Saturday, October 9, 2010

पंकज चतुर्वेदी की तीन कविताएँ

पंकज चतुर्वेदी कल कुमाऊं विश्वविद्यालय के एकेडेमिक स्टाफ कालेज में चल रहे हिंदी के रिफ्रेशर कोर्स में हिंदी आलोचना पर व्याख्यान देने आये और मेरे आग्रह पर अनुनाद के लिए तीन कविताएँ भी दे गए, जिन्हें यहाँ लगा रहा हूँ।

एक खो चुकी कहानी

क्या तुम्हें याद है
अपनी पहली रचना
एक खो चुकी कहानी
जो तुमने लिखी
जब तुम नौ-दस साल के थे
वही कोई सन् अस्सी-इक्यासी की बात है

तुम्हारे पिता यशपाल पर
शोध कर रहे थे
और कभी-कभार समूचे परिवार को
उनकी कुछ कहानियां सुनाते थे
शायद उसी से प्रभावित होकर
तुमने वह कहानी लिखी
जिसमें एक चोर का पीछा करते हुए
गांववाले उसे पकड़ लेते हैं
गांव के बाहर एक जंगल में
उसे पीटते हैं
और इस हद तक
कि आख़िर
उसकी मौत हो जाती है

तब क्या तुम्हें याद है
कि एक दिन घर में आये
बड़े मामा के बेटे
अपने सुशील भाईसाहब को
जब तुमने वह कहानी दिखायी
उन्होंने तुम्हारा मन रखने
या हौसला बढ़ाने के मक़सद से कहा :
अरे, इसका अन्त तो बिलकुल
यशपाल की कहानियों जैसा है

आज जब इस घटना को
लगभग तीस साल बीत गये
क्या तुम्हें नहीं लगता
कि देश-दुनिया के हालात ऐसे हैं
कि गांव हों या शहर
चोर कहीं बाहर से नहीं आता
वह हमारे बीच ही रहता है
काफ़ी रईस और सम्मानित
उसे पकड़ना और पीटना तो दूर रहा
हम उसकी शिनाख़्त करने से भी
बचते हैं
***

टैरू

कुछ अरसा पहले
एक घर में मैं ठहरा था

आधी रात किसी की
भारी-भारी सांसों की आवाज़ से
मेरी आंख खुली
तो देखा नीम-अंधेरे में
टैरू एकदम पास खड़ा था
उस घर में पला हुआ कुत्ता
बॉक्सर पिता और
जर्मन शेफ़र्ड मां की सन्तान

दोपहर का उसका डरावना
हमलावर भौंकना
काट खाने को तत्पर
तीखे पैने दांत याद थे
मालिक के कहने से ही
मुझको बख़्श दिया था

मैं बहुत डरा-सहमा
क्या करूं कि यह बला टले
किसी तरह हिम्मत करके
बाथरूम तक गया
बाहर आया तो टैरू सामने मौजूद
फिर पीछे-पीछे

बिस्तर पर पहुंचकर
कुछ देर के असमंजस
और चुप्पी के बाद
एक डरा हुआ आदमी
अपनी आवाज़ में
जितना प्यार ला सकता है
उतना लाते हुए मैंने कहा :
सो जाओ टैरू !

टैरू बड़े विनीत भाव से
लेट गया फ़र्श पर
उसने आंखें मूंद लीं

मैंने सोचा :
सस्ते में जान छूटी
मैं भी सो गया
सुबह मेरे मेज़बान ने
हंसते-हंसते बताया :
टैरू बस इतना चाहता था
कि आप उसके लिए गेट खोल दें
और उसे ठण्डी खुली हवा में
कुछ देर घूम लेने दें

आज मुझे यह पता लगा :
टैरू नहीं रहा

उसकी मृत्यु के अफ़सोस के अलावा
यह मलाल मुझे हमेशा रहेगा
उस रात एक अजनबी की भाषा
उसने समझी थी
पर मैं उसकी भाषा
समझ नहीं पाया था
***

संवाद

मेरा एक साल का बच्चा
रास्ते में मिलनेवाली
हर गाय, भैंस, कुत्ता
बकरी और सूअर को
कितने प्यार, उत्कंठा
और सब्र से
`बू.....आ´, `बू....आ´
कहकर पुकारता है
वह कितनी ममता से चाहता है
वे उससे बात करें

मैं एक लाचार दुभाषिये की मानिन्द
दुखी होता हूं

मैं उसे कैसे समझाऊं
वे बोल नहीं सकते

वे अक्सर अपने में मशगूल रहते हैं
कोई कुत्ता कभी विस्मय से
उसे निहारता है
कोई गाय भीगी आंखों से
उसे देख-भर लेती है

तब मुझे उसकी ललक
अच्छी लगती है
जो दरअसल यह बताती है
कि संवाद
हर सूरत में
सम्भव है
***

-------------------
फ़ोन-(0512)-2580975
मोबाइल-09335156082

9 comments:

  1. पंकज की ये कविताएं अच्‍छी और मार्मिक तो लगीं। पर यह भी लगा जैसे उन्‍हें इन पर अभी काम करना बाकी है। माफ करें आप भी और पंकज भी,जल्‍दबाजी में दी गई कविताएं लगती हैं।

    ReplyDelete
  2. तब मुझे उसकी ललक
    अच्छी लगती है
    जो दरअसल यह बताती है
    कि संवाद
    हर सूरत में
    सम्भव है
    .........
    सुंदर !!!

    ReplyDelete
  3. संवाद
    हर सूरत में
    सम्भव है


    सच है

    ReplyDelete
  4. मुझे पंकज जी की ये कविताएँ बहुत पसंद आयीं. उत्साही जी बात से मैं सहमत नहीं हूँ. मुझे लगता है कविता पर काम करना लेख पर काम करने जैसा नहीं होता, ज्यादा काम करने से कविता उजड़ भी सकती है- वह जैसी कवि के मन में आई, वैसी ही अच्छी होती है. पंकज जी की कविताओं में एक बात और दिखती है, उनका गृहस्थ जीवन इनमें आता है. मैंने देखा है बड़े बड़े कवि उसे कविता में छुपाते हैं पर जितना मैंने पढ़ा है उसके आधार पर कह सकती हूँ कि चंद्रकांत देवताले नहीं छिपाते, वीरेन डंगवाल नहीं छुपाते, नए लोगों में शिरीष जी की कविताओं में वह बहुत आता है, पंकज जी भी उसे स्वर देते हैं जो घर की चौखट में कहीं छुपा रहता है- बच्चे वाली कविता ऐसी कविता है.

    ReplyDelete
  5. वास्तव में हम सब लाचार दुभाषिये ही हैं। बेहद सधी हुई कविताएँ ... एक-एक पंक्ति इंगित की ओर जाती हुई !

    ReplyDelete
  6. पंकज भाई आपको इन कवि‍ताओं के लि‍ए बधाई । कवि‍ता की दुनि‍या में लंबी डूबकी केबाद आज नजर आए है । कवि‍ताओ में सुलझाव है । बात को कहने का ढंग गंभीर और जीवन की बातें जि‍स तरह चुटकुलों की तरह कही या समझी नहीं जाती / नहीं कही या समझी जानी चाहि‍ए । पंकज की कवि‍ताएं जीपन की बातों के साथ वैसा ही सलूक करती है । कवि‍ताओं में ऐसा गंभीर और वि‍श्‍वस्‍नीय स्‍वर बहुत कम हो रहा है । पेकज को इन अच्‍छी रचनाओं के लि‍ए शुभकामनाएं ।

    ReplyDelete
  7. सहजता से बताते है आज के चोर के बारे में ,हमारी कायरता ,विवशता के बारे में कि अपने अस्तित्व को लेकर संदेह होने लगता है ,,,,,,,संवाद हर हाल में हों सकता है ,,,,शुक्रिया पंकजजी कि कविताओं के लिए आपका .

    ReplyDelete
  8. वर्तमान समय की परतों को उखेड़कर सामने रखने वाली इन कविताओं के लिए पंकज चतुर्वेदी को, बधाई। आपको भी,सुन्दर कविताओं से अवगत कराने के लिए। साथ ही एक शिकायत भी- आप कहाँ थे मौर्यजी ? मैं 2 रात 3 दिन(9,10,11 अक्टूबर) नैनीताल में रहा। आपको निरन्तर फोन करता रहा। आपको ई मेल भी किया। रानीखेत और कौसानी घूमकर आज 13 अक्टूबर को घर वापस आ गया हूँ। न ही आपका ई मेल आया न ही आपका कोई फोन आया। अब इसे क्या कहूँ। यह कवियों की दुनिया या कुछ और ? शैलेय भाई से बात हुई थी उनसे मिलना नहीं हो सका ,उनसे क्षमा चाहता हूँ।

    ReplyDelete

यहां तक आए हैं तो कृपया इस पृष्ठ पर अपनी राय से अवश्‍य अवगत करायें !

जो जी को लगती हो कहें, बस भाषा के न्‍यूनतम आदर्श का ख़याल रखें। अनुनाद की बेहतरी के लिए सुझाव भी दें और कुछ ग़लत लग रहा हो तो टिप्‍पणी के स्‍थान को शिकायत-पेटिका के रूप में इस्‍तेमाल करने से कभी न हिचकें। हमने टिप्‍पणी के लिए सभी विकल्‍प खुले रखे हैं, कोई एकाउंट न होने की स्थिति में अनाम में नीचे अपना नाम और स्‍थान अवश्‍य अंकित कर दें।

आपकी प्रतिक्रियाएं हमेशा ही अनुनाद को प्रेरित करती हैं, हम उनके लिए आभारी रहेगे।

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails