Friday, February 11, 2011

सभ्यता के उजाड़ कोनो में कवितायें बेआवाज़ पड़ी रहती हैं - बसंत त्रिपाठी की दो कविताएं

बेआवाज़

पत्तियों के झरने की आवाज़ की आवाज़ होती है
हवा धीमी आवाज़ के साथ बहती है
चूजे अण्डों से निकलकर मचाते हैं शोर
फूलों के खिलने की आवाज़
दिलों में सुनी जाती है
चींटियों की आवाज़ का पता नहीं
शायद गंध ही हो उनकी आवाज़
और तो और
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भी
बाजे गाजे के साथ
जन स्वप्न की लाश पर पांव रखते हुए
काबिज़ होता है सत्ता पर
दुनिया में कुछ भी बेआवाज़ नहीं
बस किसान मरते हैं बेआवाज़
और सभ्यता के उजाड़ कोनो में कवितायें
बेआवाज़ पड़ी रहती हैं.
***
बादल के भीतर

बादलों से लिपटे हुए पहाड़
रुई के ढेर की तरह लगते हैं
उड़ते हुए और भारहीन
और बादल के भीतर चलना
टिप-टिप बारिश में
देर तक भीगना
बस एक धुआं-धुआं सा होता है
दृश्य आंखों से नदारद और मन
भीगता चला जाए है चुपचाप
पंछी भीगे पंख लिए
छुप गए हैं
मैं सपाट मैदानों का वासी
भीगे पंख लिए
बादलों के भीतर उड़ रहा हूं
बादल दृश्य को मुलायम बना देते हैं.
***

7 comments:

  1. beavaj ki avaj gahri aur gambhir hai.badlon ke bhitar jaane ko dil kar gaya.

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  2. nasmaakar !
    DOMO ACHCHI KAVITAE HAI . PADH KAR ACHCHA LAGA .
    SADHUWAD .

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  3. Lovely poems !
    Very impressive !

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  4. अरे, यह तो वाकई विदर्भ के बसंत की आवाज है।

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  5. छू लिया.. आवाज़ ने भी, अंदाज़ ने भी।

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  6. बहुत अच्छी कवितायें हैं दोनो । बसंत को बधाई ।

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  7. beaawaz ek gahri goonj paida karti hai. main to pahli kavita par hi ruk-tham gaya. kavi tak mera salaam pahunchana shirish.

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