Monday, December 27, 2010

बग़ावत पर उतरा ईश्वर - फ़रोग फ़रोख्जाद

चयन, अनुवाद और प्रस्तुति - यादवेन्द्र
यदि मैं ईश्वर होती तो एक रात फरिश्तों को बुलाती
और हुक्म देती कि गोल सूरज को लुढका कर ले जाएँ
और झोंक दें अँधेरे की जलती हुई भट्ठी में
गुस्से से लाल पीली होती, स्वर्ग के तमाम मालियों को एक लाइन में खड़ा कर देती
और फ़रमान जारी करती कि रात की टहनी से फ़ौरन छाँट कर अलग कर दें
वे चन्द्रमा की पीली पीली बुढ़ाती पत्तियां....

स्वर्ग के राजमहल के आधी रात परदे चीरती
और अपनी बेचैन उँगलियों से दुनिया को उलट पुलट देती
हजारों साल की निष्क्रियता से सुन्न पड़े हाथ उठाती
और सारे पहाड़ों को एक एक कर ठूंस देती
महासागर के खुले मुंह के अंदर...

ज्वर से तपते हजारों सितारों को बंधन खोल कर मुक्त कर देती
जंगल की गूंगी शिराओं में प्रवाहित कर देती अग्नि का रक्त
सदियों से किसी नम देह पर फिसलने को आतुर
रात्रि के आकाश को मैं लेप देती
दलदली धरती की मरणासन्न छाती पर....

प्यार से मैं हवा को गुहार लगाती और कहती
कि रात की नदियों में उन्मुक्त छोड़ दें पुष्पगंधी नौकाएं
मैं कब्रों के मुंह खोल देती और
अनगिनत रूहों से गुजारिश करती
कि चुन कर अपने लिए पसंद के जिन्दा बदन
वे एक बार फिर जीवन का आनंद लें...

यदि मैं ईश्वर होती तो एक रात फरिश्तों को बुलाती
कहती नरक के कडाहे में वे उबालें चिरंतन जीवन का जल
फिर मशालें ले कर खदेड़ डालें उन पवित्र मवेशियों के झुण्ड
जो खा खा कर नष्ट किये जा रहे हैं
स्वर्ग की हरी भरी चरागाहें...

मैं पर्दानशीं छुईमुई बने बने थक गयी हूँ
अब आधी रात को ढूंढ़ रही हूँ शैतान का बिस्तर
क़ानूनी बंदिशें अब छोडूंगी नहीं कोई सलामत
चाहे गहरे फिसल क्यों न जाऊं चिकनी ढलान पर
मैं हंसते हंसते उछाल कर परे फेंक दूंगी
ईश्वरीय वरदान का ये स्वर्णिम राजमुकुट
और बदले में दौड़ कर भींच लूंगी
काला दमघोंटू आलिंगन
गुनाह का.
***

Tuesday, December 21, 2010

महेश वर्मा की कविताएँ


हिसाब

ब्लेड से पेंसिल छीलते में
एक पूर्ण विराम भर कट सकती है उंगली
लेकिन अश्लील होता
बिल्कुल सफ़ेद काग़ज़ पर गिरना
अनुस्वार भर भी
रक्त की बूँद का।

नहीं आ पाई थी कोई भी ऐसी बात
कि उँगली से ही लिख दी जाती-
लाल अक्षरों में

उत्तापहीन हो चला था इतिहास,
सिर्फ़ हवाओं की साँय-साँय सुनाई देती थी
कविताओं के खोखल से

सिर्फ़ प्रेम ही लिख देने भर भी
ऊष्म नहीं बचे थे ह्रदय, तब
प्रेमपत्रों को कौन पढ़ता ?

बचती थी केवल प्रतीक्षा ज़ख्म सूखने की
कि पेंसिल छीलकर लिखा जा सके-
हिसाब।
***

एक जगह

उदासी एक जगह है जैसे कि यह शाम
जहां अक्सर मैं छूट जाता हूं।
मुश्किल है बाहर का कुछ देखना-सुनना।

उदासी की बात सुनकर
दोस्त बताते हैं नज़दीक के झरनों के पते
जहां बीने जा सकते हैं पारिवारिक किस्म के सुख।

पता नहीं यह अंधेरा है,
या नींद,
या सपना,
जिसपर,
गिरती रहती है झरने सी उदासी।

मेरी हर यांत्रिक चालाकी के विरूद्ध
मेरी अनिद्रा, मेरा प्रत्युत्तर है मुझको इस समय।
और एक जगह है यह अनिद्रा भी, जिसके भीतर सोकर,
नींद भूल गई हो बाहर का संसार।

पत्थर हो चुके इसको खोजने निकले राजकुमार।
***


भाषा

मैं अपनी धूल हटाता हूं
कि देखो वहां पड़े हुए हैं कुछ शब्द।
मेरे होने की संकेत लिपि से बेहतर,
विकसित भाषा के शब्द ये-
शायद इनसे लिखा जा सके निशब्द।

***

Tuesday, December 14, 2010

गिरिराज किराडू की नई कविताएँ....

मेरे प्रिय कवि गिरिराज किराडू की ये नई कविताएँ कई वजहों से महत्वपूर्ण हैं। पहली बात ये कि इनमें से पहली को लोक गायकों से एक सीधा और गहरा रिश्ता रखते हुए लिखा गया है- रिश्ता जो पहले से रहा है लेकिन उसकी शिनाख्त इधर की कविता में लगातार कम होती गई है.....वह लोक परंपरा ही है जिसे नामवर सिंह साहित्य की असली परंपरा मानते हैं। गिरिराज ने इस अद्भुत सम्बन्ध को फिर से पूरी आत्मीयता के साथ खोजा है। दूसरी बात, जिस पर तुरत ध्यान जाता है, वो ये कि यह कविता मीर-ए-आलमों और सृष्टिदास बाउल के लिये, सर झुकाते हुए लिखी गई हैं। गिरिराज ने उस रिश्ते में शामिल सम्मान के ज़रूरी बोध को पूरी शिद्दत और प्यार से याद रखा है। उन फकीरों-प्रेमियों के आगे हमारा कागज़ी कविता व्यवहार अक्सर बेमानी ही साबित होता आया है। मुझे ख़ुशी है कि ऐसे प्रेमी-फ़कीर हमारे क्रूर और किसी हद तक संवेदनशून्य समाज में जिस शान से जीते-रहते-गाते आये हैं, उस पीर, टीस और उदात्तता को गिरिराज ने अपनी पहली और प्रकारांतर से आगे की कविताओं में भी उतनी ही शान से बचाया-रचाया है। मैं कवि को इस सबके लिए सलाम पेश करता हूँ ....पिटा हुआ वाक्य कवि की एक पुरानी कविता है जो अनुनाद पर ही छपी है..... जिसका यह विस्तार है.... गौर करने की बात है कि पहली कविता में आये आत्मा के खंडहर का विस्तार पिटे हुए वाक्य तक पहुँचा है तो यूँ नहीं....बाक़ी आप पढ़ें और अपनी प्रतिक्रियाओं से हमें रोशनी दें।

(नोटः टूरियाँ टूरियाँ जा... पश्चिमी राजस्थान के मीर संगीतकारों द्वारा गायी जाने वाली बाबा फरीद की एक रचना है. अपने को सूफीमत से जोड़ने वाले ये संगीतकार मुख्यतः बाबा फरीद, कबीर और मीरां को गाते हैं. नज़्रे खाँ जिस वाद्य मश्क को बजाते हैं वह कुछ कुछ बैगपाइपरों के वाद्य जैसा होता है लेकिन उससे बहुत अलग भी. सृष्टिदास बाउल एक बाउल गायक हैं जिन्हें सुनने का सौभाग्य मुझे उसी शाम मिला जिस शाम मीर-ए-आलम भी गा रहे थे. पिटा हुआ वाक्यः 1 को अनुनाद पर यहाँ पढ़ा जा सकता है.- कवि)

टूरियाँ टूरियाँ जा फरीदा टूरियाँ टूरियाँ जा
(मीर-ए-आलमों और सृष्टिदास बाउल के लिये, सर झुकाते हुए)



अजनबी गाँव था शाम घिर रही थी वह अपना बोरिया बिस्तर समेटने को था कुछ और नहीं अपने उस वक्त इस दुनिया में किसी तरह होने की ज्यादती इस कदर घेरे थी कि जब अचानक गाने लगे सृष्टिदास बाउल नदिया गाँव वाले तो लगा पास होती एक बंदूक और दाग देता हवा में निकाल देता सब अकड़ कलाकारी की – क्यूँ नहीं चुप बैठ जाते ये ऊटपटांग लोग कुछ नहीं कर सकती यह सारी कलाकारी किसी के बिगड़े हिसाब किताब का किसी की आत्मा के खंडहर का

उधर उसके हिसाब किताब से बिल्कुल बेपरवाह आँखें मुँद गई सृष्टिदास बाउल की रोने लगे जार जार और पीछे कहीं अपनी मश्क के सुर कसते दिखे नज़्रे खाँ –

रहो बरबाद गाओ फरीद करो तमाशा मरो अकड़ में मुझे बख़्शो बख़्शो मेरा बोरिया मैं चला टूरियाँ टूरियाँ
***

अपने कहे से बिंधे एक ख़ाक़सार का नग़्मा जिसने कभी कहे थे कुछ अलफ़ाज दहाड़ते हुए और तब से भूला हुआ है खुद को

इसे कहकर भूल जाना कहकर भेज दिया तुमने वह शब्द कहने के लिये प्रलय बन गये जो साँस की तरह पराये उन विधर्मियों के लिये

भूल गये वे अलफ़ाज काफ़िर भूल गये उस कहर को भी जो बरपा उन पर

लेकिन मुझे नहीं भूले वो अलफ़ाज एक दूसरा मानी बना दिया जिन्हें हमेशा के लिये मैंने कभी गिरेंगे वे कहर बनकर ही मेरे कबीले पर –

क्या उन शब्दों को है ये पता एक दूसरा ही मनुष्य बना दिया उन्होंने मुझे?
***

पिटा हुआ वाक्यः दो

शायद से शुरू हुआ हर वाक्य किसी धोखे या धुंधलके में शुरू होता है और किसी बेहया उम्मीद पर खत्म इसे अनुभव से जान कर भी लिखता हूँ शायद यह हो गया है कि हम वही नहीं हैं

अब अगर किसी अनजान उजाड़ पॉर्क में फैल जाये मेरे हाथ उसी तरह तो उन पर लिखा संदेसा तुम नहीं पढ़ पाओ या मैं उन्हें और करीब से देखूँ और वहाँ कोई संदेसा नहीं सिर्फ हाथ ही मिलें मुझे, हवा में कोई खँडहर थामे

यह लिख कर मैं शुरूआत की तरफ ताकता हूँ
वहाँ एक शायद है एक खँडहर है और एक प्रेमः यह धोखा है
वहाँ एक शायद है फैले हुए हाथ हैं और एक हरकत आँखों में: यह धुंधलका है

अंधेरा हो रहा है पॉर्क की तरह यहाँ से पुलिस खदेड़ नहीं देगी यह हमारा घर है हमारा राज्य जहाँ हम ही नष्ट कर रहे एक दूसरे को हाथों को फैल जाने दो आँखों को एक संदेसा पढ़ने दो: यह उम्मीद है, बेहया

क्या यह जीवन में भी बहुत पिटा हुआ एक वाक्य लगेगा:
हमें खुद को एक मौका देना चाहिये
***

Sunday, December 5, 2010

तिन मोए : चयन अनुवाद एवं प्रस्तुति यादवेन्द्र

तिन मोए (1933 -2007 )बर्मा(अब म्यांमार) के राष्ट्रकवि माने जाते हैं,हांलाकि सरकारी तौर पर उन्हें यह पदवी नहीं दी गयी। ऊपरी बर्मा के एक गाँव में मौंग बा ग्यान के नाम से जन्मे कवि ने शुरुआती शिक्षा एक स्थानीय बौद्ध मठ में प्राप्त की,फिर बर्मी साहित्य की शिक्षा मांडले विश्वविद्यालय में ली। सत्रह बरस में उनकी कवितायेँ छपने लगीं पर पहला संकलन 1959 में छपा और पुरस्कृत हुआ। उन्होंने बच्चों के लिए भी प्रचुर साहित्य लिखा और उनकी कवितायेँ स्कूलों में पढाई जाती रही हैं पर सैनिक तानाशाहों के मुखर विरोध के कारण उनकी कविताओं पर पाबन्दी लगा दी गयी...यहाँ तक की शासन ने उनकी पूर्व प्रकाशित किताबों के पुनर्प्रकाशन पर भी रोक लगा दी। कविताओं के साथ साथ देश की राजनैतिक स्थितियों पर वे खूब मुखर रहे।1988 के लोकतंत्र बहाली के आन्दोलन का उन्होंने खुल कर समर्थन किया..आंग सान सू ची के और उनकी पार्टी के वे सलाहकार अंत तक बने रहे। नतीजा ये हुआ कि देश का सबसे लोकप्रिय कवि होने के बावजूद तिन मोए को चार साल की कैद की सजा दी गयी। अपनी काल कोठरी में उन्हें दीवार पर किसी पूर्ववर्ती कैदी द्वारा कालिख से लिखी अपनी ही कविता दिखी तो उन्हें जनता के बीच अपनी लोकप्रियता का आभास हुआ। 30 से ज्यादा पुस्तकों के रचयिता को सैनिक तानाशाही से तंग आ कर 1999 में अपना देश छोड़ना पड़ा। अपने पचास साल लम्बे रचनात्मक जीवन में उन्हें अनेक राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर के सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए। अंत तक अपने देश लौटने की आस लिए कवि ने अपनी बेटी के घर अमेरिका में जनवरी 2007 में आखिरी साँस ली। बर्मा की सैनिक तानाशाही को उनसे इतना खतरा महसूस होता था की देश के किसी अख़बार या पत्रिका में उनके लिए श्रद्धांजलि नहीं प्रकाशित करने दी। यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कवितायेँ: राह गुम नहीं हुई

यदि सूरज न भी उगे
कोई बात नहीं
धवल स्निग्ध चन्द्रमा तो है
चमकने के लिए...

यदि चन्द्रमा अपना प्रकाश न भी बिखेरे
कोई बात नहीं
बहुतेरे हैं आकाश में सितारे
प्रकाश बिखेरने के लिए...

यदि चन्द्रमा न भी चमके
और सितारों की प्रभा मलिन पड़ जाये
हम तैयार कर लेंगे दीप
घर के प्रवेश द्वार पर लगाने को
सब कुछ के बाद भी
होनी ही होगी वहां रौशनी.
(मिनट जान के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित)***

ख्वाहिशों की कैद

एक चिकनी चुपड़ी मकड़ी मंच पर सबके सामने
बुने जा रही थी सुन्दर लुभावना जाल
सुनहरे भूल भुलैय्या सा आड़ा तिरछा...
एक अभागी मक्खी जा कर फंस गयी उसमें
लाख फडफडाने पर भी निकल नहीं पाई बाहर
आँखों के ऊपर रेशों की परतें
और टांगें फंसी हुई
पिद्दी सी मक्खी वहीँ फंसी रह गयी
चालाकी से बुने हुए फन्दों के बीच....
यह मक्खी का अंतिम समर्पण था
ख्वाहिशों के अंधकूप के सामने.
(मे न्ग के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित)***

मेहमान
सिगार तो कब की बुझ चुकी
सूरज भी धुंधला पड़ गया
क्या यहाँ अब भी कोई है
जो ले जाये मुझे मेरे घर??
***

Thursday, December 2, 2010

निज़ार कब्बानी की एक कविता - अनुवाद एवं प्रस्तुति : मनोज पटेल

ख़ुदा से सवाल



मेरे ख़ुदा !
यह क्या वशीभूत कर लेता है हमें प्यार में ?
क्या घटता है हमारे भीतर बहुत गहरे ?
और टूट जाती है भीतर कौन सी चीज भला ?
कैसे वापस पहुँच जाते हैं हम बचपन में जब करते होते हैं प्यार ?
एक बूँद केवल कैसे बन जाती है समंदर
और लम्बे हो जाते हैं पेड़ ताड़ के
और मीठा हो जाता है समंदर का पानी
आखिर कैसे सूरज हो जाता है कीमती कंगन एक हीरे का
जब प्यार करते हैं हम ?

मेरे ख़ुदा :
जब प्यार होता है अचानक
कौन सी चीज छोड़ देते हैं हम ?
पैदा होता है क्या हमारे भीतर ?
कमसिन बच्चों से क्यों हो जाते हैं हम
भोले और मासूम ?
और ऐसा क्यों होता है कि जब हंसता है हमारा महबूब
दुनिया बरसाती है यास्मीन हम पर
क्यों होता है ऐसा कि जब रोती है वह
सर रखके हमारे घुटनों पर
उदास चिड़िया सी हो उठती है दुनिया सारी ?

मेरे ख़ुदा :
क्या कहा जाता है इस प्यार को जिसने सदियों से
मारा है लोगों को, जीता है किलों को
ताकतवर को किया है विवश
और पिघलाया किया है निरीह और भोले को ?
कैसे जुल्फें अपनी महबूबा की
बिस्तर बन जाती हैं सोने का
और होंठ उसके मदिरा और अंगूर ?
कैसे हम चलते हैं आग में
और मजे लेते हैं शोलों का ?
कैदी कैसे बन जाते हैं जब प्यार करते हैं हम
गोकि विजयी बादशाह ही रहे हों क्यों न ?
क्या कहेंगे उस प्यार को जो धंसता है हमारे भीतर
खंजर की तरह ?
क्या सरदर्द है यह ?
या फिर पागलपन ?
कैसे होता है यह कि एक पल के अंतराल में
यह दुनिया बन जाती है एक मरु उद्यान.... प्यारा एक नाजुक सा कोना
जब प्यार करते हैं हम ?

मेरे ख़ुदा :
कहाँ बिला जाती है हमारी सूझ-बूझ ?
हो क्या जाता है हमें ?
ख्वाहिशों के पल कैसे बदल जाते हैं सालों में
और अवश्यम्भावी कैसे हो उठता है एक छलावा प्यार में ?
कैसे जुदा हो जाते हैं साल से हफ्ते ?
मिटा कैसे देता है प्यार मौसमों के भेद ?
कि गर्मी पड़ती है सर्दियों में
और आसमान के बागों में खिलते हैं फूल गुलाब के
जब प्यार करते हैं हम ?

मेरे ख़ुदा :
प्यार के सामने कैसे कर देते हैं हम समर्पण,
सौंप देते हैं इसे चाभी अपने शरण स्थल की
शमां ले जाते हैं इस तक और खुशबू जाफ़रान की
कैसे होता है यह कि गिर पड़ते हैं इसके पैरों पर मांगते हुए माफी
क्यों होना चाहते हैं हम दाखिल इसके इलाके में
हवाले करते हुए खुद को उन सब चीजों के
जो यह करता है साथ हमारे
सबकुछ जो यह करता है.

मेरे ख़ुदा :
अगर हो तुम सचमुच में ख़ुदा
तो रहने दो हमें प्रेमी
हमेशा के लिए.
***

तुमसे प्रेम करने के बाद

(1943 में जन्मी निकी जियोवानी अफ्रीकी मूल की अमरीकी कवयित्री हैं, इनकी कविताओं में नस्लीय गौरव और प्रेम की झलक है। निकी वर्जीनिया में अंग्रेज़ी की प्रोफेसर हैं और नागरिक अधिकारों के लिए समर्पित हैं)

1)
ब्रह्माण्ड के छोर पर
लटकी हूं मैं,
बेसुर गाती हुई,
चीखकर बोलती,
ख़ुद में सिमटी
ताकि गिरने पर न लगे चोट।
मुझे गिर जाना चाहिए
गहरे अंतरिक्ष में,
आकार से मुक्त और
इस सोच से भी कि
लौटूंगी धरती पर कभी।
दुखदायी नहीं है यह।
चक्कर काटती रहूंगी मैं
उस ब्लैक होल में,
खो दूंगी शरीर, अंग
तेज़ी से..
आज़ाद रूह भी अपनी।
अगली आकाशगंगा में
उतरूंगी मैं
अपना वजूद लिए,
लगी हुई ख़ुद के ही गले,
क्योंकि..
मैं तुम्हारे सपने देखती हूं।

2)
ख़ूबसूरत ऑमलेट लिखा मैंने,
खाई एक गरम कविता,
तुमसे प्रेम करने के बाद।
गाड़ी के बटन लगाए,
कोट चलाकर मैं
घर पहुंची बारिश में..
तुमसे प्रेम करने के बाद।
लाल बत्ती पर चलती रही,
रुक गई हरी होते ही,
झूलती रही बीच में कहीं..
यहां कभी, वहां भी,
तुमसे प्रेम करने के बाद।
समेट लिया बिस्तर मैंने,
बिछा दिए अपने बाल,
कुछ तो गड़बड़ है...
लेकिन मुझे नहीं परवाह।
उतारकर रख दिए दाँत,
गाउन से किए गरारे,
फिर खड़ी हुई मैं
और
लिटा लिया ख़ुद को,
सोने के लिए..
तुमसे प्रेम करने के बाद।

अनुवाद- माधवी शर्मा गुलेरी




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