धराशायी होने तक का इन्तजार

मैं जोर जोर से चिल्ला रही हूँ
पर कोई नहीं है जो सुने मेरी बात
मैं नाच रही हूँ निर्वस्त्र होकर
पर कोई नहीं है जो थिरके मेरे साथ
मैं अपने आत्मसम्मान के लिए लेती हूँ संकल्प
और खड़ी हो जाती हूँ और ऊँची चढ़ कर
पहले जिस चोटी पर थी..उस से भी ऊपर
कोई नहीं सुनता मेरी पुकार
जब तक कि मैं धराशायी नहीं हो जाती.
मेरी गहराई महासागरों से भी ज्यादा है
पर कोई नहीं है जो समझे इनका मर्म
मैं ऊँची चट्टान से फिसल कर नीचे आती हूँ
मुट्ठी में रास्ते में पड़ने वाले मकोड़ों को भींचे
जिससे लोगों को बता सकूँ
कि थोड़ी देर पहले तक मैं कहाँ थी.
अपना अहं झगझोड़ कर परे फेंकती हुई
आगे ही आगे भागने लगती हूँ
पर कोई भी नजरें उठा कर नहीं देखता मेरी उड़ान
जब तक कि मैं धराशायी नहीं हो जाती.
मैं गला फाड़ फाड़ कर लोगों को गुहार लगाती हूँ
मैं गाती हूँ
मैं आगे कदम बढ़ाती हूँ
मैं बतियाती हूँ
मैं लिखती हूँ
मैं चीख पड़ती हूँ..
पर कोई भी नहीं सुनता मेरा आर्तनाद
जब तक कि मैं धराशायी नहीं हो जाती.
दमित
एकाकी
थिरकती इतनी व्यस्त दुनिया में
कि फुर्सत नहीं किसी को जो सुने मेरी पुकार
खुद ही खुश होती हुई पहाड़ चढ़ जाने पर...
और खुश होऊं भी क्यों न???
क्या तुम देखोगे क्या क्या लिखा मैंने ?
क्या तुम देखोगे कैसे भरा मेरा घाव?
क्या तुम सचमुच ठूँस लोगे अपने कान में रुई?
यदि सब के सब जन एक साथ ही चढ़ने लगें पहाड़
या बैठ जाएँ इसकी चोटी पर एकत्रित होकर
कैसे सुन पायेंगे एक दूसरे की पुकार?
किसी के थक हार के गिर जाने तक
आखिर क्यों किया जाए इन्तजार?
***
कनाडा में बसे मूल इंडियन समुदाय में बेहद लोकप्रिय बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी हलिजो वेबस्टर स्त्री और जातीय स्वाभिमान विषयक कवितायेँ लिखने के साथ साथ इनको मंच पर प्रस्तुत करती हैं.
पर कोई नहीं है जो सुने मेरी बात
मैं नाच रही हूँ निर्वस्त्र होकर
पर कोई नहीं है जो थिरके मेरे साथ
मैं अपने आत्मसम्मान के लिए लेती हूँ संकल्प
और खड़ी हो जाती हूँ और ऊँची चढ़ कर
पहले जिस चोटी पर थी..उस से भी ऊपर
कोई नहीं सुनता मेरी पुकार
जब तक कि मैं धराशायी नहीं हो जाती.
मेरी गहराई महासागरों से भी ज्यादा है
पर कोई नहीं है जो समझे इनका मर्म
मैं ऊँची चट्टान से फिसल कर नीचे आती हूँ
मुट्ठी में रास्ते में पड़ने वाले मकोड़ों को भींचे
जिससे लोगों को बता सकूँ
कि थोड़ी देर पहले तक मैं कहाँ थी.
अपना अहं झगझोड़ कर परे फेंकती हुई
आगे ही आगे भागने लगती हूँ
पर कोई भी नजरें उठा कर नहीं देखता मेरी उड़ान
जब तक कि मैं धराशायी नहीं हो जाती.
मैं गला फाड़ फाड़ कर लोगों को गुहार लगाती हूँ
मैं गाती हूँ
मैं आगे कदम बढ़ाती हूँ
मैं बतियाती हूँ
मैं लिखती हूँ
मैं चीख पड़ती हूँ..
पर कोई भी नहीं सुनता मेरा आर्तनाद
जब तक कि मैं धराशायी नहीं हो जाती.
दमित
एकाकी
थिरकती इतनी व्यस्त दुनिया में
कि फुर्सत नहीं किसी को जो सुने मेरी पुकार
खुद ही खुश होती हुई पहाड़ चढ़ जाने पर...
और खुश होऊं भी क्यों न???
क्या तुम देखोगे क्या क्या लिखा मैंने ?
क्या तुम देखोगे कैसे भरा मेरा घाव?
क्या तुम सचमुच ठूँस लोगे अपने कान में रुई?
यदि सब के सब जन एक साथ ही चढ़ने लगें पहाड़
या बैठ जाएँ इसकी चोटी पर एकत्रित होकर
कैसे सुन पायेंगे एक दूसरे की पुकार?
किसी के थक हार के गिर जाने तक
आखिर क्यों किया जाए इन्तजार?
***
कनाडा में बसे मूल इंडियन समुदाय में बेहद लोकप्रिय बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी हलिजो वेबस्टर स्त्री और जातीय स्वाभिमान विषयक कवितायेँ लिखने के साथ साथ इनको मंच पर प्रस्तुत करती हैं.
मजबूरियाँ कैसी कैसी...
ReplyDeleteकोई नहीं, कोई नहीं है कोई नहीं है...जो...
बढ़िया...
nishchit hi is kavita ka manchan sambhaw hai, badhai anuwad aur prastuti ke liye.
ReplyDeleteबेहतरीन कविता. मन को छू गयी. यादवेन्द्र जी बहुत शुक्रिया!
ReplyDeleteनमस्कार !
ReplyDeleteसम्मानीय हेलिजो वेबस्टर की कविता हम तक रखने के लिए श्रे यद्वेद्र जी और शिरीष जी का आभार , रचना बहुत कुछ कहती है , जब की अपने अंतिम पद में तो सारे सवाल सामने रखदेती है , अपने आक्रोश को लिए . इंसान कितना एकांकी हो जाता है जब खाव्हिशे पूरी ना हो , सच में कुछ पंक्तिया तो बहुत गहरी है , कवि महोदाया को साधुवाद !
आभार !
wakayee gahri kavita....
ReplyDelete