चयन, अनुवाद और प्रस्तुति - यादवेन्द्र
यदि मैं ईश्वर होती तो एक रात फरिश्तों को बुलाती
और हुक्म देती कि गोल सूरज को लुढका कर ले जाएँ
और झोंक दें अँधेरे की जलती हुई भट्ठी में
गुस्से से लाल पीली होती, स्वर्ग के तमाम मालियों को एक लाइन में खड़ा कर देती
और फ़रमान जारी करती कि रात की टहनी से फ़ौरन छाँट कर अलग कर दें
वे चन्द्रमा की पीली पीली बुढ़ाती पत्तियां....
स्वर्ग के राजमहल के आधी रात परदे चीरती
और अपनी बेचैन उँगलियों से दुनिया को उलट पुलट देती
हजारों साल की निष्क्रियता से सुन्न पड़े हाथ उठाती
और सारे पहाड़ों को एक एक कर ठूंस देती
महासागर के खुले मुंह के अंदर...
ज्वर से तपते हजारों सितारों को बंधन खोल कर मुक्त कर देती
जंगल की गूंगी शिराओं में प्रवाहित कर देती अग्नि का रक्त
सदियों से किसी नम देह पर फिसलने को आतुर
रात्रि के आकाश को मैं लेप देती
दलदली धरती की मरणासन्न छाती पर....
प्यार से मैं हवा को गुहार लगाती और कहती
कि रात की नदियों में उन्मुक्त छोड़ दें पुष्पगंधी नौकाएं
मैं कब्रों के मुंह खोल देती और
अनगिनत रूहों से गुजारिश करती
कि चुन कर अपने लिए पसंद के जिन्दा बदन
वे एक बार फिर जीवन का आनंद लें...
यदि मैं ईश्वर होती तो एक रात फरिश्तों को बुलाती
कहती नरक के कडाहे में वे उबालें चिरंतन जीवन का जल
फिर मशालें ले कर खदेड़ डालें उन पवित्र मवेशियों के झुण्ड
जो खा खा कर नष्ट किये जा रहे हैं
स्वर्ग की हरी भरी चरागाहें...
मैं पर्दानशीं छुईमुई बने बने थक गयी हूँ
अब आधी रात को ढूंढ़ रही हूँ शैतान का बिस्तर
क़ानूनी बंदिशें अब छोडूंगी नहीं कोई सलामत
चाहे गहरे फिसल क्यों न जाऊं चिकनी ढलान पर
मैं हंसते हंसते उछाल कर परे फेंक दूंगी
ईश्वरीय वरदान का ये स्वर्णिम राजमुकुट
और बदले में दौड़ कर भींच लूंगी
काला दमघोंटू आलिंगन
गुनाह का.
***

यदि मैं ईश्वर होती तो एक रात फरिश्तों को बुलाती
और हुक्म देती कि गोल सूरज को लुढका कर ले जाएँ
और झोंक दें अँधेरे की जलती हुई भट्ठी में
गुस्से से लाल पीली होती, स्वर्ग के तमाम मालियों को एक लाइन में खड़ा कर देती
और फ़रमान जारी करती कि रात की टहनी से फ़ौरन छाँट कर अलग कर दें
वे चन्द्रमा की पीली पीली बुढ़ाती पत्तियां....
स्वर्ग के राजमहल के आधी रात परदे चीरती
और अपनी बेचैन उँगलियों से दुनिया को उलट पुलट देती
हजारों साल की निष्क्रियता से सुन्न पड़े हाथ उठाती
और सारे पहाड़ों को एक एक कर ठूंस देती
महासागर के खुले मुंह के अंदर...
ज्वर से तपते हजारों सितारों को बंधन खोल कर मुक्त कर देती
जंगल की गूंगी शिराओं में प्रवाहित कर देती अग्नि का रक्त
सदियों से किसी नम देह पर फिसलने को आतुर
रात्रि के आकाश को मैं लेप देती
दलदली धरती की मरणासन्न छाती पर....
प्यार से मैं हवा को गुहार लगाती और कहती
कि रात की नदियों में उन्मुक्त छोड़ दें पुष्पगंधी नौकाएं
मैं कब्रों के मुंह खोल देती और
अनगिनत रूहों से गुजारिश करती
कि चुन कर अपने लिए पसंद के जिन्दा बदन
वे एक बार फिर जीवन का आनंद लें...
यदि मैं ईश्वर होती तो एक रात फरिश्तों को बुलाती
कहती नरक के कडाहे में वे उबालें चिरंतन जीवन का जल
फिर मशालें ले कर खदेड़ डालें उन पवित्र मवेशियों के झुण्ड
जो खा खा कर नष्ट किये जा रहे हैं
स्वर्ग की हरी भरी चरागाहें...
मैं पर्दानशीं छुईमुई बने बने थक गयी हूँ
अब आधी रात को ढूंढ़ रही हूँ शैतान का बिस्तर
क़ानूनी बंदिशें अब छोडूंगी नहीं कोई सलामत
चाहे गहरे फिसल क्यों न जाऊं चिकनी ढलान पर
मैं हंसते हंसते उछाल कर परे फेंक दूंगी
ईश्वरीय वरदान का ये स्वर्णिम राजमुकुट
और बदले में दौड़ कर भींच लूंगी
काला दमघोंटू आलिंगन
गुनाह का.
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