दोस्तों और प्रिय पाठकों ये एक कविता है, जिसमें बहुत कुछ आना बाक़ी रह गया....वह शायद मेरी सामर्थ्य से परे था....बहरहाल आप बताइये कि जो बन सका -आ सका, वो आपको कैसा लगा....
बी.एस.एन.एल. के
कुछेक बेहद वादाखिलाफ़ विज्ञापनों से सजा
जिसे मैं आइसक्रीम का ठेला समझा था
वह दरअसल एक तारविहीन घुमन्तू टेलीफोन बूथ निकला
उज्जैन के शिथिल कार्यकलापों वाले उस
छोटे-से प्लेटफार्म पर
हां !
यह भी उज्जैन के उन रहस्यों में से एक था
जिनमें से कुछ को अपने सामने मैंने
अचानक खुलते पाया था
कल ही दोपहर नंगे पांव लगभग भागते जाते थे एक दिगम्बर जैन मुनि
विक्रम विश्वविद्यालय की तरफ
साथ में बेहद तेज़ कदम सुमुखी सुखानुमोदित भक्तिनों की एक टोली भी
मुनि की दैहिक प्रच्छन्नता से बेपरवाह
शाम की न्यूज़ में दिखाया गया
कि वे जाते थे दरअसल हिन्दी में पी.एच-डी. के पंजीकरण साक्षात्कार हेतु शोध समिति के समक्ष
कुलपति सहित जिसके सब वीर-महावीर हतप्रभ-से खडे होकर
प्रणाम करते थे उन्हें
समाचार में उनके शोध का विषय `जैन दर्शन और उसका आर्थिक पक्ष या प्रभाव´ जैसा कुछ
बताया गया था
अपने इकलौते पिछले सफ़रनामे से
उज्जैन को मैं थोड़ा ही जानता था
और महाकाल को तो बिलकुल भी नहीं
शहर की परिधि पर बना भैरव मिन्दर
अलबत्ता मुझे बहुत भाया था
कच्चे मांस और शराब की बदबू से घिरा
एक इलाक़ा
किसी आदिम समय और समाज का
सीढ़ियों पर विराजे साहस कर आती औरतों को जाहिर लोलुपता से निहारते
अवधूत
राख में लिथड़े
बुझे हुए अग्निकुण्डों में लोटते श्वान बेहद चमकीले दांतो वाले
प्रतिहिंसा ही जिनका स्वभाव
बोटियों पर झगड़ते देखना उन्हें इस तरह
गोया
उसमें कोई भी रहस्य था
भैरव मन्दिर से पहले एक जेल छब्बीस जनवरी की तैयारियों में व्यस्त कैदी जिनमें कुछ ख़ूनी-बलात्कारी और बेज़ुबान ताज़ीराते हिन्द की दफ़ाओं में पिसे निरपराध भी कई
देवताले जी ने दिखाया था मुझे उज्जैन का देहात
झाड़ झंखाड़ और धूल से भरे कच्चे रास्ते
अब भी
अब भी बैलगाड़ियों की लीक उन पर
एक खण्डहर किसी पुरानी राजसी इमारत का मकड़ियों के जालों से अटा
उसके सामने एक पुराना परित्यक्त कुआँ और उसमें सामन्ती अंधेरे-सा
जमा हुआ
रुका हुआ
थमा हुआ काला जल सड़ांध से भरा
झाड़ियों से लटके बयाओं के घोसले मेहनत और बारीक कारीगर कुशलता से बुने हुए पर ख़ाली और वीरान
किसी भी तरह की हरक़त और हरारत से रहित
कवि ने मुक्तिबोध का लैण्डस्केप कहा उसे
कौंध गई मेरे आगे वे जलती-सुलगती कविताएं धुंए से भरी मेरी स्वप्नशील किन्तु बोझिल आंखों में चमकती-फिंकती जिनकी चिंगारियां
रह-रहकर
संस्कृति करने वाली एक संस्था भी मिली वहां - `कालिदास अकादमी´
जहां लगा हुआ था लोक कला मेला
उस देश और काल में
मुझे प्रेमा फत्या मिले
मध्य प्रदेश शिखर सम्मान से सम्मानित
ये बात दीगर है कि चुरा लिया गया वह उनके झोपड़े से कुछ ही दिन बाद
शायद बेच भी दिया गया हो तुरन्त
कबाड़ में
यों उन प्रेमा फत्या की 5 फुट से कुछ छोटी
उस काठी में भी कोई रहस्य था
जो बहुत ध्यान से
उनके बनाए चटख रंग भरे चित्रों को
देखने पर खुलता था अचानक समूची सृष्टि में विस्फोटित होता हुआ-सा
उतनी ही रहस्यमयी लगती थी आबनूसी रंगत वाली लाडोबाई
एक और पुरस्कृत आदिवासी चित्रकार
बतलाती
कि दरअसल वह उतनी अनाड़ी नहीं
मांग लिया है उसने तो एक कमरा भोपाल के लोक संस्कृति भवन में ही
रहने को
अब वो बस्तर नहीं जाती
रात ग्यारह बजे बाद के शहर की नीरवता में घूमते किसी बहुत अपने के साथ
अचानक फूटता दिखाई दे जाता था
उजाला
दिनों दिन अंधियारे होते जाते जीवन के बीच का
अड़सठ पार की दादी जी* की अत्यन्त जीवन्त हथेलियों जैसी संसार की कोमलतम चीज़ों के लिए भी
थोड़ी-सी संरक्षित जगह थी वहां
और कठोरतम फैसलों का इकतरफा फरमान भी
मेरे लिए वहां दु:ख भी अपार था
और आराम भी
मन्थर गति से चलती रेलगाड़ी में
बढ़ते भोपाल की जानिब
ठेले पर घूमते उस फोन की तरह ही रह-रह कर चौंकाती आ रही थी
धड़कनों से भी तेज़ और सांसों-सी तनी हुई
एक और याद
जिसका ज़िक्र किसी दूसरी कविता में आना तय रहा !
*श्रीमती कमल देवताले