Sunday, December 5, 2010

तिन मोए : चयन अनुवाद एवं प्रस्तुति यादवेन्द्र

तिन मोए (1933 -2007 )बर्मा(अब म्यांमार) के राष्ट्रकवि माने जाते हैं,हांलाकि सरकारी तौर पर उन्हें यह पदवी नहीं दी गयी। ऊपरी बर्मा के एक गाँव में मौंग बा ग्यान के नाम से जन्मे कवि ने शुरुआती शिक्षा एक स्थानीय बौद्ध मठ में प्राप्त की,फिर बर्मी साहित्य की शिक्षा मांडले विश्वविद्यालय में ली। सत्रह बरस में उनकी कवितायेँ छपने लगीं पर पहला संकलन 1959 में छपा और पुरस्कृत हुआ। उन्होंने बच्चों के लिए भी प्रचुर साहित्य लिखा और उनकी कवितायेँ स्कूलों में पढाई जाती रही हैं पर सैनिक तानाशाहों के मुखर विरोध के कारण उनकी कविताओं पर पाबन्दी लगा दी गयी...यहाँ तक की शासन ने उनकी पूर्व प्रकाशित किताबों के पुनर्प्रकाशन पर भी रोक लगा दी। कविताओं के साथ साथ देश की राजनैतिक स्थितियों पर वे खूब मुखर रहे।1988 के लोकतंत्र बहाली के आन्दोलन का उन्होंने खुल कर समर्थन किया..आंग सान सू ची के और उनकी पार्टी के वे सलाहकार अंत तक बने रहे। नतीजा ये हुआ कि देश का सबसे लोकप्रिय कवि होने के बावजूद तिन मोए को चार साल की कैद की सजा दी गयी। अपनी काल कोठरी में उन्हें दीवार पर किसी पूर्ववर्ती कैदी द्वारा कालिख से लिखी अपनी ही कविता दिखी तो उन्हें जनता के बीच अपनी लोकप्रियता का आभास हुआ। 30 से ज्यादा पुस्तकों के रचयिता को सैनिक तानाशाही से तंग आ कर 1999 में अपना देश छोड़ना पड़ा। अपने पचास साल लम्बे रचनात्मक जीवन में उन्हें अनेक राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर के सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए। अंत तक अपने देश लौटने की आस लिए कवि ने अपनी बेटी के घर अमेरिका में जनवरी 2007 में आखिरी साँस ली। बर्मा की सैनिक तानाशाही को उनसे इतना खतरा महसूस होता था की देश के किसी अख़बार या पत्रिका में उनके लिए श्रद्धांजलि नहीं प्रकाशित करने दी। यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कवितायेँ: राह गुम नहीं हुई

यदि सूरज न भी उगे
कोई बात नहीं
धवल स्निग्ध चन्द्रमा तो है
चमकने के लिए...

यदि चन्द्रमा अपना प्रकाश न भी बिखेरे
कोई बात नहीं
बहुतेरे हैं आकाश में सितारे
प्रकाश बिखेरने के लिए...

यदि चन्द्रमा न भी चमके
और सितारों की प्रभा मलिन पड़ जाये
हम तैयार कर लेंगे दीप
घर के प्रवेश द्वार पर लगाने को
सब कुछ के बाद भी
होनी ही होगी वहां रौशनी.
(मिनट जान के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित)***

ख्वाहिशों की कैद

एक चिकनी चुपड़ी मकड़ी मंच पर सबके सामने
बुने जा रही थी सुन्दर लुभावना जाल
सुनहरे भूल भुलैय्या सा आड़ा तिरछा...
एक अभागी मक्खी जा कर फंस गयी उसमें
लाख फडफडाने पर भी निकल नहीं पाई बाहर
आँखों के ऊपर रेशों की परतें
और टांगें फंसी हुई
पिद्दी सी मक्खी वहीँ फंसी रह गयी
चालाकी से बुने हुए फन्दों के बीच....
यह मक्खी का अंतिम समर्पण था
ख्वाहिशों के अंधकूप के सामने.
(मे न्ग के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित)***

मेहमान
सिगार तो कब की बुझ चुकी
सूरज भी धुंधला पड़ गया
क्या यहाँ अब भी कोई है
जो ले जाये मुझे मेरे घर??
***

8 comments:

  1. तीनों कवि‍ताऍं प्रभावि‍त करती हैं, बेहतर अनुवाद।

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  2. कविताओं की सादगी कहीं बहुत गहरे छूती है.

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  3. शानदार और मारक कवितायें हैं…तिन मोए को नेट पर ढूढ़ा और तमाम दूसरी कवितायें पढ़ीं…कुछ का अनुवाद भी करुंगा…

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  4. अँधेरे के खिलाफ की कविताएँ .

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  5. नमस्कार ! एक रस्त्र्य कवि का रचनाओं सहित परिचय करवाने पे साधुवाद .
    आभार

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  6. sathiyon ko yah bata dun ki tin moe aur kuchh anya burmi kaviyon ke anuvaad mitr pankaj parashar ke blog kwabkadar par purane post ke rup men maujud hain...
    yadvendra

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  7. sabhi rachnaye jaha behad khusurat hai vahi mehaman kavita lajababab hai.roshani honi hai hogi hi behad damdar pankti hai.
    Farokh ki kavita ishwar se nahi jamin par ban gaye khudao ke khilaph bagavat hai aur yah hona hi chahiye.Akhirkar insan ko jindagi jo kuda ne bakhasi hai vah dusaro dwara ladi gayi bandisho se koi kyo muthti mai ret ki manind fisal jane de

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