
मैं रात, मैं चाँद, मैं मोटे कांच
का गिलास
मैं लहर ख़ुद पर टूटती हुई
मैं नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल
मैं नींद, मैं अनिद्रा, कुत्ते के रूदन में
फैलता अपना अकेलापन
मैं चाँदनी में चुपचाप रोती एक
बूढी ठठरी भैंस
मैं इस रेस्टहाउस के ख़ाली
पुरानेपन की बास
मैं खपरैल, मैं खपरैल
मैं जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार
मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढा केदार।
***
का गिलास
मैं लहर ख़ुद पर टूटती हुई
मैं नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल
मैं नींद, मैं अनिद्रा, कुत्ते के रूदन में
फैलता अपना अकेलापन
मैं चाँदनी में चुपचाप रोती एक
बूढी ठठरी भैंस
मैं इस रेस्टहाउस के ख़ाली
पुरानेपन की बास
मैं खपरैल, मैं खपरैल
मैं जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार
मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढा केदार।
***
मैं नींद, मैं अनिद्रा, कुत्ते के रूदन में
ReplyDeleteफैलता अपना अकेलापन
बढिया कविता ..........
खुद का अक्स ऐसे भी देखा जा सकता है....amazing
ReplyDeleteमैं रात, मैं चाँद, मैं मोटे कांच
ReplyDeleteका गिलास
............
कितने सारे अर्थ !!!!!
मैं कम बूढ़ा केदार.
ReplyDeleteसाखीकबीरा पर कविता की पंक्तियॉं पढ़ चला आया, ऐसी और कवितायें कहॉं हैं। लगता है जैसे किसी ने मोतीजड़े लाल बटुए की डोर खींच उसमें रखे जवाहरात कीझलक भर दी है।
ReplyDeleteइस प्रस्तुति के लिए बधाई !
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