Monday, February 28, 2011

कुमार अनुपम की कविताएं


मैं एक शब्द लिखता हूं


मैं एक शब्द लिखता हूं ऐन उसके पहले
वे तय कर देते हैं उसका अर्थ
कई बात तो मेरे सोचने से भी पूर्व

वे खींच देते हैं दो पंक्तियां
और कहते हैं
उतार लो इनमें आज का पाठ
सुलेख लिखो सुंदर और कोमल लिखो अपने दुख
हमारे संताप रिसते हैं निब के चीरे से
कागज की छाती पर कलंकित

अचानक प्रतिपक्ष तय करती एक स्वाभाविक दुर्घटना घटती है
कि स्याही उंगलियों का पाते ही साथ

सर जाती है
मां का आंसू अटक जाता है
पिता की हिचकियां बढ़ जाती हैं
बहनें सहमकर घूंट लेती हैं विलाप
भाई एक धांय ये पहले ही होने लगते हैं मूच्र्छित

आशंकाओं के आपातकाल में
निरी भावुकता ठहराने की जुगत में जुट जाते हैं सभी

कि माफ करें बख्शें हुजूर क्षमा करें गलती हुई
पर वे ताने रहते हैं कमान सी त्यौरियां

फिलहाल मेरे हाल पर फैसला
एक सटोरिया मेरे हाल पर फैसला
एक सटोरिया संघसेवक पर मुल्तवी करता है

जबकि उस जाति में पैदाइश से अधिक नहीं मेरा अपराध
जिस बिरादरी का सर बना फिरता है वह

मसलन,
यह नागरिकता के सामान्यीकरण का दौर है
यह स्वतंत्रता के सामान्यीकरण का दौर है
यह अभिव्यक्ति के सामान्यीकरण का दौर है.

यह ऐसा दौर है जब
जीवन का अर्थ कारसेवा घोषित किया जा रहा है

मैं एक शब्द लिखता हूं
और जिंदा रहने की नागरिक कवायद में
जीता हूं मृत्यु का पश्चाताप संगसार होता हूं बार-बार
और मैं एक और शब्द लिखता हूं...

समुद्री मछुवारों का गीत

हमारी रोटी है समुद्र
हमारी पोथी है समुद्र

हमारे तन में जो मछलियां

समुद्र की हैं
हमारे जीवन में जो रंग विविध
समुद्र के हैं

धैर्य और नमक है
हमारे रक्त का रास्ता

हवा ओ हवा
कृतज्ञ हैं
विपरीत हो तब भी

आकाश ओ आकाश
कृतज्ञ हैं
छेड़े हो असहयोग तब भी

पानी ओ पानी
कृतज्ञ हैं
छलक रहे हो ज्यादा फिर भी

हवा का सब रंग देखा है
आकाश का देखा है रंग सब
पानी का सब रंग देखा है

मरी हुई मछली है हमारा सुख

सह लेंगे
मौसम का द्रोह

एक मोह का किनारा है हमारा
सजगता का सहारा है
रह लेंगे लहरों पर
हम अपनी सांसों के दम पर जियेंगे

जैसे जीते हैं सब

अपने भीतर के समुद्र का भरोसा है प्रबल.

Monday, February 21, 2011

कनाडा की नेटिव कविता- हलिजो वेबस्टर: अनुवाद एवं प्रस्तुति -यादवेन्द्र

धराशायी होने तक का इन्तजार


मैं जोर जोर से चिल्ला रही हूँ
पर कोई नहीं है जो सुने मेरी बात
मैं नाच रही हूँ निर्वस्त्र होकर
पर कोई नहीं है जो थिरके मेरे साथ
मैं अपने आत्मसम्मान के लिए लेती हूँ संकल्प
और खड़ी हो जाती हूँ और ऊँची चढ़ कर
पहले जिस चोटी पर थी..उस से भी ऊपर
कोई नहीं सुनता मेरी पुकार
जब तक कि मैं धराशायी नहीं हो जाती.

मेरी गहराई महासागरों से भी ज्यादा है
पर कोई नहीं है जो समझे इनका मर्म
मैं ऊँची चट्टान से फिसल कर नीचे आती हूँ
मुट्ठी में रास्ते में पड़ने वाले मकोड़ों को भींचे
जिससे लोगों को बता सकूँ
कि थोड़ी देर पहले तक मैं कहाँ थी.
अपना अहं झगझोड़ कर परे फेंकती हुई
आगे ही आगे भागने लगती हूँ
पर कोई भी नजरें उठा कर नहीं देखता मेरी उड़ान
जब तक कि मैं धराशायी नहीं हो जाती.

मैं गला फाड़ फाड़ कर लोगों को गुहार लगाती हूँ
मैं गाती हूँ
मैं आगे कदम बढ़ाती हूँ
मैं बतियाती हूँ
मैं लिखती हूँ
मैं चीख पड़ती हूँ..
पर कोई भी नहीं सुनता मेरा आर्तनाद
जब तक कि मैं धराशायी नहीं हो जाती.

दमित
एकाकी
थिरकती इतनी व्यस्त दुनिया में
कि फुर्सत नहीं किसी को जो सुने मेरी पुकार
खुद ही खुश होती हुई पहाड़ चढ़ जाने पर...
और खुश होऊं भी क्यों न???

क्या तुम देखोगे क्या क्या लिखा मैंने ?
क्या तुम देखोगे कैसे भरा मेरा घाव?
क्या तुम सचमुच ठूँस लोगे अपने कान में रुई?
यदि सब के सब जन एक साथ ही चढ़ने लगें पहाड़
या बैठ जाएँ इसकी चोटी पर एकत्रित होकर
कैसे सुन पायेंगे एक दूसरे की पुकार?
किसी के थक हार के गिर जाने तक
आखिर क्यों किया जाए इन्तजार?
***
कनाडा में बसे मूल इंडियन समुदाय में बेहद लोकप्रिय बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी हलिजो वेबस्टर स्त्री और जातीय स्वाभिमान विषयक कवितायेँ लिखने के साथ साथ इनको मंच पर प्रस्तुत करती हैं.

Friday, February 11, 2011

सभ्यता के उजाड़ कोनो में कवितायें बेआवाज़ पड़ी रहती हैं - बसंत त्रिपाठी की दो कविताएं

बेआवाज़

पत्तियों के झरने की आवाज़ की आवाज़ होती है
हवा धीमी आवाज़ के साथ बहती है
चूजे अण्डों से निकलकर मचाते हैं शोर
फूलों के खिलने की आवाज़
दिलों में सुनी जाती है
चींटियों की आवाज़ का पता नहीं
शायद गंध ही हो उनकी आवाज़
और तो और
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भी
बाजे गाजे के साथ
जन स्वप्न की लाश पर पांव रखते हुए
काबिज़ होता है सत्ता पर
दुनिया में कुछ भी बेआवाज़ नहीं
बस किसान मरते हैं बेआवाज़
और सभ्यता के उजाड़ कोनो में कवितायें
बेआवाज़ पड़ी रहती हैं.
***
बादल के भीतर

बादलों से लिपटे हुए पहाड़
रुई के ढेर की तरह लगते हैं
उड़ते हुए और भारहीन
और बादल के भीतर चलना
टिप-टिप बारिश में
देर तक भीगना
बस एक धुआं-धुआं सा होता है
दृश्य आंखों से नदारद और मन
भीगता चला जाए है चुपचाप
पंछी भीगे पंख लिए
छुप गए हैं
मैं सपाट मैदानों का वासी
भीगे पंख लिए
बादलों के भीतर उड़ रहा हूं
बादल दृश्य को मुलायम बना देते हैं.
***

Saturday, February 5, 2011

अहमद फ़ोयेद नेगम की कविता - अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र

1929 में एक पुलिसकर्मी के घर में जन्मे अहमद फोएद नेगम मिस्र के अत्यंत लोकप्रिय विद्रोही जनकवि हैं जिनके जीवन का बड़ा हिस्सा एक के बाद दूसरे मिस्री राष्ट्रपतियों की जनविरोधी नीतियों की मुखालफत करते हुए सरकारी यातना झेलते हुए बिताये-- 2006 में प्रकाशित एक लेख में बताया गया है की उन्होंने 76 में से 18 वर्ष मिस्र की जेलों में गुजारे.गाँव के धार्मिक स्कूल में थोड़ा बहुत पढ़े नेगम औपचारिक शिक्षा से वंचित रहे औए अनाथालय से भाग कर कभी भेड़ों को चराने का काम किया तो कभी मजदूरी करने का.वामपंथी विचारधारा से गहरे रूप में प्रभावित नेगम की कविताओं पर लोर्का,गोर्की और नाजिम हिकमत का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है.किसी ने सही ही लिखा है कि यदि इंटरनेशनल आह्वान गीत अरबी भाषा में लिखा जाता तो नेगम को ही इसका काम सौंपा जाता. अपनी युवावस्था से ही उन्होंने मिस्र के लोकप्रिय लोकगायकों का रचनात्मक साथ मिला--दृष्टिहीन लोकगायक शेख इमाम के साथ उनका साथ इमाम के जीवन के अंत तक रहा. काहिरा के एक भीड़ भरे इलाके में अपना जीवन बीता देने वाले कवि को मिस्र में इस समय तानाशाही विरोधी जन आन्दोलन के दौरान प्रमुखता से याद किया गया और यहाँ प्रस्तुत कविता आन्दोलनकारियों के बीच जोर जोर से गायी जाने वाली उनकी सबसे लोकप्रिय कविता है.

 

मैं अवाम हूँ

मैं अवाम हूँ..आगे कदम बढ़ाता हुआ..और मंजिल मालूम है मुझे
संघर्ष मेरा हथियार और पक्का इरादा मेरा दोस्त है
अँधेरे के खिलाफ लड़ता हूँ
मेरी उम्मीद की तेज ऑंखें देख लेती हैं
कहाँ दुबका बैठा हुआ है सुबह का उजाला
मैं अवाम हूँ...आगे कदम बढ़ाता हुआ..और मंजिल मालूम है मुझे.

मैं अवाम हूँ...मेरे हाथों से रोशन होगी जिंदगी
रेगिस्तान में लौटेगी हरियाली..नेस्तनाबूद होगा आततायी
सत्य के परचम लहराती हुई बंदूकों से...
हमारा इतिहास बनेगा प्रकाशस्तम्भ और साथ लड़नेवाला कामरेड
मैं अवाम हूँ...आगे कदम बढ़ाता हुआ..और मंजिल मालूम है मुझे.

कितनी भी बना लें जेलें..क्या फरक पड़ता है
कितने भी दौड़ा दें कुत्ते..क्या फरक पड़ता है
निकलेगा मेरा ही सूरज और मेरी ज्वाला से जल ही जाना है
राह में आने वाला कुत्तों और जेलों का सैलाब.

मैं अवाम हूँ और सूरज मेरी आस्तीन में पिरोया हुआ एक गुलाब है
दिन का ताप मेरी रगों में उफान ले रहा है
घोड़ों के काफिले की मानिंद
मेरी बच्चे कुचल डालेंगे रास्ते में आने वाले
किसी भी तानाशाह को.
मैं अवाम हूँ...आगे बढ़ता हुआ...और मंजिल मालूम है मुझे.
***

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