पब्लिक एजेंडा के साहित्य विशेष से मैंने पिछली पोस्ट में राजेश जोशी की कविता लगाई थी. इस बार अग्रज कवि-अनुवादक नरेन्द्र जैन की तीन कविताएँ ....पिछली बार की तरह इस बार भी कार्यकारी संपादक , साहित्य संपादक और कवि के प्रति आभार के साथ. नरेन्द्र जैन का महत्वपूर्ण नया संग्रह "काला सफ़ेद में प्रविष्ट होता है" अभी आया है, जिसकी आवरण छवि यहाँ प्रस्तुत है।

वाद्य संगीत सुनते हुए
सुनते हुए बहुत से वाद्यों का मिला-जुला स्वर
वह गीत सहसा याद आ जाता है
जिसे वाद्य बजा रहे होते हैं
हम सुनते हैं संगीत
और गीत के बोल याद करते हैं
कभी-कभी हमें बोल याद नहीं आ पाते
लेकिन संगीत बजता रहता है
हम संगीत को सुनते हुए
उन बोलों को दोहराते हैं
जिन्हें लिखा होगा किसी ने
अपनी पस्ती के आलम में
अब हमारी पस्ती का आलम है
और यह संगीत है
जहाँ हमें अपने बोल याद नहीं आ पाते
लेकिन समूचा संगीत केन्द्रित हुआ करता है
उसी विस्मृति पर
***

वाद्य संगीत सुनते हुए
सुनते हुए बहुत से वाद्यों का मिला-जुला स्वर
वह गीत सहसा याद आ जाता है
जिसे वाद्य बजा रहे होते हैं
हम सुनते हैं संगीत
और गीत के बोल याद करते हैं
कभी-कभी हमें बोल याद नहीं आ पाते
लेकिन संगीत बजता रहता है
हम संगीत को सुनते हुए
उन बोलों को दोहराते हैं
जिन्हें लिखा होगा किसी ने
अपनी पस्ती के आलम में
अब हमारी पस्ती का आलम है
और यह संगीत है
जहाँ हमें अपने बोल याद नहीं आ पाते
लेकिन समूचा संगीत केन्द्रित हुआ करता है
उसी विस्मृति पर
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स्थगित यात्रा
स्थगित यात्रा के बाहर
ज़मीं पर पड़े हैं दो जूते
कालातीत वहाँ कुछ भी नहीं
न ज़मीन
न आकाश
न स्मृतियाँ
न यात्रा
दो पैरों के ठहर जाने से
काल ठहर गया है
धुरी से कहीं भटक गई है पृथ्वी
कहीं जाने के लिए यात्रा ज़रूरी नहीं
कहीं से लौटने के लिए भी यात्रा ज़रूरी नहीं
किसी यायावर का कथन है
यात्रा का एक दिन
यात्रा के बाहर के एक बरस के बराबर होता है
जूते तत्पर हैं
कोई आये
और निकल पड़े एकाएक यात्रा पर.
***
स्थगित यात्रा के बाहर
ज़मीं पर पड़े हैं दो जूते
कालातीत वहाँ कुछ भी नहीं
न ज़मीन
न आकाश
न स्मृतियाँ
न यात्रा
दो पैरों के ठहर जाने से
काल ठहर गया है
धुरी से कहीं भटक गई है पृथ्वी
कहीं जाने के लिए यात्रा ज़रूरी नहीं
कहीं से लौटने के लिए भी यात्रा ज़रूरी नहीं
किसी यायावर का कथन है
यात्रा का एक दिन
यात्रा के बाहर के एक बरस के बराबर होता है
जूते तत्पर हैं
कोई आये
और निकल पड़े एकाएक यात्रा पर.
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नदी
जब नदी के ऊपर से गुज़री हमारी रेल
सहसा बहुत से यात्रियों ने अपने कानों को छुआ
और नदी की ओर देख हाथ जोड़े
एक थके-हारे यात्री ने आह भरी और
नदी की ओर देख बुदबुदाया
हे माँ रक्षा करना
नदी सबसे बेख़बर
वेग से बही जा रही थी
किसी की स्मृति में नदी का तट कौंध रहा था
कोई याद कर रहा था अपनी ज़मीन
किसी यात्री ने खिड़की से फेंका एक सिक्का
जो लोहे के पुल से टकराकर जा गिरा नदी में
लम्बे पुल पर
जब तक दौड़ती रही रेल
यात्रियों के ज़ेहन में वह नदी बहती ही रही
जैसे ही पुल ख़त्म हुआ
खिड़की पर बैठे लड़के ने
प्रसन्न भाव से हिलाए हाथ और नदी से विदा ली
नदी उसके लिए
ईश्वर नहीं किसी दोस्त का पर्याय रही होगी!
***
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