
आज मोचग्रस्त है उन पांवों में से एक पांव
कुछ बरस पहले
जो दाखिल हो गए थे मेरे जीवन में
प्रेम की पहली बारिश से तर भीतर की गाढ़ी मिट्टी पर
छप्प....से
छोड़ते हुए
अपने होने की भरपूर छाप
दरअसल इससे पहले भी बरसों इन्होने मेरा पीछा किया
बहुत धूल उड़ती थी तब मेरे भीतर
संकल्पों की चट्टानें टूटने की हद तक तपती थीं
ज्वालामुखियों-से
जब तब फूट पड़ते थे
मन के पठार
दिनों-दिन क्षीण होती जाती थी
जीवन की जलधार
उन दिनों मैं नहीं देख पाता था अपने ही बनाए
एक प्रतिरोधी
और प्रतिहिंसक संसार के पार
मेरे आगे उड़ते रहते थे
धुंए के ग़ुबार
उस आग के पीछे-पीछे ही
शीतल बौछारों से भरा एक बवण्डर लिए
आते थे दो पांव
एक दिन अचानक मैंने देखा इन्हें क़रीब आते
ये बहुत गोरे-पतले और सुन्दर थे
लेकिन
एक अजीब-सी चमक और ताक़त भी दिखती थी इनमें
बहुत ध्यान से देखने पर
मै लगभग बेबस था इनके आगे
प्रेम के इस औंचक आगमन की हैरत से भरा और बहुत ख़ुश
दरअसल मुझे बेबस होना ही अच्छा लगा
देखता हूँ आज
कितने बरसों और कितनी जोखिमभरी यात्राओं की थकान है
प्यारी
कि टिक नहीं पा रहा धरती पर तेरा यह सूजा हुआ पांव
मेरे जीवन के बीहड़ में चलकर भी
लगातार
मुझको साध न सकने की पीड़ा से भरा
बेवक़्त ही इस पर दीखते हैं नीली नसों के जाल
अपनी इस अविगत गति से डरा मैं
बेहद शर्मिन्दा-सा बुदबुदाता हूँ
कि अब
ज़रूर कुछ न कुछ करूंगा और कुछ नहीं तो कम से कम
आगे की लम्बी और ऊबड़-खाबड़ यात्रा में
धीरे ही चलूँगा
पीड़ा और चिन्ता को आंखों तक भरकर
अपलक
ताकती
मुझको
वह सोचती है शायद - क्या सचमुच
मैं कुछ करूंगा ?
और अगर धीरे ही चला तो तेज़ी से भागती इस दुनिया में
कितनी दूर चलूँगा?
सोचता हूँ मैं
क्यों बनाते हैं इतनी दूर हम मंज़िलें अपनी
जो सदा ओझल ही रहती हैं
अपने आसपास को भूल देखते हैं स्वप्न झिलमिलाते ऐसे मानो जीवन और भी हो कहीं
ब्रह्माण्ड में
कई-कई आकाशगंगाओं के पार
क्यों तय कराते हैं खुद को इतने लम्बे फासले
किसी भी क़ीमत पर
क्यों हो जाते हैं उतावले
कहलाने को क़ामयाब
जबकि
क़ामयाबी ही सबसे कमीनी चीज़ है इस धरती पर
जिसका सबूत
फिलहाल
कुल इतना है मेरे पास -
ख़ुद को छुपा पाने में विफल
अब मेरे हाथों में आने से भी डरता
कांपता
झिझकता
मुश्किलों के ठहर चुके
जमे हुए
गाढ़े - नीले रक्त से भरा तेरा
मोचग्रस्त
यह पांव !
२००७
***
पृथ्वी पर एक जगह से
Hridaygrahi kvita. dhanyawad...
ReplyDeleteshirih bhai, kavita behad pasand aayi. Na jaane kyon isey padhte hue mujhe baar baar Muktiboth yaad aate rahe.
ReplyDelete# महेन, मुक्ति बोध हमारी और आने वाली पीढ़ियों को रह रह कर याद आते रहेंगे.
ReplyDeleteशिरीष, यार मुझ को भी पृथ्वी पर स्थित वह जगह भिजवा दो न एक !
सुंदर!
ReplyDeleteshrish jee
ReplyDeletenamaskar !
behad sunder hai aap ki ye rachna , badhai !
sadhwad!
संग्रह में भी पढ़ी...बार-बार पढ़ी- इस बार भी पढ़ी- जितनी बार पढ़ी उतनी नई लगी....
ReplyDeletebahut hi sunder kavita...
ReplyDeleteShayad kai kavitaayen padhne ke baad aisa laga ki sachmuch kuch Maulik padha....
:)