Monday, December 19, 2011

अदम गोंडवी

थोड़ी ही बच रही हिंदी की समकालीन जनवादी कविता के प्रमुख कवि अदम गोंडवी के दुखद प्रस्थान से अनुनाद शोकसंतप्त है.
***


काजू भुने पलेट में, व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

***
कविताकोश  से लिया गया

Thursday, December 15, 2011

मनोज कुमार झा की कविताएँ


बहुत दिनों बाद किसी उपहार की तरह मनोज कुमार झा की कविताएँ अनुनाद को मिली हैं. युवा हिंदी कविता में बिलकुल नया मुहावरा रचती और साथ ही प्रगतिशील परम्पराओं का सबसे सार्थक वाहक बनती                                                                     ये कविताएँ ख़ास तौर पर हमारे पाठकों के लिए.......


त्राहि माम

शीशे आकर्षक दीवारें भी

आवाज़ें आकर्षक सारी
चिपका हुआ स्टीकर  कि मूल्य भी आकर्षक
पीने का पानी तक आकर्षक
मैं झेल नहीं पा रहा आकर्षणों का ताप
मेरे थर्मामीटर में इतनी दूर की गिनती नहीं

कई सहस्त्र पीढि़यों से झूल रहा हूं ग्रह-नक्षत्रों के आकर्षण के मध्य
सबसे कड़ा खिंचाव तो इस धरती का ही
जैसे तैसे निभाता कभी बढ़ाता दो डग तो कभी लगती ठेस
नाचता शहद और नमक के पीछे

आचार्य, कौन रच रहा है यह व्यूह
मुझे बस रहने लायक जगह हो
और सहने लायक बाज़ार
जहां से अखंड पनही लिए लौट सकूं।
***

अकारण

क्या रूकेगी नहीं एक क्षण के लिए यह एम्बूलेंस
कि जान लूं बीमार कितना बीमार
या मृतक कैसा मृतक
वृद्ध  है तो कितने दांत साबुत और बच्चा है तो उगे हैं कितने
कौन उसके साथ रो रहे और कौन दबा रहे हैं पांव
कोई कारण नहीं, नहीं मैं कोई कारण नहीं ढूंढ पा रहा
बस यूं ही मैं भी धरती के इसी टुकड़े का रहबैया
और एक ही रस्ते से गुज़र रहे हम दोनों।
***

जटिल बना तो बना मनुष्य

मेरी जाति जानकर तुम्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा
तुम और मेरी जाति के लोग एक सरल रेखा खींचोगे और चीखोगे
कि उसी पार रहो, उसी पार
मगर इन कंटीली झाड़ियों का क्या करोगे
जो किसी भी सरल रेखा को लांघ जाती हैं, जिनकी जड़ें अज्ञात मुझे भी
हालांकि मेरी ही लालसाओं से ये जल खींचती हैं

एक धर्म को तुम मेरा कहोगे और भ्रम में पड़ोगे
कोई एक ड्रम की तरफ़ इशारा करेगा
और कहेगा कि यह इसी में डूबकर मरेगा
मगर हज़ारों नदियां इस देश में, इस पृथ्वी पर
मैं किसी भी जल में उतर सकता हूं
किसी भी रंग का वस्त्र पहने और किसी भी धातु का बर्तन लिए

तुम मेरा जन्मस्थान ढूंढोगे और कहोगे
अरे यह तो वहां का है वहां का
किन्तु नहीं, मेरा जन्मस्थल धरती और मेरी मां के बीच का जल है आलोकमय
अक्षांशों और देशान्तरों की रेखाओं को पोंछता

चींटियों का परिवार इसमें, मधुमय छत्ता, कोई सांप भी कहीं
दूर देश के किसी पंछी का घोंसला, किसी बटोही का पाथेय टंगा
मनुष्य एक विशाल वृक्ष है पीपल का
सरलताओं के दिठौनों को पोंछता

इस चौकोर इतिहास से तो नमक भी नहीं बनेगा
कैसे बनेगा मनुष्य
***

अपने घर में

बहुत सी ट्रेनें थी चलती
बहुत से वायुयान
धीरे-धीरे जाना और जानना अच्छा लगा
कि अकेला नहीं आया इस धरती पर
चलने के इतने सामान
और बैठने के भी

इससे बेहतर स्वागत क्या हो सकता है एक जीव का पृथ्वी पर
यदि पृथ्वी पर घर हो तो और क्या चाहिए किसी को एक घर से
मगर एक हाथ बढ़ने में भी लगता कितना ज़ोर

एक दिन समय बदलेगा तो घूमूंगा ऋतुओं और महलों के आर-पार
और साफ़ करवा लूंगा दीवार की नोनी जहां पीठ टेकता हूं।
***

पुकार

नहीं, मैं नहीं रोक सकती
मैं जान ही नहीं पाती कि नींद में कब कराहती हूं और क्यों
जगे में कराहना भी मैंने बड़ी मु‍श्किल से रोका है
लगता है ख़ून में धूल मिल गई है जो नसों की दीवार खुरचती रहती है
नहीं हो पाएगा बंद नींद में कराहना
जगे में कराहना भी रुक नहीं पाता
सच कह ही दूं, बस किसी तरह छुपा लेता हूं तुम सब से
जीवन की फांस में फंसे हो अच्छा है ध्यान नहीं जाता इधर
पाट पर कपड़ा पटकने की आवाज़ छुपा भी लूं
तो बाहर आ जाती है पानी की गड़गड़
कई पुरखे याद आते हैं
नानी के श्वेत स्वर का पुरानी साड़ी सा फटना और दागों से भरते जाना
मरने से एक दिन पहले मछरी खाने की अपूर्ण इच्छा मां की
गिरना कौअे के टूटे पंख का पिता की थाली में
असंख्य चितकबरी यादें कराह के उलझे धागों पर रेंगती रहती हैं

मैं नहीं रोक पाऊंगी नींद से उठता यह विषम स्वर
नींद मेरे बस में नहीं
नींद की नाव में जो आता मैं उसकी स्वामिनी
जो बस में था वो भी छूटता जा रहा
मेरी आंख, मेरा गला कुछ भी मेरे बस में नहीं
जब असह्य हो जाए मेरी कराह
तो तुम ही घोंट देना
तो तुम ही सारथि बन जाना इहलोक से परलोक का
तू ही बना जाना इस नींद से उस नींद के बीच का पुल मेरे पुत्र
***


१९७६ में दरभंगा जिले के एक गाँव में जन्मे मनोज कुमार झा, गणित में स्नातकोत्तर हैं हिन्दी के अतिरिक्त अँग्रेजी एवं मैथिली में भी लिखते हैं सेन्टर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाईटीज के लिए इन्होंने ''विक्षिप्तों पर पड़ती निगाहों की दास्तान`` विषय पर शोध किया है इनकी कविताऐं एवं आलेख हिन्दी की सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छप चुके हैं इन्होंने समकालीन चिन्तकों यथा टेरी ईग्लटन, फ्रेडरिक जेम्सन, नोम चॉम्स्की, मिशेल फूको इत्यादि के आलेखों का हिन्दी अनुवाद किया है कविता के लिए इन्हें २००८ का प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला है।




Friday, December 2, 2011

औरत होने के मायने, उसके दुःख-दर्द, संघर्ष और प्रेम की उदात्तता की दास्तान

                                     
                 - महेश चंद्र पुनेठा
  
‘धनुष पर चिड़िया‘ चंद्रकांत देवताले की स्त्रीविषयक कविताओं का संग्रह है जिसका चयन व संपादन युवा कवि व आलोचक शिरीष कुमार मौर्य द्वारा किया गया है। भले ही सभी कविताएं स्त्री प्रश्नों को नहीं उठाती हैं फिर भी प्रत्येक में स्त्री उपस्थित है-कहीं माँ के रूप में तो कहीं पत्नी ,कहीं प्रेमिका ,कहीं बेटी ,कहीं बचपन की साथिन और कहीं श्रमसंलग्न स्त्री के रूप में। इन कविताओं को पढ़ते हुए कवि की स्त्री के प्रति सोच सामने आती है। साथ ही स्त्रियों की दुनिया जहाँ औरत होने के मायने , उसके दुःख-दर्द व संघर्ष और प्रेम की उदात्तता की दास्तान है। इस रूप में ये कविताएं कवि को पहचानने और उसकी नजर में औरत को जानने का एक अच्छा अवसर प्रदान करती हैं। इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता स्त्री के प्रति कवि के मन में निहित गहरे सम्मान की भावना है जिसे  प्रस्तुत संग्रह में संकलित एक कविता ‘स्त्री का साथ’ कविता की ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी तरह बता देती हैं-

सचमुच मैं भाग जाता चंद्रमा से, फूल से और कविता से
 नहीं सोचता कभी कोई भी बात जुल्म और
ज्यादती के बारे में
अगर नहीं होतीं प्रेम करने वाली औरतें इस
पृथ्वी पर
स्त्री के साथ और उसके भीतर रहकर ही
मैंने अपने को पहचाना है

ऐसी पंक्तियाँ केवल वही कवि लिख सकता है जो सच्चे अर्थों में स्त्री का सम्मान करता हो , उसको स्वतंत्रता और समानता देता हो तथा मानवीय गरिमा प्रदान करता हो। जो उसे निखालिस देह या मन के रूप में नहीं बल्कि देह और मन दोनों के संयोग में देखता हो। कवि तभी तो इतने विश्वास के साथ कहता है- मुझे औरत की अंगुलियों के बारे में पता है

                       ये अंगुलियाँ समुद्र की लहरों से निकलकर
                       आती हैं
                       और एक थके-मांदे पस्त आदमी को
                       हरे-भरे-गाते दरख्त में बदल देती है

कवि की नजर में , औरत ‘जब अपनी चमकती आँखों के साथ होती है तब सारी बेजान चीजें मानुषी स्पर्श की आत्मीयता में ’ थर्राने लगती हैं। वह ‘ एक पत्थर चेहरे को पारदर्शी और शिशुवत बना देती है’ । इसलिए तो कवि पूछता है उससे- तुम इतना जीवन-रस कहाँ से ले आती हो/अंगुलियों की पोर से टपकता हुआ/तुम्हारे जाने पर क्या रहेगा यहाँ। औरत जीवन-रस का स्रोत है। उसके भीतर ‘ निष्कपट पानी का संगीत है जिस पर किसी भी चाकू की कोई खरोंच नहीं है’। उसके सापेक्ष पुरुष का चेहरा खुरदुरा और बेस्वाद है। स्त्री के सामने पुरुष जुगनू के समान है। ‘औरत आग पर सिर्फ रोटियाँ ही नहीं सेंकती है /खुद आग की हिरनी तरह चैकड़ी भी भरती है।’ औरत पुरुष की उदासी ,निराशा ,कुंठा ,अवसाद ,मायूसी को हर कर उसे मृत्यु से लड़ने की सामथ्र्य देती है। उसे ‘कत्लेआम’ के दौर में ‘भेड़िया फजीहत’ से बचा लेती है।उसमें औरतपन और बुद्धिमत्ता के साथ-साथ आदमीपन भी होता है। औरत ‘धँसकती हुई रातों और तड़कते हुए दिनों मे’ हमेशा पुरुष के साथ रहती है ,उसका हौंसला बनकर और उसकी आजादी व मूर्खताओं को बर्दाश्त करती है। हो सकता है ये शब्द किसी स्त्री के प्रेम में पड़कर कहे गए हों पर ये भावावेश का प्रतिफल या वायवीय नहीं हैं। इनमें बहुत कुछ सारतत्व है। एक माँ के रूप में तो औरत का कोई सानी नहीं । माँ औरत के उदात्त रूप की पराकाष्ठा है। तभी तो माँ पर बहुत सारी कविताएं लिखने के बाद भी कवि कहता है ‘ माँ पर नहीं लिख सकता कविता’ । धरती,चंद्रमा,आकाश,समुद्र और सूरज पर कविता लिखी जा सकती है पर माँ पर लिखना कठिन है अर्थात माँ इन सबसे बड़ी है क्योंकि - माँ ने हर चीज के छिलके उतारे मेरे लिए/देह ,आत्मा आग और पानी तक के छिलके उतारे/ और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया। भले ही कवि ‘ प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता ’ कहते हुए पिता के प्रेम को कहीं से कम नहीं मानता पर माँ ही है जो अपनी संतान की भूख और प्यास को रत्ती-रत्ती पहचानती है- ‘ जिसका दूध /दूब पर दौड़ते हुए बच्चों में /खरगोश की तरह कुलाँचें भरता है।’ औरत के इस महारूप को समझने के लिए कवि यदि यह कहता है कि ....सिर्फ एक औरत को समझने के लिए /हजार साल की जिंदगी चाहिए मुझको’ तो यह अतिशयोक्ति नहीं है। यहाँ औरत को देवी बनाकर उसका गुणगान या महिमामंडन नहीं किया गया है बल्कि मानवी के रूप में उसको देखा गया है ,यह बहुत अच्छी बात है। 

इसे कवि चंद्रकांत देवताले की स्त्री के प्रति श्रद्धा ,सम्मान व प्रेम ही कहा जाएगा कि समुद्र से आकाश के बीच हवा-पानी की तरह फैले स्त्री जीवन की धूप ,छाया और सपनों को वे इतनी गहराई और व्यापकता से स्वर दे पाए हैं। उसके जीवन को समग्रता से व्यक्त करने के उद्देश्य से ही उन्होंने ’ समुद्र’,‘आकाश’,’धूप’,’छाया’,‘हवा’,‘आग’,‘चिड़िया’,‘पेड़’तथा ’पानी‘ जैसे शब्दों का बार-बार प्रयोग किया है। इन शब्दों का स्त्री से गहरा संबंध है। समुद्र और आकाश तो लगभग हर तीसरी कविता में आ जाते हैं। यह अनायास नहीं हो सकता है। कवि देवताले इस बात को जानते हैं कि यही वे शब्द हैं जो स्त्री के पूरे व्यक्तित्व को अच्छी तरह व्यक्त कर सकते हैं। ये शब्द इन कविताओं में ऐसी छटा बिखेरते हैं कि बहुत कुछ अनकहे ही मुखर हो उठता है। एक छोटी कविता देखिए-

तुम्हारे एक स्तन से आकाश
दूसरे से समुद्र
आँखों से रोशनी 
तुम्हारी वेणी से बहता
बसंत का प्रपात
जीवन तुम्हारी धड़कनों से
मैं जुगनू
चमकता
तुम्हारी
अँधेरी
नाभि के पास।

इन कविताओं में पाठक स्त्री के रूप, रस ,गंध ,स्वाद और स्पर्श को अपने भीतर शाकाहारी रूप में महसूस कर सकता है। कवि का कहना बिल्कुल सही है कि - सब कुछ संभव यदि हासिल कर लें हम महारत देह से बाहर निकलने की। वास्तव में स्त्री को उसके संपूर्ण रूप में देखना है तो उसे केवल देह के रूप में देखने से बाहर निकलना होगा। फिर हमें निर्वसनता में भी अश्लीलता नजर नहीं आएगी।

प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में प्रेम की गहरी अनुभूति के दर्शन होते हैं जिसमें अशोक वाजपेयी की  कविताओं की तरह की माँसलता या ऐंद्रिकता  नहीं है । एक आध्यात्मिक किस्म का प्रेम है जो वासना से कोसों दूर है। अशरीरी । प्रेम की गझिनता-प्रवणता-सांद्रता इनमें मौजूद है।प्रेम चिपचिपा सा नहीं टपकता-सा है। कुछ पंक्तियाँ उदाहरणस्वरूप देखी जा सकती हैं  -

और तुम मुझे कहीं भी अकेला नहीं जीने देतीं
जितनी दूर जाता हूँ उतनी ही नजदीक होती हो
तुम
मुझे कहीं भी
अकेलेपन में
मरने तक नहीं देतीं!
......थकी हुई और पस्त चीजों के बीच
पानी की आवाज जिस विकलता के साथ
जीवन की याद दिलाती है
तुम इसी आवाज और इसी याद की तरह
मुझे उत्तेजित कर देती हो।
......तुम जानती हो तुमसे बोलना
और सुनना
तुम्हारे मुँह से निकलते दिपदिपाते जुगनुओं को
मुझे अच्छा लगता है। 
......तुम पतझर के उस पेड़ की तरह सुंदर हो
जो बिना किसी पछतावे के पत्तियों को विदा कर चुका
.......तुम सूखे पेड़ की तरह सुन्दर  

कैसा अद्भुत प्रेम है। एक प्रेमी कवि ही सूखे पेड़ में भी सुंदरता देख सकता है। इस तरह चंद्रकांत देवताले की कविताएं सौंदर्यबोध की परंपरागत दृष्टि पर भी चोट करती है इसलिए तो वे एक ‘ काली लड़की ’ को अपनी कविता का विषय बना पाते हैं। उसके सौंदर्य को देख इस तरह अभिभूत होते हैं-

वह शीशम के सबसे सुन्दर फूल की तरह
मेरी आँखों के भीतर खुप रही थी
अपने बालों में पीले फूलों को खोंसकर
वह शब्दों के लिए गैरहाजिर
पर आँखों के लिए मौजूद थी। 

जो कवि स्त्री से सच्चे अर्थों में प्रेम करता है वह उसके दुःख को भी उसी गहराई से अनुभूत कर सकता है जिस गहराई से उसके प्रेम को। उसी को स्त्री जीवन का अँधेरा दिखाई देता है। वही उसके साथ होने वाले अन्याय-अत्याचार-शोषण को देख चुप नहीं रह सकता है और पूरे विश्वास से कह सकता है -

आकाश-पाताल में भी अट नहीं सकता इतना है
औरतजात का दुःख
धरती का सारा पानी भी धो नहीं सकता
इतने हैं उसके आँसुओं के सूखे धब्बे।
......कोई लय नहीं थिरकती उनके होठों पर
नहीं चमकती आँखों में
जरा-सी भी कोई चीज .......वह औरत
आकाश और धूप और हवा से वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूँध रही है?
........एक औरत अँधेरे में खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वसन जागती शताब्दियों से सोई है।

इन पंक्तियों में कवि औरत के दुःख-दर्द-यातना की निरंतरता को बता रहा है जो  एक-दो दिन ,महिनों या सालो से नहीं बल्कि शताब्दियों से उसके साथ है। उसे कभी सुख नहीं मिला। हँसी-खुशी के एक टुकड़े से भी महरूम रही है वह- मिलता जो सुख वह जागती अभी तक भी/ महकती अँधेरे में भी फूल की तरह/या सोती भी होती तो होंठों पर या भौहों में /तैरता-अटका होता/हँसी-खुशी का एक टुकड़ा बचा-खुचा कोई। कैसी विडंबना है कि उसकी-माथे की सिलवटें तक नहीं मिटा पाती/सोकर भी। कवि का सपना है उसको हँसते देखना। इन कविताओं में स्त्री का शताब्दियों का अतीत और उतनी ही स्मृतियाँ अथाह कुँए में  गिरी पीतल की दमदार बाल्टी की तरह दबी हैं। कवि उन्हें ढूँढता रहता है और हमेशा स्त्री के पक्ष में खड़ा होता है ।

कवि देवताले अपनी कविताओं में कुछ छुपाते नहीं हैं जो कुछ भी भीतर है उसे खोलकर बाहर रख देते हैं । छद्म प्रगतिशीलता नहीं ओढ़ते । ‘ दो लड़कियों का पिता होने से’ कविता में इसे साफ-साफ देखा जा सकता है-

सिर्फ बेटियों का पिता होने भर से ही
कितनी हया भर जाती है
शब्दों में......
बेटियों को गुड़ियों की तरह गोद में खिलाते हैं हाथ
बेटियों का भविष्य सोच बादलों से भर जाता है
कवि का हृदय
एक सुबह पहाड़-सी दिखती हैं बेटियाँ
कलेजा कवि का चट्टान-सा होकर भी थर्राता है
पत्तियों की तरह।

कवि का यहाँ अपने-आप को खोलना भी बहुत कुछ कह जाता है कैसी विडंबना है कि एक पढ़ा-लिखा-समझदार  व्यक्ति जो पूरी तरह से स्त्री के पक्ष में भी है और उसका पूरा सम्मान भी करता है। बेटियों को चाहता भी है और उन्हें बेहद प्यार भी करता है फिर भी उनको बढ़ते हुए देखकर डर जाता है जबकि खुश होना चाहिए था। बस यही वह बिंदु है जहाँ यह कविता हमें उस ओर सोचने के लिए प्रेरित करती है कि औरत के साथ होने वाले भेदभाव के लिए कोई व्यक्ति विशेष जिम्मेदार नहीं है बल्कि वह सामाजिक-आर्थिक  व्यवस्था जिम्मेदार है जिसने औरत को पुरुष से कमतर और उस पर आश्रित बनाया। फलस्वरूप इसका समाधान कुछ व्यक्तियों की मानसिकता में परिवर्तन आ जाने मात्र से नहीं होगा। समाज में आमूलचूल बदलाव ही औरत की हालात को बदल पाएंगे। एक बड़ी कविता यही काम करती है बिन कहे भी बहुत कुछ कह जाती है।

कवि पूरी ईमानदारी और बिना लाग-लपेट के साथ अपने-आप को व्यक्त करता है-

मुझे माफ करना मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था
मेरी छाया के तले ही सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी
तुम्हारी
अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो
मैं खुश हूँ सोचकर
कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई ।

यह वही पुरुष कह सकता है जिसने अपने पुरुष होने के अहंकार को तिरोहित कर दिया हो। अन्यथा पुरुष तो हमेशा से यही मानते आए हैं कि वे ही औरत के भाग्य विधाता हैं उनके बिना औरत का क्या अस्तित्व है। देवताले ऐसा नहीं मानते । वे तो अपने अपराध को भी स्वीकार करते हैं जैसा कि इस कविता में -

वह सताई गई औरत मुझे देखती है
अपने हमदर्द और मददगार की तरह
पर मैं गड़ जाता हूँ शर्म से
क्योंकि उस दोपहर मैं साबित हुआ एक घटिया आदमी
मुझे चीखना था और तमाशा खड़ा करके
सिद्ध कर देनी थी एक मेहनतकश औरत की
आकाश छूती हैसियत
और उसके सामने एक नींबू और उस बाई साब की
बित्ता भर औकात!

यहाँ कविता में कवि ने वह कर दिखाया है जो वह यथार्थ में नहीं कर पाया और करना चाहता था अर्थात पाठक को मेहनतकश औरत के पक्ष में खड़ा कर देता है। एक अच्छी कविता का यह भी काम है।       

इन कविताओं में औरत का दुःख-दर्द धुँधला नहीं पड़ता है। जीवन में पछाड़ खाती औरत का दुःख-दर्द और उसके साथ होने वाला अमानवीय व्यवहार पूरी सांद्रता के साथ व्यक्त होता है। ये कविताएं औरत के भुरभुरे दर्द को सुनाती नहीं , दिखाती हैं जिसमें धर्म-परम्परा-सत्ता के मद की नींद में विछा हुआ पुरुष प्रधान समाज जाग जाता है। संग्रह में ऐसी कविताएं भी हैं जिनमें श्रमसंलग्न स्त्रियों और गृहस्थी संभालती पत्नियों के जीवन का कठोर यथार्थ और संघर्ष पूरी जीवंतता के साथ व्यक्त हुआ है। उनका दैनिक जीवन पूरी क्रियाओं तथा बारीक ब्यौरों के साथ चित्रित हुआ है। यहाँ उनका खान-पान ,रहन-सहन , वेश-भूषा,घर-परिवार सभी कुछ है-उनका खटना-पिटना-रौंदा जाना-रोना-सुबकना-कोसना-असहायपन-आजादी का खोखलापन। साथ ही पुरुषप्रधान समाज  की क्रूरता ,धूर्तता और संवेदनहीनता भी । इस दृष्टि से ‘बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियाँ’,‘शाम को लगभग पाँच बजे’,‘वह आजाद थी सुबकने के लिए’ ,‘नहाते हुए रोती औरत’ ‘उस औरत का दुःख ’ , ‘देवी-वध’ ‘ ‘इस मामले में भी यही बताया गया ’ ‘बाई!दरद ले’ ‘औरत का हँसना’ ,‘ एक नींबू के पीछे’,‘कोई नहीं उसके साथ’  आदि कविताएं उल्लेखनीय हैं। ये कविताएं अपने कहन और कथ्य  से कविता में आए  स्त्री पात्रों से पाठक की तादात्म्यता स्थापित कर देती हैं। वे पाठक के सामने उपस्थित हो संवाद-सा करने लगती हैं। पाठक उनके साथ चलने लगता है। इनके बहाने कवि अमानवीय होते समय और समाज को रेखांकित करता है। अपनी नाटकीयता से ये कविताएं पाठक को बाँधती हैं और उन्हें पछाड़ खाती औरतों की स्थिति पर सोचने को विवश कर देती हैं। उनकी जीवन की दयनीय एवं संघर्षपूर्ण परिस्थितियाँ काँटों की तरह चुभने लगती हैं। भयभीत चिड़ियों-सी ये स्त्री पात्र बार-बार याद आने लगती हैं। उनके नन्हें पक्षियों की तरह भयभीत शब्द जेहन में फड़फड़ाते रहते हैं। हम अपने आसपास मौजूद उस तरह के पात्रों के प्रति अधिक संवेदनशील हो उठते हैं। पत्थर के आदमी नहीं रह जाते। उन्हें देखने का हमारा नजरिया बदल जाता है। भले ही कवि सोच नहीं पाया हो औरतों की इस अमानवीय और क्र्रूर दुनिया और दृश्यों के बाद कि उसे क्या करना चाहिए पर पाठक कविता को पढ़कर अपना पक्ष जरूर तय कर लेता है। और यहीं पर  कविता सफल हो जाती है। ‘वह आजाद थी सुबकने के लिए’ कविता स्त्री की आजादी और छद्म प्रगतिशील पुरुषों पर जबरदस्त व्यंग्य है। खुलकर वह रो भी नहीं सकती । रोने के लिए भी उसे वक्त का चयन करना पड़ता है ,‘ नहाते हुए रोती औरत’ इस बात का प्रमाण है। कितनी मार्मिक पंक्तियाँ हैं ये- दुख हथेली पर रखकर दिखाने वाली नहीं है यह औरत/रो रही है बेआवाज पत्थर और पत्तियों की तरह/वह जानती है पानी बहा ले जाएगा आँसुओं और/सिसकियों को चुपचाप/शिनाख्त नहीं कर पाएगा कोई भी। कवि जानता है -मामूली वजहों से अकेले में/कभी नहीं रोती कोई औरत ! फिर भी कवि के लिए उसके रहस्य को पूरी-पूरी तरह बता पाना संभव नहीं है।  इस सब के बावजूद एक बात जरूर कहनी पड़ेगी कि रोती-सुबकती ,खटती-पिटती जिंदगी जीने और दुख बरदाश्त करने के रास्ते खोज लेती स्त्रियाँ  तो इन कविताओं में खूब आती हैं पर लड़ती हुई स्त्रियाँ नहीं दिखाई देती है।

भले प्रस्तुत संग्रह में प्रकृति पर कोई कविता न हो पर अनेक बिंब ऐसे हैं जिनमें प्रकृति के विविध रूप-रंग-गंध-दृश्य मौजूद हैं जो प्रकृति से कवि की निकटता को बताते हैं.   साथ ही कविताओं में नई सरसता का संचार कर देते हैं। कुछ पंक्तियों को यहाँ उद्धरित करने का लोभ में संवरित नहीं कर पा रहा हूँ-

सूरज की तेज धूप पत्थरों को
कुरेद रही है
समुद्र का पानी पत्थरों को
थरथरा रहा है.......
धूप में खिल गई है तुम्हारी हँसी......
मेरे होठों पर समुद्र का खारा स्वाद
मेरी त्वचा पर धूप का गुनगुना हाथ
और मेरी जेब में कुछ पत्थर हैं जो समुद्र ने दिए मुझे
तुम्हारे लिए!
.......रंगीन फुहारों में नहाती तुम्हारी हँसी की हंसध्वनि
चटकने लगती टहनियाँ चुप्पी की.....
जो जल में डूबे पत्थरों पर लिपटी काई की तरह
दिखाई तो देते
पर हाथ नहीं आते
.....और तुम बादल-काट बिखरी तेज धूप-सी हँसने लगती हो
......तुम बसंत के आकाश की टहनियों को
पकड़कर खड़ी थी
और यह दृश्य मेरे लिए
एक तट छोड़ता जहाज था ......
तुम्हारी निश्चल आँखें
तारों-सी चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में
.....नदी में डबडब आँखों-से कमल के फूल
या बरसात में फूटती चिंगारियों-सी नहाती हुई रोती औरत
.......दूर आम के झुरमुट में एक कोयल कूकती जा रही है
लगातार .....
देखो
परिंदों की चहचहाहट से घिरा
चल रहा है स्मृतियों का काफिला
......पतझर के नीले पड़ते उजाले मे
तुम परछाई हो वसंत की
......तुम शरीर नहीं
एक विराट छत्ता हो शहद का
.....ज्वार से लबालब समुद्र जैसी तुम्हारी आँखें
मुझे देख रही हैं
और जैसे झील में टपकती हैं ओस की बूँदें ।

प्रकृति से जुड़े इन शब्दों को थोड़ी देर के लिए कविता से निकाल दिया जाय तो समझा जा सकता है कि कविताएं कितनी शुष्क और ठस हो जाएंगी ।

प्रकृति से लिए गए इन बिंबों के चलते अधिकांश कविताओं की भाषा सरस  और प्रभावशाली हो गई है। बावजूद इसके संग्रह की अनेक कविताओं में हमें भाषा का चमत्कार दिखाई देता है जो कौतुक पैदा करता है। कहीं-कहीं इसके चलते उनकी कविता दुरुह भी हो जाती है। सहजता से अर्थ की खिड़की नहीं खुलती । फिर भी उससे जूझने में आनंद आता है क्योंकि भाषा की गाँठ खुलने के बाद उसके भीतर बहुत कुछ ऐसा मिलता है जो झनझनाता भी है और गुदगुदाता भी।  चंद्रकांत देवताले का भाषा को बरतने का तरीका ही अलग है। उनके यहाँ ’रोशनी में स्वाद‘ तो हँसी में रंग फूट पड़ता है। उनकी कविता का अपना एक अलग मुहावरा है । पुटपुटाते हुए रोना , खदखद हँसना जैसे क्रिया विशेषण उनकी कविता में विशेषरूप से ध्यान खींचते हैं। यहाँ क्रिया एक बिंब में बदल जाती है। मतकमाऊ, थिगा ,गावदी  जैसे शब्द पहली बार पढ़ने को मिलते हैं। इनकी कविताओं का कोई एक शिल्प नहीं है अपने शिल्प को हर दूसरी कविता में तोड़ डालते हैं। शिल्प की विविधता है। कही एक दृश्य खड़ा करते हैं तो कहीं प्रतीकों में अपनी बात कह जाते हैं। एक समर्थ कवि ही ऐसा कर सकता है।

कुल मिलाकर इस संग्रह में कविताओं का चयन बहुत सूझ-बूझ के साथ किया गया है कविताओं में कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर विविधता है। संग्रह को पढ़ते हुए एकरसता और ऊब नहीं होती है। कविताओं को बार-बार पढ़ने का मन करता है। हमारे समय के महत्वपूर्ण वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले की स्त्री विषयक कविताओं को एक साथ संकलित करके शिरीष कुमार मौर्य ने प्रंशसनीय कार्य किया है ।

***
महेशचंद्र पुनेठा युवा कविता का बहुत जाना-पहचाना नाम हैं. इधर उन्होंने कविता पर आलोचनात्मक लेखन भी आरम्भ किया है. यह समीक्षा इसी क्रम में लिखा गया उनका एक और महत्वपूर्ण  लेख है. अनुनाद इसके लिए उन्हें धन्यवाद देता है.  

Thursday, December 1, 2011

कल्पना पन्त की कविताएँ

कभी कभी फेसबुक पर भी कुछ कविताएँ अलग अलग कारणों से अपनी ओर ध्यान खींचती हैं. कल्पना पन्त की कविताएँ भी ऐसे ही मुझे मिलीं. मैंने इधर फेसबुक पर कविताएँ पढ़ते हुए सोचा की यहाँ की कुछ सार्थक अभिव्यक्तियों को क्यों न अनुनाद पर लगाया जाए. इस क्रम में सबसे पहले ये कुछ कविताएँ.  कल्पना ऋषिकेश के राजकीय आटोनामस कालेज में हिंदी की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत हैं और नए साहित्य और उसके सवालों में बेहतर दिलचस्पी रखती हैं.

 
उदास मौसम है


उदास मौसम है
बह रही है
नीली नदी
बर्छियों के जंगलों
के चारों ओर
आग के समुद्र हैं
स्वप्न पाखी जा चुका है
सुदूर उड रही आकाश में
एक फ़ाख्ता अकेली
***

उन दिनों में

उन दिनों में
पुरानी गलियाँ हैं
तंग दरवाज़े!
आकाश की झिर्रियों से झलकती हैं यादें
एक खिड़की है अभिलाषा सी
चंद अफ़वाहें
दोपहर की चटख धूप
पुरानी किताब में लिखी हुई कविता
और तुम्हारा नाम

गुनगुनी सी हो उठी है
जाडों की यह शाम
***

पहाड और दादी

पिता से सुना है
कि तुम एक आख़िरी लकडी के ख़ातिर
फिर से पेड पर चढी और टहनी टूटते न टूट्ते
अंतहीन गहराई में जा गिरी
उनकी आँखों के कोरों में गहराते व्यथा के बादलों
में क्षत विक्षत तुम और उनका बचपन
अपनी सम्पूर्ण वेदना में उभर आता है
क्यों गिरती रही हैं चट्टानों से स्त्रियाँ
कभी जलावन के लिये
कभी पानी की तलाश में कोसों दूर भटकते
कभी चारे के लिये जंगल में
बाघ का शिकार बनती स्त्रियाँ
बचपन में बहुत बार तलाशा है
मैने अपने सिर पर तुम्हारे हाथों का स्पर्श
पर बार-बार वही सवाल मेरे हिस्से में आया है
क्यों नहीं जी पाती एक पूरी ज़िन्दगी
पहाड पर स्त्रियाँ
***
दंगा और मौत

वह अब नहीं है
क्या सोचा होगा उसने उस वक़्त
जब खुद को पाया होगा
उन्मत्त भीड के बीचोंबीच
निहत्था!
याद आया होगा घर?
चूल्हे में मद्धिम आँच पर पकती अन्तिम रोटी
खेतों की तारबाड़
बूढे माँ पिता
ज़रूरी कागज़ात
बच्चे का परीक्षाफल
आने वाली सालगिरह
चमकती संगीने लिये
खूँख्वार हो चुके
भयानक दाँत और पंजे निकाले
ख़ूनी चेहरों को क्या एक पल के लिये भी
आया होगा याद
ईश्वर, अल्लाह. यीशू या धर्मग्रन्थ
लालसाओं की अनेक घुमावदार सीढियों के बीच चलते हुए
घूमती दुनिया के चक्के में चल रही हैं गुनह्गार साँसें
क़त्ल का मंज़र पेश है
तकलीफ़ है उन्माद है
अव्यक्त सा अवसाद है
और हम हैं अपने आदर्शों के आवरणों को
उधड़ते देख्नने को अभिशप्त
इस भयानक मंज़र को कैसे करूँ मैं व्यक्त
कि हम अभी भी अपनी- अपनी चाहरदीवारियाँ
दुरुस्त कर रहे हैं
***

दस्तक

कुछ तय नहीं है अभी
चाँद के दरवाजे पर दस्तक देनी है
समय की बहती हुई नदी के मुहाने तक जाकर
आसमानी साये धीरे. धीरे आगे बढ़ते हुए ठिठकते हैं।
चाँद की रोशनी में नहाये हुए रात के हस्ताक्षर
हर साये को उसका काम समझाते हुए बहते जाते हैं
सब तरफ चुप.चुप
हर कोई व्यस्त
पर एक दस्तक नदी की लहरों में तैर रही है
नदी में भी नदी पर भी
वो चाँद में भी है जमीं पर भी
वही आसमानी सायों को रौशन कर
उनकी मुट्ठी में दबे सपने आजा़द कर देगी
ऐसे जैसे पथरीला तट पानी की ताक़त से बह जाये
रात की मुदीं आँखें खुल जायें
बंद पलकों के ख़्वाब खुली आँखों से नज़र आयें
चाँद की रोशनी में नहा जायें
पहाड़, जंगल समूची धरती,बर्फ रेत और समंदर
आसमाँ ज़मीं हो और ज़मीन आसमाँ हो जाये
रात की बंद पुस्तक के पन्नों को खोलना बाकी है
समय की बहती नदी में सायों का हमसाया होकर बहना
अभी बाक़ी  है।
***

Thursday, November 17, 2011

यतीन्‍द्र मिश्र की कविता


इधर नवभारत टाइम्‍स का दीपावली अंक आया है। उसमें सम्मिलित यतीन्‍द्र की एक कविता और उनके कविकर्म पर दो आलोचकीय टिप्‍पणियां अनुनाद के पाठकों के लिए।


एक ख़ास किस्‍म का संयम

यतीन्‍द्र मिश्र की कविताएं अयोध्‍या के भू-दृश्‍यों, सांस्‍कृतिक विशिष्‍टताओं और उसके लगातार छीजते जाने के दुखद प्रसंगों, संगीत, फि़ल्‍म, निर्गुनियों की बानी - और इन सबसे वर्तमान की निरन्‍तरता को तलाशने की संवेदनशील आकांक्षाओं से निर्मित हुई हैं। कला और संगीत पर लगातार लिखते रहने के कारण उनका कविरूप कुछ ढंक सा ज़रूर गया लेकिन उन्‍होंने कला की भिन्‍न भिन्‍न छवियों बहुत सलीके से अपनी कविता के भीतर आने दिया और उनके लिए कविता में जगह बनाई। यतीन्‍द्र की भाषा में एक ख़ास तरह का संयम है लेकिन यही बात उनके भावबोध के लिए नहीं कही जा सकती। दरअसल उनकी संयत भाषा उनके भावबोध की छटपटाहट को छुपा जाती है। 
-बसन्‍त कुमार त्रिपाठी  


गंगा-जमुनी विरासत का संधान

यतीन्‍द्र मिश्र ने भारतीयता की गंगा-जमुनी विरासत का संधान करनेवाली कुछ महत्‍वपूर्ण कविताएं लिखी हैं। ये कविताएं भारतीय कला की समावेशी प्रकृति को समझने और परखने का ज़रिया बनती हैं। बाबरी विध्‍वंस, गुजरात दंगों और भारतीय समाज में नव-फासीवाद के उभार के दौर में जन्‍मी अ‍सहिष्‍णुता की संस्‍कृति का प्रतिकार करने में भारतीय कला और परम्‍परा की भूमिका को समकालीन परिवेश में प्रतिष्ठित करती यह कविताएं मानव-प्रकृति की संश्लिष्‍टता का भी परिष्‍कार करती हैं। 
-प्रियम अंकित

चिड़ियों के घरों में बसन्‍त

ठंड से सिकुड़ी हुई जाड़े की सुबह
अचानक निगाह गई एक हरी पत्‍ती कर तरफ़
रात की कोख ने जन्‍म दे दिया था वहां
ओस की खनकती हुई कुछ स्‍फटिक बूंदों को एक घुमन्‍तू चिड़िया के उत्‍साह की लय
कोहरे की घनी चादर को चिढ़ा रही थी मुंह
और इस आयोजन के दौरान तितलियों की कतार
दिनभर का ज़रूरी सामान बांधकर
सूर्य की टोह लेने बाहर निकल पड़ी थी
कुछ गिलहरियां और कुछ तोते उत्‍साहित थे
उन पके और गदराए हुए अमरूदों को देखकर
जो कभी भी गिर सकते थे उनकी क्षुधा के परिसर में

इन सबसे अलग कुछ अक्‍लमंद सी लगती
रंग-बिरंगी अनजान चिड़ियों की बतकही
लगातार बहस में तब्‍दील हो रही थी
ऐसे बुक्‍काफाड़ जाड़े को चीरकर वे सब
कैसे उतार सकती थीं अपने घरों में बसन्‍त

सबकी गतिविधियों को विभोर सा निहारता मैं
दुविधा में पड़ा था कि जैसे दुनिया के गोरखधंधे में
दिनभर के लिए अब मुझे घिर जाना था
क्‍या उसमें इन लोगों की आत्‍मीय दुनिया भी
शामिल नहीं हो रही थी ?

Wednesday, November 9, 2011

यादवेंद्र की कविता


यादवेंद्र जी अनुनाद के सबसे सक्रिय सदस्‍य हैं। इधर मेरे कुछ निष्क्रिय होने पर उनके अनुवादों ने ही अनुनाद को सहारा दिया है। वे कविता के क्षेत्र में हर तरह से हस्‍तक्षेप करते रहे हैं। उनकी ख़ुद की कविताएं बहुत समर्थ कविताएं हैं, जिन्‍हें पता नहीं किस संकोच में वे छिपाए रखते हैं। कभी-कभी ही ऐसा होता है कि वे अपनी कविता पढ़ने को भेजें। उनकी एक कविता पहले अनुनाद पर छपी है और इस बार मुझे फिर सौभाग्‍य प्राप्‍त हुआ है कि उनकी एक कविता आपके सामने रख पाऊं। 
 

कहीं कुछ तो होगा

इस भरेपूरे जहान में कहीं कुछ तो ऐसा होगा
जो काल की धुरी से छिटक कर लट्टू सा दूर जा गिरा होगा
और अपनी धुन में न्यूटन का सेब बनने से बचने पर इतरा रहा होगा
यह परिव्राजकों और कोलंबस की खोजी निगाहों में आने से रह गया होगा
जिन्हें धुरंधर खगोलवेत्ताओं की ऑंखें और उपकरण नहीं देख पाए होंगे
दुनिया में धर्मों का परचम लहराने वाले तमाम पैगम्बरों की बानियों में
कोई तो पृष्ठ ऐसा होगा जो अबतक शामिल होने से रह गया होगा
जो इस अवधारणा को धता बता कर चमत्कृत हो रहा होगा
कि एक एक रजकण का हिसाब है ऊपर वाले की पोथी में दर्ज...

ऐसी कहीं कुछ अनगढ़ दरारें मुँह बाए साँस ले रही होंगी
मानव जाति की कालजनित ढलानों और गह्वरों में
जो सब कुछ हजम करके भी संतुष्ट और अनुकूल नहीं हो पाई होंगी
और उनके अंदर फलफूल रही होंगी कुछ अबूझ जीवात्माएं और संस्कृतियाँ
कुछ जरुर ऐसा बावला भाव अंदर ही अंदर करवटें ले रहा होगा
जो छूटा रह गया होगा शिकारी के जाल में हिफाजत से दबोच लिए जाने से
वेदों और ओल्ड टेस्टामेंट में दर्ज किये जाते समय
जरुर कुछ बातें बांधे जाने से पहले हवा में छितर गयी होंगी
नोस्त्रादेमस की तमाम भविष्यवाणियों से छिप छिप कर भी
जरुर कुछ सार्थक घटित हो रहा होगा यहाँ वहाँ....

इस धरती पर डोलती होंगी जरुर कुछ ऐसी भ्रांतियां और नादानियाँ
जिनका अतापता लाख सावधानियों के बावजूद
न तो संयुक्त राष्ट्र के डिजिटल डेटाबेस में शामिल हो पाया होगा
और न ही ये अपने अनगढ़ रूप को सजाने संवारने के लिए पकड़ में आयी होंगी.
इन अरूप सत्यों का आभास आर्यभट को नहीं मिल पाया होगा
न ही गणेश के वाचन से संपन्न हुई किताबों में उनका जिक्र आया होगा
जो आइन्स्टीन की परिशुद्ध गणनाओं की परिधि से बाहर ही बाहर
असमय आवारा और उद्धत डोल रही होंगी अतृप्त आत्माओं की तरह...

कुछ ऐसा नहीं है दृढनिश्चय के साथ कौन लिखेगा
कहीं कुछ तो ऐसा होगा
थोड़ा कुरेदो तो ऐसा कहने वाले जाने कितने मिल जायेंगे.....
***

Saturday, November 5, 2011

भूपेन हजारिका की याद


आज प्रख्‍यात गीतकार-संगीतकार भूपेन हजारिका का देहान्‍त हो गया।  उनके अब तक आ चुके कई जनगीत अतीत की कहानी आप कहते हैं। यू ट्यूब से ऐसे ही एक गीत को यहां साभार प्रस्‍तुत करते हुए अनुनाद उनको याद करता है।

Saturday, October 29, 2011

श्रीलाल शुक्ल नहीं रहे

 श्रीलाल शुक्ल नहीं रहे. राग दरबारी रहेगा. उनके न रहने की सूचना एक आघात है लेकिन उनका रचा हुआ एक विरासत. कितने दिन ऐसे गुज़रते हैं जब राग दरबारी के दृश्य एक एक कर आँखों के आगे खड़े हो जाते हैं. कभी सामान्य ज़िन्दगी जीते हुए और कभी किसी भंवर में फंसे हुए. कभी समकालीन समाज और राजनीति से अपने अपने हिस्से का संवाद करते हुए. और कभी अपने ही कुछ टूटे हुए हिस्से जोड़ते हुए. साहित्य के दिनों दिन सीमित होते जाते घेरे के बाहर भी वे उतने ही लोकप्रिय हैं. मेरे विश्वविद्यालय में इतिहास के  अग्रज  प्रोफ़ेसर अनिल जोशी के बैग में राग दरबारी ज़रूर होता है. वे कुछ भी भूल जाएँ पर रोज़ इस किताब को अपने साथ रखना नहीं भूलते और जीवन और नौकरी की जटिलताओं में अक्सर उसका कोई प्रसंग छेड़ बैठते हैं.

कथा के इस कालजयी चितेरे का कविता से प्रेम भी किसी से छुपा नहीं है. लिहाजा कविता की यह पत्रिका अनुनाद अपने इस अद्भुत बुज़ुर्ग को अपना सलाम पेश करती है. जब तक हममें सही साहित्य पढने की बुद्धि सलामत रहेगी तब वे हमेशा हमारे साथ रहेंगे...हमारे सिरहाने उनका हाथ रहेगा.   

फोटो hindini.com से साभार

Thursday, October 27, 2011

प्रो. रामदयाल मुंडा की स्‍मृति और रीता जो की कविता - यादवेन्‍द्र

प्रो रामदयाल मुंडा
पिछले दिनों देश की आदिवासी संस्कृति के बड़े विद्वान और पैरोकार 72 वर्षीय प्रो. रामदयाल मुंडा का निधन हो गया पर बड़े समाचार माध्यमों में इस घटना की कहीं कोई गूंज नहीं सुनाई दी.झारखण्ड प्रदेश की परिकल्पना को व्यवहारिक रूप देने वाले विचारकों में प्रो.मुंडा अग्रणी थे, रांची विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर भी रहे. कहा जाता है कि प्रो. मुंडा का कमरा झारखण्ड के युवा नेतृत्व का उदगम और प्रशिक्षण स्थल रहा.आदिवासी समाज,संस्कृति और भाषाओं पर उनका काम देश में काम और विदेशों में ज्यादा समादृत था इसी लिए अमेरिका सहित अनेक देशों में वे अध्यापन कार्य करते रहे. वे एक स्वतः स्फूर्त गायक के रूप में भी जाने जाते थे.उनकी इन्ही विशेषज्ञताओं की बदौलत उन्हें पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी की सस्यता से सम्मानित किया गया.कुछ समय पहले उन्हें राज्य सभा के सदस्य के रूप में नामित किया गया था.अपने विचारों के प्रचार प्रसार के लिए पहले उन्होंने खुद अपना एक दल बनाया पर संगठन का अनुभव न होने के कारण उसको उन्हें शिबू सोरेन के दल झारखण्ड मुक्ति मोर्चा में शामिल करना पड़ा.वहाँ भी उनको जब कोई सार्थक काम होता हुआ नहीं दिखा तो कांग्रेस में शामिल हो गए.

उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि आदिवासी समाज के दस करोड़ सदस्यों को जबरन हिन्दू या ईसाई समुदाय के अंदर समाहित करने की साजिश आजादी के बाद से की जाती रही है.उनकी आराधना पद्धति प्रकृति पूजा की है और उन्हें देश के छह धार्मिक समुदायों से अलग मान्यता मिलनी चाहिए...उनकी धार्मिक मान्यता को नयी पहचान प्रदान करने के लिए उन्होंने आदि धर्म का आन्दोलन शुरू किया था...इसी नाम से उन्होंने आदिवासियों की प्रचलित आराधना पद्धतियों को संकलित करते हुए एक किताब भी लिखी थी. यहाँ प्रो. राम दयाल मुंडा को स्मरण करते हुए मुझे कनाडा के आदिवासी समुदाय की प्रमुख कवियित्री रीता जो की एक प्रसिद्ध कविता याद आ रही है:



मुझे भूल गया बोलना बतियाना

रीता जो


मुझे भूल गया बोलना बतियाना
जब मैं छोटी बच्ची थी
और स्कूल में पढ़ती थी
तब तुम जाने कब इसको उठा ले गए थे.

तुम मेरे बोलने बतियाने को मुझसे छीन कर भाग गए थे
अब मैं तुम्हारी तरह बोलती हूँ
अब मैं तुम्हारी तरह सोचती हूँ
अब मैं तुम्हारी तरह कामधाम करती हूँ
अपनी दुनिया के बारे में ही नृत्य करते हुए
कई बार डांवाडोल और लड़खड़ा जाती हूँ.

अब मैं दो तरीकों से बतियाती हूँ
पर दोनों तरीकों में कहती एक ही बात हूँ
कि तुम्हारा ढब ढंग मुझसे कहीं ज्यादा बेहतर है.

अब मैं हौले से बढाती हूँ अपना हाथ
और कहती हूँ तुमसे
मुझे वापिस ढूंढ़ने दो अपना बोलना बतियाना
जिस से मैं समझा सकूँ
तुम्हें कि आखिर मैं हूँ कौन.


प्रस्तुति: यादवेन्द्र

Wednesday, October 26, 2011

नैनीताल में दीवाली - वीरेन डंगवाल

( अनुनाद के सभी पाठकों को दीपावली की शुभकामनाएं )

ताल के ह्रदय बले
दीप के प्रतिबिम्ब अतिशीतल
जैसे भाषा में दिपते हैं अर्थ और अभिप्राय और आशय
जैसे राग का मोह

तड़ तडाक तड़ पड़ तड़ तिनक भूम
छूटती है लड़ी एक सामने पहाड़ पर
बच्चों का सुखद शोर

फिंकती हुई चिनगियाँ
बगल के घर की नवेली बहू को
माँ से छिपकर फूलझड़ी थमाता उसका पति
जो छुट्टी पर घर आया है बौडर से
***

Wednesday, October 5, 2011

सिद्धान्त मोहन तिवारी की तीन कविताएं

यहां मेरे पास सिद्धान्त मोहन तिवारी की तीन कविताएं हैं। बनारस से व्योमेश शुक्ल के बाद एक और प्रतिभा युवा कविता में दखल के लिए एकदम तैयार है। एक अलग रंग, अलग तबीयत पर तरबीयत कुछ व्योमेश जैसी। दोनों की कविता में कुछ साम्य भी भाषा-शिल्प को लेकर दिखेगा पर मेरे ख़याल से ये सिर्फ़ शुरूआती प्रभाव है। इन कविताओं में एक अलग मुहावरा है। ये मुहावरा अपने समय और स्थानीय और निजी संघटनाओं से उपजा मुहावरा है। इन तीनों कविताओं में वह दिखेगा। इनके सामाजिक-राजनीतिक आशय भी स्पष्ट हैं, जिसकी मैं किसी भी कविता से उम्मीद करता हूं। एकाध अपवाद को छोड़ दें तो ये कविताएं भाषा में छुपाकर किसी रहस्य या मुश्किल का निर्माण नहीं करतीं, बल्कि उसे और खोलती हैं। यहां आकर सिद्धान्त की कविताएं कठिनाई के कवि* व्योमेश से कुछ अलग राह पकड़ती है। इनमें एक बौद्धिकता तो है पर उसे पार कर जानेवाली अनिवार्य बेबाकी भी। इन कविताओं की पठनीयता में कोई अवरोध नहीं। पाठक इन्हें और इनमें छुपे ज़रूरी सामाजिक सूत्रों को बिना किसी आलोचकीय व्याख्या के पकड़ सकता है।  कवि को मेरी शुभकामनाएं और अनुनाद पर स्वागत। हमारे दोस्त अनुराग ने सिद्धांत को सबद पर पहली बार प्रकाशित किया था, इस पोस्ट को इस लिंक पर देखिये.
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* इधर व्योमेश की कविता को दिया जाने वाला एक फतवा.
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रंग

मुझे प्रेम नहीं हुआ, कभी
मेरा प्रेम एक अलग निकाय था

जिसकी सारी ऊष्मा उसी में रहती थी

मुझे रंग चाहिए थे
ढेर सारे
एक बड़े पुलिंदे में

क्योंकि मेरे प्रेम की अनुभूति रंग से ही निर्धारित हुई थी

वहाँ काला रंग कहीं नहीं था
सफ़ेद, यदि था तो वह सफ़ेद नहीं हो रहा था
उसे हो जाना था कुछ और
लाल
मेरे सामने एक लाल नंगा युवक था
हाथ में था उसके एक ब्रश
उस ब्रश को एक लाल फूल को और ज़्यादा लाल करना था

मेरे लिए
जिस तरह एक हरी औरत थी
बाँस के तने को और ज़्यादा हरा कर रही थी

उसके लिए
एक पीला बच्चा भी तो था
वह किसी सूरजमुखी पर नहीं था
वह घास के पीले फूलों पर बैठा था
लगा था
पूरे मन से
अपनी ऊंगली से पोता-पाती में व्यस्त

एक नीला हिजड़ा था
एक सफ़ेदपोश को नारंगी रंग में रंगते हुए
चटख नारंगी

यह सारा खेल अनुभूति की सड़क की
क्यारियों में हो रहा था

वह सड़क अब प्रेम की सड़क है
नहीं, रंग की सड़क
सड़क का रंग 'बदरंग' था
वह 'बदरंग' मटमैला था

मेरा आईना था
थी
है

तुम अभी भी गुलाबी हो
सुर्ख़ गुलाबी, जैसे ज़ोर से मरोड़े गए गाल

मैं लंपट
बैंगनी.
***

हवा

कल की हवा, हवा नहीं थी
वह राख थी
जैसे परसों की हवा समय थी
आज कोई हवा नहीं है
आज सिर्फ़ खून है

बनारस की हवा मृत्यु से ख़त्म हो चुका भय है
यहाँ पानी नहीं है
यहाँ संत-साधु-घाट नहीं हैं
यहाँ की हवा मैं भी हूँ

सोनभद्र की हवा अलग है
उसकी हवा में क्रशर का चूरा नहीं है
आन्दोलन की चीखें भी नहीं हैं
पलाश और तेंदू पत्ते हैं

यहाँ की हवा
हमेशा
से
जैसे

दिल्ली में हवा ही नहीं है
बची-खुची तरावट है
या वहाँ की हवा
हवा ही है

हवा दरअस्ल हवा नहीं होती है
वह बू होती है.
***

उसके लिए जो कभी गाली नहीं दे पाया...

वह नहीं था
अपने वजूद में कहीं नहीं था
उसे डर था अपने मार खा जाने का
या पहले से ज़्यादा मज़ाक़ उड़ जाने का
जिसमें उसे सब अपना साला बुलाते थे

डर इतना था
माँ भी उसे डराती थी
बहनें भी
बाप भी
बेटी भी
पत्नी भी
बेटी और पत्नी अभी छूटे हुए थे ही

उसका हाथ नहीं उठा हर बार
जब उसके मुँह पर माँ और बहन
को
ले लिया गया

हाथ छोड़िये जनाब
मुँह तक नहीं फट पाया
गांड फटी सो अलग

यहाँ कोई दुःख नहीं था
ख़ुशी ही थी
अपने बाप की तरह होने का
बाप भी गाली नहीं देता था

बाप मर गया

माँ पाँच पुरुषों का बोझ नहीं सम्हाल पाई
मर गई

छोटी बहन तो कपडा फटते ही चली गई

दो बड़ी बहनें लिए जाने के बाद
लिए जाने के अर्थ कई हो सकते हैं, इसका अर्थ आपके मुताबिक़ न हो, तो मुझे दोषी न बनायें
गाली गन्दी थी - इसके लिए भी मुझे दोषी नहीं.
बलात्कार को बताने के लिए भी नहीं, दोषी

क्या वो मजदूर था
या कोई गुजराती कट्टू
***

Saturday, September 24, 2011

स्ट्रेंज फ्रूट - अबेल मीरोपोल प्रस्तुति और अनुवाद - यादवेन्द्र

स्ट्रेंज फ्रूट पिछली सदी के तीस के दशक में न्यूयार्क स्टेट के एक स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाने वाले रूस से भाग कर अमेरिका में बस गए गोरे यहूदी अबेल मीरोपोल(उस समय वे लेविस एलन के छद्म नाम से कवितायेँ लिखा करते थे) का गीत है जो अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे . तत्कालीन अमेरिका में अश्वेतों को खुले आम जला या पीट पीट कर मार डालने की घटनाएँ आम थीं.ऐसी ही एक घटना का चित्र देख कर मीरोपोल इतने उद्वेलित हुए कि यह गीत लिख डाला.उनका कहना था कि वे यातना देकर ऐसे मार डालने कि संस्कृति के खिलाफ हैं,अन्याय और उसके प्रश्रय देने वालों के प्रति अपनी नफरत का इजहार करने के लिए ही उन्होंने यह गीत लिखा.शुरू में इसका शीर्षक कसैला फल (बिटर फ्रूट) रखा गया था पर इस से राजनैतिक प्रतिबद्धता झलकती थी,सो मित्रों के कहने पर गीत का शीर्षक बदल दिया गया. पहली बार यह 1937 में अमेरिकी स्कूल शिक्षकों की वामपंथी यूनियन की पत्रिका में छपा और 1939 में मशहूर अश्वेत जैज़ गायिका बिली होलीडे ने इसको गाकर अमर कर दिया.तब नाईट क्लबों में हलके फुल्के गीत गाकर दर्शकों का मनोरंजन करने वाली होलीडे ने बड़े अनमने ढंग से इस गंभीर और मन को हिला कर रख देने वाले गीत कि प्रस्तुति की.उस समय की बड़ी रिकार्ड बनाने वाली कंपनी कोलंबिया ने यह गीत गंभीर राजनीतिक विषय होने के के कारण रिकार्ड करने से इंकार कर दिया.कहा जाता है कि होलीडे ने अपने पिता का प्रथम विश्व युद्ध में घायल होकर घर लौटने के बाद अमेरिका के अस्पतालों में अश्वेत होने के कारण इलाज न किये जाने से तिल तिल कर मरना देखा था,सो इस गीत ने उनके मन के तारों को झंकृत कर दिया.यह भी कहा जाता है कि होलीडे की माँ को हल्का फुल्का गा कर दर्शकों का मनोरंजन करने वाली बेटी का यह गीत गाकर एक राजनैतिक सन्देश देने का ढंग कतई पसंद नहीं था.. इस बाबत जब उन्होंने होलीडे को कहा तो उनका जवाब था: मैं यह गीत गाते हुए अश्वेतों के प्रति किये गए अन्याय को महसूस करती हूँ, अपनी कब्र में भी मैं मैं इसको याद रखूंगी.इस गीत ने जितनी ख्याति होलीडे को दिलाई उसको भुनाने के लिए उन्होंने इस गीत को लिखने का श्रेय लेने की कोशिश अपनी आत्मकथा में की पर बाद में मीरोपोल के स्पष्टीकरण से मामला साफ हो गया. उनके बाद से लगभग चालीस अन्य गायकों ने इस गीत को अपनी अपनी तरह से गया...पर अमेरिकी समाज में अश्वेत समुदाय पर किये जानेवाले अत्याचार का यह दस्तावेजी गीत बन गया.इस गीत के पक्ष और विपक्ष में बहुत तीखे विचार व्यक्त किये जाते रहे और अनेक रेडियो स्टेशनों और क्लबों ने इसपर प्रतिबन्ध भी लगाये पर आज तक के अश्वेत प्रतिरोध के गीतों में यह निरंतर अग्रणी बना रहा. डेविड मार्गोलिक ने इसपर एक बहुचर्चित किताब लिखी और इसपर बनायीं गयी फिल्म भी खूब चर्चित रही.१९९९ में टाइम मैगजीन ने इसको शताब्दी का गीत घोषित किया था. 2010 में न्यू स्टेट्समैन ने इस गीत को दुनिया के बीस सर्वश्रेष्ठ राजनैतिक गीतों में शुमार किया है. पुलित्ज़र पुरस्कार प्राप्त मशहूर इतिहासकार लियोन लिट्वाक इस गीत को बर्कले यूनिवर्सिटी में अपने छात्रों को कक्षा में पढ़ाते भी हैं.

अबेल मीरोपोल

 बिली होलीडे

एक अजीबोगरीब फल

दक्खिन के पेड़ों में लगा हुआ है एक अजीबोगरीब सा फल
पत्तियों पर लहू के धब्बे..जड़ें भी लहू लुहान
दक्खिनी हवाओं से हिल रहे हैं काले कलूटे शरीर
यह अजीबो गरीब फल झूल रहा है पोपलर के पेड़ पर..


लड़ाके दक्खिनी चरवाहों के इलाके का मंजर
बाहर निकल आयी आँखें और वीभत्स हो गए मुँह
फूलों की गमक उतनी ही मोहक और तरोताजा
पर बीच बीच में घुस आती है जलते हुए मांस की सडांध

यहाँ एक फूल खिला है जिसे नोंच ले जायेंगे कौवे
जिनपर गिरेगा बरसात का पानी,जिसको सूंघेगी बयार
जिसे सदाएगी धूप..जिसको एकदिन गिरा देगा पेड़
यहाँ उगी है एक अजीबोगरीब पर कसैली फसल...

***
प्रस्तुति: यादवेन्द्र , रूडकी
मो. 9411100294
तत्कालीन अमरीका, जो शायद ही कभी बदले 

Thursday, September 15, 2011

एथेल आइरीन काबवातो - अनुवाद और प्रस्‍तुति - यादवेन्‍द्र

एथेल आइरीन काबवातो जिम्बाब्वे की युवा कवि हैं जिनकी कवितायेँ ब्रिटिश काउन्सिल के सौजन्य से सामने आयीं.कुछ संकलनों में उनकी कवितायेँ संकलित हैं और वे कई देशों में जा कर काव्य पाठ कर चुकी हैं.उन्होंने जिम्बाब्वे की स्त्री लेखकों को संगठित करने का काम भी किया है.फिलहाल वे स्लम सिनेमा नामक प्रोजेक्ट पर काम कर रही हैं.यहाँ प्रस्तुत है उनकी दो कवितायेँ:


स्मृतियाँ


यह वो जगह है जिसे हम घर कहा करते थे
हम नाचते गाते थे यहाँ
जब पूरे शबाब पर होता था पूनम का चाँद
और लुका छिपी खेलते थे मुखिया के घर के पिछवाड़े
बड़ी बड़ी चट्टानों के पीछे छिप छिप कर
तब तो गर्मियों में भी लबालब भरी बहती रहती थी नदी

उसके घर के आस पास से
और उसकी कोठी को ही हम अपना घर कहते थे...
हम जब तब हवा से बातें करते थे...
गा गा कर उस से मनुहार करते थे
कि वो हमारे लिए अच्छे वर ढूंढ़ कर भेजे

हवा ने हमारी आवाजें गौर से सुनीं..अमल किया
और हमें बख्श दीं मुट्ठियाँ भींचे हुए मर्दों की फ़ौज
उनकी क्रूरता अब तो जगजाहिर है
और स्पष्ट दिखाई दे रही है उनसे पैदा हुए
अनगिनत बच्चों की आँखों में
जिन्हें अपनी मरियल बांहों में टाँगे टाँगे फिर रही हैं हम

अब हमारा पीछा कर रही हैं कैसी कैसी दुश्चिंताएं
पर किसी और के कोप से नहीं पैदा हुई ये विपत्तियाँ

हम इंसानों की ही सिरजी हुई है ये दुनिया.
***

एक योद्धा की कब्र

उन्होंने आज उसको दफना दिया
होंठ और जीभ काट कर फेंक दिए अलग
जैसे वह कहीं गरज न पड़े
मरने के बाद भी
अचानक.
***

Tuesday, August 30, 2011

फकुन्दो कब्राल - अनुवाद तथा प्रस्‍तुति - यादवेन्‍द्र

पूरे लैटिन अमेरिका में बेहद सम्मानित 74 वर्षीय लोक गायक और लेखक फकुन्दो कब्राल की पिछले महीने बन्दूकधारी अपराधियों ने दिन दहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी...अपनी आँखें लगभग गँवा चुके कब्राल औपचारिक शिक्षा से महरूम एक यायावर लोकगायक थे , जो राजनैतिक अस्थिरता और सैनिक तानाशाहियों के लिए जाने जाने वाले उपमहाद्वीप में अपने विद्रोही गीतों के कारण बहुत ख्याति अर्जित कर चुके थे.सैलानियों के लिए कुछ पैसों के लिए गाने से शुरू करके इस प्रतिभाशाली और राजनैतिक रूप में सजग कलाकार ने तानाशाहियों के विरुद्ध जनता की आवाज बुलंद करने तक का सफ़र तय किया.बचपन में गरीबी और जलालत का कडवा अनुभव कर चुके कब्राल सत्तर के दशक में अंतर राष्ट्रीय पटल पर उभरे.1976 में अर्जेंटीना में सैनिक तानाशाही के सत्ता में आने के बाद उन्हें जान बचाने के लिए कुछ वर्षों के लिए मैक्सिको जाना पड़ा...दो वर्ष बाद उनकी पत्नी और नन्ही सी बेटी एक हवाई दुर्घटना में मारे गए. उनके प्रभाव को देखते हुए यूनेस्को ने उन्हें 1996 में शांति का अंतरराष्ट्रीय सन्देशवाहक घोषित किया था.उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि मृत्यु पर अनेक देशों के राष्ट्रपतियों ने उन्हें व्यक्तिगत स्तर पर श्रद्धांजलियां दीं. यहाँ प्रस्तुत है उनकी एक बेहद चर्चित लघु कथा और कविता.


मोची ने ईश्वर की पेशकश ठुकराई


एक दिन ईश्वर ने सोचा क्यों न किसी छोटे शहर में फिर से जन्म लिया जाये और वो भी किसी बेघर गरीब आदमी के परिवार में. सो,चलते चलते वे शहर के एक मोची के ठिये पर पहुँच गए .
उसके सामने खड़े होकर ईश्वर ने बात शुरू की: मैं बहुत गरीब आदमी हूँ और मेरी जेब में एक पाई भी नहीं है.मेरी ये घिसी पिटी पुरानी चप्पल है,इसमें सिलाई मार दोगे भाई?
मोची ने सिर उठा कर देखा और बोला: दिन भर में जाने ऐसे कितने कंगाल आते हैं ...किसी की जेब में तुम्हारी तरह ही कुछ नहीं होता..मैं इनसे आजिज आ चुका हूँ अब तो.
ईश्वर: पर भाई,मैं तुम्हें ऐसा कुछ दे सकता हूँ जिसकी दरकार तुम्हें पड़ेगी.
मोची: क्या तुम मुझे दस लाख रु. दे सकते हो जिनसे मेरा ढंग से जीवन यापन हो सके?
ईश्वर: हां,दे तो मैं तुम्हें इसका दस गुणा भी हूँ पर इसके लिए तुम्हें कुछ त्याग करना पड़ेगा...अपनी टांगें दे सकते हो मुझे?
मोची: पर मैं करोड़ रु.लेकर ही क्या करूँगा जब मेरे लिए चलना फिरना मुमकिन नहीं रहेगा.
ईश्वर: छोड़ो इसको,मैं तुम्हें इसका भी दस गुणा दे रहा हूँ पर बदले में तुम मुझे अपनी दोनों बाँहें दे दो.
मोची: बाँहें दे दूंगा तो मैं खुद अपना खाना कैसे खा पाउँगा ?...अपने पैसे अपने पास ही रखो भाई.
ईश्वर: चलो एक मौका और देता हूँ...तुम अपनी दोनों आँखें मुझे दे दो तो मैं सौ गुणा दौलत देने को तैयार हूँ...सोच लो.
मोची: नहीं चाहिए मुझे कितनी भी दौलत.. जिसको ले के मैं अपनी बीबी,बच्चों और दोस्तों को न देख पाऊं वैसी दौलत मेरे किस काम की...ना मंजूर.
ईश्वर: वाह मेरे भाई, तुम्हें मालूम भी नहीं कि तुम कितने खुश किस्मत हो...धन्य हो.
***


न मैं यहाँ का हूँ, न वहाँ का


मुझे पसंद हैं वे लोग जो अनर्गल नहीं बोलते
मुझे पसंद हैं वे लोग जो गाते हैं गीत
मैं खुद को अपने साथ लिए घूम रहा हूँ
मुझे पसंद है जो हो रहा है मेरे साथ
ऐसी बातें मेरे साथ होती रहती हैं
हाँलाकि यह जरुरी नहीं कि ऐसी हर बात
मैं दूसरों को बताने ही जाऊँ
पर कोई अदद इंसान अकेला नहीं होता
जो उसके साथ होता है वो दुनिया के साथ भी होता है
वजह और कारण अलग हों भले ही
क्योंकि हर चीज मुकम्मल होती है
जैसे मुकम्मल है ईश्वर
जो जब एक फूल तोड़ता है तो
खिसका देता है एक सितारा अपनी जगह से
मानो...जैसे एक...वैसे ही दो....
जिस रात मैंने एक भूखे आदमी को कुछ खाने को नहीं दिया
उस पूरी रात मुझे शैतान का डर सताता रहा
और उसी दिन मुझे एहसास हुआ
कि शैतान तो ईश्वर का ही बेटा है.

मैं जीवन भर एकाकी घूमता रहा
सिर्फ धुनों और तालों को साथ लिए
मामूली सा गायक अपने में मगन
इस मुगालते में नहीं रहा कि
सिखा सकने का माद्दा है मुझमें
यदि दुनिया गोल है
तो मालूम नहीं इसके बाद क्या आएगा
चलना और निरंतर चलते रहना
चलते रहने के लिए चलते रहना
मैं दुनिया को सिखाने के लिए नहीं आया
अपना काम करने आया हूँ बस
मैं लोगों के बारे में फैसले करने नहीं
लोगों से साझा करने आया हूँ अपने अनुभव
मेरा संकल्प है जीवन...मेरा रास्ता है गाने का...गाना...
जीवन के गीत..
यही मेरा जीने का अंदाज है.

मैं थिरकता हूँ खुद अपने गीतों पर
दूसरा कोई क्यों मेरे लिए बनाये धुनें
मैं अपने आप आजादी तो नहीं हूँ
पर इसका बुलंद आह्वान जरुर हूँ
जब मुझे पता है मेरा रास्ता
तो क्यों इधर उधर की पगडंडियों पर भटकूँ
जब मुझे प्रिय है आजादी तो क्यों करूँ गुलामी?

मैंने माँगा..हरदम मैंने माँगा
खुद के लिए अपने भाई से ज्यादा
और यदि मैंने ईश्वर से माँगा होता
कि बना दे मुझे चील
तो वो इस लिए कि मुझे प्रिय है कीड़े मकोड़ों का निवाला.
मुझे पसंद है पैदल चलना
बजाय इसके कि चिरौरी करूँ किसी की
कि थोड़ी देर को दे दे अपनी बग्घी
सेब की ताक में रहने वाले लोग
हमेशा चलते हैं किनारे किनारे.

जो अपने कन्धों पर रखता है सबसे कम बोझ
वही गंतव्य पर पहुँचता है सबसे पहले
जिस दिन मैं मरूँगा
नहीं होगी दरकार ताबूत के लिए किसी नाप की...
एक गायक के लिए तो नृत्य ही काफी होगा.

मैं दुश्मनों का मुकाबला करता हूँ
पर प्रशंसा पर मुँह फेर लेता हूँ
मीठी प्रशंसा से फूल कर कुप्पा होने का मतलब होता है
कबूल कर लेना अधीनता और गुलामी..
आदमी घोड़े की पीठ पर फेरता है हाथ
उसपर सवारी करने की खातिर...
यदि मैं अपनी हदें पार कर रहा होऊं
या आपको लग रहा होऊं नैतिकतावादी
तो मुझे माफ़ कर दें...
इस दुनिया में कोई मशविरा देने का अधिकारी नहीं
कोई भी इतना सयाना नहीं बना अभी...

मैं जब सूरज को साध लेता हूँ अपनी पीठ पर
तो पूरी दुनिया प्रकाशमान हो जाती है
मुझे पसंद है पैदल दूरियां नापना
पर मैं सीधी सड़क नहीं पकड़ता
क्योंकि तय रास्तों में अनुपस्थित रहता है अनजानेपन का कुतूहल
गर्मियों में मैं दूर निकाल जाना पसंद करता हूँ
पर सर्दियाँ आते ही लौट आना चाहता हूँ माँ के पास...
उन कुत्तों से मिलना चाहता हूँ
जो भूलते नहीं मेरी छुअन
उन घोड़ों को भी...
भाई का प्रगाढ़ आलिंगन...
मुझे ये सब पसंद है...
मुझे ये सब पसंद है...

मुझे पसंद है सूरज,एलिसिया और बतख
अच्छी सी सिगार...स्पैनिश गिटार
जब कोई स्त्री दुःख से रोने लगे तो
चाहता हूँ दीवारों को लांघना
खिडकियों को खोल देना...

मुझे जितनी पसंद है शराब उतने ही हैं फूल भी
फुदकते खरगोश...पर ट्रैक्टर बिलकुल नहीं
घर पर बनाई हुई ब्रेड और गाना बजाना
और मेरे पैरों को बार बार
धो डालने वाला सागर.

न मैं यहाँ का हूँ न वहाँ का
मेरी कोई उमर नहीं न ही है भविष्य
बस खुश रहना चिर परिचित रंग है
मेरी पहचान का.

मुझे हमेशा से पसंद रहा है रेत पर लेटना
या साईकिल पर बिटिया का पीछा करना
या तारों को निहारते रहना मारिया के साथ साथ
खेतों की हरी गद्दी से.

न मैं यहाँ का हूँ न वहाँ का
मेरी कोई उमर नहीं न ही है भविष्य
बस खुश रहना चिर परिचित रंग है
मेरी पहचान का.
***
अनुनाद पूरी तरह कविता की पत्रिका है पर आज इसमें यादवेन्‍द्र जी के सौजन्‍य से एक लघुकथा छप रही है। आगे शायद ये पत्रिका इस तरह की सामग्री के लिए और भी खुले।

Saturday, August 27, 2011

रुलाई

चित्र गूगल से साभार

मुझे नहीं पता मैं पहली बार
कब रोया था
हालांकि मुझे बताया गया कि पैदा होने के बाद भी
मैं खुद नहीं रोया
बल्कि नर्स द्वारा च्यूंटी काटकर रुलाया गया था
ताकि भरपूर जा सके ऑक्सीजन पहली बार हवा का स्वाद चख रहे
मेरे फेफड़ों तक

मुझे अकसर लगता है कि मैं शायद पहली बार रोया होऊंगा
मां के गर्भ के भीतर ही
जैसे समुद्रों में मछलियां रोती हैं
चुपचाप
उनके अथाह पानी में अपने आंसुओं का
थोड़ा-सा नमक मिलाती हुई

हो सकता है
उनके और दूसरे तमाम जलचरों के रोने से ही
खारे हो गए हों समुद्र

मैं भी ज़रूर ऐसे ही रोया होऊंगा
क्षण भर को अपने अजन्मे हाथ-पांव हिलाकर
बाहर की दुनिया की तलाश में
और मेरे रोने से कुछ तो खारा हो ही गया होगा
मेरे चारों ओर का जीवन-द्रव

मुझे नहीं मालूम कि मां ने कैसा अनुभव किया होगा और इस अतिरिक्त खारेपन से
उसे क्या नुकसान हुआ होगा ?

उस वक्त
वह भी शायद रोयी हो नींद में अनायास ही
बिसूरती हुई
सपना देख रही है कोई दुख भरा - शायद सोचा हो पिता ने
सोते में उसका इस तरह रोना सुनकर

जहां तक मुझे याद है
मैं कभी नहीं रोता था खुद-ब-खुद फूटती
कोई अपनी
निहायत ही निजी रुलाई
मुझे तो रुलाया जाता था
हर बार
कचोट-कचोट कर

बचपन में मैं रोता था चोट लगने या किसी के पीटने पर
और चार साल की उम्र में एक बार तो मैं रोते-रोते बुखार का शिकार भी हुआ
जीवन में अपनी किसी आसन्न हार से घबराए
पिता द्वारा पीटे जाने पर
तब भी मां बहुत रोयी थी
रोती ही रही कई दिन मेरे सिरहाने बैठी
पीटने वाले पिता भी रोये होंगे ज़रूर
बाद में काम की मेज़ पर बैठ
पछताते
दिखाते खुद को
झूटमूट के
किसी काम में व्यस्त

मेरे बड़े होने साथ-साथ ही बदलते गए
मेरे रोने के कारण
महज शारीरिक से नितान्त मानसिक होते हुए

हाई स्कूल में रोया एक बार
जब किसी निजी खुन्नस के कारण
आन गांव के
चार लड़कों ने पकड़ा मुझे ज़बरदस्ती
और फिर उनमें से एक ने तो मूत ही दिया मेरे ऊपर धार बांधकर
गालियां बकते हुए

क्रोध और प्रतिहिंसा में जलता हुआ धरा गया मैं भी अगले ही दिन
लात मार कर उसके अंडकोष फोड़ देने के
जघन्यतम अपराध में
मुरगा बन दंडित हुआ स्कूल छूटते समय की प्रार्थना-सभा के दौरान
और फिर उसी हालत में
मेरे पिछवाड़े पर
जमाई हीरा सिंह मास्साब ने
अपनी कुख्यात छड़ी
गिनकर
दस बार
दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में
महीनों चलता रहा
उस लड़के का इलाज

इस घटना के एक अजीब-से एहसास में
आने वाली कितनी ही रातों तक रोया मैं एक नहीं कई-कई बार
घरवालों से अकारण ही छुपता हुआ
रजाई के भीतर घुट कर रह गई मेरी वह पहली बदली हुई रुलाई
जीवन में ये मेरे अपने आप रोने की
पहली घटना थी
जितनी अप्रत्याशित लगभग उतनी ही तय भी

मैंने देखा था अकसर ही विदा होते समय रोती थीं घरों की औरतें भी
लेकिन किसी बहुत खुली चीख या फिर किसी गूढ़ गीत जैसा होता था उनका यह रोना
और मैंने इसे हमेशा ही रुलाई मानने से
इनकार किया

कुछ और बड़ा हुआ मैं तो
आया एक और एहसास जीवन में लाया खुशियां अनदेखी कई-कई
जिनमें बहुत आगे कहीं एक अजन्मा शिशु भी था
और जिस दिन उस लड़की ने स्वीकार किया मेरा प्यार
तो मैंने देखा हंसते हुए चेहरे के साथ वह रो भी रही थी
धार-धार
उन आंसुओं को पोंछने के लिए बढ़ाया हाथ तो उसने भी मेरे गालों से
कुछ पोंछा
मैं थोड़ा शर्मिन्दा हुआ खुद भी इस तरह खुलेआम रो पड़ने पर
बाद में जाना कि दरअसल वह तो तरल था
मेरे हृदय का
इस दुनिया में मेरे होने का सबसे पुख्ता सबूत
जो निकल पड़ा बाहर
उसे भी एक सही राह की तलाश थी मुद्दत से
जब उसने मेरी आंखों का रुख लिया

फिर आए - फिर फिर आए दु:ख अपार
कई लोग विदा हो गए मेरे संसार से बहुत चुपचाप
कईयों ने छोड़ दिया साथ
कईयों ने किए षड़यंत्र भी
मेरे खिलाफ
मैं कई-कई बार हारा
तब जाकर जीता कभी-कभार
लेकिन बजाए हार के
अपनी जीत पर ही रोया मैं हर बार

बहुत समय नहीं गुज़रा है
अभी हाल तक मैं रो लेता था प्रेयसी से पत्नी बनी उस लड़की के आगे भी खुलकर
बिना शर्माए
पर अब निकलते नहीं आंसू
उन्हें झुलसा चुकी शायद समय की सैकड़ों डिग्री फारेनहाइट आग
होने को तो
विलाप ही विलाप है जीवन
पर वो तरल - हृदय का खो गया है कहीं
डरता हूं
कहीं हमेशा के लिए तो नहीं ?

रात-रात भर अंधेरे में आंखें गड़ाए खोजता हूं उसी को
भीतर ही भीतर भटकता दर-ब-दर
अपने हिस्से की पूरी दुनिया में
उन बहुत सारी चीज़ों के साथ
जो अब नहीं रही

चाहता हूं
वैसी ही हो मेरी अन्तिम रुलाई भी
जैसे रोया था मां के गर्भ में पहली बार
मुझे एक बार फिर ढेर सारे अंधेरे और एक गुमनाम तलघर से बाहर
किसी बहुत जीवन्त
और रोशन दुनिया की तलाश है

अब तो मेरे भीतर नमक भी है ढेर सारा
मेहनत-मशक्कत से कमाया
लेकिन कोई हिलता-डुलता जीवन-द्रव नहीं मेरे आसपास
कर सकूं जिसे खारा
रो-रोकर

और इस लम्बी और अटपटी एक कोशिश के बाद तो
स्वीकार करूंगा यह भी
कि मेरी रुलाई कोई कविता भी नहीं
आखिर तक
लिखता रह सकूं जिसे मैं महज
कवि होकर।


Thursday, August 18, 2011

दो नेपाली कविताएं - विक्रम सुब्‍बा - अनुवाद तथा प्रस्‍तुति- अनिल कुमार



ओख्कर (अखरोट)


छूकर देखा तुम्हा‍रा दिल
अखरोट के आकार का है
जिसे चूमने के बाद पता चला कि अखरोट के
नर्म गूदे की तरह
सुस्वादु है तुम्हारा प्रेम

यदि यह ऊपर से अखरोट की तरह कठोर न होता    
कहां सुरक्षित रह पाता यह स्वाद

छाती के भीतर यदि दिल न होता
तो जीवनसंगीत कहां धड़कता
यदि नारी और पुरुष न होते प्रेम के गीत कौन गाता

कौन करता अंत्येष्टि अगर हमारी संतानें न होती
कौन घर हमें अपनाता
घर न होता तो फिर देश क्यों आवश्यक होता

ओह,
यहां घरवालों का देश नहीं है
देशवालों के पास घर नहीं है
इसलिए मैं इस समय
इतिहास में चार नए खम्भे गाड़ना चाहता हूं
एक ही बार में घर और देश खोजने के लिए
आंदोलित होकर
लहू से देश की सीमाओं को लिख रहा हूं

मैंने फिर छूकर देखा
तुम्हारा दिल अखरोट के आकार का है
उसे चूमने के बाद मुझे पता चला
कि अखरोट के गूदे जैसा ही
सुस्वादु है
अपने देश का प्रेम।
***


परेवा र चील (कबूतर और चील)



जिस किसी भी देश के
ऊंचे से ऊंचे पर्वत से
जितने भी सफ़ेद कबूतर उड़ाओ
खुले आकाश में

दिन में
चील कबूतर का शिकार कर ही लेगी
और यह चील
अमेरिका का राष्ट्रीय पक्षी है
***
इन कविताओं को मूल से हिंदी अनुवाद में मेरे शोधछात्र अनिल कुमार लाए हैं। वे पिथौरागढ़ के वासी हैं और उनका नेपाल के सीमान्‍त इलाक़ों और नेपाली भाषा से गहरा नाता है। आगे अनुनाद पर उनके और अनुवाद प्रस्‍तुत किए जायेंगे।
***
अन्‍तर्जाल पर मौजूद कवि का परिचय

नाम : विक्रम सुब्बा
औपचारिक नाम : डिल्ली विक्रम इङ्वाबा

जन्म मिति : वि.सं. २००९, पौष २० गते (January 3, 1953)

जन्मस्थान : पाँचथर फिदीम – ६, ओदिन

स्थाई ठेगाना : ८६/१५ शंखमूल, काठमाण्डौ

फोन : ४७८३५०१(घर), ९८५१०-७२९६५ (मोवाइल)

ईमेल : ingwaba2005@gmail.com

सम्प्रति : निर्देशक, हर्डेक-नेपाल

प्रकाशन

१. शन्तिको खोजमा (खण्डकाव्य)– २०३४ – Nepal

२. कविको आँखा कविताको भाखा (कविता संग्रह) – २०३९ – Nepali

३. सगरमाथा नाङ्गै देखिन्छ (कविता संग्रह) – २०४१ – Nepali

४. Concise Limbu Grammar and Dictionary – 1985 (२०४२) – English (Joint research and co-authored with late Dr. Alfons Wiedert, Kiel University/Germany

५. सुम्निमा पारुहाङ (मुन्धुम काव्य)– २०४५ – Nepali

६. विक्रम सुब्बाका कविता र गीतहरू – २०६०, प्रकाशक: लक्ष्मीसुन्दर निङलेखु , शंखमुल काठमाण्डौ – Nepal

Wednesday, August 10, 2011

मृत्‍युजंय के पद - विपद

1.
साधो, भ्रष्टन के कंह लाज !
चाल चरित्र चित्र सब चकचक, चौचक चपल समाज
कर्नाटक की कुञ्ज गलिन में, किलकत हैं बेल्लारी, येदुरप्पा के पदचिन्हन पर सदानंद की बारी
अडवानी के परम दुलरुवा, सुषमा दीन्हा राज, बरन-बरन के खनिज मंगाए, बांह गाहे की लाज
लूटत, खात, अघात परसपर साधत हैं सब काज, देशभक्ति के नव परिभाषा संघ गढ़त है आज
कलि कराल में भ्रष्ट महासुख, भ्रस्टन ही कै राज, साखामृग इतराय फिरें सब, यही बात कै नाज़

2.
साधो, रामदेव बलिहारी !
जनता पिटी, भागि गै बबवा, करमन की गति न्यारी
झूठहिं खाय झूठ ही भाखै झूठहिं करि असनान, हरिद्वार में काटै बंधू जन-गण-मन कै कान
पूछे कोऊ जो कहं से बाबा पायो धन की खान, बाबा के धुकधुकी बढे औ मंद परतु है प्रान
मन्त्रिन संग कै साठ-गाँठ भै प्रायोजित मोमेंट, मंत्री रूठा, बाबा भागा छोड़-छाडि के टेंट
शीर्षासन कै अनत महासुख नीरोगी ह्वै काया, मस्तक कै उपचार करो कोई बाबा बिलहिं लुकाया

3.
साधो , दिल्ली का दरबार !
कामन जन का वेल्थ लूटि कै हत्या कै ब्योपार
चारो धाम चतुर्दिक हल्ला जग्य भया भरभंड, कलमाडी बौराया घूमै काहे दीन्हा दंड
किया धरा जा के कहिबे पर, शाल ओढि कश्मीरी, मुस्काती वही घूमि टहरि अब छांटि रही है पीरी
दस जनपथ जै जै राहुल जै सोनिया माता जै जै, हमहीं नाहिं चोराया मुरगा, ऊहो था, ऊहो है
खसी शाल, मूरति मुसुकाई आशीष देती माई, कछु दिन धीरज धरहु तात फिर लैहों बैंड बजाई

4.
साधो, सही निशाना साधो !
काले धन की उजली है मति, अबिगत की गति जानो !
कौन कौन पैसेवाला है कौन बैंक में खाता, कौन कौन है इसके पीछे पाग खोल बिछ जाता
वही बनावै लोकपाल, वहि है विपक्ष वहि नेता, वहि है सत्ता, शासन वहि है, वहि मंत्री अभिनेता
नई आर्थिक नीति बतावै वही सजावै सेज, संसद बहस बीच वहि तोरै माइक कुर्सी मेज
सौ फन सौ जबान से बोलै इ है तक्षक नाग, चहुँ दिस से लुक्कारा थामो चलो जराएं आग

5.
साधो, अन्ना को समझाते !
वृक्ष पुरातन जड़ नहिं काटत, पत्ता तोरत जाते
लोकपाल पे भूखे बैठे, बहुत दिनन से संत, देखो भईया यहि कनून कै अब नियराया अंत
मनमोहन अति चतुर मदारी सिब्बल डमरूधारी, श्याम रंग अति चतुर बंदरिया संसद फंसद सारी
लोकपाल से क्या होगा, जब कूपहि में है भांग, गले गले सब डूब रहे हैं, देशभक्ति का स्वांग
अन्ना बाबा, आओ दिल्ली 100 घंटा घेराव, नई आर्थिक नीति उखाड़ो, यहि भवसागर नाव

Monday, August 8, 2011

यादवेन्द्र की कविता - कुहासा

एक सुखद आश्चर्य की तरह आज याद्वेन्द्र जी का मेल मिला और साथ मे यह कविता..अनुनाद के पाठक ज़रूर इसे पसन्द करेंगे...
____________________________________________
***


शिरीष,
आपके यहाँ जब पिछले दिनों आया था तो हलकी बरसात और कुहासे के अंदर तैरते हुए हम आपके घर तक आए थे.तब से यह एहसास मेरे अंदर बसा हुआ था.उसको संजोने की एक कोशिश:

--- यादवेन्द्र


कुहासा

कई बार हम देखने पर ज्यादा जोर देते हैं
कई बार महसूस करने पर...
कचहरियों की तरह प्रमाण को जरुरी मानते हैं कुछ लोग
और पिटी हुई स्त्री की आँखों में दुबके डर की बजाय
शरीर पर दर्ज चोट के निशान ढूँढते हैं लेंस ले कर....
छूना, सुनना,सूँघना, चखना बीच बीच में पड़ने वाले पड़ाव हैं.

बड़ी शिद्दत से ऐसे भी लोग हैं जो चाहते हैं
कभी कभी कुछ देखें न...ऑंखें बंद किये रहें
और ठोस छुअन के साथ नंगे पाँव बिना गिरे पड़े
स्मृतियों की तंग गलियों में लम्बा चक्कर लगा कर
बिना किसी से पूछे समझ जाएँ कौन कौन गाँव छोड़ गया.

आँखें खुली रखने का देखने से दरअसल कोई सम्बन्ध नहीं है
देखते हम वही हैं जो शिकारी ड्रोन सा सचमुच देखना चाहते हैं
गर्दन घूमे न घूमे,निगाह दसों दिशाओं में घूम जाती है
फिर भी कइयों को तो शरीर से चिपके जोंक तक नहीं दिखते
हाँ,सामने बैठा शख्स तिरछी नजर पलभर में ही जरुर भांप लेता है.

प्रेम दिखाई नहीं देता सिवा आँखों की तरलता के
क्रूरता होने से पहले सिर्फ आँखों की धधक में तैरती है
अवसाद को तिरछी नजर की तरह साथ के लोग देखते हैं मारते हुए कुंडली.
उसी तरह महकता है तभी दिखता है
कुहासा
जब सौंप देता है अपनी सारी तरलता
रुखी सूखी पथरीली धरती को.
***

Wednesday, July 27, 2011

विज्ञान के दरवाज़े पर कविता की दस्तक- दूसरी कड़ी

प्रस्‍तुति - यादवेन्‍द्र


पूरी कविता और इस पर बहस के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें  ...

द पब्लिक एजेंडा के नवम्बर 2010 में प्रकाशित साहित्य विशेषांक में वरिष्ठ कवि राजेश जोशी की एक अनोखी कविता है बिजली का मीटर पढने वाले से बातचीत जो विज्ञान और कविता के बीच की सदियों से लीपपोत कर सुरक्षित खड़ी की गयी विभाजक दीवार का बड़े साहस और अधिकार से अतिक्रमण करती है.जैसा कि शीर्षक से ही जाहिर है यह एक घर में बिजली का मीटर पढने गए एक मुलाजिम और घर के बासिन्दे के बीच एक बातचीत का ब्यौरा देती है.आम तौर पर इस तरह के मुलाजिमों को बातचीत करने लायक नहीं समझा जाता और वे डाकिया ,अख़बार वाले और गैस का सिलिंडर पहुँचाने वाले लड़कों की श्रेणी में आते हैं जिनका काम अदृश्य हवा की तरह चुपचाप बाहर बाहर से ही काम निबटा कर आगे का रास्ता देखने का होता है.मीटर पढने वाला घर में रौशनी पैदा करने के लिए इस्तेमाल की गयी बिजली का हिसाब करता है पर बात इतने से ही नहीं बनती...

"क्या तुम्हारी प्रौद्योगिकी में कोई ऐसी भी हिकमत है
अपनी आवाज को थोड़ा सा मजाकिया बनाते हुए
मैं पूछता हूँ
कि जिससे जाना जा सके कि इस अवधि में
कितना अँधेरा पैदा किया गया हमारे घरों में?
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हमलोग एक ऐसे समय के नागरिक हैं
जिसमें हर दिन मंहगी होती जाती है रौशनी
और बढ़ता जाता है अँधेरे का आयतन लगातार"

सहज बोध की संरचना में न समाने वाले बेधक प्रश्नों से मीटर पढने वाले के चिढने पर कवि सरलता से कहता है:

"मैं अँधेरा शब्द का इस्तेमाल अँधेरे के लिए ही कर रहा हूँ
दूसरे किसी अर्थ में नहीं"
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"ऐसा कोई मीटर नहीं जो अँधेरे का हिसाब किताब रखता हो"

यहाँ मैं अपने पाठकों के साथ साझा करना चाहता हूँ कि अँधेरे को ले कर दुनिया में अलग अलग तरह के वैज्ञानिक अध्ययन किये जा रहे हैं...और जीव विज्ञान और अंधकार के अंतरसम्बन्ध के लिए पिछले दिनों एक नया शब्द भी गढ़ा गया है; स्कोटो बायोलोजी.अब तक के वैज्ञानिक अध्ययन यह बताते हैं कि अन्धकार में लम्बे समय तक रहने से बीमारियाँ (मुख्य रूप में कैंसर और मानसिक बीमारियाँ) ज्यादा होती हैं.नोर्थ कैरोलिना स्टेट यूनिवर्सिटी ने अटलांटिक में जल सतह के आस पास रहने वाली मछलियों पर अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि जब यही मछलियाँ अँधेरी गुफाओं के अंदर जाकर रहने लगती हैं तो उनकी प्रजनन क्षमता पर प्रतिकूल असर पड़ता है.

हाल में प्रकाशित एक बहुचर्चित शोधपत्र में(जिसका शीर्षक है: Good Lamps are the Best Police) बताया गया है कि अंधकार लोगों में बेइमानी और स्वार्थ की भावना को कई गुणा ज्यादा बढ़ा देता है.यहाँ तक कि काला चश्मा पहन कर भी लोगों के मन में खोट आने लगती है,अनेक व्यक्तियों के साथ किये गए वैज्ञानिक प्रयोगों से यह बात सामने आयी है.

इन तथ्यों की पृष्ठभूमि में कवि राजेश जोशी का मीटर रीडर से किया गया प्रश्न सम्पूर्ण मानव जाति के व्यवहार को समझने की एक निर्दोष और सोद्देश्य कोशिश है...उनकी इस सार्वभौम सजगता को सलाम.
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Thursday, July 21, 2011

रिक्शे की कविता : प्रस्तुति - यादवेन्द्र

विज्ञान के दरवाज़े पर कविता की दस्तक


स्वर्गीय रघुवीर सहाय ने आज से करीब बीस साल पहले रिक्शे को केंद्र में रख कर एक कविता लिखी थी साईकिल रिक्शा जिसमें रिक्शा चलाने वाले गरीब आदमी और उसपर सवारी करने वाले बेहतर आर्थिक स्थिति वाले आदमी के बीच के फर्क को मानवीय नजरिये से देखने की बात कही थी.उन्होंने घोड़े जैसे पशु का काम इंसान से कराने की प्रवृत्ति का प्रतिकार भी इस कविता में किया था...और साम्यवाद का हवाला देते हुए दोनों इंसानों की हैसियत बराबर करने का आह्वान किया था.सामाजिक गैर बराबरी को समूल नष्ट करने के लिए प्रेरित करने वाली इस छोटी सी कविता में इंजिनियर पुत्र के पिता सहाय जी ने विज्ञान और तकनीक के मानवीय चेहरे को पोषित करने के लिए वैज्ञानिक समुदाय के सामने एक गंभीर चुनौती रखी है जो विज्ञान की सीमाओं को लांघ कर व्यापक मानवीय कल्याण की दिशा में अग्रसर हो.आम तौर पर सृजनात्मक कलाओं और साहित्य को ह्रदय और विज्ञान को मस्तिष्क का व्यवहारिक प्रतिरूप मानने का दृष्टिकोण अपनाने वाले लोगों के लिए यह कविता एक अचरज या चुनौती बन कर सामने खड़ी हो जाती है...खास तौर पर उन लोगों के लिए तो और भी जो हिंदी समाज को मूढ़ मगज माने बैठे हैं. रघुवीर सहाय जी के साथ इस टिप्पणीकार का दिनमान के सक्रिय लेखक होने के नाते बहुत ही घना आत्मीय रिश्ता था और घनघोर वैचारिक मतभेदों के बावजूद उनकी विश्व दृष्टि और सहिष्णु सहकारिता का स्मरण कर के आज भी सिर आदर से झुक जाता है.कविता लिखे जाने से पहले उनसे इस विषय पर लम्बी चर्चा हुई थी और वैज्ञानिक अविष्कारों और उनको व्यवहारिक जमा पहनाने वाली तकनीकों के बारे में उनकी बालसुलभ जिज्ञासा और सरोकार समाज के सयानेपन की अंधी दौड़ में गुम होते गए हैं.कविता की प्रासंगिक पंक्तियों के साथ उनको विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए नए ढंग के रिक्शे का आविष्कार करने के उनके सजग आग्रह को प्रणाम:

"आओ इक्कीसवीं सदी के इंजीनियर
ईजाद साईकिल रिक्शा ऐसी करें
जिस में सवारी और घोड़ा अगल बगल
तफरीहन बैठे हों.
मगर आप पूछेंगे इस से क्या फायदा ?
वह यह कि घोड़े को कोई मतभेद हो
पीछे मुँह मोड़ कर पूछना मत पड़े ."

प्रस्तुति; यादवेन्द्र

Friday, July 15, 2011

रीसम हेले- चयन और प्रस्तुति: यादवेन्द्र

रीसम हेले अफ़्रीकी देश इरीट्रिया के सबसे लोकप्रिय कवि हैं -- उनकी लोकप्रियता कविताओं की विषय वस्तु और लोक संस्कारों में रची बसी शैली के कारण तो है ही..इस लिए सबसे ज्यादा है कि बीस बरस दुनिया के तमाम देशों में घूमने और रहने वाले हेले ने 1994 में नवस्वतन्त्र देश इरीट्रिया लौट कर कवितायेँ लिखने के लिए अंग्रेजी जैसी भाषा नहीं चुनी बल्कि करीब पाँच हजार साल पुरानी और लिखित साहित्य के दायरे में लगभग मृतप्राय टिग्रिन्या भाषा चुनी.पिछले कुछ सालों में प्रकाशित उनके दो  भाषाओँ के कविता संकलन बेहद लोकप्रिय हैं. यहाँ प्रस्तुत हैं हेले की कुछ कवितायेँ

तुम्हारी बहन

बेटी बहन
तुम्हारी अपनी प्यारी सी बेटी
तुम्हारी माँ की बेटी
उसकी बहन की और भाई की बेटी
तुम्हारे पिता की बेटी
उनकी बहन और भाई की बेटी
तुम्हारे भाई और बहन की बेटी
तुम्हारे बुजुर्ग भाई की बेटी
तुम्हारी बुजुर्ग बहन की बेटी
चाहे कोई भी स्त्री हो

इस शहर की बेटी
तुम्हारे पड़ोस की बेटी
तुम्हारे मुल्क की
बेटी और बहन
तुम्हारी खुद की बहन
तुम्हारी खुद की बेटी
तुम्हारी नानी दादी और माँ
तुम्हारी मंगेतर और तुम्हारी पत्नी
एक एक अदद बेटी
अंग और अंश है तुम्हारा

चाहे खुद की प्यारी बेटी हो
बहन की बहन या उसकी भी बहन हो

इज्जत करो
इन सब के
एक एक के हक़ की .

***


विदेशी मदद

माँगो!
मैं दे रहा हूँ!
माँगो!
मैं और ज्यादा दे रहा हूँ!
इतना कुछ देने के बाद भी तुम
मुझे क्यों अपमानित करते हो?
इसलिए कि तुम
मुझे माँगने के लिए उकसाते हो.
***
कुत्ते की दुम

"मैं ज्यादा अच्छे ढंग से नाचता हूँ"
अपनी दुम से कुत्ते ने कहा:
"चलो हम मुकाबला करते हैं".
जब बहुत थक गया तो
कुत्ते ने दुम को कुतर डाला..
पैरों से रौंद कर मिट्टी में
चलता बना वहाँ से
और जाते जाते गुर्राते हुए बोला:
"बदतमीज...ढंग से पेश आया करो ".
***

प्यार से प्यार के लिए

दिन के उजाले में प्यार
मेरे प्यारे
चमकता है जैसे चमके सूरज...
मैं तो इसकी आँच में जलकर
पतीले की तली जैसा कालाकलूटा हो जाऊंगा
या बाल्टी भर पसीना बहाता हुआ
चक्कर खा कर गिर ही पड़ूंगा...
पर फ़िक्र काहे की?

मेरी प्रियतमा
दमक रही है सूरज की मानिंद.
गिरती है और लिपट जाती है मेरे बदन पर
और साँस लेने लगती है मेरी आत्मा की गहराई में पैठ कर
कितना भला लगता है
जब वो हौले हौले सुलगाती है
अपने प्यार की लौ से मेरा प्यार
जैसे तीली छुआ कर धू धू कर जला दे
कोई सूखी लकड़ी.
***

ज्ञान

सबसे पहले धरती, इसके बाद हल:
इस तरह ज्ञान आता है अंदर से
निकल कर ज्ञान से.
हम इस बात को जानते हैं
नहीं भी जानते हैं इसको .
हम ये भी नहीं जानते कि हमें इसका ज्ञान है.
हम यही जानते हैं कि हम इस बाबत कुछ नहीं जानते .
हम सोचा करते हैं
कि एक वस्तु बिलकुल दूसरे जैसी दिख रही है...
यह नींबू ..वह संतरा ..
पर तभी तक जब तक हम
स्वाद नहीं चखते कसैलेपन का .
***

मानो या  न मानो
याद करो कि इटालियन लोगों ने हमपर हमले किये
और हमें सिखाया :
खाना खा लो पर मुँह मत खोलो .

अंग्रेजों के हमलों का स्मरण करो
जिन्होंने सिखाया :
जो बोलना हो बोल लो पर
खाना मत खाना .

अम्हाराओं के हमले याद करो
जिन्होंने बताया ;
ना तो मुँह खोलो ..और
खाना भी मत खाओ .

मेरा कहा मानों या मत मानों ..
ये सब हमें नष्ट करना चाहते थे .
***

अपनी भाषा

तुम टिग्रिन्या के बारे में क्या जानते हो ?
यह इरीट्रिया की बेटी है
और सम्मान चाहती है
जैसे तुम चाहते हो अपने लिए इज्जत
इसको चुनौती दोगे
तो यह भी तुम्हें देगी
उसी तरह ललकार .

इसको बखूबी मालूम है
संकट से सुरक्षा की तरकीब
कि कैसे जीवित रहना और उबरना है
हमलावर भाषाओँ से बच कर;
उनके शब्द ...उनके नाम
करना पड़ेगा इनका एक एक कर संहार ...
***

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