Thursday, January 27, 2011

विनायक सेन के लिए दो गीत - नरेन्द्र कुमार मौर्य

छब्बीस जनवरी के सरकारी उत्साह और उल्लास के बाद आज वक़्त है कि अपने जान से प्यारे देश और उसे प्यार करने वालों के बारे में उतने ही प्यार से कुछ सोचा जाए। यहाँ प्रस्तुत हैं विनायक सेन के लिए नरेन्द्र कुमार मौर्य के दो गीत, जो उनके ब्लॉग सुमरनी से साभार लिए गए हैं। विनायक पर उनका लेख इसी ब्लॉग पर पढ़ा जा सकता है। नरेन्द्र जी राष्ट्रीय सहारा में काम करते हैं। छात्र जीवन से ही जनांदोलनों में सक्रिय रहे हैं...पिपरिया के रहने वाले हैं...मेरे चाचा हैं....कविता और उसके सरोकारों के लिए मेरे भीतर ललक जगाने वाले लोगों में एक....उनके कई गीत मध्य प्रदेश के आदिवासी आन्दोलनों में लोकप्रिय रहे हैं...आगे उनमें से कुछ अनुनाद पर लगाऊंगा।


बोल विनायक बोल
बोल विनायक बोल
क्यों गरीब का लोकतंत्र में अब तक पत्ता गोल
बोल विनायक बोल
बोल कि क्या है सलवा जुडुम, कैसी उसकी मार
बोल कि कैसे कुचल रहे हैं, लोगों के अधिकार
बोल कि अंधा शासन क्यों है इतना डावांडोल
बोल विनायक बोल
अरे डाॅक्टर बाबू बोलो, क्यों गरीब बीमार
कहीं रोग है और कहीं का, करे इलाज सरकार
क्यों गरीब की सुनवाई में होती टालमटोल
बोल विनायक बोल
क्या गरीब माओ को समझे, क्या गांधी को भाई
भूखे पेट ही सोना होगा हुई न अगर कमाई
वो बैरी सत्ता के मद में आंक न पाए मोल
बोल विनायक बोल
जन विशेष कानून बनाए जिसमें न सुनवाई
राजनीति के पंडित कैसे बन जाते हैं कसाई
सीधी साधी जनता पिसती, सत्ता पीटे ढोल
बोल विनायक बोल
करे कोई और भरे कोई है, ये कैसा दस्तूर
बेकसूर को सजा मिली और न्याय खड़ा मजबूर
इक दिन तो इंसाफ मिलेगा, यही सोच अनमोल
बोल विनायक बोल
बोल विनायक बोल
***
2
ओ कानून कसाई।
तूने कैसी की सुनवाई।।
बिन सबूत ही संत ने जैसे उमर कैद है पाई।।
अंगरेजों ने जैसे तिलक को सजा सुनाई।
देशद्रोह में गांधी को जेल की हवा खिलाई।
और आज इस लोकतंत्र में फंसे विनायक भाई।।
ओ कानून कसाई......
कैदी से कानूनन मिलने में नहीं बुराई
जेलर ने पहरे में मुलाकात करवाई
अब वे कहते हैं कि तुमने खबर उधर पहुंचाई
ओ कानून कसाई....
रोग को पहचाना और रोगी की करी भलाई
रोग तो सरकारी था, फंसा डाॅक्टर भाई
यह सरकार भी रोगी भैया, इसको भी दो दवाई
ओ कानून कसाई.....
***

Saturday, January 22, 2011

फ्रांसीसी बास्क समुदाय का लोककाव्य : अनुवाद और प्रस्तुति - यादवेन्द्र

यूरोप की सबसे प्राचीन भाषा मानी जाने वाली बास्क भाषा अन्य इंडो यूरोपियन भाषाओँ से बिलकुल अलग है इस लिए एक वैज्ञानिक मत ये है कि यूरोप के वर्तमान बाशिंदों के आने से पहले बास्क भाषा ही बोली जाती थी...बाहरहाल इस बहस में न पड़ते हुए हम यह जान लें कि आज बास्क समुदाय उत्तर मध्य स्पेन और दक्षिण पश्चिम फ़्रांस के बीच बँटा हुआ है.स्पेन में तो बास्क भाषा को द्वितीय राज भाषा का दर्जा मिला हुआ है पर फ़्रांस में यह एक उपेक्षित और दमित अल्पसंख्यक भाषा है।

बर्तसो फ़्रांसिसी अधिकार वाले बास्क समुदाय के बीच प्रचलित लोक काव्य है जिसे सामूहिक तौर पर काव्यात्मक मुकाबले के रूप में कोई विषय ले कर गाया जाता है.

 


कुछ दिन पहले मैं गया एक अड्डे पर
देखा दो दो गबरू जवान भिड़े हुए थे बहस में
दोनों अच्छे खासे घरों के बास्क लग रहे थे
पर एक दूसरे को समझने के मामले में बिलकुल अड़ियल
उदास मन से मैं बैठ गया उनकी बातें सुनने

ठीक ठीक नहीं समझ पाया मैं
क्या कहना चाहता है उनमें से एक
क्योंकि बोल रहा था वो विदेशी जुबान
इतना समझ आया बोल रहा है
कि उसको अपनी धरती की बहुत चिंता है
और क्या हुआ जो इस पर अधिकार कोई और देश जमाये है
हमें रोकता कौन है आजाद होने से
जिंदाबाद हमारा बास्क देश..वो बोला
पर बोला फ्रेंच भाषा में.

इस पर दूसरे ने तुनक कर बास्क भाषा में कहा:
हम क्यों छोड़ दें अपनी भाषा
यही तो है जो हमें उनसे करती है जुदा
बाकी सारे बर्ताव में तो हम
बरसों पहले उनकी तरह ही बन चुके हैं फ्रेंच.

दोनों जवान थे पर थे एक अदद दरख़्त की तरह
एक भारी भरकम तना था तो दूसरा था पत्तियों की मानिंद
हाँलाकि मुझे कभी पसंद नहीं आया
पहाड़ पर जिंदगी गुजार देने के बावजूद
ओक का वृक्ष अपनी नुकीली चिकनी पत्तियों के साथ.

एक कर रहा था देश की तारीफ
जैसे किया करते हैं विदेश से आए सैलानी
और दूसरा था कि कसीदा पढ़े जा रहा था
दमनकर्ता की इस देश के लिए तरक्की की योजनाओं का
हमारी भाषा में
इसको साफ़ साफ़ क्यों न कहें
कि हम घिरते जा रहे हैं गहरे धुंधलके के अंदर
एक साथ कैसे बजा सकते हैं हुक्म दो दो आकाओं के.

ऐसे तीखे नोक झोंक में उलझ के हम
सिवा अपनी एका भंग करने के और हासिल करेंगे क्या
मैं कोशिश में हूँ खंड खंड जोडूँ एक साथ
चाहे हो हमारी भाषा या फिर हो देश
दोनों आखिर हैं तो एक ही सचाई के भिन्न भिन्न रूप

भाइयों बहनों सुनो सुनो
मुमकिन नहीं कि आप बना डालें इन्सान
जोड़ जोड़ के यहाँ वहां से किसी कंकाल के टुकड़े
धरती है हमारा दिल तो भाषा है उसकी आत्मा
और इनको बाँटना ठीक नहीं..मर जायेगा वो भी
जो सब कुछ आज जिन्दा है दिख रहा.

कुछ लोग बात करते हैं सिर्फ धरती की
और भूल जाते हैं भाषा की बात
दूजे हैं जिन्हें याद रहती है सिर्फ भाषा
धरती उनके जहन में नहीं
असल में कैसे जुदा हो सकते हैं एक दूसरे से
धरती और भाषा
देखो कैसे दोनों हमें समझाने की कोशिश कर रहे हैं
कि बिलकुल ही संभव नहीं उनका जीवित रहना
एक दूसरे के बगैर...
***
युर्गी जुर्गेंस के ब्लॉग से साभार , बास्क से अंग्रेजी तर्जुमा खुद उनका है.
चयन और प्रस्तुति : यादवेन्द्र
***
बास्क देहाती गाँव का चित्र गूगल से साभार

Sunday, January 2, 2011

ठेले पर फोन और उज्जैन की याद

दोस्तों और प्रिय पाठकों ये एक कविता है, जिसमें बहुत कुछ आना बाक़ी रह गया....वह शायद मेरी सामर्थ्य से परे था....बहरहाल आप बताइये कि जो बन सका -आ सका, वो आपको कैसा लगा....

बी.एस.एन.एल. के
कुछेक बेहद वादाखिलाफ़ विज्ञापनों से सजा
जिसे मैं आइसक्रीम का ठेला समझा था
वह दरअसल एक तारविहीन घुमन्तू टेलीफोन बूथ निकला
उज्जैन के शिथिल कार्यकलापों वाले उस
छोटे-से प्लेटफार्म पर

हां !
यह भी उज्जैन के उन रहस्यों में से एक था
जिनमें से कुछ को अपने सामने मैंने
अचानक खुलते पाया था

कल ही दोपहर नंगे पांव लगभग भागते जाते थे एक दिगम्बर जैन मुनि
विक्रम विश्वविद्यालय की तरफ
साथ में बेहद तेज़ कदम सुमुखी सुखानुमोदित भक्तिनों की एक टोली भी
मुनि की दैहिक प्रच्छन्नता से बेपरवाह

शाम की न्यूज़ में दिखाया गया
कि वे जाते थे दरअसल हिन्दी में पी.एच-डी. के पंजीकरण साक्षात्कार हेतु शोध समिति के समक्ष
कुलपति सहित जिसके सब वीर-महावीर हतप्रभ-से खडे होकर
प्रणाम करते थे उन्हें
समाचार में उनके शोध का विषय `जैन दर्शन और उसका आर्थिक पक्ष या प्रभाव´ जैसा कुछ
बताया गया था

अपने इकलौते पिछले सफ़रनामे से
उज्जैन को मैं थोड़ा ही जानता था
और महाकाल को तो बिलकुल भी नहीं
शहर की परिधि पर बना भैरव मिन्दर
अलबत्ता मुझे बहुत भाया था
कच्चे मांस और शराब की बदबू से घिरा
एक इलाक़ा
किसी आदिम समय और समाज का
सीढ़ियों पर विराजे साहस कर आती औरतों को जाहिर लोलुपता से निहारते
अवधूत
राख में लिथड़े
बुझे हुए अग्निकुण्डों में लोटते श्वान बेहद चमकीले दांतो वाले
प्रतिहिंसा ही जिनका स्वभाव
बोटियों पर झगड़ते देखना उन्हें इस तरह
गोया
उसमें कोई भी रहस्य था
भैरव मन्दिर से पहले एक जेल छब्बीस जनवरी की तैयारियों में व्यस्त कैदी जिनमें कुछ ख़ूनी-बलात्कारी और बेज़ुबान ताज़ीराते हिन्द की दफ़ाओं में पिसे निरपराध भी कई

देवताले जी ने दिखाया था मुझे उज्जैन का देहात
झाड़ झंखाड़ और धूल से भरे कच्चे रास्ते
अब भी
अब भी बैलगाड़ियों की लीक उन पर
एक खण्डहर किसी पुरानी राजसी इमारत का मकड़ियों के जालों से अटा
उसके सामने एक पुराना परित्यक्त कुआँ और उसमें सामन्ती अंधेरे-सा
जमा हुआ
रुका हुआ
थमा हुआ काला जल सड़ांध से भरा
झाड़ियों से लटके बयाओं के घोसले मेहनत और बारीक कारीगर कुशलता से बुने हुए पर ख़ाली और वीरान
किसी भी तरह की हरक़त और हरारत से रहित
कवि ने मुक्तिबोध का लैण्डस्केप कहा उसे
कौंध गई मेरे आगे वे जलती-सुलगती कविताएं धुंए से भरी मेरी स्वप्नशील किन्तु बोझिल आंखों में चमकती-फिंकती जिनकी चिंगारियां
रह-रहकर

संस्कृति करने वाली एक संस्था भी मिली वहां - `कालिदास अकादमी´
जहां लगा हुआ था लोक कला मेला
उस देश और काल में
मुझे प्रेमा फत्या मिले
मध्य प्रदेश शिखर सम्मान से सम्मानित
ये बात दीगर है कि चुरा लिया गया वह उनके झोपड़े से कुछ ही दिन बाद
शायद बेच भी दिया गया हो तुरन्त
कबाड़ में
यों उन प्रेमा फत्या की 5 फुट से कुछ छोटी
उस काठी में भी कोई रहस्य था
जो बहुत ध्यान से
उनके बनाए चटख रंग भरे चित्रों को
देखने पर खुलता था अचानक समूची सृष्टि में विस्फोटित होता हुआ-सा

उतनी ही रहस्यमयी लगती थी आबनूसी रंगत वाली लाडोबाई
एक और पुरस्कृत आदिवासी चित्रकार
बतलाती
कि दरअसल वह उतनी अनाड़ी नहीं
मांग लिया है उसने तो एक कमरा भोपाल के लोक संस्कृति भवन में ही
रहने को
अब वो बस्तर नहीं जाती

रात ग्यारह बजे बाद के शहर की नीरवता में घूमते किसी बहुत अपने के साथ
अचानक फूटता दिखाई दे जाता था
उजाला
दिनों दिन अंधियारे होते जाते जीवन के बीच का

अड़सठ पार की दादी जी* की अत्यन्त जीवन्त हथेलियों जैसी संसार की कोमलतम चीज़ों के लिए भी
थोड़ी-सी संरक्षित जगह थी वहां
और कठोरतम फैसलों का इकतरफा फरमान भी
मेरे लिए वहां दु:ख भी अपार था
और आराम भी

मन्थर गति से चलती रेलगाड़ी में
बढ़ते भोपाल की जानिब
ठेले पर घूमते उस फोन की तरह ही रह-रह कर चौंकाती आ रही थी
धड़कनों से भी तेज़ और सांसों-सी तनी हुई
एक और याद
जिसका ज़िक्र किसी दूसरी कविता में आना तय रहा !

*श्रीमती कमल देवताले

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