझ रहे थे.
कैम्पस का मौसम इतना खुशगवार था कि पैदल ही इधर से उधर टहलने में आनन्द आ रहा था. मानो पूरा मौसम और माहौल कविता की अगवानी में तैयार किया गया हो. अगला सत्र था अलंकरण और विमोचन का. मंच पर अशोक वाजपेयी, नरेश सक्सेना, मदन कश्यप थे. कविता समय सम्मान 2011 चंद्रकांत देवताले जी को दिया गया. चूंकि अस्वस्थ होने के कारण वे नहीं आ सके थे इसलिए उनकी ओर से सम्मान प्रेमचंद गांधी ने लिया और उनके द्वारा भेजा गया संदेश भी पढ़ा. नामवर जी का विडिओ संदेश दिखाया गया जिसमें उन्होंने कवियों को दूसरी विधाओं में भी लिखने का आग्रह किया. कविता समय युवा सम्मान-2011 कुमार अनुपम को दिया गया. इसके बाद कविता पाठ का सिलसिला शुरू हुआ. बेहद अनौपचारिक माहौल में चल रहे इस कार्यक्रम में सारे नियम, कायदे कोने में सहमे पड़े थे. वरिष्ठता और कनिष्ठता की दीवार अशोक पाण्डे ने गिरा ही दी थी. बीच-बीच में कवियों का सम्मान भी होता जा रहा था. कविताएं पढ़ी जा रही थीं. मानो कोई पारिवारिक उत्सव हो, जहां कविता जमकर बैठ गई हो. अशोक वाजपेयी जी ने अपनी कविताएं पढ़ी, मदन कश्यप, ज्योति चावला, पंकज चतुर्वेदी, प्रियदर्शन मालवीय, केशव तिवारी, कुमार अनुपम, सुमन केशरी, अरुण शीतांश निरंजन क्षोत्रिय, प्रांजल धर, विशाल श्रीवास्तव सहित तमाम लोगों ने कविताएं पढ़ीं. अरे हां, मैंने भी अपनी दो कविताएं पढ़ीं. लेकिन अंत में नरेश जी ने शाम अपने नाम कर ली. उनकी कविताओं का स्वाद सबकी जबान पर चढ़ा हुआ था. लोगों ने उनसे खूब कविताएं सुनीं. 
पहले दिन कविता का संकट तो बहुत हल नहीं हुआ लेकिन हां उसकी मजबूत बुनियाद जरूर पड़ी. इसी बुनियाद पर अगले दिन के विमर्श को खड़ा होना था. कवियों को बस में बैठकर डिनर के लिए शहर को वापस जाना था. एक पूरी बस कवियों से भरी हुई. बोधिसत्व जी ने मजाक में ही कह दिया कि अगर यह बस गायब हो जाये तो हिंदी कविता से कितना बड़ा संकट हल हो जायेगा...इतना कहकर वे खुद बस से उतर गये...बस ठहाकों से गूंज उठी. एक सार्थक दिन बीत चुका था. बतकही, हाल-हवाल, खींच-तान का माहौल बचा था. जिसकी कसर पूरी हुई डिनर हॉल में. खाने के बाद आइसक्रीम का दौर, फोटू खिंचवाने की कवायद और मेल-मिलाप...इस तरह कविता समय का पहला दिन सार्थक दिन बनकर विदा हुआ...


मुझे अगले दिन निकलना था इसलिए अगले दिन का अनुभव अगली कड़ी में साझा करने की जिम्मेदारी सिद्धेश्वर जी की...


जारी....

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