Saturday, February 5, 2011

अहमद फ़ोयेद नेगम की कविता - अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र

1929 में एक पुलिसकर्मी के घर में जन्मे अहमद फोएद नेगम मिस्र के अत्यंत लोकप्रिय विद्रोही जनकवि हैं जिनके जीवन का बड़ा हिस्सा एक के बाद दूसरे मिस्री राष्ट्रपतियों की जनविरोधी नीतियों की मुखालफत करते हुए सरकारी यातना झेलते हुए बिताये-- 2006 में प्रकाशित एक लेख में बताया गया है की उन्होंने 76 में से 18 वर्ष मिस्र की जेलों में गुजारे.गाँव के धार्मिक स्कूल में थोड़ा बहुत पढ़े नेगम औपचारिक शिक्षा से वंचित रहे औए अनाथालय से भाग कर कभी भेड़ों को चराने का काम किया तो कभी मजदूरी करने का.वामपंथी विचारधारा से गहरे रूप में प्रभावित नेगम की कविताओं पर लोर्का,गोर्की और नाजिम हिकमत का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है.किसी ने सही ही लिखा है कि यदि इंटरनेशनल आह्वान गीत अरबी भाषा में लिखा जाता तो नेगम को ही इसका काम सौंपा जाता. अपनी युवावस्था से ही उन्होंने मिस्र के लोकप्रिय लोकगायकों का रचनात्मक साथ मिला--दृष्टिहीन लोकगायक शेख इमाम के साथ उनका साथ इमाम के जीवन के अंत तक रहा. काहिरा के एक भीड़ भरे इलाके में अपना जीवन बीता देने वाले कवि को मिस्र में इस समय तानाशाही विरोधी जन आन्दोलन के दौरान प्रमुखता से याद किया गया और यहाँ प्रस्तुत कविता आन्दोलनकारियों के बीच जोर जोर से गायी जाने वाली उनकी सबसे लोकप्रिय कविता है.

 

मैं अवाम हूँ

मैं अवाम हूँ..आगे कदम बढ़ाता हुआ..और मंजिल मालूम है मुझे
संघर्ष मेरा हथियार और पक्का इरादा मेरा दोस्त है
अँधेरे के खिलाफ लड़ता हूँ
मेरी उम्मीद की तेज ऑंखें देख लेती हैं
कहाँ दुबका बैठा हुआ है सुबह का उजाला
मैं अवाम हूँ...आगे कदम बढ़ाता हुआ..और मंजिल मालूम है मुझे.

मैं अवाम हूँ...मेरे हाथों से रोशन होगी जिंदगी
रेगिस्तान में लौटेगी हरियाली..नेस्तनाबूद होगा आततायी
सत्य के परचम लहराती हुई बंदूकों से...
हमारा इतिहास बनेगा प्रकाशस्तम्भ और साथ लड़नेवाला कामरेड
मैं अवाम हूँ...आगे कदम बढ़ाता हुआ..और मंजिल मालूम है मुझे.

कितनी भी बना लें जेलें..क्या फरक पड़ता है
कितने भी दौड़ा दें कुत्ते..क्या फरक पड़ता है
निकलेगा मेरा ही सूरज और मेरी ज्वाला से जल ही जाना है
राह में आने वाला कुत्तों और जेलों का सैलाब.

मैं अवाम हूँ और सूरज मेरी आस्तीन में पिरोया हुआ एक गुलाब है
दिन का ताप मेरी रगों में उफान ले रहा है
घोड़ों के काफिले की मानिंद
मेरी बच्चे कुचल डालेंगे रास्ते में आने वाले
किसी भी तानाशाह को.
मैं अवाम हूँ...आगे बढ़ता हुआ...और मंजिल मालूम है मुझे.
***

3 comments:

  1. अद्भुत कविता.
    बेहद शुक्रिया आप दोनों का, जो इतनी मौजूं और धारदार कविता पढने को मिली.

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  2. मैं आवाम हूं और सूरज मेरी आस्तीन में पिरोया हुआ एक गुलाब है...कविता बनाम तेरी-मेरी-उसकी बात...वरना आज के हालात तो ऐसे हैं...
    आपने मंच से, उस मंच की तारीफ़ कर दी
    भीड़ ख़ामोश है, किस आदमीं का साथ दिया

    ReplyDelete
  3. यादवेन्द्र जी नमस्कार !
    नेहम साब का हम से परिचय करवाने के लिए शुक्रिया , '' मैं आवाम हूँ '' एक क्रांति को ललकारती कविता है !
    सादर !

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