अनुनाद

अनुनाद

कुमार अम्बुज की डायरी




.१०.२००२

उर्वर कविताओं के अनेक डिम्ब बिखरे हैं सब तरफ़

जिज्ञासु, आतुर और श्रमशील पाठक की समझ के गतिमान शुक्राणु उसे भेद पाते हैं। बाक़ी उनसे निष्फल रूप से टकराते हैं और नष्ट होते चले जाते हैं। जो प्रवेश कर लेते हैं, उनसे मिलकर एक नया संसार बनता जाता है।

यह कला के साथ समागम है। यह संसार आपसी सर्जनात्मकता का संसार है। संवेदना और कला का जनित संसार है। यह कला का सामाजिक संसार भी है।

यह अंततः प्रेम का प्रतिफलन है।

यह छोटा-सा सुन्दर संसार अकेले कवि की पैदाइश नहीं है।
***
एक रात : १२.५० पर
(अपमानित किये जाने के क्षण के अनुभव में)

तुम चुप रहो और लिखो। अपनी बेचैनी, घबराहट, असहायता से पैदा होने वाली उम्मीद, रोज़मर्रा की चोटों, अपनी पराजयों और दिए जाने वाले धोखों को याद रखो। और लिखो। रचनाशीलता ही सबसे कठोर और निर्णायक प्रतिक्रिया है, सबसे अच्छा उत्तर। वे लोग तुम्हारे साथ हमेशा रहेंगे जो कविताएँ पढ़कर, बेचैन होकर टहलते हैं। जिनमें से अधिकांश तुमसे कभी कोई वार्तालाप नहीं कर पाते। कभी कभी जो तुम्हें कुछ शब्दों में टूटी-फूटी बातें बताते हैं। जो संख्या में बहुत कम हैं लेकिन जो तुम्हारे सामने एक व्यापक संसार के साथ प्रस्तुत हो जाते हैं। विश्वास करो, इस विशाल आकाश के नीचे यदि तुम अपने वजूद के साथ आते हो तो तुम्हारी परछाई भी एक जगह घेरती है। यह किसी की अनुकम्पा नहीं है, प्राकृतिक नियम ही है। यह अलग बात है कि यदि तुम तीतर हो, मोर हो, हिरन हो या शेर भी हो, तब भी तुम पर कुछ लोग निशाना लगायेंगे ही।

लेकिन यह भी विश्वास करो कि तुम एक जीवित, स्पंदित व्यक्ति की तरह जीवन के सामने खड़े हो, किसी रेत के ढेर की तरह हवाएं तुम्हें उड़ा कर नहीं ले जा सकतीं।
***
कथादेश, अक्टूबर २०१० से साभार।

0 thoughts on “कुमार अम्बुज की डायरी”

  1. अनल सिंह

    क्या बात है! एक सच्चे कवि मन की थाह देती डायरी. हम पाठकों के लिए कविताओं में जाने का एक नया रास्ता दिखाती. शुक्रिया इसे यहाँ प्रस्तुत करने के लिए.

  2. ओह! कविता में जीने वाला मेरा प्रिय कवि…

    ये लाइनें उस विश्वास और बेचैनी का पता देती हैं जहां से अपने समय से दो-दो हाथ करने वाली कविता उपजती है…

  3. शिरीष भाई महत्‍वपूर्ण काम कर रहे हैं इसमें कोई शक नहीं। बधाई और शुभकामनाएं।
    पर मुझे लगता है कि अगर आप इस माध्‍यम में हैं तो और अधिक सक्रियता के साथ यहां अपनी उपस्थिति दर्ज होनी चाहिए। केवल उपस्थिति नहीं सार्थक हस्‍तक्षेप होना चाहिए। वरना हो यह रहा है कि हम सब अपना अपना लिखकर या पसंद का ब्‍लाग में छापकर खुश हो जा रहे हैं। हम किताबें छापकर भी यही करते रहे हैं। कोई पढ़े या न पढ़े हमें इससे कोई मतलब ही नहीं रहा।
    मुझे लगता है कि हम सबको अपने कुएं से बाहर निकलकर देखना चाहिए।

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