Thursday, November 25, 2010

विकी फीवर की दो कविताएँ - चयन, अनुवाद और प्रस्तुति: यादवेन्द्र

1943 में जनमी विकी फीवर अंग्रेजी में लिखने वाली स्कॉट्लैंड की प्रमुख कवि हैं,जिन्हें स्त्री विषयक कविताओं के लिए जाना जाता है।हांलाकि लम्बे रचना काल में उन्होंने तीन कविता संग्रह ही प्रकाशित किये पर अनेक महत्वपूर्ण प्रतिनिधि कविता संचयनों में उनकी कवितायेँ शामिल की गयी हैं।विश्वविद्यालय में सृजनात्मक साहित्य पढ़ाने के दौरान उन्होंने साहित्यिक रचना प्रक्रिया और बीसवीं सदी की स्त्री कवियों पर महत्वपूर्ण निबंध भी लिखे हैं। यहाँ प्रस्तुत है विकी फीवर की दो छोटी प्रेम कवितायेँ..

छतरी

एक छतरी में साथ चलते हुए
थामना पड़ता है एक दूसरे को हमें
कमर के चारों ओर
जिस से कि साथ बना रहे...
तुम चकित हुए जा रहे हो
कि आखिर क्यों मुस्कुरा रही हूँ मैं...
सीधी सी वजह ये कि सोच रही हूँ
बारिश होती रहे यूँ ही
उम्र भर के लिए.
***

कोट

कई बार मेरी इच्छा होती है
तुम्हें वैसे ही परे झटक दूँ
जैसा किया करती हूँ मैं
भारी भरकम से कोट के साथ.
कभी कभी मैं खीझ के कह भी देती हूँ
तुम मुझे बिलकुल उस तरह से ढांप लेते हो
कि मैं सांस नहीं ले पाती
और न ही हिलना डुलना होता है मुमकिन.
पर जब मुझे मिल जाती है आज़ादी
हल्का फुल्का कपडा पहनने की
या बिलकुल ही निर्वस्त्र होने की
लगने लगती है ऐसे में मुझे ठण्ड
और मैं सोचने लगती हूँ लगातार
कि कितना गर्म होता था कोट.
***

Friday, November 19, 2010

राजेश सकलानी की एक कविता

राजेश सकलानी अत्यंत महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उम्र के लिहाज से देखें तो कुमार अम्बुज, लाल्टू, एकांत श्रीवास्तव, कात्यायनी के समकालीन बैठेंगे। हालाँकि वे उतने सक्रिय नहीं रहे और न ही उन पर पर्याप्त चर्चा हुई। उनका एक संग्रह "सुनता हूँ पानी गिरने की आवाज़" प्रकाशित है पर उपलब्ध नहीं। मुझे इसकी एक प्रति अशोक पांडे के अनुग्रह से प्राप्त हुई है। मैं इस संग्रह पर लिख भी रहा हूँ। जल्द ही अनुनाद पर राजेश जी की कुछ और कविताएँ और अपना लिखा उपलब्ध कराऊंगा। अभी प्रस्तुत है उनकी एक कविता।
उस सन तक आते हिंदी फ़िल्मों का नायक
करूणा और प्रेम का संगीत लेकर कहीं
ग़ुम हो गया

गल्ली मोहल्ले से गुज़रते उसका स्वर
रेडिओ पर सुनाई पड़ जाता

हमारा ध्यान बँटा कई चीज़ें अब
हमारे साथ नहीं हैं

ख़ास चीज़ों में दोपहरों में
सुरीलापन नहीं लगता

नगर में किसी फ़िल्म की हवा रहती
उसकी कथाओं से हम समाज में
सम्बंधित रहते
कोई गुनगुनाता कोई धुन लेकर
आगे बढ़ जाता
गाते सब मिलकर एक ही गाना

जाना मिलकर रोना हाल के अँधेरे में
हमारे कालेज का स्टंट नायक घूसों से
दुश्मन का मुंह सुजा देता
पर वह किसी को मार डालना नहीं चाहता था
पापियों के चेहरों के बारे में कई किंवदंतियाँ
रहतीं
सेंसरबोर्ड खलनायक से पराजित नहीं होता

किन्हीं दिनों का गीत गूंजता है
किसी वर्ष की साँसे
क़रीब आती हैं।
***

Wednesday, November 17, 2010

अशोक कुमार पांडे की नई कविता



मैं बेहद परेशान हूं इन दिनों
पलट डाले आलमारी में सजे सारे शब्दकोश
कितनी ही ग़ज़लों के नीचे दिये शब्दार्थ
गूगल की उस सर्वज्ञानी बार को खंगाला कितनी ही बार
अगल-बगल कितने ही लोगों से पूछ लिया बातों ही बातों में
पर यह शब्द है कि सुलझता ही नहीं

कितना सामान्य सा तो यह आमंत्रण
बस जहां होते हैं मंत्र वहां शायद अरबी में लिखा कुछ
और भी सब वैसे ही जैसे होता है अकसर
नीचे की पंक्तियों में झलक रहे कुछ व्यंजन लज़ीज़
पर इन जाने-पहचाने शब्दों के बीच वह शब्द एक ‘अबूझ’

कई दिनों बाद आज इतने याद आये बाबा
कहीं किसी विस्मृत से कोने में रखी उनकी डायरी
पाँच बेटों और पन्द्रह नाती-नतनियों में कोई नहीं जानता वह भाषा
धार्मिक ग्रंथों सी रखी कहीं धूल खाती अनछुई
होते तो पूछ ही लेता कि क्या बला है यह प्रसंग
निकाह और ख़तने के अलावा हम तो जानते ही नहीं उनकी कोई रस्म
बस इतना कि ईद में मिलती हैं सिवईंयां और बकरीद में गोश्त शानदार
इसके आगे तो सोचा ही नहीं कभी
लौट आये हर बार बस
बैठकों के जाने कितने ऐसे रहस्य उन पर्दों के पार

अभी भी तो चिन्ता यही कि न जाने यह अवसर ख़ुशी का कि दुःख का
पता नहीं कहना होगा- मुबारक़ या बस बैठ जाना होगा चुपचाप!
***

Monday, November 15, 2010

कुमार अम्बुज की डायरी




.१०.२००२

उर्वर कविताओं के अनेक डिम्ब बिखरे हैं सब तरफ़

जिज्ञासु, आतुर और श्रमशील पाठक की समझ के गतिमान शुक्राणु उसे भेद पाते हैं। बाक़ी उनसे निष्फल रूप से टकराते हैं और नष्ट होते चले जाते हैं। जो प्रवेश कर लेते हैं, उनसे मिलकर एक नया संसार बनता जाता है।

यह कला के साथ समागम है। यह संसार आपसी सर्जनात्मकता का संसार है। संवेदना और कला का जनित संसार है। यह कला का सामाजिक संसार भी है।

यह अंततः प्रेम का प्रतिफलन है।

यह छोटा-सा सुन्दर संसार अकेले कवि की पैदाइश नहीं है।
***
एक रात : १२.५० पर
(अपमानित किये जाने के क्षण के अनुभव में)

तुम चुप रहो और लिखो। अपनी बेचैनी, घबराहट, असहायता से पैदा होने वाली उम्मीद, रोज़मर्रा की चोटों, अपनी पराजयों और दिए जाने वाले धोखों को याद रखो। और लिखो। रचनाशीलता ही सबसे कठोर और निर्णायक प्रतिक्रिया है, सबसे अच्छा उत्तर। वे लोग तुम्हारे साथ हमेशा रहेंगे जो कविताएँ पढ़कर, बेचैन होकर टहलते हैं। जिनमें से अधिकांश तुमसे कभी कोई वार्तालाप नहीं कर पाते। कभी कभी जो तुम्हें कुछ शब्दों में टूटी-फूटी बातें बताते हैं। जो संख्या में बहुत कम हैं लेकिन जो तुम्हारे सामने एक व्यापक संसार के साथ प्रस्तुत हो जाते हैं। विश्वास करो, इस विशाल आकाश के नीचे यदि तुम अपने वजूद के साथ आते हो तो तुम्हारी परछाई भी एक जगह घेरती है। यह किसी की अनुकम्पा नहीं है, प्राकृतिक नियम ही है। यह अलग बात है कि यदि तुम तीतर हो, मोर हो, हिरन हो या शेर भी हो, तब भी तुम पर कुछ लोग निशाना लगायेंगे ही।

लेकिन यह भी विश्वास करो कि तुम एक जीवित, स्पंदित व्यक्ति की तरह जीवन के सामने खड़े हो, किसी रेत के ढेर की तरह हवाएं तुम्हें उड़ा कर नहीं ले जा सकतीं।
***
कथादेश, अक्टूबर २०१० से साभार।

Saturday, November 13, 2010

असद ज़ैदी की कविता


खाना पकाना

नानी ने जाने से एक रोज़ पहले कहा -
सच बात तो यह है कि मुझे कभी
खाना पकाना नहीं आया

उसकी मृत्युशैया के इर्दगिर्द जमा थे
कुनबे के बहुत से फर्द - ज़्यादातर औरतें ढेरों बच्चे -
सुनकर सब हंसने लगे
और हँसते रहे जब तक कि उस सामूहिक हंसी का उजाला
कोठरी से उसारे फिर आँगन में फैलता हुआ
दहलीज़ के रास्ते बाहर न आ गया
और कुछ देर तक बना रहा

याददाश्त धोखे भरी दूरबीन से
मुझे दिखती है नानी की अधमुंदी आँखें, तीसरे पहर का वक़्त
होठों पर कत्थे की लकीरें और एक
जानी पहचानी रहस्यमय मुस्कान

मामला जानने के लिए अन्दर आते कुछ हैरान और परेशान
मेरे मामू मेरे पिता

रसोई से आ रहा था फर - फर धुंआ
और बड़ी फूफी की आवाज़ जो उस दिन रोज़े से थीं
अरे मुबीना ज़रा कबूली में नमक चख कर बताना

वे सब अब नदारद हैं

मैंने एक उम्र गुज़ार डी लिखते
काटते मिटाते बनाते फाड़ते चिपकाते
जो लिबास पहनता हूँ लगता है आख़िरी लिबास है
लेटता हूँ तो कहने के लिए नहीं होता
कोई एक वाक्य
अँधेरे में भी आकर नहीं जुटता एक बावला कुनबा
वह चमकीली हंसी वैसा शुद्ध उल्लास !
***
आभार - पब्लिक एजेंडा

Wednesday, November 10, 2010

नरेन्द्र जैन की तीन कविताएँ

पब्लिक एजेंडा के साहित्य विशेष से मैंने पिछली पोस्ट में राजेश जोशी की कविता लगाई थी. इस बार अग्रज कवि-अनुवादक नरेन्द्र जैन की तीन कविताएँ ....पिछली बार की तरह इस बार भी कार्यकारी संपादक , साहित्य संपादक और कवि के प्रति आभार के साथ. नरेन्द्र जैन का महत्वपूर्ण नया संग्रह "काला सफ़ेद में प्रविष्ट होता है" अभी आया है, जिसकी आवरण छवि यहाँ प्रस्तुत है।


वाद्य संगीत सुनते हुए

सुनते हुए बहुत से वाद्यों का मिला-जुला स्वर
वह गीत सहसा याद आ जाता है
जिसे वाद्य बजा रहे होते हैं

हम सुनते हैं संगीत
और गीत के बोल याद करते हैं

कभी-कभी हमें बोल याद नहीं आ पाते
लेकिन संगीत बजता रहता है

हम संगीत को सुनते हुए
उन बोलों को दोहराते हैं
जिन्हें लिखा होगा किसी ने
अपनी पस्ती के आलम में


अब हमारी पस्ती का आलम है
और यह संगीत है
जहाँ हमें अपने बोल याद नहीं आ पाते
लेकिन समूचा संगीत केन्द्रित हुआ करता है
उसी विस्मृति पर
***

स्थगित यात्रा

स्थगित यात्रा के बाहर
ज़मीं पर पड़े हैं दो जूते
कालातीत वहाँ कुछ भी नहीं
न ज़मीन
न आकाश
न स्मृतियाँ
न यात्रा
दो पैरों के ठहर जाने से
काल ठहर गया है
धुरी से कहीं भटक गई है पृथ्वी

कहीं जाने के लिए यात्रा ज़रूरी नहीं
कहीं से लौटने के लिए भी यात्रा ज़रूरी नहीं
किसी यायावर का कथन है
यात्रा का एक दिन
यात्रा के बाहर के एक बरस के बराबर होता है

जूते तत्पर हैं
कोई आये
और निकल पड़े एकाएक यात्रा पर.
***

नदी

जब नदी के ऊपर से गुज़री हमारी रेल
सहसा बहुत से यात्रियों ने अपने कानों को छुआ
और नदी की ओर देख हाथ जोड़े
एक थके-हारे यात्री ने आह भरी और
नदी की ओर देख बुदबुदाया
हे माँ रक्षा करना

नदी सबसे बेख़बर
वेग से बही जा रही थी

किसी की स्मृति में नदी का तट कौंध रहा था
कोई याद कर रहा था अपनी ज़मीन
किसी यात्री ने खिड़की से फेंका एक सिक्का
जो लोहे के पुल से टकराकर जा गिरा नदी में

लम्बे पुल पर
जब तक दौड़ती रही रेल
यात्रियों के ज़ेहन में वह नदी बहती ही रही

जैसे ही पुल ख़त्म हुआ
खिड़की पर बैठे लड़के ने
प्रसन्न भाव से हिलाए हाथ और नदी से विदा ली

नदी उसके लिए
ईश्वर नहीं किसी दोस्त का पर्याय रही होगी!
***

Tuesday, November 9, 2010

राजेश जोशी की एक कविता

राजेश जोशी अपनी पीढ़ी के सर्वाधिक चर्चित कवि हैं। साधारण लोगों से जुड़ी कई असाधारण और महत्वपूर्ण कविताएँ उन्होंने लिखी हैं। अभी पब्लिक एजेंडा की साहित्य अंक में उनकी एक कविता मैंने पढ़ी और आपके पढने के लिए यहाँ लगा रहा हूँ। इस पोस्ट के लिए मैं पत्रिका के कार्यकारी संपादक मंगलेश डबराल, साहित्य संपादक मदन कश्यप और कवि का आभारी हूँ। इस अंक से और भी कविताएँ मैं अनुनाद पर आपके लिए लाऊंगा।

बिजली का मीटर पढ़ने वाले से बातचीत

बाहर का दरवाज़ा खोल कर दाखिल होता है
बिजली का मीटर पढ़ने वाला
टार्च की रोशनी डाल कर पढ़ता है मीटर
एक हाथ में उसके बिल बनाने की मशीन है
जिसमें दाखिल करता है वह एक संख्या
जो बताती है कि
कितनी यूनिट बिजली खर्च की मैंने
अपने घर की रोशनी के लिए

क्या तुम्हारी प्रौद्योगिकी में कोई ऐसी हिकमत है
अपनी आवाज़ को थोड़ा -सा मजाकिया बनाते हुए
मैं पूछता हूँ
कि जिससे जाना जा सके कि इस अवधि में
कितना अँधेरा पैदा किया गया हमारे घरों में?
हम लोग एक ऐसे समय के नागरिक हैं
जिसमें हर दिन महँगी होती जाती है रोशनी
और बढ़ता जाता है अँधेरे का आयतन लगातार
चेहरा घुमा कर घूरता है वह मुझे
चिढ कर कहता है
मैं एक सरकारी मुलाजिम हूँ
और तुम राजनीतिक बकवास कर रहे हो मुझसे!

अरे नहीं नहीं....समझाने की कोशिश करता हूँ मैं उसे
मैं तो एक साधारण आदमी हूँ अदना -सा मुलाजिम
और मैं अँधेरा शब्द का इस्तेमाल अँधेरे के लिए ही कर रहा हूँ
दूसरे किसी अर्थ में नहीं
हमारे समय की यह भी एक अजीब दिक्क़त है
एक सीधे-सादे वाक्य को भी लोग सीधे-सादे वाक्य की तरह नहीं लेते
हमेशा ढूँढने लगते हैं उसमें एक दूसरा अर्थ

मैं मीटर पढ़ने निकला हूँ महोदय लोगों से मज़ाक करने नहीं
वह भड़क कर कहता है
ऐसा कोई मीटर नहीं जो अँधेरे का हिसाब-किताब रखता हो
और इस बार तो बिजली दरें भी बढा दीं हैं सरकार ने
आपने अख़बार में पढ़ ही लिया होगा
अगला बिल बढ़ी हुई दरों से ही आएगा

ओह ! तो इस तरह लिया जायेगा इम्तिहान हमारे सब्र का
इस तरह अभ्यस्त बनाया जायेगा धीरे-धीरे
अँधेरे का
हमारी आँखों को

पर ज़बान तक आने से पहले ही
अपने भीतर दबा लिया मैंने इस वाक्य को

बस एक बार मन ही मन दोहराया सिर्फ़!
***

Thursday, November 4, 2010

नैनीताल में दीवाली- वीरेन डंगवाल


ताल के ह्रदय बले
दीप के प्रतिबिम्ब अतिशीतल
जैसे भाषा में दिपते हैं अर्थ और अभिप्राय और आशय
जैसे राग का मोह

तड-तड़ाक-तड-पड़-तड-तिनक-भूम
छुटती है लड़ी एक सामने पहाड़ पर
बच्चों का सुखद शोर
फिंकती हुई चिनगियाँ

बग़ल के घर की नवेली बहू को
माँ से छुप कर फुलझड़ी थमाता उसका पति
जो छुट्टी पर घर आया है बौडर से.
***
अनुनाद के सभी पाठकों को दीवाली की मुबारकबाद.

Tuesday, November 2, 2010

अयोध्या मुद्दे पर एक बात : जिसका कोई ज़िक्र नहीं रपट में

स्त्री का कंकाल
(लीलाधर मंडलोई की एक कविता)

खुदाई में
न माया मिली
न राम

मिला स्त्री का कंकाल
राम के ज़माने का
जिसका कोई ज़िक्र नहीं रपट में

***
(चित्र गूगल से साभार)

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